धर्म का सैद्धांतिक पक्ष
आज अनेकों मतों और सम्प्रदाओं में बंटे हमारे समाज में जीवन के कुछ मूलभूत प्रश्नों के सम्बन्ध में कुछ भ्रान्तिपूर्ण विचार घर कर गए हुए हैं। जैसे दसवीं तक के विद्यार्थियों को भूगोल, इतिहास आदि विषयों की भी मौलिक जानकारीयां दी जाती हैं चाहे, भविष्य में इन विषयों को चुनने की उनकी कोई योजना न हो। ठीक वैसे ही, प्रत्येक व्यक्ति को मानव – धर्म सम्बन्धित मौलिक जानकारियां होनी ही चाहिए।
हमें यह भी समझना होगा कि विभिन्न सिद्धांतों को जानने व समझने का उद्देश्य, मात्र बैद्धिक अथवा मानसिक सन्तुष्टि को प्राप्त करना नहीं है, बल्कि, अपने व्यवहार को पुष्ट करना होता है। यदि, किसी सिद्धान्त को जानकर हमारे व्यवहार में उच्चता नहीं आ पाती, तो यह निश्चित है कि हमारा उस सिद्धान्त को जानना निरर्थक है। हमारे व्यवहार से यह झलकना चाहिए कि कैसे किसी सिद्धान्त को समझ कर किए गए व्यवहार व उस सिद्धान्त को जाने बिना किए गए व्यवहार में अन्तर होता है।
यहाँ, दिए गए मूलभूत प्रश्नों के सम्बन्ध में अपनी गलत अवधारणायों के कारण व्यक्ति बहुत दुख पाता है और यह समझ नहीं पाता कि धार्मिकता उसे सांसारिक कार्यों को करने में कैसे मदद कर सकती है। इन प्रश्नों का सही-सही उत्तर पता होने पर हम अपने समाज को मतों और सम्प्रदायों में बंटने देने के स्थान पर उसे एकजुट कर पाएंगे। समाज को एकजुट करने का एक मात्र साधन सत्य व अभ्रान्तिपूर्ण विचार ही हैं। यहाँ, दिए जा रहे विचार हमारे माता-पिता, सगे-सम्बन्धियों, रिश्तेदारों, मित्रों और आज के समाज की मान्यतायों के विरुद्ध हैं। इसलिए जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के आरम्भ से लेकर अबतक विपरीत विचारों के प्रति समर्पण दिखाया है, उसके लिए ऐसे विचारों में श्रद्धा रख पाना अत्यन्त कठिन है, परन्तु असम्भव नहीं। हमारी आस्था किसी व्यक्ति वा समुदाय के विचारों के प्रति न होकर केवल सत्य के प्रति होनी चाहिए। हमारी यही इच्छा होनी चाहिए कि हम वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को समझ सकें।
आज समाज में ऐसी कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं जो एक जगह इन सब प्रश्नों का उत्तर दे सके। मेरी इस कृति का उद्देश्य इन मूलभूत प्रश्नों के सम्बन्ध में सत्य पर आधारित जानकारियों को एक जगह एकत्र करना है।
अब प्रश्न उठता है कि इस की क्या निश्चितता अर्थात Surety है कि दिए गए उत्तर, जो कि आज के समाज की मान्यतायों के विरुद्ध हैं, ही सही हैं। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर में दिए गए सभी विचार एक दूसरे के पूरक अर्थात Supplement हैं, जिसे हम अपनी विश्लेषणात्मक अर्थात Analytical बुद्धि से जान सकते हैं।
नीचे दिए गए मौलिक सिद्धांतों को जाने व माने बिना वैदिक वाङ्गमय की मूल भावना को नहीं समझा जा सकता। आइए, हम मिलकर इस ओर कदम बढ़ाएं।
हमारे जीवन के कुछ मूलभूत (मौलिक) प्रश्न
1. हमारे जीवन का ध्येय क्या है?
– क्या बुद्धियों के स्तर में अन्तर होने से ईश्वर को जानने में बाधा उत्पन्न होती है?
– किसी विषय को सही-सही जानने के लिए किन चीज़ों की आवश्यकता होती है?
– तर्क और श्रद्धा क्या हैं व उनमें क्या सामंजस्य है?
3. जानने योग्य सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है ?
– इस संसार में कौन-कौन सी वस्तुओं व विषयों का ज्ञान जानने योग्य है?
– ईश्वर को जानना क्यों आवश्यक है?
– ईश्वर की उपासना का तरीका व उसका लाभ क्या है?
– स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पूजा का अर्थ क्या है?
– ईश्वर के मुख्य नाम कौन कौन से हैं?
– ईश्वर के मुख्य गुण कौन कौन से हैं?
– जड़ पदार्थों की पूजा से क्या हानि है?
– ईश्वर क्या सब कुछ कर सकता है? ईश्वर क्या अन्याय भी कर सकता है?
– ईश्वर के कर्म कौन-कौन से हैं?
5. हमारे शरीर की सभी क्रियाएं किस सत्ता के कारण से सम्भव होती हैं?
6. क्यों जीवात्मा को विकलांग व रोगी शरीर में आना पड़ता है?
7. क्या कोई शक्ति जीवात्मा के ऊपर भी है?
8. किसी विषय की सत्यता व असत्यता का अर्थ क्या है?
10. विज्ञान क्या प्रयोगशालाओं तक ही सीमित है? विज्ञान की क्या परिभाषा है?
– क्या आधुनिक विज्ञान भी ईश्वर की सत्ता को मानता है?
11. पुनर्जन्म मानने का वैज्ञानिक आधार क्या है?
– आर्यों के क्या सिद्धान्त हैं?
– क्या आर्य कोई भी मनुष्य बन सकता है?
13. अष्टांग योग क्या है व इसकी भिन्न-भिन्न सीढि़यां कौन-कौन सी हैं?
– उपासना क्या है व योग में इसका क्या स्थान है?
– ज्ञान योग, कर्मयोग व भक्तियोग क्या हैं?
– क्या धर्म और विज्ञान अलग-अलग हैं?
– धार्मिकता में किन तीन चीजों का समावेश होता है?
– अध्यात्मिकता और धार्मिकता में क्या अन्तर होता है?
– किसी व्यक्ति को किन लक्षणों के आधार पर धार्मिक कहा जा सकता है?
– क्या धर्म परिवर्तन सम्भव है?
– प्रायश्चित क्या है? क्या बुरे कर्मों के फल को नष्ट या कम किया जा सकता है?
– संकटकाल में संकट से बचने के लिए की गई प्रार्थना से क्या ईश्वर विशेष ज्ञान-विज्ञान देता है?
– कर्मफल सिद्धान्त से सम्बंधित कुछ विशेष टिप्पणियां
– क्या सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है?
– रचना के लिए आवश्यक कौन-कौन सी वस्तुएं होती हैं?
17. आर्ष ग्रन्थ किन्हें कहते है व वे कौन-कौन से है?
20. ‘स्वतंत्रता’ किसे कहते हैं व ‘परतन्त्रता’ कब उचित होती है?
21. सामाजिक मर्यादाओं को पालना हर समाज के लिए क्यों आवश्यक है?
22. संस्कृति और सभ्यता में क्या सम्बन्ध है?
– संक्षेप में भारतीय संस्कृति से हमारा क्या अभिप्राय है?
23. क्या हमारे ग्रन्थों में प्रक्षेप हैं?
24. भाग्य क्या है व इसका हमारे जीवन में क्या योग है?
– भविष्य को क्या जाना जा सकता है?
– भविष्य तो अटल है फिर उसकी जानकारी से हमें क्या लाभ हो सकता हैं?
– ज्योतिष क्या केवल भविष्य जानने के ज्ञान का नाम है?
25. धन का क्या महत्व है व इसका क्या-क्या उपयेाग है?
– क्या अधिक धन और स्मृद्धि की इच्छा करना गलत है?
26. हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए। हमें बेईमानी, धोखा और लालच नहीं करना चाहिए, लेकिन क्यों?
27. सफलता मापने के लिए कौन सा मापदण्ड उचित है?
28. त्याग से हमारा क्या अभिप्राय है?
– ‘त्याग’ और ‘तप’ में क्या सम्बन्ध है?
30. सन्ध्या क्या है?
31. हवन क्या है?
– मन्त्र पाठ क्यों किया जाता है?
33. क्या पौधों में वास्तव में जीवन होता है?
34. मांस व अण्डा क्यों अभक्ष्य हैं?
अब
आशा है कि इतना पढ़ने अथवा सुनने के पश्चात साईट के आरम्भ में कही गई लोगों में प्रचलित अवधारणाओं का बौद्धिक उत्तर प्राप्त हो गया होगा। फिर भी उनके उत्तर संक्षेप से नीचे दिए जा रहे है-
अवधारणा– सभी धर्म एक समान हैं।
उत्तर– धर्म अनेक नहीं एक ही होता है, जिसे मानव-धर्म भी कहा जाता है।
अवधारणा– हमें सभी धर्मों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
उत्तर– क्योंकि धर्म एक ही होता है, इसलिए सही भावना भी एक ही होती है।
अवधारणा– हमें किसी भी धर्म की आवश्यकता नहीं। हमें बस अपनी सोच को सकारात्मक रखते हुए दूसरों के प्रति दुर्भावना छोड़ देनी चाहिए।
उत्तर– मानवता मनुष्य का अभिन्न अंग है। धर्म के वास्तविक मायनों को समझे बिना हम मनुष्य नहीं, पशु हैं। धर्म को जानने के बाद हमारी सोच अपने आप सकारात्मक हो जाती है और हम दूसरों के प्रति दुर्भावना नहीं रख पाते। लेकिन, यह आवश्यक नहीं कि जो व्यक्ति सकारात्मक सोच रखता है और जिसके दिल में दूसरों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं, वह व्यक्ति धर्म के मर्म को समझने वाला ही हो।
अवधारणा– मन की शान्ति के लिए आध्यात्मिकता की तरफ झुकाव में कोई बुराई नहीं। आध्यात्मिकता के नाम पर प्रतिदिन मन्दिर आदि जाना, भिन्न-भिन्न उपवास रखना, ज्योतिषियों के पास जाना और भिन्न-भिन्न पुराणों की कथाओं का श्रवण करना पर्याप्त है।
उत्तर– मन की स्थायी शान्ति के लिए वास्तविक आध्यात्मिकता की तरफ झुकाव आवश्यक है और उसके लिए आध्यात्मिकता के नाम पर प्रचलित कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं।
अवधारणा– विदेशी हर मामले में हमसे बेहतर हैं। सभी वैज्ञानिक अविष्कार विदेशियों ने ही किये हैं। विदेशियों के व्यवहार में धर्म के नाम पर किसी भी तरह का पाखंड व अंध-विश्वास नहीं है। खासकर यूरोपियन देशों ने हमसे बहुत अधिक भौतिक उन्नति की है। हमारी घटिया व्यवस्थाओं का कारण हमारे पूर्वज ही हैं, आदि आदि
उत्तर– इसके उत्तर में इससे पहले दी गई सामग्री ‘आज की व्यवस्थाएं और वैदिक व्यवस्थाएं- एक तुलनात्मक अध्ययन’ पढ़ अथवा सुन लेना प्रयाप्त है।
हमारी धार्मिकता की कसौटी आर्यत्व के सिद्धान्तों के अनुरूप हमारा आचरण है। हम उतना-उतना धार्मिक होते हैं, जितना-जितना हमारा आचरण आर्यत्व के सिद्धान्तों के अनुरूप होता है। यदि हम इन उत्तरों के अनुरूप आचरण नहीं करते, तो ये उत्तर बौद्धिक व्यायाम से अधिक नहीं हैं।