धर्म किसे कहते हैं? इसके लक्षण क्या हैं?
संस्कृत एक अत्यन्त समृद्ध भाषा है और इसे अन्य भाषाओं का स्रोत भी कहा जाता है। वह एक शब्द, जिसका संस्कृत भाषा में भी कोई पर्यायवाची शब्द नहीं, है धर्म। धर्म शब्द अपने आप में इतनी अधिक व्यापकता लिए हुए है कि इसको परिभाषित करना अत्यन्त दुष्कर है। हमें जो करना चाहिए, वो करना और जो नहीं करना चाहिए, उसे न करना ही धर्म है। वेद में पूरा बताया गया है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि वेद की आज्ञाओं का पालन करना ही धर्म है। महर्षि मनु ने धर्म के निम्नलिखित दस लक्षण (symptoms) बताए हैं –
1. धृति – सुख, दुख, हानि, लाभ, मान, अपमान में धैर्य रखना।
2. क्षमा – सहनशीलता। बलवान के कष्ट देने पर निर्बल द्वारा उसे सह लेना, क्षमा नहीं है अपितु असमर्थता है। शरीर में सामर्थ्य होने पर भी बुराई का बदला न लेना क्षमा है। दूसरों के साथ अन्याय होते हुए देखना और प्रत्युत्तर में कुछ न करना धर्म नहीं। अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करने को सहनशीलता कहा जा सकता है। परन्तु, यदि, अपने प्रति होने वाले अन्याय को सहन करना अन्यायी का हौसला बढ़ाने वाला है या समाज में गलत उदाहरण सिद्ध करने वाला है, तो, इसे सहनशीलता मानकर कदापि चुप नहीं बैठना चाहिए।
क्षमा का अर्थ माफ करना लिया जाता है, जो कि गलत है। इस संदर्भ में पाठकों द्वारा ईश्वर के गुण – न्यायकारिता व दयालुता का अवलोकन वांछित है।
3. दम – मन को बुरे चिन्तन से हटाकर अच्छे कामों में लगाना।
4. अस्तेय- अन्याय से धन आदि ग्रहण न करना तथा बिना आज्ञा दूसरे का पदार्थ न लेना ही अस्तेय है। अर्थात चोरी, डाका, रिश्वतखोरी, चोर बाज़ारी आदि का त्याग करना।
5. शौच – शरीर के अन्दर की तथा बाहर की शुद्धि रखना। बाहर की अथवा शरीर आदि की शुद्धि से रोग उत्पन्न नहीं होते, जिस से मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। बाहर की शुद्धि का प्रयोजन मानसिक प्रसन्नता ही है। अन्दर की शुद्धि राग, द्वेष आदि के त्याग से होती है। शुद्ध सात्तिवक भोजन तथा वस्त्र, स्थान, मार्ग आदि की शुद्धि भी आवश्यक है।
6. इन्द्रिय निग्रह – हाथ, पांव, मुख आदि इन्द्रियों को अच्छे कामों में लगाना।
7. धी – बुद्धि बढ़ाना। मांस, शराब, तम्बाकू आदि के त्याग से, ब्रह्मचर्य या वीर्यरक्षा से, अच्छी पुस्तकों के अध्ययन से, उत्तम औषधियों के सेवन से, दुष्टों के संग व आलस्य के त्याग आदि से बुद्धि बल बढ़ाना।
8. विद्या – तिनके से लेकर ईश्वर तक सभी पदार्थों का ठीक ठीक ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे यथार्थ उपकार लेना।
9. सत्य – किसी वस्तु के विषय में प्रमाणों द्वारा परीक्षित करने के पश्चात, जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और वैसा ही करना सत्य कहलाता है।
10. अक्रोध – इच्छा के पूरा न होने से, जो क्रोध उत्पन्न होता है, उसका त्याग करना चाहिये। दुष्टों के दमन व न्याय की रक्षा के लिए क्रोध आना ही चाहिए। ऐसे समय में अक्रोध का कवच धारण करना अधर्मी होना है। क्रोध का उद्देश्य बुराई को रोक कर दूसरों का कल्याण करना होना चाहिए न कि बदला लेना।
बाहरी चिन्ह किसी को धर्मात्मा नहीं बनाते। कपड़े कैसे पहनें या बाल कैसे रखें आदि बातें देश, काल, ऋतु और रुचि पर आधारित हैं। काला या पीला चोगा पहनना, कण्ठी माला धारण करना, तिलक लगाना, जटा बढ़ाना आदि बातों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
सार रूप में कहा जाए तो, हर वह कर्म जो हमें हमारे प्रति किया जाना अच्छा लगता हो, वह धर्म है। जैसे, हम चाहते हैं कि दूसरे हमसे सत्य बोलें, तो सत्य-भाषण धर्म है, दूसरे हमें कष्ट न पहुचाएं, तो अहिंसा धर्म है आदि और हर वह कर्म, जो हमें हमारे प्रति किया जाना अच्छा न लगता हो, वह अधर्म है, जैसे, हम नहीं चाहते कि कोई हमारे बारे में बुरा सोचे व हमसे द्वेष रखे, तो दूसरों के प्रति बुरा सोचना व दूसरों से द्वेष रखना अधर्म है।