हमारी दिनचर्या में शामिल किए जाने योग्य कर्म

1 ब्रह्म यज्ञ या ईश्वर-चिन्तन— इस स्तर में ध्यान के समय को बढ़ा कर कम से कम 30 मिनट कर लें। ताकि संध्या के मंत्रों से ध्यान करने में सुविधा हो, इस स्तर में संध्या के मंत्र व उनके अर्थ भी दिए जा रहे हैं। अब संध्या करते हुए सम्बन्धित मंत्रों का उच्चारण भी प्रारम्भ कर दें। क्योंकि, संध्या का एक उद्देश्य समाज व परिवार में एक अच्छी परम्परा डालना है, जो मन ही मन संध्या के मंत्रों के अर्थों पर विचार करने से सम्भव नहीं। इस विषय पर कुछ पुस्तकों का भी अध्ययन किया जा सकता है, ताकि मंत्रों के प्रत्येक पद का अर्थ स्मरण किया जा सके। कुछ समय के अभ्यास के पश्चात मंत्रों के पदों को मन में लाते हुए साथ-साथ उनके अर्थों का भी ध्यान होता जाएगा। यह समयावधि कुछ दिनों से कुछ वर्ष भी हो सकती है।

संध्या की आरम्भिक विधि- प्रथम बाह्य शुद्धि शौच एवं स्नान आदि करें, यदि स्नान करने में अक्षमता हो, तो मुख आदि अंग स्वच्छ करके, जहां वायु का आवागमन उचित हो, कम्बल अथवा कुशासन आदि पर पीठ, कण्ठ, और सिर को सीधा रखते हुए सुखद स्थिति में बैठ कर आभ्यन्तर शुद्धि, मन तथा बुद्धि की एकाग्रता हेतु प्राणायाम करें। ये प्राणायाम प्राणायाम-मंत्रों के समय किए जाने वाले प्राणायामों से भिन्न हैं। भीतर के वायु को बल से बाहर फेंककर यथाशक्ति बाहर ही रोकें। तत्पश्चात वायु को धीरे-धीरे भीतर भरकर कुछ क्षण भीतर ही रोक के बाहर निकाल दें और वहाँ भी कुछ क्षण रोकें। इस प्रकार एक प्राणायाम के दौरान तीन बार प्राणों को रोका जाता है। पहली बार यथाशक्ति रोका जाता है व दूसरी और तीसरी बार कुछ क्षणों के लिए प्राणों को रोका जाता है। इसी प्रकार कम से कम तीन बार प्राणायाम करें। प्राणायाम से मन और आत्मा शान्त होते हैं। प्राणायाम उन लोगों की समस्या का निश्चित समाधान है, जो कहते हैं कि संध्या में मन नहीं लगता।

जो लोग रोगादि के कारण जमीन पर नहीं बैठ सकते, वे अपनी सुविधानुसार कुर्सी, स्टूल आदि पर बैठ सकते हैं और हमें यथाशक्ति कोशिश करनी चाहिए कि इस नित्य-कर्म में विघ्न न पड़े।   

संध्या के मंत्र व उनके अर्थ

 

2 देव-यज्ञ अर्थात हवन– प्रतिदिन दो बार हवन करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए हमें पहले के मुकाबले वर्ष में अधिक बार हवन करने की आदत डालनी चाहिए।

हवन एक ऐसा कर्म है, जिसमे की जाने वाली हर छोटी-छोटी विधि इस ब्रह्माण्ड में होने वाली विभिन्न दान, संगतिकरण और देवपूजा की क्रियाओं का एक प्रतीक मात्र है। साथ ही साथ इसकी हर एक विधि प्रतीकात्मक रूप से हमें अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली है। क्योंकि तर्जनी (Pointing Finger or Index Finger) और कनिष्ठा (Little Finger) घमण्ड और छोटेपन को दर्शाती हैं, इसलिए हवन में इनका प्रयोग नहीं किया जाता। हवन की प्रत्येक विधि मध्यमा, अनामिका और उंगूठे से की जातीं हैं, जैसे हवन में सामग्री की आहुति देना, घी का चम्मच (स्रूवा) पकड़ना, अंग-स्पर्श करना आदि आदि। हमारे हर कार्य में संतुलन का होना अति आवश्यक है। मध्यमा संतुलन का प्रतीक है। हमारा हर कार्य दूसरों व स्वयं के कल्याण के लिए होना चाहिए। इस तरह के कार्य करते हुए हममें नाम, यश आदि की लालसा नहीं होनी चाहिए। अनामिका इसी बात का प्रतीक है।

हवन करते हुए हमारा ध्येय यह होना चाहिए कि हवन-कुण्ड हमारे हृदय प्रदेश में स्थापित हो जाए, हवन की अग्नि ईश्वर का प्रतीक बन जाए और होम किए जाने वाले द्रव्य हमारी आत्मा को प्रतिबिम्बित करने लगें।

हवन के मंत्र व उनके अर्थ

 

3 हमें अपने शारीरिक व्यायाम का समय बढ़ाकर एक घण्टा कर देना चाहिए। इसके साथ-साथ हमें प्रयत्नपूर्वक शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के स्रोतों के बारे में जानकारी प्राप्त कर उन्हें अपने सामर्थ्यानुसार आचरण में लाना चाहिए।