क्या सृष्टि का रचियता ईश्वर ही है?
यहां पर हम यह सिद्ध करेगें कि इस सृष्टि का रचयिता ईश्वर है और ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं है। यह यहां इसलिए सिद्ध किया जा रहा है, ताकि लोगों की धारणा कि ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता को गलत साबित किया जा सके।
(क) सृष्टि की रचना से हमारा तात्पर्य भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों व अनेकों नक्षत्रों व ग्रहों के निमार्ण से है। थोड़ा सोचने से ही हमें इस सृष्टि, जिसमें अनेकों सौर मण्डल हैं, की विशालता का आभास हो जाता है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जगत का प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है और कुछ समय पश्चात विनाश को प्राप्त हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि पदार्थों की उत्पत्ति है, तो विनाश भी है। उत्पत्ति और विनाश स्वयं नहीं हो सकते। जैसे कोई प्राणी बिना माता-पिता के स्वयं उत्पन्न नहीं होता, बिना निर्माता के कोई यन्त्र, रेल, वायुयान आदि नहीं बन सकते, उसी प्रकार जगत के पदार्थ भी स्वयं नहीं बन सकते। जैसे संसार के बने हुए पदार्थ उस के निर्माता के होने का संकेत करते हैं, उसी प्रकार यह सृष्टि भी किसी निर्माता की ओर संकेत कर रही है। सृष्टि के उसी निर्माता को ईश्वर कहा गया है। जो रचना ईश्वर द्वारा की जाती है, जैसे सूर्यादि नक्षत्र व प्राणियों के शरीरों का निर्माण, उसे दैविक रचना कहा जाता है और जिन वस्तुओं का निर्माण प्राणियों द्वारा किया जाता है, जैसे बस, कार, घर आदि उन्हें जैविक रचना माना जाता है।
जो लोग यह कहते हैं कि सृष्टि-रचना परमाणुओं का स्वत: संयोग है, उनका यह कथन युक्ति-प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि सृष्टि परमाणुओं के संयोग से बनी है, तो संयोग एक कर्म हुआ और कोई कर्म, कर्त्ता के बिना नहीं हो सकता। इस बात को एक और ढंग से भी नकारा जा सकता है -आधुनिक विज्ञान के पिता माने जाने वाले इज़ाक न्यूटन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार वस्तु स्थिर अथवा गतिशील अवस्था में तब तक बनी रहेगी, जब तक कोई बाह्य शक्ति उसमें परिवर्तन न लाए। यह बाह्य शक्ति ही ‘ईश्वर’ है। बिना बाह्य शक्ति अथवा ईश्वर के, संयोग द्वारा परमाणुओं का मिलना व सृष्टि-रचना का मानना आज के विज्ञान की दृष्टि में भी अत्यन्त अतर्क संगत व मूर्खतापूर्ण बात है।
ईश्वर को सृष्टि रचना के लिए हाथों आदि की आवश्यकता नहीं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वह प्रकृति में व्याप्त है व अपने अत्यन्त सामर्थ्य से वह नियमानुसार प्रकृति को जगदाकार कर देता है और उसका धारण और प्रलय भी करता है। ईश्वर द्वारा बगैर हाथों आदि के सृष्टि के निमार्ण करने को एक ओैर तरह से समझाया जा सकता है। हाथों आदि अवयवों की आवश्यकता तभी होती है, जब जिस वस्तु में क्रिया करनी हो, वह हाथों से अलग हो, परन्तु एक हाथ को उठाने के लिए दूसरे हाथ की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि ईश्वर सृष्टि की वस्तु वस्तु में व्याप्त है, इसलिए उसे सृष्टि की रचना के लिए हाथों आदि अवयवों की आवश्यकता नहीं होती।
(ख) हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि संसार के जड़, चेतन पदार्थों की रचना बुद्धि पूर्वक है, नियमानुसार क्रमबद्ध है और व्यवस्थित है। जहां नियन्ता नहीं होता, वहां, अव्यवस्था का होना स्वाभाविक माना जाता है, परन्तु, संसार का नियन्त्रण और व्यवस्था तो ऐसी है, जिसमें कभी अव्यवस्था नहीं होती। इससे सिद्ध है कि कोई ऐसी शक्ति है, जो जगत का बुद्धिपूर्वक निर्माण, बुद्धिपूर्वक व्यवस्था व बुद्धिपूर्वक नियम-क्रम का आयोजन करती है। वही शक्ति ईश्वर के नाम से पुकारी जाती है।
(ग) हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्राणियों का शरीर कार्य करते-करते ऐसा निष्क्रिय हो जाता है कि वह डाक्टरों के असंख्य प्रयासों, औषधि-उपचारों और यन्त्रों की सहायता से भी कार्य नहीं करता इससे यह सिद्ध होता है कि कोई चेतन सत्ता व शक्ति थी, जो उस शरीर को चेतन रख रही थी व जिस के छोड़ कर चले जाने से वह शरीर निष्क्रिय हो गया। इसी चेतन सत्ता को जीवात्मा कहते हैं। एक सिद्धान्त है कि जिस सत्ता के होने से कोई गुण हो और न होने से वह गुण न रहे, तो वह गुण उस सत्ता का माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, क्योंकि जीवित प्रणियों में ज्ञान का गुण प्रतीत होता है और मृत प्राणियों में ज्ञान के गुण का अभाव हो जाता है, तो ज्ञान अथवा चेतनता वास्तव में जीवात्मा, जिस के होने से शरीर जीवित व न होने से मृत होता है, का गुण है।
जीवात्मा का शरीर से स्वत: संयोग वियोग नहीं होता। यदि, जीवात्मा से पृथक कोई कर्त्ता न होता, तो कोई भी जीवात्मा कभी भी लूले, लंगड़े, अन्धे, काने अथवा रोगी शरीर को स्वयं धारण न करता। जीवात्मा सदा सुन्दर शरीर को ही धारण करता, न कभी मरता और न कभी दुख को ही स्वीकार करता, क्योंकि जीवात्मा कभी दुख नहीं चाहता। सुख-दुख का होना कर्मफल के होने को सिद्ध करता है। जो शक्ति जीवात्मा के कर्मों के फल स्वरूप उसका जड़ शरीर से संयोग या वियोग करवाती है, उसी शक्ति का नाम ईश्वर है।
(घ) जड़ परमाणुओं का कितना भी संयोग हो जाए, उनमें चेतनता उत्पन्न नहीं हो सकती। हिमालय विशाल परमाणु समूह है, फिर भी चेतन नहीं हो सका। इसी प्रकार समुद्र विशाल जल संग्रह है, पर चेतन नहीं, रेलें-बसें चल सकती हैं, पर चेतन नहीं बन सकीं। इससे सिद्ध होता है कि कोई चेतना शक्ति जड़ परमाणुओं से पृथक है। एक अन्य चेतन शक्ति है, जो अत्यन्त महान है और जो पहले वाली चेतन सत्ता का जड़ परमाणुओं से संयोग वियोग एक निश्चित व्यवस्था के अनुसार करती है। इन्हीं शक्तियों को क्रमश: जीवात्मा और परमात्मा कहा जाता है।
(ड.) हम संसार में आम देखते हैं कि मनुष्य दुख से पीड़ित अवस्था में व संकट में ईश्वर का स्मरण करता है। दुख में ईश्वर का स्मरण करने से मनुष्य सुख-शान्ति का अनुभव करता है। ठीक वैसे ही, जैसे, कोई बच्चा मां की गोद का आश्रय पाकर सुख-शान्ति का अनुभव करता है। यह स्थिति नास्तिकों में भी पायी जाती है। इस व्यवहार और प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि ईश्वर का अस्तित्व है।
(च) प्रत्येक व्यक्ति को हर अच्छा काम करने में आत्मा के भीतर से उत्साह और निसंकोच व हर बुरा काम करने में भय, लज्जा और संकोच की अनुभूति होती है। परन्तु व्यक्ति अविद्या, अज्ञान, आलस्य-प्रमाद, तमोगुण और संस्कार-दोष के कारण इस पुकार को अनसुना कर, बुरा काम करने को तत्पर हो जाता है। हमारी आन्तरिक व्यवस्था इस प्रकार की है कि हम जान सकते हैं कि कोई काम अच्छा है या बुरा। इसके लिए आवश्यक है, तो बस इतना कि हम पूर्ण आन्तरिक शुद्धि से आत्मा के भीतर से उठने वाली पुकार को सुन सकें। हम पहले कह आए हैं कि ईश्वर अपने अनन्त ज्ञान को साधन रूप में प्रयोग करता हुआ इस सृष्टि की रचना करता है। ईश्वर के इसी ज्ञान की झलक हमें, आत्मा के भीतर की पुकार के रूप में दिखाई पड़ती है। इन बातों से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस कथन में महर्षि दयानन्द के निम्न वाक्य शब्द प्रमाण है।
आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, नि:शंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं, किन्तु परमात्मा की ओर से है।
(छ) आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों में कुछ वैज्ञानिक निजि रूप से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। कुछ के आविष्कृत वैज्ञानिक सिद्धान्तों से ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप की पुष्टि होती है। हां, वैज्ञानिक यह स्वीकार करते हैं, कि वे अपनी लैबोरेटरी के द्वारा ईश्वर को सिद्ध नहीं कर सकते। किन्तु, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि ईश्वर है ही नहीं। अभी तक वे जीवात्मा को भी लैबोरेटरी में सिद्ध नहीं कर सके, किन्तु व्यवहार में जन्म और मृत्यु को मानते हैं। दिन-प्रतिदिन सूक्ष्म पदार्थों की खोजें हो रही हैं, जो पहले नहीं हुईं थी। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे पदार्थ अस्तित्व में ही नहीं थे। नीचे हम पाश्चात्य विज्ञान की दो प्रसिद्ध हस्तियों की ईश्वर के अस्तित्व तथा स्वरूप विषयक मान्यताएं दोहरा रहे हैं।
“All this material universe is the handwork of one omniscient and omnipotent creator”
– Isac Newton (Book – Prince Pia by Isac Newton)
“I believe in god who reveals himself in the orderly harmony of the universe. I believe that intelligence is manifested throughout all nature. The basis of all scientific work is the conviction that the world is an ordered and comprehensive entity and not a thing of chance”
– Einstein (Book – Science and the idea of god by WW. Earnest Hacking)
-यहां दिए अधिकतर विचार एक अनजान व्यक्ति के हैं।