शंका १ – अधिकांश लोगों का विचार है कि हम कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं हैं। हम तो अपने प्रारब्ध-पूर्व जन्म के कर्मों से बन्धे हुए हैं। पूर्व जन्म के कर्म का अभ्यास हमें वैसे ही कर्म करने की प्रेरणा देता है जैसे हम कर्म करते आ रहे हैं। यदि चोर होंगे तो चोरी की प्रवृत्ति हमें पुनः चोरी करने की प्रेरणा देगी आदि। हम स्वतन्त्र नहीं बल्कि पूर्व जन्मों के कर्म से या प्रारब्ध से बंधे हुए हैं, इसी को दूसरे शब्दों में हम ईश्वर- इच्छा से कर्म करते हैं-इन शब्दों में कहते हैं।

समाधान

हमारी दृष्टि से ये विचार ठीक नहीं है। इस विचार के मानने में अनेक दोष आते हैं। उक्त विचार का समाधान इस प्रकार है-

क- वेदादि शास्त्रों में जो विधि-निषेध अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य के उपदेश दिये गये हैं, वे निरर्थक, सामान्य भाषा में कहें, तो व्यर्थ के प्रलाप सिद्ध होंगे। विधि वाक्य जैसे-

संश्रुतेन गमेमहि वेद के मार्ग पर चलें।                   -अथर्ववेद १//१//४

समानि आकूतिः हमारे विचार समान हों।          -ऋग्वेद १0//१९१//४

पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः मनुष्य मनुष्य की चारों ओर से रक्षा करें।        -यजुर्वेद २९//५1                   

सत्यं वद धर्म चर सत्य बोलें, धर्म का आचरण करें आदि अनेक विधि वाक्य प्राप्त होते हैं। निषेध वाक्य जैसे-

अक्षैर्मा दीव्यः जुआ मत खेलो।                     -ऋग्वेद १0//३४//१३

गां मा हिंसीः’गाय की हिंसा मत करो।

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्’ भाई भाई से द्वेष न करें।        -अथर्ववेद ३//३0//३

तथा- ‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ स्वाध्याय में आलस्य मत करो, आदि अनेक निषेध वाक्य प्राप्त होते हैं। इन विधि-निषेध वाक्यों की सार्थकता नहीं रहेगी।

ख- जिस मनुष्य के पूर्व संचित पापों के संस्कार हैं, उन्हीं संस्कारों के अनुसार प्रारब्धवश पाप करने की प्रवृत्ति बनी रहेगी, तो उसका उद्धार कभी हो ही नहीं सकेगा, इस पाप वृत्ति से हटने का संयोग उसे कभी प्राप्त हो नहीं सकेगा। वस्तुतः तो वर्त्तमान में प्रत्येक कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह प्रारब्ध से बंधा नहीं है।

ग- यदि जीव कर्म करने में पराधीन होगा, प्रारब्धाधीन होगा, तो ‘ईश्वर न्यायकारी एवं दयालु है’, ये दोनों ही विशेषण व्यर्थ हो जायेंगे। इतना ही नहीं ईश्वर पर अकृताभ्यागम तथा नैर्घृण्य दोष लग जायेंगे।

घ- यदि ईश्वर ही हम से कर्म करवाता है तो उसका सुख-दुख हमें नहीं प्राप्त होना चाहिए, उसका उत्तरदायित्व ईश्वर पर होगा।

ङ- शास्त्रों में संस्कारों को सम्पन्न करने कराने का विधान है। ये वर्त्तमान  जीवन में किये जाने वाले संस्कार संचित दूषित संस्कारों का अपनयन अर्थात् दूरीकरण तथा शुभ संस्कारों का उन्नयन करते हैं, अतः संस्कारों का विधि-विधान उचित ही है। ऐसा न हो, तो वह सब विधि विधान निरर्थक हो जायेगा। पूर्व जन्म के संस्कार, प्रारब्ध कर्म केवल कर्म करने की स्फुरणा प्रदान करते हैं, कर्म करने को बाध्य नहीं करते हैं। यह तो वर्त्तमान जीवन के संस्कारों द्वारा सम्पन्न होता हैं। अतः जीव कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है, यह मानना ही उचित है।

यह भी ध्यान रखने योग्य है कि पूर्व जन्म के दूषित संस्कार वर्त्तमान जीवन में शुभ संस्कारों से बदले जा सकते हैं, पर कर्मफल से हम किसी भी दशा में बच नहीं सकते हैं। हाँ, ईश्वरस्तुति प्रार्थनोपासना के द्वारा प्राप्त असहनीय पाप फलों को सह्य बना सकते हैं। अतः परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थनोपासना अवश्य करनी चाहिए।

                                       -अर्जुन देव स्नातक