आज की व्यवस्थाएं और वैदिक व्यवस्थाएं एक तुलनात्मक अध्ययन

आज की व्यवस्थाएं

-आज शिक्षा न्याय, भेषज (medicine) आदि से संबद्ध कोई भी व्यवस्था हमारी अपनी संस्कृति के अनुरूप नहीं है, बल्कि, ये सभी व्यवस्थाएं अंग्रेजी तंत्र की देन हैं। अब प्रश्न उठता है कि यदि, ये व्यवस्थाएं अंग्रेजी तंत्र की देन हैं भी, तो, इनमें गलत क्या है और हमें इन्हें बदलने की क्या आवश्यकता है? हमारे ऋषियों द्वारा दी शिक्षा, न्याय, भेषज आदि से सम्बद्ध सभी व्यवस्थाएं बड़ी उच्च कोटि की हैं।

हमारे ऋषियों द्वारा दी व्यवस्थाओं और अंग्रेजों द्वारा दी व्यवस्थाओं की तुलना के लिए आवश्यक है कि हम अपने ऋषियों द्वारा दी व्यवस्थाओं को भी जानें और उसके बाद निर्णय करें कि कौन सी व्यवस्थाएं हमारे लिए अधिक लाभकारी हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं का ध्येय हमें इस प्रकार नियंत्रित करना होता है कि हम अपनी व्यैक्तिक उन्नति के साथ-साथ अपने समाज की भी उन्नति का कारण बनें। हम दो प्रकार से नियंत्रित होते हैं। पहला प्रकार तो है, स्वानुशासन द्वारा स्वयं नियंत्रित होना और दूसरा प्रकार है, दण्ड के भय से अपने व्यवहार को नियंत्रित करना। आज की व्यवस्थाएं स्वानुशासन को सर्वथा छोड़, दण्ड के भय से ही दूसरों के अनुचित व्यवहारों को नियंत्रित करने पर केंद्रित हैं। स्वानुशासन धर्म के द्वारा सीखा जाता है, परन्तु धर्म को आज की व्यवस्थाओं में सिरे से नकार दिया गया है। वर्त्तमान दण्ड-प्रणाली में भी बहुत दोष हैं। एक तो यह सुनिश्चित नहीं किया जाता कि कोई व्यक्ति अनुचित व्यवहार करके दण्ड से बच न पाए। दूसरे दण्ड-प्रणाली की व्यापकता और कठोरता में बहुत भेद है। हमारे ऋषियों द्वारा सुझाई व्यवस्थाओं में व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करने वाले दोनों पहलुओं पर पूर्ण रूप से विचार किया गया है।    

  -समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए, अपने ऋषियों द्वारा दी शिक्षा, न्याय, भेषज आदि व्यवस्थाओं का आलम्बन आवश्यक है। अंग्रेजों द्वारा दी ये व्यवस्थाएं समाज को सही दिशा देने में असमर्थ हैं। हमारे ऋषियों द्वारा दी व्यवस्थाओं के कारण ही हम महाभारत के काल तक विश्व गुरु रहे हैं। जबकि, अंग्रेजों द्वारा दी व्यवस्थाएं सामाजिक कुरीतियों को बढ़ाने वाली साबित हुईं हैं। एक ध्यान देने योग्य विचित्र बात यह है कि सामाजिक व्यवस्थाओं में स्थायी परिवर्तन तभी सम्भव है, जब हम सही से व्यैक्तिक मर्यादायों की पालना करें। और व्यैक्तिक मर्यादायों की सही से पालना करने के लिए हमें अपनी संस्कृति को जानना व अपनाना बेहद आवश्यक है।

-कुछ लोगों का मानना है कि क्योंकि, सामाजिक व्यवस्थाओं में स्थायी परिवर्तन राजतन्त्र द्वारा ही सम्भव है, इसलिए, व्यक्ति का इस संबंध में किसी भी तरह का कोई भी योगदान नहीं हो सकता। राजतंत्र का हिस्सा कहे जाने वाले व्यक्ति भी हमारे द्वारा निर्मित समाज से ही निकल के आते हैं। जैसे हम लोग होंगे, वैसे ही लोग राजतंत्र का हिस्सा बनेंगे। यदि, हम चाहते हैं कि हमारे राजतंत्र के व्यक्ति समझदार व अपने अतीत पर गौरव करने वाले हों, तो, हमें भी अपने अंदर वहीं गुण लाने होंगे।

-अंग्रेजों द्वारा दी शिक्षा, न्याय, भेषज आदि व्यवस्थाएं सामाजिक कुरीतियों को बढ़ाने वाली हैं। आज समाज में अपने पूर्वजों को निकम्मा माना जाने लगा है। हममें से बहुत से लोग आज की व्यवस्थाओं के समर्थन में खड़े हो जाते हैं क्योंकि, हमें अपने पूर्वजों के कार्यों का ज्ञान नहीं है। और तो और, समाज में बहुत कम लोग हैं, जो, अपने पूर्वजों के कार्यों को जानकर, अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं कि उन्होंने इस देश में जन्म लिया।

आज की शिक्षा व्यवस्था- क्या आज की शिक्षा व्यवस्था, व्यैक्तिक जीवन को अर्थवान बनाने में सक्षम है? क्या मानव-जीवन के अन्तिम उद्देश्य,  उसको प्राप्त करने के साधन और दूसरों के साथ हमारे व्यवहार की न्यायपूर्ण उचितता का निर्धारण करना व इसको मनुष्य के शिक्षा-काल में बताना शिक्षा व्यवस्था का दायित्व नहीं है? मानवता से सम्बन्धित सभी मौलिक विचार, हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी को शुरु के 1-2 वर्षों में ही दे दिए जाते थे। इतना पढ़ लिख कर भी हम क्यों धर्म के नाम पर अत्यंत तर्कहीन बातों को मान लेते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि, हमारी शिक्षा व्यवस्था स्वयं नहीं जानती कि उसके विद्यार्थियों का अंतिम उद्देश्य कौन सा है, जहां लेकर जाने के लिए उसे अपने विद्यार्थियों का साधन बनना है?

आज की न्याय व्यवस्था- आज न्याय के नाम पर केवल फैसले होते हैं। वकील व कचहरियां व्यक्ति को अत्यंत परेशान करते हैं, इसलिए, आम व्यक्ति इनके चक्कर से बचने में ही अपनी भलाई समझता है। बदकिस्मती से, न्याय व्यवस्था के साथ जुड़े लोग न्याय अन्याय का अर्थ भी नहीं जानते होते। आज न्यायाधीश, वकील आदि केवल मात्र पदवियाँ हैं और इनमें से कुछ लोग दंड देने के उद्देश्य को भी भलि प्रकार से नहीं जानते होते। वास्तविकता यह है कि केवल वहीं व्यक्ति न्याय कर सकता है, जिसमें मानवता के सभी गुण विद्यमान हों। और वेद मानवता के गुणों का एक मात्र स्रोत हैं।

आज की पुलिस और सैन्य व्यवस्था- लोगों का विश्वास आज की पुलिस व्यवस्था पर न के बराबर है। लोग पुलिस के पास तभी जाते हैं, जब समाज में रहने के लिए, उनके पास ओर कोई विकल्प नहीं बचता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि, पुलिस का मुख्य ध्येय अच्छे लोगों को असामाजिक तत्वों से सुरक्षा प्रदान करना नहीं है।

सैन्य व्यवस्था का यह हाल है कि जिन लोगों पर देश की सुरक्षा का भार है, उन्हें भिन्न भिन्न योजनाओं के तहत शराब पीने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

 – आज की चिकित्सा व्यवस्था- आज व्यक्ति की 25 % से अधिक आय चिकित्सा पर खर्च हो रही है। जहां, चिकित्सा, एक सेवा होनी चाहिए थी, वहां, यह एक व्यापार बन गया है। चिकित्सक, दवाइयां बनाने व बेचने वाले और टैस्ट करने वाले बेहद संगठित हो के मरीजों का शोषण करने में लगे हुए हैं। चिकित्सा व्यवस्था का मुख्य ध्येय पैसा कमाना ही रह गया है। ऐसी कोई अंग्रेजी दवाई नहीं मिलेगी, जिसके साइड इफेक्ट्स न हों। अंग्रेजी चिकित्सा व्यवस्था का तंत्र ही कुछ ऐसा है कि यह सस्ती, अधिक प्रभावशाली और आसानी से सुलभ दूसरी चिकित्सा पद्वतियों को पनपने ही नहीं देती।  

आज की अर्थ व्यवस्था- केवल कृषि ही होती है, जहां output, input से कई गुणा अधिक होता है, परन्तु, फिर भी सारे विश्व की अर्थ व्यवस्था में औधोगिकता का बोलबाला है। उधार की पूंजी पर निर्भरता की मनोवृति बढ़ती जा रही है। आज के बुद्धिजीवी इस बात पर मौन हो जाते हैं कि किस तरह के धंधों से अर्थ उपार्जन करना चाहिए और किस तरह के धंधों से नहीं। बुरे नियंत्रण के कारण बहुत सारा अर्थ समाज की सामूहिक प्रगति में न लगकर राजतंत्र की समृद्धि में लग जाता है।

आज का राजतन्त्र, लोगों की भलाई से अधिक अपने व अपने परिवार के यश के लिए आतुर रहता है।

 यदि, सभी मुख्य देश आंतकवाद के खिलाफ हैं, तो, आंतकवादियों के पास इतना गोला बारूद कहां से आता है?

 आज मांसाहारी भोजन करना व शराब पीना आम हो गया है। आखिर, हमारे खाने-पीने की आदतों में क्या प्रगति हुई है?

– आज पत्रकारिता का उद्देश्य बनकर रह गया है कि कैसे चोर से कहलवाया जाए कि उसने चोरी की है। पत्रकार इसी तरह, बगैर स्वयं सत्य को जानने की आवश्यकता के, समाज के प्रति अपना दायित्व निभाना अपना धर्म मानने लगे हैं। वे चाहते हैं कि वे खुद तो सत्य असत्य का परीक्षण न करें, परन्तु, उनकी खबरें देखने व सुनने वाले लोग खुद सत्य असत्य का परीक्षण करें, चाहे वे इस परीक्षण की योग्यता रखते हों व नहीं। 

-आज समाज को केवल बाज़ार के रूप में देखा व आंका जाने लगा है। 90 % से अधिक विज्ञापन और फिल्में हमारे चरित्र का हनन करने वाले होते हैं। आज हिंसात्मक और अश्लील साहित्य का प्रचार जोरों पर है। क्या हमें नहीं विचारना चाहिए कि क्या किसी एक क्षेत्र में भी पाश्चत्य संस्कृति ने आदर्श स्थापित किया है या आदर्श स्थापित करने की ओर अग्रसर है? अगर नहीं, तो, हम अपनी संस्कृति को जानने की तरफ क्यों नहीं झुकते? 

– यह ठीक है कि ये व्यवस्थाएं अंग्रेजों द्वारा दी गई हैं व इनमें बुराइयां भी हैं, परन्तु क्या बुराइयों के दूर कर दिए जाने पर वे अच्छी व्यवस्थाओं में नहीं बदल सकतीं? वास्तव में, हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं की यह दशा हमारे व्यैक्तिक चरित्र के पतन से हुई है और पाश्चात्य संस्कृति के पास व्यैक्तिक चरित्र के उत्थान का कोई road map नहीं है। इसका हल सत्य ज्ञान पर आधारित व्यैक्तिक चरित्र निर्माण ही है और सत्य ज्ञान का एक मात्र स्रोत ‘वेद’ हैं।

अच्छाई के स्रोत को न जानने के बावजूद, पश्चिमी समाज ने विचारों को निखारने की दिशा में बहुत कार्य किया है।

वैदिक व्यवस्थाएँ

  1. वैदिक राजधर्म

जो विद्या शासक का कर्तव्य यानि राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है आदि बताती है, उसी को ‘राजधर्म’ कहा जाता है। वेद राजधर्म की शिक्षा के मूल हैं। मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के एक पूरे समुल्लास में इस विषय पर हमारे पूर्वजों के कार्य को संग्रहित कर दिया है। उपरोक्त वर्णित सारी ज्ञान-राशि वेद के अनुकूल होने से इस विषय का नाम ‘वैदिक राजधर्म’ रखा गया है।  १. लूटने वाला हमारा शासक न हो-

ओम् रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत मा नो दुशंस ईशत।

मा नो अद्य गवां स्तेनो माविनां वृक ईशत।।

-अथर्ववेद

अर्थ– हे ईश्वर! आप हमारी रक्षा करें। कोई भी दुष्ट दुराचारी, अन्यायकारी हम पर शासन न करे। हमारी वाणी पर पाबन्दी लगाने वाला, हम किसानों से हमारी भूमि छीनने वाला तथा हम पशु-पालकों से हमारे गौ आदि पशु छीनने वाला व्यक्ति हमारा शासक न बने। भेड़िया बकरियों का राजा न हो।

                                                                               

२. तानाशाह प्रजा का नाशक होता है-

राष्ट्रमेव विशवाहन्ति तस्मादृष्ट्रि विशं घातुकः।

विशमेव राष्ट्रयाधां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ती न पुष्टं पशुं मन्यत इति।।

                                                                        -शतपथ ब्राह्मण

अर्थ-यदि राजवर्ग पर प्रजा का नियन्त्रण न रहे तो राजवर्ग प्रजा का ऐसे नाश कर देता है, जैसे जंगल में शेर सभी हृष्ट पुष्ट पशुओं को मारकर खा जाता है। इसलिए, किसी एक को स्वतन्त्र शासन का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।

राजा कौन? वैदिक ग्रन्थों में सभापति को ही राजा (राष्ट्रपति) कहा गया है। यह राजा या सभापति कोई खानदानी नहीं होता अपितु प्रजा द्वारा चुना हुआ ही होता है। शास्त्रों में ऐसा बताया गया है कि राजा के ऊपर सभा का नियंत्रण, सभा के ऊपर राजा का, प्रजा के ऊपर सभा का तथा राजा और सभा दोनों के ऊपर प्रजा का नियन्त्रण रहना चाहिए।

३. सचिव कैसे और कितने हों-

मौलान शास्त्रविदः शूरान लब्धलक्ष्यान कुलोद भवान।

सचिवान सप्तं च अष्टौ वा प्रकुर्वीत परिक्षितान ।।

-मनुस्मृति

अर्थ-अपने देश में उत्पन्न हुए, वेदादि शास्त्रों के विद्वान, जिनमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने की योग्यता हो और जो सदाचारी परिवार से सम्बन्ध रखते हों, अच्छी प्रकार परीक्षा करके ऐसे सात या आठ सचिव रखे जाएं।

४. शासक प्रजा की रक्षा कैसे करे-

यथोद्धरतिनिर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।

तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्रं हनयाच्च परिपन्थिनः।।

                                                                                        -मनुस्मृति

अर्थ-जैसे धान से चावल निकालने वाला छिलके को अलग कर चावल की रक्षा करता है, चावल को टूटने नहीं देता। वैसे ही राजा रिश्वतखोरों, अन्यायकारियों, चोर बाजारी करने वालों, डाकुओं, चोरों और बलात्कारियों को मारे और बाकी प्रजा की रक्षा करे।

यथा हिगर्भिणी हित्वा  प्रियं मनसोsनुगम।

गर्भस्थ हितमाधत्ते तथाराज्ञाप्यसंशयम्।।

                                                                        -महाभारत-शान्तिपर्व

अर्थ-राजा को गर्भिणी के समान वर्त्तना चाहिए। जिस प्रकार गर्भिणी अपना हित त्याग गर्भ की रक्षा करती है, उसी प्रकार राजा को अपना हित त्याग, सदा प्रजा के हित का ही ध्यान रखना चाहिए।

५. वैदिक दण्ड व्यवस्था-

कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रभिति घारणा।।

 -मनुस्मृति

अर्थ-जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक रुपया दण्ड हो, उसी अपराध में राजा पर हजार रुपया दण्ड होना चाहिए। क्योंकि शेर अधिक दण्ड से तथा बकरी थोड़े दण्ड से ही वश में आ जाती है। जिसका ज्ञान और प्रतिष्ठा जितनी अधिक हो, उसे उतनी ही अधिक सजा होनी चाहिए।

६. रिश्वत लेने वालों को दण्ड-

ये कार्यिकेभ्योsर्थमेव गृहवीयुः पापचेतसः।

तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम।।

                                                                                        -मनुस्मृति

अर्थ-जो न्यायाधीश वादी या प्रतिवादी से रिश्वत लेकर के पक्षपात से अन्याय करे उसकी सारी सम्पति जब्त करके उसे कहीं दूर भेज दिया जाए।

७. कर लेने का ढंग-

यथाsल्पsल्पमदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः।

तथाsल्पsल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः।।

-मनुस्मृति

अर्थ-जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े थोड़े भोज्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं। वैसे राजा प्रजा से थोड़ा थोड़ा वार्षिक कर लेवे।                                                                                  

८. सभा में सभासदों का कर्तव्य-

सभा वा न प्रवेष्टव्या वक्तव्यं वासमंजसम।

अब्रुवन्विब्रुवन्वापी नरो भवति किल्विषी।।

                                                                                        -मनुस्मृति

अर्थ-मनुष्य को चाहिए कि वह सभा में जाकर सत्य ही बोले। जो कोई सभा में अन्याय होते को देखकर चुप रहे या सत्य और न्याय के विरुद्ध न बोले वह महापापी होता है।

यत्र धर्मो हि अधर्मेण सत्यं यत्र अनृतेन च।

हन्यते प्रेक्षमाणां हतास्तत्र सभासदः।।

-मनुस्मृति

अर्थ-जिस सभा में अधर्म से धर्म यानि अन्याय से न्याय और असत्य से सत्य, सब सभासदों के देखते हुए, मारा जाता है, उस सभा में सब मुर्दों के समान हैं।

९. यथा राजा तथा प्रजा-

राज्ञि धर्मिणी धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।

राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः।।

        -चाणक्यनीति

अर्थ-यदि राजा यानि शासकवर्ग सदाचारी और न्यायकारी होंगे, तो प्रजा भी सदाचारी और न्यायकारी बन जाती है। यदि शासकवर्ग दुराचारी हो, तो प्रजा भी दुराचारी बन जाती है। प्रजा तो अपने शासकों के पीछे ही चलती है।

आम लोग राजा के कृपापात्र बनने की इच्छा से वैसा ही आचरण करते हैं, जैसा राजा करता है। इसलिए शासक वर्ग के लिए आवश्यक है कि वे  दुराचार कभी न करें। सदा सत्य और न्याय पर चलते हुए प्रजा के आगे उत्तम दृष्टान्त बनें।

यद्यदाचरति श्रेष्ठ्स्तत्तदेव इतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

-गीता

अर्थ– समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हैं, दूसरे लोग भी वैसा ही करते है। वे लोगों के सामने जैसा उदाहरण रखते हैं, लोग उसका अनुसरण करते हैं।                           

१0. राष्ट्रीय प्रार्थना-

आ ब्रह्मन्नः-से- कल्पताम्।

-यजुर्वेद

अर्थ-हे सब से महान प्रभु! आपसे प्रार्थना है कि हमारे देश में सब सत्य विद्याओं के ज्ञाता विद्वान हों जिनके पुरुषार्थ से अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होती रहे। देश के शत्रुओं को मारने में समर्थ शूरवीर उत्पन्न हों। दूध, घी, अन्न, सब्जियों और फलों की देश में भरमार हो। बैल, घोड़ा-गाड़ी आदि की सुविधाएं सदा बनी रहें। देश की महिलाएं सन्तान के धारण तथा पालण-पोषण में समर्थ रहें। जब-जब आवश्यकता हो वर्षा हुआ करे। अतिवृष्टि (वर्षा का बहुत अधिक होना) और अनावृष्टि (वर्षा का बिल्कुल न होना) कभी न हो। देशवासियों का सदा कल्याण हो। सभी आनन्द से रहें। कोई भूखा, प्यासा, नंगा और दरिद्र न रहे। देश में अज्ञान, अन्याय और अभाव का नाश हो।

2. वैदिक अर्थ व्यवस्था

  हमारा मूल मन्त्र हो कि मेहनत करने वाला कोई गरीब न रहे- मेहनत चाहे शारीरिक हो या मानसिक। कष्टदायक आर्थिक विषमता न हो। किसी के पास धन की इतनी कमी न हो कि उसका विकास रुक जाए और न ही किसी के पास धन इतना अधिक हो कि वह अय्याश (विषयी तथा आलसी) बन जाए।

न वा उ देवाः क्षुधमिद् वधं ददुः।

-ऋग्वेद

अर्थ-कोई भी भूखा प्यासा न रहे।

सामानी प्रपा सह वो अन्नभागः।

-अथर्ववेद

अर्थ-सभी मिलकर खाएं पीएं। अर्थात् भौतिक आवश्यकताएं सभी की समान रूप से पूरी हों।

केवलाघो भवति केवलादी।

-ऋग्वेद

अर्थ-अन्य लोगों के भूखे रहते, जो केवल अपना पेट भरता है, वह पाप और अन्याय करता है। महर्षि मनु ने लिखा है कि गृहस्थी स्त्री पुरुष बाहर से आए हुओं को तथा अपने पर आश्रितों को पहले भोजन करवा के, फिर स्वयं भोजन करें। ऐसा भोजन उनके लिए अमृत समान होता है।

एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम्।

योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः।।

        -विदुरनीति

 अर्थ-जो अपने द्वारा भरण पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेला ही उत्तम भोजन करता है और अच्छा वस्त्र पहनता है उससे बढ़कर क्रूर और कौन होगा?

स्वजनं तर्पयित्वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी।

-चाणक्य सूत्र

अर्थ-जो अपने लोगों के तृप्त करने के बाद बचा हुआ अन्न खाता है, वह अमृत पीता है।

असुराः स्वेष्वेवास्येषु जुहृति अन्योऽन्यस्मिन् हऽवै देवाः।

-शतपथ ब्राह्मण

अर्थ– औरों के भूखे रहते, अकेले खाना राक्षसवृति है। सबके साथ बांट करके खाना सज्जनता है।

शास्त्र ने चेतावनी दी है कि यदि कुछ लोग भूखे रहते है और उनकी भौतिक आवश्यकताएं पूरी नहीं होती, तो समाज में दुख और दुराचार बढ़ जाता है।

बुभुक्षितः किन्न करोति पापम्।

क्षीणाः नरा निष्करूणा भवन्ति।।

-पंचतन्त्र

अर्थ– भूखा आदमी कौन सा पाप नहीं कर सकता अर्थात् बड़े से बड़े अपराध भी वह कर सकता है। जब पेट में अन्न न पड़े, तो बड़े से बड़े महापुरुषों का धैर्य भी डांवाडोल हो जाता है।

आचार्य चाणक्य ने लिखा है-

अपुत्रस्य गृहं शून्यंदिशः शून्यास्तु अबान्धवाः।

मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।।

अर्थ– सन्तानहीन मनुष्य को अपना घर सूना लगता है। जिस मनुष्य के सम्बन्धी वा मित्र न हों उसे घर से बाहर सूना सूना लगता है। ज्ञानहीन मनुष्य का हृदय सूना रहता है, परन्तु गरीब के लिए तो सब कुछ ही सूना सूना रहता है।

परोऽपेहृासमृद्धे वि ते हेतिं नयामसि।

वेद त्वाहं निमीवन्तीं नितुदन्तीमराते।।

-अथर्ववेद

अर्थ– ओ दरिद्रता! तू दूर जा, परे भाग जा। हम तेरे ऊपर वज्र से प्रहार करते हैं। हम जानते है कि तू सब प्रकार से निर्बल करने वाली है और नाना प्रकार से पीड़ा देने वाली है। अतः सरकार और समाज की यह सर्वप्रथम जिम्मेदारी है कि राष्ट्र से गरीबी और अभाव को दूर रखें।

  1. वर्ण व्यवस्था और जातपात

महर्षि मनु द्वारा रचित पुस्तक मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार अपना रोजगार चुनने का अधिकार है। यह व्यवसाय अपने पिता वाला हो सकता है और उससे भिन्न भी। यही वर्ण व्यवस्था है। वर्ण संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘चुनना’। समाज की तमाम समस्याओं को तीन मुख्य भागों में बाँटा गया है- अज्ञान, अन्याय और अभाव। अज्ञान- लोगों का अनपढ़ वा मूर्ख होना। अन्याय- पक्षपात वा रिश्वत से अन्याय होना। अभाव- आवश्यकता के पदार्थों की कमी होना या वितरण ठीक न होना। इन तीनों समस्याओं को हल करने की जो लोग योग्यता रखते थे तथा जिम्मेदारी लेते थे वे क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहलाते थे। इन तीनों शब्दों के अर्थ भी उनके कार्य के अनुरूप ही हैं। ब्राह्मण- विद्वान, क्षत्रिय- रक्षक और वैश्य- उत्पादक और विभाजक। बाकी रहे शूद्र-अनपढ़ तथा मूर्ख। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सहायता करते थे। स्मरण रहे कि इस व्यवस्था का नाम वर्ण व्यवस्था है, जन्ममूलक जात पात नहीं।

समस्या तब पैदा हुई जब ब्राह्मण के बेटे को ब्राह्मण ही माना जाने लगा बेशक उसके गुण, कर्म, स्वभाव ब्राह्मण के नहीं थे। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सन्तान को भी क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही माना गया चाहे उनमें ये गुण न हों। क्या यह गलत बात नहीं है? यह तो ऐसी बात है कि डाक्टर के बेटे को डाक्टर और मास्टर जी के बेटे को मास्टर माना जाए, चाहे वे कम्पाउण्डर और चपरासी की योग्यता भी न रखते हों।

सम्भवतः समस्या गम्भीर तब हुई जब घरों से दूसरे का मल उठाकर के बाहर ले जाने की प्रथा देश में चली। मानना पड़ेगा कि दूसरों का मल उठाने का धन्धा भारतीय अथवा वैदिक संस्कृति और समाज की मूल धारा के विरुद्ध है। भारतीय इतिहास में कहीं भी घरों में ऐसे शौचालयों, जहां से मल उठाके बाहर ले जाना पड़े, का जिक्र नहीं मिलता। और भी शौच के लिए जितने भी शब्द वैदिक संस्कृति में आते हैं, उन सब का भाव यह है कि शौच के लिए बाहर जंगल में जाया जाता था। मेहत्तर आदि शब्द संस्कृत भाषा के नहीं हैं।

 ऊपर बताई गलत प्रथाओं के चलने से वर्ण व्यवस्था वर्त्तमान जन्म मूलक जातपात में बदल गई है। निस्सन्देह इस जातपात का मनुस्मृति में कहीं कोई वर्णन नहीं है। न ही इसका तालमेल वैदिक संस्कृति या मानवता से है। वेद तो ऐसा मानता है-

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरों वावृधुः सौभगाय।

-ऋग्वेद

अर्थ-हममें से कोई छोटा या बड़ा नहीं है। हम सब आपस में भाई भाई हैं। हम सब को मिल करके समृद्धि के लिए काम करना चाहिए।

वैदिक धर्म के अनुसार हम सब की एक ही जाति है-मनुष्य जाति। कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, गधा, गाय, भैंस, कबूतर, कौआ आदि ये सब अलग अलग जातियां हैं। जाति शब्द का अर्थ है, जो जन्म से लक्षित हो।

भारत की स्वतन्त्रता के बाद जातपात समाप्त करने के नाम पर नए नाम देकर तथा उन नामों से आर्थिक लाभ जोड़कर जातपात की दीवार को और दृढ़ कर दिया गया है। जातपात के रोग को समाप्त करने के लिए आवश्यक होगा कि कभी भी किसी की भी जाति न पूछी जाए-न बच्चों से, न बड़ों से, न सरकारी तौर पर, न गैर सरकारी तौर पर, न लिखती और न ही ज़ुबानी। किसी फार्म पर भी कहीं भी जाति का खाना न रखा जाए। स्कूलों और कालेजों की पाठ्य पुस्तकों में भी जात-पात पर आधारित कोई कहानी या लेख न हो । इस व्यवस्था में सभी बच्चे जातपात के भेदभाव के बिना ही बड़े होंगे। जिससे उनमें समानता की भावना बनी रहेगी।

विशेष ज्ञातव्य-जितना आवश्यक जातपात को समाप्त करना है, उतना ही आवश्यक गोत्र की रक्षा करना है। गोत्र को भी जातपात के साथ ही समाप्त कर देना ऐसा है कि जैसे नाक पर बैठी मक्खी को उठाने के लिए नाक को काट डालना। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मनुस्मृति के हवाले से लिखा है-जो कन्या माताकुल की छः पीढ़ियों में से न हो और पिता के गोत्र की न हो, उस कन्या से विवाह करना उचित है। इससे विलक्षणता आती है। जैसे पानी में पानी मिलाने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे पिता के गोत्र वा माता के कुल में विवाह होने से धातुओं के अदल बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती। जैसे दूध में मिश्री और सौंठ आदि औषधियों के मिलाने से उत्तमता होती है, वैसे ही पिता के भिन्न गोत्र तथा माता के कुल से पृथक् स्त्री पुरुष का विवाह होना उत्तम है।