कर्मफल से संबन्धित शंकाएं और उनका समाधानitse-admin2023-09-07T12:29:27+00:00
कर्मफल से संबन्धित शंकाएं और उनका समाधान
शंका १ – अधिकांश लोगों का विचार है कि हम कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं हैं। हम तो अपने प्रारब्ध-पूर्व जन्म के कर्मों से बन्धे हुए हैं। पूर्व जन्म के कर्म का अभ्यास हमें वैसे ही कर्म करने की प्रेरणा देता है जैसे हम कर्म करते आ रहे हैं। यदि चोर होंगे तो चोरी की प्रवृत्ति हमें पुनः चोरी करने की प्रेरणा देगी आदि। हम स्वतन्त्र नहीं बल्कि पूर्व जन्मों के कर्म से या प्रारब्ध से बंधे हुए हैं, इसी को दूसरे शब्दों में हम ईश्वर- इच्छा से कर्म करते हैं-इन शब्दों में कहते हैं।
शंका २– क्या व्यक्ति को बुरे कर्म करने के पश्चात अन्य सभी योनियों को भोगना पड़ेगा अथवा कुछ योनियों के पश्चात् वापस मानव जन्म मिलेगा?
शंका ३ – क्या कोई हमारा भविष्यफल बता सकता है?
शंका ४ –जीवात्मा भविष्य में जो विचार करेंगें, उसका ज्ञान ईश्वर को पहले से हो सकता है या नहीं?
शंका ५ – मनुष्य को स्वतन्त्र कहना अनुचित है। क्योंकि ईश्वर की इच्छा बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।
शंका ६ – परमेश्वर त्रिकालदर्शी है, इससे भविष्यत् की बातें जानता है। वह जैसा निश्चय करेगा, जीव वैसा ही करेगा। इससे जीव स्वतन्त्र नहीं। और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता। क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया है, वैसा ही जीव करता है।
शंका ७ –ईश्वर यदि भविष्यत् की बातों को नहीं जानता, तो वह सर्वज्ञ कहाँ रहा?
शंका ८ – यदि ईश्वर जीव द्वारा किए जाने वाले कर्मों को साथ-साथ ही जानता है तो उसका ज्ञान एकरस और अखण्डित कहाँ रहा? क्योंकि उसके ज्ञान में वृद्धि होती रहेगी।
प्रश्न ९– यदि ईश्वर जीव को न बनाता और न सामर्थ्य देता, तो जीव कुछ भी न कर सकता था। अतः ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव कर्म करता है। यही मानना उपयुक्त है।
प्रश्न १०– क्या प्रत्येक मनुष्य की योनि कर्मयोनि है और अन्य सभी प्राणी भोगयोनि में हैं?
प्रश्न ११– हमारे विचार में मित्र व शत्रु सुख दुख के कारण नहीं निमित्त हैं। मित्र हि तचिन्तन कर सकते हैं। हित करने का भरसक यत्न भी कर सकते हैं। इसी प्रकार शत्रु अहित चिन्तन भी कर सकते हैं और अहित करने का भरसक प्रयत्न भी कर सकते हैं, परन्तु ईश्वर की सुव्यवस्था के कारण न तो शत्रु ही अनधिकृत अहित करने में सफल हो सकता है, न मित्र अनधिकृत हित करने में। हम नित्य देखते हैं कि हमारे मित्र और स्वजन हमारा भला चाहते ही रहते हैं, फिर भी हम को दुख मिलता है। और हमारे शत्रु नित्य हमारे दुख के साधन जुटाते रहते हैं फिर भी हम दुःखों से बच जाते हैं। अतएव यही सत्य है कि कोई किसी को सुख या दुःख नहीं दे सकता। क्योंकि यदि कोई किसी को मार या बचा सकता है तो ईश्वर की न्यायवस्था कहां रही? और फिर मरने वाले को अकारण ही दुख भोगना पड़ा, जबकि उसका कोई दोष नहीं था।
प्रश्न १२– राजा या न्यायाधीश किसी को जो दण्ड या पुरस्कार देता है, क्या वह कर्मफल नहीं है? यदि है तो फिर ईश्वर के अतिरिक्त भी कर्मफल देने वाले हुए।