स्तुति, प्रार्थना, उपासना और पूजा का अर्थ क्या है?
स्तुति
किसी पदार्थ के गुणों को गुण व अवगुणों को अवगुण कहना स्तुति कहाती है। अवगुणों को अवगुण कहने से अन्यों को दुख हो सकता है परन्तु विश्व हित के लिए ऐसा करना सही है। स्तुति के विपरीत निन्दा है जिसमें किसी पदार्थ के गुणों को अवगुण व अवगुणों को गुण बताया जाता है। हम कह सकते हैं कि स्तुति में सत्य भाषण पिरोया हुआ है। इससे जिस पदार्थ का गुणगान किया जाता है उससे प्रीति बढ़ती है। ‘स्तुति’ शब्द का उपयोग ईश्वर के गुण कीर्तन के लिए किया जाता है परन्तु एक व्यक्ति जो भांड की तरह ईश्वर के गुणों का गान करता है और उन गुणों को अपने चरित्र में नहीं उतारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
प्रार्थना
अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है, उसको वैसा ही करना चाहिये अर्थात जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हो सके, उतना किया करे। अर्थात अपने पुरुषार्थ के उपरान्त ही प्रार्थना करनी योग्य है। जो कोई ‘गुड़ मीठा है कहता रहै, उसको गुड़ प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता, और जो यत्न करता है, उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के शब्दों में-
‘प्रार्थना अर्थात सहाय की याचना उसी से की जाती है जो सहायता करने में समर्थ हो।’
ईश्वर जैसा समर्थ ओर कोई नहीं। भौतिक पदार्थों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना करनी उचित है। प्रार्थना से ईश्वर हमें हमारे न्यायोचित कर्मफल से कदापि नहीं बचा सकता। परन्तु प्रार्थना के आधार पर हमारे न्यायोचित कर्मफल के समय आदि को अवश्य बदल सकता है।
प्रार्थना से मनुष्य के अभिमान का नाश होता है। किसी अन्य द्वारा प्रार्थना करने पर व्यक्ति का मंगल या अमंगल नहीं हो सकता। यह कर्म-फल सिद्धान्त, जिसके अनुसार फल उसी को मिलता है जिसनें कर्म किया हो, के विरुद्ध है। हां, अन्यों द्वारा की गई कामना उसको किसी कर्म के लिए प्रेरित अवश्य कर सकती है। किसी अन्य द्वारा व्यक्ति के मंगल या अमंगल की प्रार्थना व्यक्ति के मन को अच्छा या बुरा सोचने को प्रेरित करता है। बुरी नज़र आदि भी इसी के अन्तर्गत आ जाते हैं। वास्तव में हम मानसिक तौर पर इतने कमज़ोर हो गए हैं कि अन्यों द्वारा की गई अमंगल कामनाओं से प्रेरित होकर हम गलत कर बैठते हैं जिसके परिणाम स्वरूप कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार हमें दुख भोगना पड़ता है और हम इसका कारण अन्यों द्वारा की गई अमंगल कामनाओं को मानने लगते हैं। अन्यों द्वारा की गई अमंगल कामनाओं के बावजूद हम अच्छा कर सकते हैं, बुरा करने को हम किसी भी तरह बाध्य नहीं।
उपासना
ईश्वर के आनन्द स्वरूप में अपनी आत्मा को मग्न करना ही उपासना है।
महर्षि दयानन्द सरसवती जी के शब्दों में-
‘जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेश्वर का समीप्य प्राप्त होने से सब दोष, दु:ख छूट कर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के सदृष जीवात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते है। इसलिए परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिए। इससे आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि वह पर्वत के समान दु:ख प्राप्त होने पर भी न घबराएगा। और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रखे हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना ‘कृतघ्नता’ और ‘मूर्खता’ से कम नहीं है।’
ईश्वर का नाम जपना, नाम भजना, नाम सुमिरन का अर्थ ईश्वर की स्तुति और उपासना है।
पूजा
पूजा का शाब्दिक अर्थ है सम्मान करना। आजकल पूजा के अन्तर्गत स्तुति, प्रार्थना और उपासना तीनों को, इनके गलत अर्थों में लिया जाता है।