हमारी दिनचर्या में शामिल किए जाने योग्य कर्म

-ब्रह्म यज्ञ या ईश्वर-चिन्तन—संध्या से अभिप्राय उन मंत्रों से है, जिनके माध्यम से हम परमात्मा का ध्यान अच्छी तरह से कर सकें। वैसे तो वेद का प्रत्येक मंत्र, जो मोक्ष-विद्या से सम्बन्धित हो, संध्या में विचारा जा सकता है, परन्तु, वर्षों से विलुप्त हुई इस विद्या का पुनरुद्धार स्वरूप महर्षि दयानन्द ने अपनी दिव्य दृष्टि और परम सूक्ष्म बुद्धि से वेदों के उन्नीस मंत्रों को चुनकर एक जगह एकत्रित कर दिया है। यह मंत्र समूह और उनका क्रम कुछ इस तरह का है कि हमारी आत्मा बड़ी आसानी से उन्नति को प्राप्त हो जाती है। ऐसा कभी न हो कि दिन और रात परमात्मा का नाम लिए बिना ही बीत जाए। यदि आप प्रथम बार संध्या को अपनी दिनचर्या में शामिल कर रहे हैं, तो संध्या के मंत्रों के नीचे दिए गए अर्थों को किसी एकान्त स्थान वा घर के किसी एकान्त कोने में, निश्चल बैठकर पढ़ें। कुछ दिनों के अभ्यास के उपरान्त, ऑंखें बन्द करके नीचे दिए गए अर्थों के भावों पर चिन्तन करें। मनोविज्ञान के नियमों के अनुसार हमारा मन उसी चीज को करने में लगता है, जिसको करने के लाभ के बारे में हमारे मन में निश्चितता हो, इसलिए संध्या में मन न लगने का एक कारण- ईश्वर की उपासना करने के लाभों के बारे में हमारे मन में निश्चितता का न होना भी है। इसके लिए हमें बार-बार ईश्वर की उपासना करने के लाभों का अध्ययन करना चाहिए। एक बार मन को यह निश्चय हो गया कि उपासना करने का लाभ अतुल्य है, तो वह स्वमेव ही संध्या में लग जाएगा। वैसे तो संध्या व ध्यान को भूमि पर बैठकर ही किया जाता है, परन्तु यदि किसी रोग वश वा अवस्था वश भूमि पर बैठना सम्भव न हो, तो इसे कुर्सी, स्टूल आदि पर बैठकर भी किया जा सकता है। आपातकाल को छोड़कर संध्या करने में किसी भी दिन नागा नहीं पड़ना चाहिए।

ब्रह्म यज्ञ की आवश्यकता– ईश्वर ने न केवल पृथिवी, सूर्य आदि लोक-लोकान्तरों का निर्माण किया है, बल्कि, उसने हमारे शरीरों को रचने के साथ-साथ हमारे भोग के लिए विद्यमान सभी सांसारिक वस्तुओं को उत्पन्न किया है। जड़ वस्तुओं को रचने के साथ-साथ वह अपने आनन्द, प्रेम, करुणा आदि के स्वरूप में हमारे अन्दर विराजमान है। ऐसे अनन्त और सर्वशक्तिमान सम्राट के राज्य में वास करते हुए व सब प्रकार के सुख भोगते हुए, क्या हमारा यह कर्त्तव्य नहीं कि हम अपने राजा की महिमा का चिन्तन कर अपने मालिक के गुणों को गावें और उससे मिलने का प्रयत्न करें? धिक्कार है हमारे जीवन पर, यदि, हम परमात्मा के चरणों में बैठने का यत्न न करें।

राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विषयों के साथ रहकर किसी ने सुख और शान्ति को प्राप्त नहीं किया है। संध्या इन बुराइयों को दूर भगाने का प्रबल और अचूक शस्त्र है। जैसे सूर्य की रश्मियों से अन्धकार की कालिमा छिन्न-भिन्न हो जाती है, उसी तरह से पाप के दल संध्या रूपी शस्त्र से नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। इन मंत्रों की अदभुत शक्ति है। इनके अर्थों पर विचार करने से जीवन के आदर्श उच्च हो जाते हैं, पाप में रुचि कम हो जाती है और ईश्वर में प्रेम बढ़ता है।   

विधि– वैसे तो हर पल परमात्मा का स्मरण करना चाहिए, परन्तु, कर्म के रूप में ऋषियों ने संध्या के लिए प्रतिदिन दो कालों का विधान किया है। यह दोनों समय संधि-वेला हैं, अर्थात जिस समय दिन और रात्रि का मिलाप होता है। अच्छा तो यह है कि संध्या को किसी शान्त और अच्छे वातावरण में किया जाए, परन्तु, अच्छे स्थान के अभाव में बेहतर है कि इसे बुरे स्थान पर बैठकर ही कर लिया जाए। जैसे श्वास-प्रश्वास में नागा नहीं किया जा सकता, वैसे ही इस नित्यकर्म को भी छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि भजनों के शाब्दिक व मानसिक उच्चारण से ध्यान के समय हमारी एकाग्रता में वृद्धि होती है, इसलिए हम यहाँ दो भजन  दे रहे हैं। संध्या के मंत्रों के अर्थों पर विचार करने से पहले इनमे से किसी एक भजन को उच्चारित कर लिया जाए।

संध्या के मंत्रों के अर्थ

प्रार्थना- हे सर्वाधार, सर्वान्तर्यामिन परमेश्वर! आप अनन्त काल से अपने उपकारों की वर्षा किए जाते हो। प्राणिमात्र की सम्पूर्ण कामनाओं को तुम्हीं प्रतिक्षण पूर्ण करते हो। हमारे लिए जो कुछ शुभ है तथा हितकर है, उसे तुम बिना मांगे ही स्वयं हमारी झोली में डालते जाते हो। तुम्हारे आँचल में अविचल शान्ति और आनन्द का वास है। तुम्हारी चरण-शरण की शीतल छाया में परम तृप्ति है, शाश्वत सुख की उपलब्धि है, सभी शुभ-इच्छित पदार्थों की प्राप्ति है।

हे जगत्पिता परमेश्वर! हम में सच्ची श्रद्धा तथा विश्वास हो। हम तुम्हारी अमृतमयी गोद में बैठने के अधिकारी बनें। अन्तःकरण को मलिन बनाने वाली स्वार्थ तथा संकीर्णता की सब शूद्र भावनाओं से हम ऊँचे उठें। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि कुटिल भावनाओं तथा सब मलिन वासनाओं को हम दूर करें। अपने हृदय की आसुरी प्रवृतियों के साथ युद्ध में विजय पाने के लिए, हे प्रभो! हम तुम्हें पुकारते हैं और तुम्हारा आँचल पकड़ते हैं।

हे परम पावन प्रभो! हम में सात्विक वृतियाँ जागृत हों। क्षमा, सरलता, स्थिरता, निर्भयता, अहंकारशून्यता इत्यादि शुभ भावनाएँ हमारी सम्पत्ति हों। हमारा शरीर स्वस्थ तथा परिपुष्ट हो, मन सूक्ष्म तथा उन्नत हो, आत्मा पवित्र तथा सुन्दर हो, तुम्हारे संस्पर्श से हमारी सारी शक्तियाँ विकसित हों। हृदय दया तथा सहानुभूति से भरा हो। हमारी वाणी में मिठास हो तथा दृष्टि में प्यार हो। विद्या और ज्ञान से हम परिपूर्ण हों। हमारा व्यक्तित्व महान तथा विशाल हो।

हे प्रभो! अपने आशीर्वादों की वर्षा करो। दीनातिदीनों के मध्य में विचरने वाले तुम्हारे चरणारविन्दों में हमारा जीवन अर्पित हो। इसे अपनी सेवा में लेकर हमें कृतार्थ करें, कृतार्थ करें, कृतार्थ करें।

-देव-यज्ञ अर्थात हवन– प्रतिदिन दो बार हवन करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए हमें पहले के मुकाबले वर्ष में अधिक बार हवन करने की आदत डालनी चाहिए। प्रारम्भ में हवन के मन्त्रों के कंठस्थ न होने पर हवन करते समय मंत्रों का उच्चारण न कर केवल उनके अर्थों का चिन्तन करना ही पर्याप्त है।

हवन की आवश्यकता– वायु, जल, पृथ्वी, सूर्य आदि जितने भी जड़ देवता हैं, उनको शुद्ध व पवित्र रखना हम मनुष्यों की जिम्मेदारी है और इस दायित्व का निर्वहन हवन से ही किया जा सकता है। अन्य किसी भी प्रणाली से इनको शुद्ध व पवित्र नहीं किया जा सकता। कोई भी प्राणी और कोई भी मनुष्य, चाहे किसी भी मत का मानने वाला हो, यह नहीं कह सकता कि उसको वायु, जल, अन्नादि शुद्ध नहीं चाहिए और अन्य सभी मतों में इन देवताओं को शुद्ध व पवित्र करने की कोई विधि नहीं है। हवन रूपी एक ही कर्म सभी जड़ देवताओं को शुद्ध व पवित्र करने के लिए पर्याप्त है।
हवन ही इन जड़ देवताओं की वास्तविक पूजा है। पूजा के रूप में जड़ मूर्तियों को लगाया गया भोग स्वीकार नहीं होता, परन्तु हवन में आहूत की गई सामग्री और घी को पुनः अग्नि से उसी रूप में निकालना असम्भव है, अर्थात वे हव्य पदार्थ अग्नि देवता द्वारा स्वीकार कर लिए जाते हैं। पौराणिकों की पूजा पद्धति और हवन रूपी पूजा पद्धति में यह सैद्धान्तिक भेद है।

हमारे सम्पूर्ण जीवन में इन देवताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके योगदान को भुलाकर हमारा उनकी शुद्धता व पवित्रता के लिए हवन न करना पाप है।

हवन के मंत्रों के अर्थ

हमें अपने शारीरिक व्यायाम का समय 10-15 मिनट से बढ़ाकर आधा घण्टा कर देना चाहिए।