हम क्यों माने कि पुनर्जन्म होता है अर्थात पुनर्जन्म मानने का वैज्ञानिक आधार क्या है?

इस बात को जनाने के लिए हम दो पक्ष बना लेते हैं- एक पक्ष, जो मानता है कि पुनर्जन्म होता है, दूसरे पक्ष से तीन प्रश्न करेगा। अपने उत्तरों से ही दूसरे पक्ष को मानना पड़ेगा कि पुनर्जन्म होता है।

पहले पक्ष का पहला प्रश्न- कर्म पहले होता है या उसका फल पहले मिलता है?

दूसरे पक्ष का उत्तर- कर्म पहले होता है और उसका फल उस कर्म के करने के पश्चात मिलता है।

पहले पक्ष का दूसरा प्रश्न- क्या यह शरीर हमें मुफ़्त में मिला है? यदि नहीं, तो कर्मों के इलावा हमारे पास क्या है इनकी कीमत चुकाने को? 

 दूसरे पक्ष का उत्तर- यह शरीर हमें मुफ़्त में नहीं मिला है और हमारे पास इसकी कीमत चुकाने को हमारे कर्मों के इलावा ओर कुछ भी नहीं है।

पहले पक्ष का तीसरा प्रश्न- यदि हमें यह शरीर अपने कर्मों से इसकी कीमत चुकाने के पश्चात ही मिला है और कर्मों का फल उनके करने के पश्चात ही मिलता है, तो जिन कर्मों के बदले में हमें यह शरीर मिला वे कब किए गए?

दूसरे पक्ष का उत्तर- इस शरीर के मिलने से पहले के शरीरों में।

इस तरह प्रश्न उत्तर के माध्यम से पुनर्जन्म को मानना अत्यन्त तर्कसंगत लगता है।

एक दूसरे तरीके से भी हम पुनर्जन्म को समझ सकते हैं।

व्यवहार में लेना-देना तो होता ही है। उचित मात्रा में व उचित रीति से व्यवहार में लेना-देना न्याय कहाता है। न्याय एक गुण है, जो जितना-जितना किसी आत्मा में होता है, उतना-उतना वह आत्मा श्रेष्ठ माना जाता है। परमात्मा, जो सब आत्माओं का नियन्ता है न्याय के गुण से ओत-प्रोत है। परमात्मा को न्याय का भण्डार माना जाता है, तो ऐसा तो हो नहीं सकता कि परमात्मा ने बिना किसी कारण के अथवा बिना उचितता अनुचितता का विचार किए किसी आत्मा को तो चूहे का शरीर दे दिया हो और किसी अन्य आत्मा को मनुष्य का शरीर। अब प्रश्न उठता है कि किसी आत्मा ने वो कर्म कब किए, जिनके कारण उसे चूहे या मनुष्य का शरीर मिला? इस प्रश्न का उत्तर पुनर्जन्म को माने बिना नहीं दिया जा सकता।