ईश्वर के मुख्य गुण कौन कौन से हैं?

 

ईश्वर के मुख्य मुख्य गुण 

गुण दो तरह के होते हैं- एक स्वाभाविक गुण और दूसरे निमित्तिक गुण। स्वाभाविक गुण उन्हें कहते हैं, जो वस्तु में उसके स्वभाव के कारण से होते हैं और निमित्तिक गुण उन्हें कहा जाता है, जो वस्तु में किसी बाह्य कारण से होते हैं। ईश्वर में जो भी गुण होते हैं, वो किसी बाह्य कारण से नहीं, बल्कि उसके अपने स्वभाव के कारण से होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो ईश्वर के संदर्भ में गुण और गुणी में भेद नहीं होता। ईश्वर के जो गुण नीचे दिए जा रहे हैं, हमें ईश्वर की सत्ता को उससे पृथक नहीं समझना चाहिए।

1. सर्वज्ञ अर्थात् सब कुछ जानने वाला – ईश्वर अत्यन्त बुद्धिमान है। कृति को देखकर कर्त्ता की बुद्धिमत्ता का पता लगाया जाता है। हम अपने विवेक से यह कह सकते हैं कि एक टैलिविजन के निर्माण के लिए एक घड़े के निमार्ण की अपेक्षा अधिक बुद्धिमत्ता चाहिए। इसी आधार पर, यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी विशाल सृष्टि के निर्माण में, उसका संचालन करने में निश्चित व्यवस्था के अनुसार असंख्य आत्माओं का प्रकृति से संयोग और वियोग आदि करने में अत्यन्त बुद्धिमत्ता की आवश्यकता होती है। मानव शरीर की रचना को देख विद्वान लोग भी आश्चर्य-चकित रह जाते हैं। हड्डियों के जोड़, नाडि़यों का जाल, मांस द्वारा हड्डियों व नाडि़यों का संरक्षण, चमड़ी की पर्त, यकृत, फेफड़ों आदि अंगों का स्थापन-स्थान, आँख जैसे कोमल अंग में अत्यन्त सूक्ष्म नाडि़यों का जाल, हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित करने की व्यवस्था, शरीर से अनावश्यक पदार्थों को बाहर निकालने की व्यवस्था व उसके लिए विशेष अंगो का निमार्ण, जल, वायु, अग्नि आदि तत्वों के साथ सांमजस्य, भिन्न-भिन्न अंगो तक शक्ति वर्धक पदार्थों को पहुँचाने की व्यवस्था आदि किसी अत्यन्त ज्ञानी की ओर इशारा करते हैं। इसके अतिरिक्त, नाना प्रकार के रत्न धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार की वनस्पतियां, विविध मीठे, कड़वे आदि रस, अनेकों लोक-लोकान्तरों का निर्माण, धारण, व्यवस्था आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता। इस कृति को देखकर ईश्वर को अत्यन्त बुद्धिमान व सर्वज्ञ कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

2. सर्वशक्तिमान अर्थात् सबसे शक्तिशाली – लौकिक दृष्टि से देखें, तो आज शक्तिशाली उसको माना जाता है, जिसके पास विनाश के अधिकाधिक साधन हों। आज जिस देश के पास एटम बम, न्यूक्लियर बम आदि की बहुतायत हो, उसे बड़ा शक्तिशाली माना जाता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि सौर उर्जा लगातार हो रहे न्यूक्लियर रिऐकशन्स का परिणाम है । एक अनुमान के अनुसार सूर्य में इतना इंधन अभी शेष है कि वह ओर 5 अरब वर्षों तक अपनी उर्जा हमें दे सके। ऐसे असंख्य सूर्य इस सृष्टि में हैं। इन सब बातों से हम ईश्वर की शक्ति का अनुमान कर सकते है। सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ किया जाता है-जो सब कुछ कर सके। इस अर्थ के अनुसार तो ईश्वर अन्याय भी कर सकता है, किसी कर्म का फल चाहे तो दे, न चाहे तो न दे आदि। यानि कि वह अपने गुण, कर्म, स्वभाव के विपरीत भी जा सकता है। लेकिन महर्षि दयानन्द द्वारा ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द का किया गया अर्थ अत्यन्त तर्क संगत है। उनके अनुसार ईश्वर को सर्वशक्तिमान इसलिए कहा जाता है कि वह इतने विराट ब्रह्माण्ड, विशाल लोक–लोकान्तरों को बनाने, धारण करने, प्रलय करने और जीवों को कर्मफल व्यवस्था के अनुसार जीवन, मृत्यु आदि प्रदान करने में किसी अन्य की सहायता नहीं लेता। वह स्वयं अपनी शक्ति और सामर्थ्य से ही इन कार्यों को कर रहा है। इस अर्थ के अनुसार, ईश्वर अपने स्वरूप के विरुद्ध नहीं जा सकता, अत: सर्वशक्तिमान का यही अर्थ उचित है।

3. न्यायकारी – न्याय की इच्छा सभी आत्मायों की होती है। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी पूर्णतया न्याय नहीं कर सकता। व्यक्ति जो भी निर्णय करेगा, वह निर्णय प्रस्तुत प्रपत्रों व साक्षियों के आधार पर ही होगा। निर्णय करने वाला व्यक्ति अपराध का पूर्ण ज्ञान नहीं रखता होता। इस कारण आत्माओं से भिन्न एक ऐसी सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है, जो ‘न्याय’ की हमारी आन्तरिक इच्छा को पूर्ण कर सके। ईश्वर प्रत्येक कर्म का फल उचित मात्रा में उचित समय पर न्यायोचित ढंग से देता है। इसलिए, उसे न्यायकारी कहा जाता है। सभी प्राणियों का शरीर, जीवात्मा द्वारा मनुष्य शरीर में किए गए कर्मों के फलों को भोगने के लिए प्राप्त होता है। मनुष्य को छोड़ कर अन्य सभी योनियों में जीवात्मा द्वारा किए गए कर्म, कर्मफल को प्राप्त नहीं होते।

पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी के शब्दों में-

‘जीव का कर्म करना तो उसका स्वाभाविक गुण है। वह उससे किसी दशा में भी नहीं छूट सकता। जहाँ कर्म है, वहां कर्म की स्वतंत्रता भी है। पशु भी भूल करते हैं और उनको दण्ड भी मिलता है। और दण्ड को पाकर वह सचेत भी हो जाते हैं। भूल करना, दण्ड पाना, दण्ड पाकर सचेत हो जाना ये तीनों बातें पशु-पक्षियों में पाई जाती हैं और ये तीनों उनकी कर्म की स्वतंत्रता का प्रमाण हैं। केवल, एक भेद है। जहाँ तक सामाजिक नियमों का सम्बन्ध है, पशुओं में कर्तव्यता का अभाव है। उनकी बुद्धि का विकास उतना नहीं होता कि सामाजिक कर्तव्यों को समझ सकें। यह बात मनुष्य के बच्चों पर भी लागू होती है। अत: पारिभाषिक अर्थों में कहा जाता है कि पशु-पक्षी भोग योनियाँ हैं कर्म-योनियाँ नहीं।’                                                                                                           

असंख्य जीवात्माओं द्वारा मनुष्य योनि में प्रत्येक क्षण किए गए प्रत्येक शारीरिक व मानसिक कर्म का हिसाब रखना व उन कर्मों के फल के रूप में उचित समय पर उचित परिस्थितियां पैदा करना, मनुष्य योनि व अन्य योनियों में जीवात्मा का समय निर्धारण करना कोई साधारण बात नहीं। मुख्य रूप से प्रत्येक जीवात्मा के कर्मों के अनुसार ही प्राकृतिक वस्तुएं उसको मिलती हैं अथवा उससे बिछुड़ती हैं। इसी प्रकार प्राणियों का एक दूसरे से मिलना, बिछुड़ना भी उनके कर्मों के अनुसार ही होता है।  जीवात्माओं के कर्मों के आधार पर आगे उन्हें मनुष्य योनि, भोग योनि अथवा योनियां व मोक्ष मिलता है।
न्याय करने के लिए तीन चीज़ों का होना नितान्त आवश्यक हैं – ज्ञान, शक्ति और निस्वार्थता। ज्ञान, यानि कि कर्म की पूरी जानकारी तो न्याय करने के लिए आवश्यक है ही, शक्ति के अभाव में दूसरे से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह आपके निर्णय को माने ही। निस्वार्थता का होना, ज्ञान व शक्ति का प्रयोग अन्याय के लिए होने देने से रोकने के लिए आवश्यक है।

संसार में भी हम देखते हैं कि जिस व्यक्ति के पास इन तीन वस्तुओं में से किसी एक का भी अभाव होता है, वह न्याय नहीं कर सकता और जिस व्यक्ति के पास ये तीन वस्तुएं होती हैं, वह अन्याय नहीं कर सकता। ईश्वर अत्यन्त ज्ञानवान अर्थात् सर्वज्ञ, अत्यन्त शक्तिशाली अर्थात् सर्वशक्तिमान व अत्यन्त निस्वार्थी है। पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति जीव के भोग व अपवर्ग के लिए करने के कारण,  ईश्वर को अत्यन्त निस्वार्थी माना जाता है।  उसके द्वारा प्राणियों के कर्मों का फल देने में अन्याय व पक्षपात का होना मानना अत्यन्त मूर्खतापूर्ण बात होगी।

अपने न्यायस्वरूप के कारण, जब ईश्वर किसी प्राणी को उसके कर्मों के अनुरूप किसी योनि विशेष में भेजता है, तो दुनिया की कोई भी शक्ति उसकी योनि को बदल नहीं सकती। उसकी योनि मृत्यु के पश्चात ही बदल पाती है और वह परिवर्तन भी उसके कर्मों के अनुसार ही होता है। इस न्यायपूर्ण व्यवस्था का स्वामी परमपिता परमेश्वर ही है।

4. दयालु – अगर, कुछ वर्षों के लिए हमें केवल बिजली ही मुफ़्त प्रदान कर दी जाए तो, हम इस व्यवहार को अत्यन्त कृपा वाला अर्थात दयालुता वाला मानेंगे, परन्तु, ईश्वर ने तो हमें न केवल सूर्य जैसा, प्रकाश पुंज, बल्कि और भी अनेकों सम्पदायें उपयोग के लिए मुफ़्त प्रदान की हुई हैं। इसलिए यह कहना बिलकुल उचित है कि ईश्वर जैसा दयालु और कोई नहीं है। ‘दया’ शब्द का अर्थ किया जाता है- अपराधी को बिना दण्ड दिये छोड़ देना। ‘दया’ शब्द का यह अर्थ करना बिलकुल गलत है।

जिसने जैसा, जितना बुरा कर्म किया हो, उसको उतना वैसी ही दण्ड देना ‘न्याय’ और अपराधी को दण्ड न देने से ‘दया’ का नाश हो जाता है। एक अपराधी को छोड़ देना हज़ारों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देने के समान है। जब एक अपराधी के छोड़ने से हज़ारों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता है, तो वह दया किस प्रकार हो सकती है ? अपराधी को कैद कर व मार कर उसे पाप करने से बचाना अपराधी पर दया है। न्याय और दया में नाम मात्र का ही भेद है। मानसिक स्तर पर सबको सुख देने व दुख से छुड़ाने की इच्छा करना दया कहलाती है और बाह्य चेष्टा द्वारा यथायोग्य दण्ड देना न्याय कहलाता है।

ईश्वर के हर कार्य में ‘दया’ छुपी हुई है। दण्ड का मूलभूत प्रयोजन सुधार होने के कारण, ईश्वर द्वारा प्राणियों को दण्डस्वरूप भिन्न-भिन्न योनियों में भेजने के पीछे भी ‘आत्माओं का हित-चिन्तन’ अर्थात ‘दया’ ही है।

5. व्यापक व निराकार–सृष्टि के निर्माण करने, उसे धारण करने और उसके प्रलय करने के लिए आवश्यक है कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हो। बिना व्यापकता का गुण धारण किए ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वन्तर्यामी और सर्वनियन्ता भी नहीं हो सकता। जीवात्मा अत्यन्त सूक्षम होता है। जैसे, छोटी वस्तु ही बड़ी वस्तु में समा सकती है, उसी तरह, ईश्वर का सृष्टि की सब वस्तुओं व आत्माओं से सूक्ष्म होना आवश्यक है। ईश्वर का सर्वज्ञ, सर्वन्तर्यामी व सर्वनियन्ता होने के लिए आवश्यक है कि वह प्रत्येक जड़ अर्थात् प्रकृति व चेतन अर्थात् जीवात्मा में विद्यमान हो उसके लिए ईश्वर को निराकार अर्थात् आकार-रहित मानना तर्क संगत है।

‘यदि ईश्वर को किसी स्थान विशेष  में माने तो वह सर्वज्ञ, सर्वन्तर्यामी, सर्वनियन्ता, और जगत् का कर्त्ता-धर्त्ता-संहर्त्ता नहीं हो सकता। क्योंकि अप्राप्त देश में कर्त्ता  की क्रिया संभव नहीं होती। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वत्र क्रिया होने से उसका कर्त्ता ईश्वर भी सर्वत्र विद्यमान है।’

डाक्टर धीरज कुमार आर्य के शब्दों में-

सर्वत्र व्यापक होने के कारण, दुष्टों को मारने के लिए उसे शरीर धारण नहीं करना पड़ता। ईश्वर सृष्टि के हर स्थान में आकाश की भांति व्याप्त है। इस तरह ईश्वर अत्यन्त सूक्ष्म भी है औेर अत्यन्त विराट भी। वह परमात्मा शीघ्रकारी और सर्वशक्तिमान् है। वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर से रहित है। उसका कभी अवतार नहीं होता। वह नाड़ी आदि के बंधन से रहित और अविद्यादि जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृषा आदि दोषों से रहित है। वह अनादिस्वरूप है अर्थात उसका वियोग से विनाश, संयोग से उत्पत्ति, माता-पिता, गर्भवास, वृद्धि और क्षय नहीं होता।                                                                                                             

6. एक– एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैसे ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र आदि अनेक हैं, तो क्या उक्त स्वरूप वाला परमात्मा एक ही है अथवा अनेक? यह सिद्ध है कि जगत की उत्पत्ति और व्यवस्था नियमबद्ध है। जगत में यह आम देखने को मिलता है कि जहां, नियन्ता एक से अधिक होते हैं, वहां, व्यवस्था अच्छी नहीं होती। अन्य शब्दों में सुदृढ़ व्यवस्था के लिए Controller एक ही होता है। अथर्ववेद के मन्त्र, जिनमें स्पष्ट कहा गया है कि परमात्मा एक ही है, उसके समान दूसरा कोई पदार्थ ब्रह्माण्ड में नहीं है, इस विषय के शब्द प्रमाण हैं । वेद-शास्त्रों में ईश्वर के अनेक नाम मिलते है, परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर अनेक हैं। जिस प्रकार ईश्वर के गुण-कर्म अनन्त हैं, उसी प्रकार उसके नाम भी अनन्त हैं। भिन्न-भिन्न गुणों और कर्मों के आधार पर ईश्वर को वेद शास्त्रों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। ईश्वर का निज नाम, जिसमें उसके अनन्त गुणों व कर्मों का समावेश है, ओम् है।

ईश्वर द्वारा निर्मित इस चर और अचर जगत में एक सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। प्रणियों की श्वसन क्रिया में कार्बन डाई आक्साइड छोड़ी जाती है और वहीं कार्बन डाई आक्साइड पौधों द्वारा अपना भोजन बनाने के काम आती है, मनुष्यों व अन्य प्राणियों का मल- मूत्र कुछ विशेष योनियों का भोजन है आदि आदि। ये सभी सामंजस्यपूर्ण व्यवस्थाएँ इस चर और अचर जगत के एक निर्माता की ओर इंगित करती हैं।

7. सच्चिदानन्द – यह शब्द तीन शब्दों-सत्, चित्, और आनन्द के योग से बना है। तीन सत्ताओं – प्रकृति, जीव और ईश्वर के विषय में माना जाता है कि प्रकृति केवल सत् स्वरूप है । प्रकृति के संदर्भ में सत् का अर्थ ‘होना’ लिया जाता है। जीव में सत् और चित् दो गुण ही माने जाते हैं। यहां, जीव के संदर्भ में सत् शब्द का अर्थ ‘होना’ के साथ–साथ अविकारी भी माना जाता है। चित् का अर्थ है चेतनापूर्ण अथवा ज्ञानवान। प्रकृति में ज्ञान का अभाव है, इसलिए, उसे चित् नहीं कहा जाता। ईश्वर में सत, चित् और आनन्द तीनों गुण माने जाते हैं। ईश्वर, अविकारी और ज्ञान रूप होने के साथ-साथ आनन्द स्वरूप भी है। आनन्द का कोई विलोम अर्थात् विपरीतार्थक शब्द नहीं है। आनन्द शब्द का शब्दार्थ अनुभूति का विषय है, न कि समझाने का। जीव में आनन्द का अभाव है। ईश्वर के सानिध्य में जीव को आनन्द की अनुभूति होती है। ईश्वर की जीव से समय या स्थान की दूरी नहीं है। यह दूरी ज्ञान की है। उस ईश्वर का ध्यान करने मात्र से उसकी समीपता अनुभव होती है।

8. अजन्मा – ईश्वर एक नित्य सत्ता है। ईश्वर हर समय विद्यमान था, हर समय विद्यमान है और भविष्य में भी विद्यमान रहेगा। केवल आत्माओं का ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार प्रकृति के साथ संयोग होता है, जिसे जन्म कह दिया जाता है। आत्माओं का तब तक जन्म होता रहता है, जब तक वे मोक्ष के अधिकारी नहीं बन जाते। मोक्ष (जन्म-मरण के चक्र से छूटना) प्राप्त होने पर आत्माएं ईश्वर में विचरते हुए ईश्वरीय आनन्द का आस्वादन करते हैं। मोक्ष प्राप्त होने पर भी उनकी पृथक सत्ता बनी रहती है। एक धारणा यह भी है कि मोक्ष की स्थिति  में आत्मा का परमात्मा में लय हो जाता है। लय की स्थित में आत्मा का अस्तित्व समाप्त समझना चाहिए और परमात्मा का परिमाण भी बढ़ जाना चाहिए, जबकि परमात्मा तो एकरस है, वह न कभी घटता है और न कभी बढ़ता है। आत्मा के विषय में धारणा कि उसकी पृथक नित्य सत्ता है, यानि कि, उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता, ही तर्क संगत है। ईश्वर तो स्वभाव से मुक्त है, इसलिए, उसका जन्म लेना मानना अत्यन्त असंगत है। जन्म न लेने के कारण उसे अजन्मा भी कह दिया जाता है।

ईश्वर के जन्म लेने को मानने वाले भी यह मानते है कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वर के जन्म लेने की सत्यता-असत्यता को जानने के लिए इस बात पर विचार करें कि ईश्वर कहां नहीं था, जो उसे जन्म लेके स्थान विशेष पर आना पड़ा।

तर्क को दूर करने के कारण 

-जिस ईश्वर से हम जन्म-मरण के बंधन से छूटने की प्रार्थना करते है, उसे ही हम जन्म लेने वाला मानने लगे हैं। और

-जिस ईश्वर की विद्यमानता को हम सर्वत्र मानते हैं, उसे, केवल विशेष स्थान अथवा आकृति में मानने लगे हैं।

9. सर्वाधार – हर चीज़ का आधार होना आवश्यक है। जीवों द्वारा बनाई गई प्रत्येक वस्तु (मकान, पुल, आदि) का आधार हम देखते हैं। आधार के बिना इन वस्तुओं के निर्माण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। तो हम कैसे सोच सकते हैं कि सूर्य, चन्द्र आदि नक्षत्रों का कोई आधार नहीं है। सूर्य, चन्द्र आदि का निर्माण तो होता है, परन्तु मूल प्रकृति की उत्पत्ति कभी नहीं होती। वास्तव में, पूरे चर और अचर जगत का आधार ईश्वर ही है।

10. अनन्त, अजर, अमर, अभय, नित्य और अनुपम – वह कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता इसलिए उसे अनन्त, अजर और अमर कहा जाता है। डर हमेशा अपने से शक्तिशाली से लगता है। क्योंकि ईश्वर सबसे महान है व उससे अधिक अथवा समान सामर्थ्य वाला दूसरा कोई नहीं है, इसलिए वह अभय है। क्योंकि, वह सदा रहने वाला है, इसलिए, उसे नित्य कहा जाता है। क्योंकि ईश्वर ऐसा सत्य है, जिसमें कभी कोई बदलाव नहीं आता, इसलिए उसे निर्विकार भी कहा जाता है। ईश्वर के सभी गुण व कर्म इतने श्रेष्ठ हैं कि जीव उनको जानकर दांतो तले उंगली दबाने को विवश हो जाए। उसके समान दूसरा कोई नहीं है। उपरोक्त गुणों को धारण करने वाला वह अकेला ही है। उसको जानने व समझने के लिए किसी भी सांसारिक वस्तु की उपमा नहीं दी जा सकती। इसलिए उस ईश्वर को अनुपम भी कहा जाता है।

ईश्वर के गुण-कर्म अनन्त हैं। यहां हमने ईश्वर के कुछ मुख्य गुणों को बताने की चेष्टा की है।

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