वेद प्रवचन

-गंगा प्रसाद उपाध्याय

ओ३म्

पहला मंत्र

ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद्भद्रं तन्न  आसुव।।

ऋग्वेद ५//८२//५, यजुर्वेद ३०//३

 

अर्थ– हे प्रेरक देव! सब बुराईयों को दूर कीजिए। जो कल्याणकारक वस्तु हो, वह हमें दिलाइए।

व्याख्या– प्रत्येक मतमतान्तर का माननेवाला मनुष्य इस मंत्र से बिना संकोच के प्रार्थना कर सकता है। इस प्रकार की प्रार्थना सब प्रकार की साम्प्रदायिकताओं से मुक्त है। सभी ‘दुरित’से बचना चाहते हैं और ‘भद्र’को ग्रहण करना चाहते हैं।

इस मंत्र में तीन विशेष शब्द हैं, जिनके अर्थ विचारणीय हैं। एक ‘सविता’, दूसरा ‘दुरित’ और तीसरा ‘भद्र’। प्रार्थना का अर्थ है, प्र+अर्चना। ‘प्र’का अर्थ है ‘प्रकर्षेण’ तेजी से, विशेष उत्कण्ठा से। अर्थना का अर्थ मांगना। प्रार्थी उसी वस्तु को उत्कण्ठा से मांगता है, जिसका मूल्य उसको ज्ञात होता है और जिसको पा जाना उसकी शक्ति के भीतर है। भूखा भिखारी रोटी मांगता है, अमेरिका के राज की प्रधानता नहीं चाहता। अज्ञात या अप्राप्य वस्तु की कल्पना हो सकती है, कभी-कभी इच्छा भी, परन्तु इसको प्रार्थना नहीं कह सकते। प्रार्थना के लिए आन्तरिक उत्कण्ठा या विह्वलता आवश्यक है। उसके लिए यह जानने की आवश्यकता है  कि वह क्या वस्तु है जिसकी हमको मांग है? बच्चा भूख से व्याकुल होकर चिल्लाता है। यह उसकी सबसे सच्ची प्रार्थना होती है। ‘अर्थ’ बिना समझे ‘प्रार्थना’ करना अपने को धोखा देना है। जिस वस्तु को तुम जानते ही नहीं, उसको प्राप्त करने की इच्छा ही कैसे हो सकती है और यदि वह वस्तु प्राप्त भी हो जाए, तो उससे तुमको क्या लाभ हो सकता है? संसार में लोग ‘मोक्ष’ या ‘स्वर्ग’ के लिए सबसे अधिक प्रार्थना करते हैं। वे नहीं जानते कि मोक्ष क्या वस्तु है या स्वर्ग कैसा और कहां है। इसलिए ऐसी अज्ञात प्रार्थनाएं मोक्ष के स्थान में बन्ध और स्वर्ग के स्थान में नरक की प्राप्ति ही कराती हैं। इसलिए प्रार्थी को ‘दुरित’ और ‘भद्र’ के अर्थों को जानना चाहिए।

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आप्टे ने ‘दुरित’ का अर्थ किया है Difficult (कठिन), Sinful (पाप),  A bad course (बुरा मार्ग)। धातु और प्रत्यय पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि मार्ग में जो कुछ बाधाएं उपस्थित होती हैं, वे सब ‘दुरित’ हैं। आप कहीं पर पहुंचने के लिए कोई मार्ग खोजते हैं। यदि मार्ग अच्छा है, तो यात्रा सुगम होती है, परन्तु मार्ग में कांटे हों तो यह ‘दुरित’ है। यदि ईंट-कंकड़ के रोड़े हों तो यह दुरित है। यदि ऊबड़-खाबड़ हो तो यह दुरित है। यदि झाड़-झंखाड़ हो तो यह दुरित है। यदि आपके पैरों में थकावट आ जाए और आपको यात्रा के बीच में ही बैठ जाना पड़े, यह दुरित है। यदि मार्ग में डाकू मिल जाएं, तो यह दुरित है। सारांश यह कि आपकी जीवनयात्रा में जो बाधाएं पड़ती हैं, वे सब दुरित हैं।

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छोटा-सा भी दुरित शेष रह गया तो, आपकी जीवनयात्रा असम्भव हो सकती है। आपका समस्त शरीर सुदृढ़ और रोगरहित हो, केवल पैर की सबसे छोटी अंगुली के एक किनारे पर सरसों के बराबर फोड़ा हो जाए, आप देखेंगे कि आपका सारा काम ठप्प हो जाएगा। ‘दुरितों’ का दूर करना ही भद्र है। रुकावटों के निः शेष होने पर जो स्थिति होगी, वही ‘भद्र’है। उसी की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है।

इस मंत्र में ईश्वर को ‘देव सवितः’ कहकर पुकारा गया है।

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‘सविता’ का अर्थ है, ‘प्रसविता’ अर्थात् प्रेरक। मोनियर विलियम्स ने अपने ‘बृहद् संस्कृत कोश’ में ‘सव’ का अर्थ दिया है, “One sets in motion, impels, an instigator stimulator.” सविता का अर्थ है-a stimulator, rouser, vivifier. 

परमात्मा ‘सविता’, ‘प्रसविता’या प्रेरक है, इसका क्या अर्थ है?

संकुचित अर्थ में ‘सविता’ सूर्य को भी कहते हैं। सूर्य भी प्रसविता या प्रेरक है। रात के व्यतीत होने पर सूर्य की किरणें, जब वस्तुओं पर पड़ती हैं. तो हर पदार्थ के भीतर एक प्रकार की प्रेरणा या जागृति उत्पन्न हो जाती है। सूर्य किसी नई चीज का उत्पादन नहीं करता। पदार्थों में जो शक्तियां निहित थीं, वे ही जाग उठती हैं, नया जीवन आ जाता है। अंग्रेजी के शब्द stimulator या vivifier आन्तरिक भावों को ठीक-ठाक व्यक्त करते हैं। कोई मनुष्य प्रातः काल अपने जीवन में सूर्य के प्रकाश से आई हुई इस जागृति का अनुभव कर सकता है, अन्य प्राणधारी, या वनस्पति आदि जड़पदार्थ भी इस बात के द्योतक हैं। सूर्य की किरणें यदि, गुलाब पर न पड़ती तो गुलाब न खिलता। सूर्य की किरणें गुलाब नहीं हैं, सूर्य का और गुलाब का कारण-कार्य का सम्बन्ध नहीं हैं, सूर्य से गुलाब नहीं बना, न गुलाब बिगड़कर सूर्य में विलीन होगा, परन्तु गुलाब की आन्तरिक बीजरूप अविकसित शक्तियों को विकास करने को उद्यत करने में सूर्य की किरणें प्रेरक हैं। उनके द्वारा भीतर से कुछ ऐसा परिवर्तन होता है कि गुलाब के समस्त अन्तर्निहित गुण अव्यक्त से व्यक्त हो जाते हैं। दूसरा दृष्टान्त आप विद्युत् का ले सकते हैं। विद्युत्-तरंग को भी सविता या प्रेरक कह सकते हैं। एक ही विद्युत्-कोष से भिन्न-भिन्न यंत्रों का सम्बन्ध होता है। तरंग खुलते ही भिन्न-भिन्न यन्त्रों को प्रेरणा मिलती है और वे प्रगतिशील हो जाते हैं- आटे की चक्की आटा पीसने लगती है, लकड़ी काटने की मशीन लकड़ी काटने लगती है, छापेखाने की मशीन छापने लगती है। मशीनें अलग-अलग हैं, परन्तु प्रेरणा सबको उसी विद्युत्-तरंग से मिलती है।

इन लौकिक उदाहरणों की आन्तरिक भावनाओं पर विचार कीजिए और फिर उनको इस मंत्र में प्रयुक्त ‘सविता’ शब्द पर घटाइए।

परमात्मा किसी प्राणी को बलात् आज्ञा नहीं देता कि तुम ऐसा करो, तुम ऐसा मत करो। प्रायः धार्मिंक क्षेत्रों में ऐसी धारणा है कि ईश्वर जो चाहता है प्राणियों से कराता है, परमात्मा जिसको चाहता है ठीक मार्ग पर लगाता है, जिसको चाहता है गुमराह कर देता है। यदि, ईश्वर इसी प्रकार अपनी आज्ञाओं को बलात् जीवों पर थोपता तो जीवों की प्रार्थना व्यर्थ जाती।

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यदि परमात्मा की इच्छा ही है कि संसार में दुरित रहें, तो दुरितों के दूर करने और उनके स्थान में ‘भद्र’ प्राप्त कराने का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु परमात्मा के लिए इस प्रकार की भावना वैदिक भावना नहीं है। परमात्मा न किसी जीव को बनाता है, न उसको किसी विशेष कार्य के लिए मजबूर करता है। सूर्य की किरणें जब मिर्च के बीज पर पड़ती हैं और साथ-ही-साथ उसके पास ही बोये हुए गाजर के बीज पर पड़ती हैं, तो उनकी प्रेरणा तो दोनों के लिए होती है, परन्तु मिर्च का बीज तो मिर्च बनाता है और गाजर का गाजर। एक में कड़वापन, दूसरे में मीठापन! किरणें न कड़वापन उत्पन्न करती हैं न मीठापन। केवल प्रेरणा देती हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरणें पदार्थों को जागृति देती हैं, उसी प्रकार आस्तिक्य-भावना भी प्रत्येक प्राणी के भीतर जागृति उत्पन्न कर देती हैं। वही स्फूर्ति ‘दुरितों’ के निराकरण के लिए शक्ति प्रदान करती हैं। दुरित तो अपने आक्रमण सभी पर करते हैं, परन्तु जो प्रार्थी दुरितों की प्रकृति को समझता हुआ परमात्मा की प्रेरणा से अपने को सुसज्जित पाता है, उसके दुरित शीघ्र पराजित हो जाते हैं, सबल होते हुए भी प्रभाव-शून्य हो जाते हैं।

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‘प्रार्थी’ईश्वर के प्रेरकत्व पर विश्वास करके दुरितों को दूर करने का सामर्थ्य चाहता है। दुरितों का दूर करना ही भद्र की प्राप्ति है।

दूसरा मंत्र

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।।

ऋग्वेद १// १८९// १, यजुर्वेद ५//३६, ७//४३, ४॰//१६

अर्थ– हे सबके नायक या पथप्रदर्शक भगवन्! आप सब ज्ञानों को जानने वाले हैं। इसलिए हम आपकी बहुत-बहुत स्तुति करते हैं। आप धन-सम्पत्ति के लिये हमको ठीक मार्ग से  ले चलिए। हमसे कुटिल पाप को दूर कीजिए।

व्याख्या– इस मंत्र में परमात्मा का विशेष नाम ‘अग्नि’ है और उससे पथ-प्रदर्शन की प्रार्थना की गई है। लोकभाषा में ‘अग्नि’ आग को कहते हैं। आग से प्रकाश होता है और प्रकाश मार्ग-प्रदर्शन करता है। अंधेरे में चल नहीं सकते। अंधेरी रात में घने जंगल में भटकने वाले पथिक के लिए जुगनू की चमक भी सहायक हो जाती है और यदि कहीं बिजली कौंध जाए तो कुछ न कुछ मार्ग दिखाई देने लगता है।

अंधरे रास्ते में दीपक, मशाल आदि मार्ग-प्रदर्शन करते हैं। ये सब आग के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। सूर्य आग का सबसे बड़ा गोला है और सूर्य के समान दूसरी वस्तु भौतिक अर्थ में पथ-प्रदर्शक है ही नहीं, अतः ‘अग्नि’ का पथप्रदर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

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सृष्टि के आरम्भ में जब वेदों का आविर्भाव हुआ होगा, तो ऋषियों को सबसे पहली आवश्यकता हुई होगी कि कोई उनका पथप्रदर्शक होता। एक तो ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि थी, उसकी वस्तुएं मनुष्य का पथ-प्रदर्शन करती थीं। इसको आप ‘नेचर’ या सृष्टि कह सकते हैं। घास की छोटी-सी पत्ती से लेकर सूर्य जैसे विशाल पदार्थ सभी मनुष्य को कुछ-न-कुछ पाठ पढ़ाते ही हैं। चींटी से लेकर हाथी तक सभी मनुष्य के गुरु बनना चाहते हैं और बुद्धिमान् मनुष्य सभी से आचार ग्रहण कर सकता है। परन्तु सृष्टि पथप्रदर्शन का ठीक-ठाक कार्य करने में असमर्थ है। सृष्टि विशाल है। यह एक अद्भुत भिन्नताओं का संग्रहालय है। मनुष्य इतनी भारी भीड़ में से किसका अनुकरण करे, यह एक प्रश्न रहता है। जो मनुष्य केवल प्रकृति का अनुकरण करते हैं। वे प्रायः धोखे में पड़ जाते हैं। बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा जाती हैं। शेर छोटे पशुओं को खा जाता है। बहुत-से मनुष्यों का विचार है कि कुदरत या नेचर हमको क्रूर होना सिखाती है। ‘हिंसा’ स्वाभाविक है और ‘अहिंसा’ अस्वाभाविक है। यदि मनुष्य पशुओं को ही गुरु बनाए, तो मानव-समाज में मत्स्यराज्य या सिंह राज्य हो जाए। सभ्यता कहां रहे? सभ्य समाज के सभी नियम उलट-पलट हो जाएँ। गाय और बैल, या घोड़े और घोड़ी, कुत्ते और कुतिया में पति-पत्नी का स्थायी सम्बन्ध नहीं होता। केवल कुछ पक्षियों में वैवाहिक जीवन के कुछ चिन्ह पाये जाते हैं, अतः समय-समय पर किसी-किसी देश में ऐसे नेता उत्पन्न हो गये हैं, जिन्होंने वैवाहिक -प्रथा को सृष्टिक्रम के प्रतिकूल बताया है। यूनान का यशस्वी और कीर्तिमान् दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) उच्चकोटि के मानव के लिए पति-पत्नी के स्थायी सम्बन्ध को आदर्श धर्म नहीं मानता था और उसके तत्सम्बन्धी विचारों का आधार केवल पशु-जगत् ही था, अतः सृष्टि या कुदरत हमारा नेतृत्व तो करती है, परन्तु अचूक नेतृत्व नहीं। सृष्टि तो वस्तुतः जड़ है। वह अपना एक अंग ही प्रदर्शित कर सकती है। चेतन के पथ-प्रदर्शन के लिए चेतन चाहिए- ऐसा चेतन जो चेतनों में सबसे अधिक चेतनता का स्वामी हो। ऐसे चेतन को वेदों ने ‘अग्नि’शब्द से सम्बोधित किया।

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वेद हैं किसलिए? मनुष्य को ठीक मार्ग बताने के लिए। और वेदों का दाता है ईश्वर, वही हमारा पथ-प्रदर्शक हुआ।

वेदमन्त्र में ‘अग्नि’का एक विशेषण दिया है- ‘विश्वानि वयुनानि विद्वान’। यह अग्नि के उस गुण को व्यक्त करता है, जिसके कारण हम ईश्वर का आश्रय चाहते हैं। ‘वयुनम्’ का अर्थ है ‘प्रज्ञा’ या ज्ञान। ‘विश्वानि वयुनानि’का अर्थ हुआ- समस्त ज्ञानों का भण्डार। सृष्टि के पदार्थ हमको ज्ञान देते हैं, परन्तु आंशिक, एकदेशी या अधूरा। इसीलिए हम धोखे में पड़ जाते हैं। ईश्वर पूर्ण ज्ञानी है, उसमें अज्ञान लेशमात्र भी नहीं है। उसका पथ-प्रदर्शन सबसे उचित होगा। उपनिषद् में कहा है कि ईश्वर के दर्शनमात्र से ‘छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ समस्त शंकाएं निवृत हो जाती हैं और मनुष्य का मार्ग सरल हो जाता है। वेदमन्त्र में ‘जुहुराणम्’ अर्थात् कुटिल-मार्ग को ही ‘एनः’अर्थात् पाप बताया है। टेढ़े मार्ग पर चलने का नाम ही पाप है। इसका उल्टा है-‘सुपथ’अर्थात् सीधा मार्ग। सीधा मार्ग एक होता है। दो बिन्दुओं के बीच के सबसे छोटे मार्ग को सरल रेखा कहते हैं। जो सरल न हो वह ‘जुहुराणम्’अथवा कुटिल है। मनुष्य यों तो जीवन भर चलता ही रहता है, जैसे, जंगल में पचासों रास्ते बने होते हैं, समझ में नहीं आता कि कौन-सा रास्ता ग्रहण करना चाहिये। यदि शेर ने कहीं से अपनी मांद में जाने के लिए मार्ग बना लिया तो वह भी मार्ग है। भालू किसी ओर होकर गुजर गया, तो उसके पैरों के चिन्ह् भी पद्धति (पत्-हति) हैं। सैकड़ों भूल-भुलैया हैं, वे पथ तो हैं, ‘सुपथ’नहीं, ये सब ‘जुहुराणम्’ कुटिल और मनुष्य को हानि पहुंचाने वाले हैं। इसी प्रकार संसार में भी मनुष्य दूसरे के मार्गों का अनुसरण करके अपने लिए कितने आदर्श गढ़ता है। किसी ने जुआरी को देखा कि एक दाव पर उसे पांच सौ रुपये मिल गए। वह जी में कहता है-यही मार्ग है ‘राये’अर्थात् सम्पत्तिशाली होने के लिए। जुआरी का मार्ग, मार्ग तो है परन्तु सन्मार्ग या सुपथ नहीं। इस मार्ग पर चलकर हजारों जुआरी बन जाते हैं। वे स्वंय भी भ्रष्ट होते हैं और संसार के लिए बुरा उदारहण छोड़ जाते हैं। कोई डाका डालता है, कोई अन्य अत्याचार करके सुखी होना चाहता है। सच्चा साथी ईश्वर से प्रार्थना करता है कि ‘जुहुराणं एनः युयोधि’ – ऐसे कुटिल मार्ग से मुझे दूर रख अर्थात् मुझे पाप करने की प्रवृत्तियों से बचा। जिस प्रार्थी के हृदय में पाप से बचने की इतनी उत्कट इच्छा होगी, वह पाप से अवश्य बचेगा। पाप-कर्मों में कुछ प्रलोभन होता है, कुछ मिठास होती है। मक्खी बैठी शहद पर पंख गये लिपटाय। शहद मीठा है। मक्खी को यह पता नहीं कि यह मिठास ही उसकी मृत्यु का हेतु बनेगा। परन्तु जिसको पाप की प्रवृत्ति की कुटिलता या हिंसकता का पता है, वह पाप से ऐसे ही डरता है जैसे बच्चा आग से। योगदर्शन (२//३४) में पाप से बचने के लिए एक सूत्र आया है – ‘वितर्कबाधने प्रतिपक्ष-भावनम्’ अर्थात् पाप की प्रवृत्ति से बचना चाहो, तो पाप से होनेवाली हानियों को चित्रित करके अपने मन के सामने रक्खा करो। यदि हम कुटिल मार्ग पर चलेंगे, तो ऐसा दुख होगा। बद-परहेज बीमार कभी-कभी आनेवाली पीड़ा के डर से परहेज करने लगता है। प्रार्थना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि जब हम पाप से बचने के लिए प्रभु के सामने गिड़गिड़ाते हैं, तो पापों की हानियां हमारे मन पर अंकित हो जाती हैं और यही पापों से बचने का उपाय है।

परन्तु प्रतिपक्ष- भावना सुगम काम नहीं है। पापी के हृदय में पाप के मिठास की तो भावना होती है, परन्तु उसके प्रतिपक्ष अर्थात् दुख की भावना उत्पन्न नहीं होती। जो विद्यार्थी खेलकूद में पड़कर कुटिल मार्ग का अवलम्बन करता है और विद्यार्थी के कर्तव्यों से च्युत होता है, उसके सामने परीक्षा में विफल होने वाले दुख का पूरा चित्र बन ही नहीं पाता। जो उस चित्र को ठीक-ठीक मन के पटल पर खींच पाया, उसका अपने कार्य में सफल होना अवश्यम्भावी है। यह काम साधारण इच्छामात्र से पूरा नहीं होता। सुख की इच्छा तो सभी करते हैं और पुण्य भी सभी करना चाहते हैं, परन्तु इच्छामात्र से ईश्वर किसी की सहायता नहीं करता। इच्छा उत्कट होनी चाहिए जो साधारण प्रलोभनों से चलायमान न हो सके। प्रलोभनों की आंधी छोटे वृक्षों को तो शीघ्र ही उखाड़ फेंकती है। इसके लिए लगातार कोशिश की जरुरत है। मन्त्र में कहा है- ‘भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम’ -हे प्रभो! हम बहुत अधिक बार अर्थात् बार-बार प्रार्थना करते हैं। ‘भूयिष्ठ’ शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। केवल ‘भूयिष्ठ’ शब्द कहने से कोई क्रिया ‘भूयिष्ठ’ नहीं हो जाती। जिह्वा से ‘भूयिष्ठ’ शब्द तो जल्दी से कहा जा सकता है, परन्तु क्रिया के ‘भूयिष्ठ’ होने में तो समय लगता है, परिश्रम करना पड़ता है, तप की आवश्यकता होती है। हम समझते हैं कि जब हमने वेदमन्त्र में ‘भूयिष्ठाम्’ शब्द का प्रयोग किया तो हमारी प्रार्थना भी ‘भूयिष्ठ’ हो गई और ईश्वर भी यह समझकर कि मैं ‘भूयिष्ठां नम उक्तिम्’ करता हूँ, उसका फल मुझे दे ही देगा। हम प्रायः बहुत -से भजन गाते हैं, जिनमें दिया होता है कि प्रभु, हम तुम्हारी लाखों बार प्रार्थना करते हैं। यहां लाखों का अर्थ ‘लाखों’ नहीं होता। ‘सहस्रों’ में तीन अक्षर हैं, ‘लाखों’ में दो। वस्तुतः प्रार्थी एक छोटे-से शब्द का प्रयोग करके ‘लाखों’ का लाभ उठाना चाहता है। यह स्वयं अपने को धोखा देना है। दस बार प्रणाम करने का अर्थ है एक-एक क्रिया दस बार करनी। इसी प्रकार लाख प्रणामों का क्या अर्थ होगा? क्या कोई लाख बार प्रार्थना करता है? यदि करता ही नहीं, तो उसको फल की प्राप्ति कैसे हो सकती है? वेदमन्त्र इस प्रकार की निरर्थक प्रार्थनाओं को विहित नहीं समझते। जो कहो, उसे करो। जो वाणी में हो, वही मन में हो। यदि प्रार्थी गम्भीरता से ऐसी प्रार्थना करेगा, तो उसका जीवन अवश्य पवित्र होगा।

वेदमन्त्र में ‘सुपथा’ अर्थात् ठीक मार्ग की मांग की गई है। ईश्वर हमारा पथप्रदर्शक है। पथप्रदर्शन उसी का हो सकता है, जो वास्तव में पथिक हो। जो पथिक ही नहीं उसके लिए पथप्रदर्शक व्यक्ति और पथप्रदर्शन करने वाले चित्र या पुस्तिकाएं व्यर्थ हैं। यदि मैं कलकत्ते जाना ही नहीं चाहता, तो रेल के टाइम-टेबिल या स्टेशन का इन्क्वायरी (पूछताछ) आफिस किस प्रयोजन का? इसी प्रकार वैदिक प्रार्थनाएं भी धर्मयात्रा के यात्री के लिए हैं। जो उस मार्ग का अनुगामी ही नहीं, उसके लिए प्रार्थनाएं बेकार हैं। मार्ग की खोज वह करता है, जिसे मार्ग पर चलना है। प्रायः हर धर्ममन्दिर में प्रार्थनाएं हुआ करती हैं। बड़े-बड़े कवि अपने मनोहर काव्य रचकर प्रार्थियों के हाथ में दे देते हैं और प्रार्थी इन पदों को बड़ी श्रद्धा से गाते हैं। इसी का नाम प्रार्थना है, परन्तु इन प्रार्थना करनेवालों में एक भी धर्म-मार्ग पर चलने वाला नहीं होता। परमात्मा ऐसे प्रार्थियों को ‘सुपथा’ या अच्छे मार्ग से कैसे ले-जा सकता है? सन्मार्ग पर चलने की इच्छा हो, सन्मार्ग खोजने की इच्छा हो और वह इच्छा तीव्र, उत्कट तथा अमिट हो तो अग्निदेव उसका पथ-प्रदर्शन अवश्य करेंगे।

तीसरा मंत्र

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे ।

इन्द्रस्य युज्यः सखा।।

ऋग्वेद १// २२//१९

अर्थ– हे लोगो ! विष्णु के कर्मों को देखो, जिनको देखकर मनुष्य अपने व्रतों को पालन करने में सफल होता है। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा या मित्र है।

व्याख्या– इस मन्त्र में परमेश्वर को ‘विष्णु’ शब्द से सम्बोधित किया है।

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चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम विष्णु है।

आस्तिक्य की पहली भावना यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है। सृष्टिकर्त्ता का अर्थ है, उन सब छोटी-बड़ी क्रियाओं का कर्त्ता, जिनके कारण सृष्टि कहलाती है। जब हम कहते हैं कि पृथ्वी को ईश्वर ने बनाया, तो इसका अर्थ यह होता है कि परमाणुओं की पहली हलचल से, जिससे पृथिवी का बनना प्रारम्भ हुआ, लेकर उस क्रिया तक जब पृथिवी पूर्णरूप से तैयार हो गई और उसके पश्चात् वे सब प्रगतियां जिनके आश्रय से पृथिवी पृथिवी बनी हुई है, इन सब क्रियाओं का कर्त्ता परमेश्वर है। इसलिए संसार के प्रायः सभी आस्तिक-सम्प्रदाय ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं। परन्तु मनुष्यकृत या प्राणिकृत क्रियाओं के साथ एक सीमित भावना है। कुम्हार को हम घडे़ का बनानेवाला कहते हैं। कारीगर को मकान का बनानेवाला कहते हैं। जुलाहे को कपड़े का बनानेवाला कहते हैं। चित्रकार चित्र का बनानेवाला कहलाता है। यहाँ कर्त्तत्व केवल एक अन्तिम क्रिया का है, शेष का नहीं। एक सीमा तक बनी हुई मिट्टी को अन्तिम रूप दे देने का नाम ही घड़े को बनाना है। घड़े को बनाने से पहले मिट्टी किन-किन क्रियाओं का परिणाम थी अथवा घड़ा बनने के पीछे घड़े को घड़े के रूप में स्थित रखने के लिए किन रासायनिक क्रियाओं का नैरन्तर्य रहता है। उससे कुम्हार का कोई सम्बन्ध नहीं, अतः कुम्हार का घड़े के साथ क्षणिक सम्बन्ध ही रहता है। इस उपमा के आधार पर कतिपय विचारकों ने यह धारणा बनाई है है कि ईश्वर सृष्टि को बनाता है, उसके भीतर रहता नहीं। सृष्टि में तो तुच्छ-से-तुच्छ और गन्दी-से-गन्दी चीजें शामिल हैं। क्या ईश्वर उन सब में चिपटा हुआ है? इसी आधार पर लोगों ने एक विशेष देवधाम की कल्पना की है। उसी का नाम बहिश्त, हैविन, स्वर्ग, गोलोक आदि रक्खा है। वहीं से बैठा-बैठा ईश्वर इस मत्र्यलोक की भी देखभाल करता है। बहिश्त पर विश्वास रखनेवाले लोग यह तो नहीं मानते कि जहन्नुम या नरक में भी ईश्वर उसी प्रकार व्याप्त है, जैसे बहिश्त या स्वर्ग में। विष्णु शब्द में जो भावना निहित है, वह इस सीमित भावना का खण्डन करती है। ईश्वर को प्रत्येक क्रिया में समाविष्ट होना चाहिए। ईश्वर वह है, जिससे सृष्टि का सर्जन, पोषण और संहार होता है। सर्जन कोई अलग क्रिया नहीं है, जो पोषण से अलग और भिन्न हो। सर्जन, पोषण और संहार के बीच में कोई भेदक भित्ति नहीं है। यह नहीं कह सकते कि सर्जन समाप्त हुआ अब पोषण आरम्भ होगा, या पोषण समाप्त हुआ अब संहार आरम्भ होगा। वस्तुतः यह सब अनन्त क्रियाओं का एक सदा चलनेवाला प्रवाह है। मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि की कल्पना से अपनी ओर से सीमाएं निर्धारित कर लेता है। जो क्रियाएं दिन बनाती है। वही रात बनाने का भी कारण हैं। सूर्य और पृथिवी तो निरन्तर चलते ही रहते हैं, कभी ठहरते नहीं। हम अपनी सीमित भाषा में कुछ को दिन और कुछ को रात कहते हैं। यदि हम पृथिवी लोक से बाहर कहीं जाकर खड़े हो सकें और वहां से पृथिवी को घूमती हुई देखें, तो हम यह न कह सकेंगे कि अब दिन समाप्त हो गया, रात हो गई या रात समाप्त हो गई, दिन का आरम्भ है। इसी प्रकार जगत् की किस क्रिया को कहेंगे कि इसमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं? वैदिक आस्तिकता की यह भावना बड़ी महत्त्वपूर्ण है। अणु-अणु और परमाणु-परमाणु में हर समय व्यापक होने के कारण ही हम ईश्वर को विष्णु कहते हैं। कोई विशेष विष्णुलोक नहीं। कण-कण और पत्ता-पत्ता विष्णुलोक है। चींटी का हृदय विष्णुलोक है। हाथी का शरीर विष्णुलोक है और मेरा तथा आपका मन भी विष्णुलोक है।

कुछ ब्रह्मवादियों ने ब्रह्म के कर्तृत्व का निषेध किया है। वे कहते हैं कि कर्तृत्व तो क्षुद्र प्राणियों की क्षुद्र इच्छाओं का परिणाम है। महान् ईश्वर तो क्रियाशून्य है। वह कर्म के बन्धन में नहीं आता। वह द्रष्टामात्र है, कर्त्ता नहीं। कर्त्ता और भोक्ता तो जीव हैं, ईश्वर नहीं।

यदि विचार से देखें तो यह युक्ति न केवल अवैदिक है अपितु सारहीन और हेत्वाभास भी। चेतन और जड़ में भेद ही यह है कि चेतन क्रियाशील होता है और जड़ क्रिया-शून्य। यदि ईश्वर भी क्रिया-शून्य हो, तो वह जड़ हो जाए! यदि जड़ हो तो कर्त्ता न रहे और यदि कर्त्ता न रहे तो ईश्वर न रहे, अर्थात् जिस आधार पर हमारे मन में ईश्वर की भावना का प्रादुर्भाव हुआ था, वह आधार ही न रहा तो ईश्वर की भावना भी न रही। इसको आप दूसरे ढंग से सोचिए, आपने घड़ी देखी। सोचा कि घड़ी बनी हुई वस्तु है। उसका कोई बनाने वाला अवश्य होगा। आपके ध्यान में आया कि इसका जो कोई बनानेवाला होगा, उसको हम ‘घड़ीसाज’ कहेंगे। इस भावना के आधार पर आपने घड़ीसाज के सम्बन्ध में अनेक कल्पनाएं कीं। इसका नाम आपने रखा ‘घड़ीसाजी का साहित्य’। यदि अन्त में यह सिद्ध हो जाए कि जिसको हम घड़ीसाज कहते हैं उसका अस्तित्व तो अवश्य है, परन्तु वह घड़ी का कर्त्ता नहीं हो सकता, केवल द्रष्टामात्र है, तो आपके विचारों को कितना आघात पहुंचेगा? ‘घड़ीसाजी’ का समस्त साहित्य अस्तव्यस्त हो जाएगा। जिस बुनियाद पर हमने आस्तिक्य-भावना या ईश्वरवाद का भवन बनाया था वही धड़ाम से आ गिरता है। इसीलिए, स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के अनेक गुण, कर्म और स्वभावों का परिगणन करते हुए अन्त में लिखा है कि ‘ईश्वर सृष्टि-कर्त्ता’है।

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जो लोग ईश्वर को कर्त्ता न मानकर द्रष्टामात्र मानते हैं, वे ‘दर्शन’ के ग्रन्थों को नहीं समझते। द्रष्टा का दृश्य पदार्थ से यदि केवल ‘दर्शन’ मात्र का ही सम्बन्ध हो, तो दृश्य की अपेक्षा से द्रष्टा की आवश्यकता नहीं रहती। यदि मैं दृश्य ही हूं तो लाखों मेरे देखनेवाले क्यों न हों, मुझे क्या? बिल्ली राजा को देखती है। यहां बिल्ली ‘द्रष्टा’ है। राजा ‘दृश्य’। राजा पर बिल्ली का क्या प्रभाव है? अन्धा किसी को नहीं देखता। किसी का क्या बनता-बिगड़ता है? इसलिए, केवल एक कल्पित सिद्धान्त की पुष्टि के लिए ईश्वर को ‘द्रष्टा’ मात्र मान बैठना ठीक नहीं है। वेद में ‘विष्णोः कर्माणि’ कहकर परमात्मा के कर्तृत्व को स्पष्ट कर दिया।

 अब ‘पश्यत’ शब्द पर विचार कीजिए।

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यहां ‘पश्यत’ का अर्थ केवल चक्षु-इन्द्रिय से देखनेमात्र का अर्थ नहीं है। ‘दर्शन’ का अर्थ है, सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति । जब हम किसी कर्म को देखते हैं, तो इस देखने के दो प्रकार हैं- एक स्थूल अर्थात् घटनामात्र को देखना, दूसरा उस नियम का ज्ञान प्राप्त करना, जिसके अन्तर्गत वह घटना घटित हुई। इसको समझने के लिए एक साधारण घटना पर विचार कीजिए। कल्पना कीजिए कि आप अपने घर के भीतर हैं। किसी ने आपके द्वार पर दस्तक दी। आपने नौकर को आदेश दिया, ‘देखो कौन है?’ यदि नौकर मूर्ख है तो जाएगा, देखेगा, और आकर उत्तर देगा-‘ एक आदमी है।’ उत्तर ठीक है। आपने कहा-‘ देखो’। वह देख आया। परन्तु आप सन्तुष्ट नहीं हैं। बुद्धिमान् नौकर का उत्तर भिन्न होगा-‘अमुक महाशय आये हैं। वह अमुक विषय पर आपसे बात करना चाहते हैं।’ वस्तुतः आपने जब ‘देखो’ कहा तो आपका तात्पर्य इस पिछले दर्शन से था। इसी प्रकार जब वेद का मुख्य आदेश है कि विष्णु के कर्मों को देखो, तो वहां ‘देखो’ से तात्पर्य है, सम्यक् ज्ञान प्राप्त करो। सेब वृक्ष से गिरता है। लाखों ऐसी घटना को देखते हैं। परन्तु, न्यूटन का देखना देखना था। कौन ऐसा है, जो विष्णु के कर्मों को नहीं देखता? कुत्ते, बिल्ली, भेड़-बकरी, जिसके आंख है वह देखता है। साधारण मनुष्य की आंख के समक्ष विष्णु के बहुत से काम आते हैं। सूर्य निकलता है, नदी बहती है, वृक्ष उगते हैं, बिजली कड़कती है, परन्तु ये तो घटनाएं हैं। घटनाओं के देखने-मात्र का नाम ज्ञान नहीं है और न इनसे आस्तिक्य की भावना उत्पन्न होती है। घड़ी के देखने मात्र से तो घड़ीसाज का ज्ञान नहीं होता और न उस देखने से कोई लाभ है। यदि आंख का काम केवल देखना-मात्र ही होता, तो उस आंख से कोई लाभ न था। जो चैकीदार चोर को देखता-मात्र है और देखने के पश्चात् क्या काम करना चाहिए, उसका ज्ञान नहीं रखता, उस चौकीदार से क्या लाभ? विष्णु के कर्मों के सम्यक् ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने व्रतों का अनुष्ठान कर सकता है।

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‘व्रत’ का अर्थ है ‘वर्तन’, बर्ताव या कर्तव्यपालन। चेतन जीव होने के नाते मैं कुछ-कुछ तो करता ही रहता हूं। ‘कर्तुम्, अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम्’- करना, न करना, उल्टा करना, ये तीन लक्षण हैं, चेतन के । अकर्तुम् भी एक क्रिया है, क्योंकि क्रिया के प्रवाह को रोकना पड़ता है। बहते हुए जल की धारा को रोकने के लिए बांध बांधना भी तो क्रिया ही है। क्या कोई ऐसा चेतन भी है, जो कभी कोई काम न करे? वह कोई-न-कोई काम अवश्य करेगा और उसका यह काम कर्तुम्, अकर्तुम् और अन्यथा कर्तुम् की कोटियों के अन्तर्गत ही होगा परन्तु, प्रत्येक क्रिया कर्तव्यता नहीं है। ‘कर्तव्य’ वही है, जिससे उद्देश्य की पूर्ति हो। कर्तव्य की पूर्ति तो विष्णु के कर्मों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने से ही होगी। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अनुकरण करे, अर्थात् जैसा काम किसी को करते देखे वैसा ही स्वयं भी करे। परन्तु, अनुकरण और निर्वचन में भेद है। जो क्रिया केवल अनुकरण (copy) के रूप में की जाती है वह कर्तव्य नहीं है, व्रत भी नहीं है। जब मैं बहुत-से कर्मों में से, जिनका करना मेरे लिए सम्भव है या जिसके करने की मेरी प्रवृत्ति है, किसी एक कर्म का निर्वचन (छांट करके) करके उसको करता हूं तो वह व्रत कहलाता है। मेरे सामने टेढ़े-सीधे अनेक मार्ग हैं। मुझे अधिकार है कि मैं उन मार्गों में से किसी एक पर चल पडूं, परिणाम भला हो या बुरा। यह अनुकरण तो है, निर्वचन का अंश न होने से यह व्रत नहीं है। व्रत वह होगा, जिसको मैं केवल इसलिए न करूंगा कि दूसरे करते हैं, अपितु इसलिए कि कई मार्गों में से एक मार्ग ऐसा है, जिससे मेरे उद्देश्य की पूर्ति होगी। विष्णु के सहस्त्रों कर्मों को देखकर उनका अनुकरण-मात्र करना नहीं, अपितु परिस्थिति को देखते हुए और अपनी मंजिल पर निगाह रखते हुए यह निर्वचन करना है कि मुझे यह मार्ग ठीक पड़ेगा, यही व्रत है। जो लोग केवल नेचर या कुदरत का अनुकरण करते हैं, वे भूल-भुलैयाँ में पड़ जाते हैं। मनुष्य को अपने व्रतों का निश्चय करना है और विष्णु के कर्मों को देखकर उनसे शिक्षा लेनी है।

संसार के वैज्ञानिक लोग विष्णु के कर्मों अर्थात् कुदरत की घटनाओं का निरीक्षण करते और उनका अनुकरण करते हैं। मछली को तैरते देखकर उसी के शरीर के अनुकरणरूप में नौकाएं बनाते हैं। पक्षियों को उड़ते देखकर उन्हीं के अनुकरणरूप में विमानों का निर्माण करते हैं।                      

यह सब अनुकरण है और अनुकरण साइंस का आधारभूत है, परन्तु साइंस (science) का मुख्य प्रयोजन तब सिद्ध होता है, जब मनुष्य मछली या पक्षी के उद्देश्यों और मानवजाति के उद्देश्यों में भेद करके नौका या विमानों का अपने लाभ के लिए प्रयोग करता है। वेदमन्त्र यह नहीं कहता कि विज्ञान नास्तिकता है या नास्तिकता का पोषक है। बहुत-से मतमतान्तर हैं, जो प्राकृतिक नियमों के निरीक्षण या परीक्षण-मात्र को ईश्वर को कुपित करना मानते है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों और ईश्वर के भक्तों में बहुत दिनों से युद्ध चला आता है। कहीं शीतयुद्ध (cold war) और कहीं उष्णयुद्ध आजकल भी है और पहले भी था। ऐसा प्रतीत होता है कि कुदरत के निरीक्षक और परीक्षक जो वैज्ञानिक हैं, उनका एक अलग जत्था है और ईश्वर के मानने वाले, उसकी स्तुति करने वाले और उसकी पूजा करने वाले जो धार्मिक लोग हैं, उनका अलग जत्था है। वेदमन्त्र की भावना इसके विपरीत है। वेदमन्त्र का उपदेश है कि विष्णु के कर्मों को देखो, स्थूलकर्मों को, सूक्ष्मकर्मों को, बाह्यकर्मों को और आन्तरिक कर्मों को। छोटे कर्मों को और बड़े कर्मों को आंखें खोलकर देखो, परिश्रम करके देखो और बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखो। उस समय पता चलेगा कि सृष्टि के मौलिक नियम वही हैं, जो धर्म के हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि भौतिक जगत् के भी उसी प्रकार नियामक हैं जैसे आध्यात्मिक जगत् के। कुदरत का विरोध करके कोई ईश्वरभक्त नहीं बन सकता। जैसे किसी राजा या शासक के कानून को भंग करके कोई उस शासक का भक्त नहीं बन सकता।

आप ईश्वर के कर्मों को क्यों देखें और क्यों उनका अनुकरण करें? इसका उत्तर मन्त्र के अन्तिम चरण में दिया है। ‘इन्द्रस्य युज्यः सखा’। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा या मित्र है। ‘इन्द्र’ नाम है जीव का । विष्णु से अधिक निःस्वार्थ मित्र कौन होगा? उसकी हितैषिता तो प्रत्येक कर्म से प्रकट होती है। हम आंख का उपभोग और प्रयोग करते हैं। आंख हमारा करण है। परन्तु, आंख बनाने वाला तो विष्णु ही है। उसने आंख हमारे हित के लिए ही बनाई है और आंख की सहायता के लिए सूर्य भी विष्णु महाराज की ही मित्रता का फल है। इसी प्रकार जहां तक आप विचार करेंगे, संसार की प्रत्येक वस्तु से विष्णु भगवान् की मित्रता का प्रमाण मिलेगा। उससे अधिक मित्र कौन मिलेगा, जिसके कर्मों को देखकर हम अपने व्रतों का ठीक-ठीक अनुष्ठान कर सकें।

चौथा मंत्र

ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।। 

-यजुर्वेद अध्याय ४0 मन्त्र  १

अर्थ– इस सृष्टिरुपी प्रपंच में जो कुछ गतिविधान है, वह सब परमात्म-शक्ति के द्वारा परिपूरित होना चाहिए। उस जगत् या गतिविधान की सहायता से हे मनुष्य ! तू सुख का उपभोग कर। ऐसे गतिविधान के द्वारा, जिसको तूने छोड़ दिया है, अर्थात् जिसमें तू चिपटा नहीं है। चिपट मत! धन किसका है? अर्थात् किसी एक का नहीं।

व्याख्या– इस मन्त्र में मुख्य शब्द ‘जगत्’है। ‘जगत्’का ही प्रकरण है। ‘जगत्’का मुख्य अर्थ क्या है? जीव से इसका किस प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए? किन भूलों के होने की सम्भावना है, जिनसे बचना आवश्यक है? इन सब बातों का इस मन्त्र में उपदेश दिया गया है। इस मन्त्र में कई शब्द गम्भीर विचार के पात्र हैं? क्योंकि, इस विषय में अनेक भ्रान्तियुक्त धारणाएं हैं। मन्त्र में कोई शब्द कठिन नहीं है। केवल सीधी रीति से विचार करना चाहिए और कल्पनाओं से बचना चाहिए।

जगती नाम है समस्त प्रपंच का, जिसको सृष्टि या संसार कहते हैं। यह संसार परिवर्तनशील है, एकरस नहीं । परिवर्तन का नाम है गति! संसार नाम ही सम्पूर्ण गतिविधान का है, अतः ‘जगत्’ का अर्थ हुआ ‘गतिविधान’। गतिविधान तो प्रत्यक्ष ही है। इसके सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। घटनाएं नित्यप्रति होती हैं। प्रत्येक क्षण में कोई-न-कोई गति हो जाती है। यह ‘गति’ न भ्रम है न कल्पित है। इसका आधार अविद्या नहीं है, अर्थात् ऐसी वस्तु नहीं, जिसका अस्तित्व हो ही नहीं और समझनेवाले ने अविद्या या भ्रान्ति के कारण इसको ‘गति’ समझ रक्खा हो। ये गतियां परस्पर असम्बद्ध भी नहीं। एक का दूसरी से सम्बन्ध है। इसीलिए जगत् का अर्थ ‘गतिविधान’ ही करना चाहिए।

‘गतिविधान’ के सम्बन्ध में पहली बात यह सोचनी है कि ‘गति’है क्या? आप चलते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान को। एक स्थान से गति आरम्भ होती है, दूसरे स्थान पर समाप्त होती है। स्थान ठहरा हुआ है। ‘गम्’ के धात्वर्थ का ‘स्था’ के धात्वर्थ के साथ परस्पर सम्बन्ध है। यदि स्थान न हो, तो गति का आरम्भ कहां से हो? और यदि स्थान न हो, तो गति की समाप्ति कहां पर हो? अर्थात् ठहरना और चलना एक-दूसरे की विरोधी क्रियाएं नहीं, अपितु सापेक्षिक हैं। परिवर्तन का अर्थ ही यह है कि जो चीज जिस अवस्था में हो, उससे दूसरी अवस्था को प्राप्त हो जाए। परिवर्तित वस्तु नई नहीं है, उसमें पुराना अस्तित्व बना हुआ है। यह भावना न हो तो परिवर्तन या गतिशीलता कह ही नहीं सकते। बालों वाले आदमी को मूंड दिया जाए, तो कहेंगे कि पहले यह बाल वाला था, अब मुंडा हो गया। यदि उस बाल वाले आदमी को हटाकर उसकी जगह किसी मुंडे को ला खड़ा किया जाए, तो यह नहीं कहेंगे कि बालवाला आदमी परिवर्तित होकर मुंडा हो गया। गधे के सिर पर सींग होते ही नहीं, बैल के सिर पर होते हैं, अतः बैल के सींग काटकर उसको बदला हुआ कह सकते हैं, गधे को नहीं। इस बात को पूर्ण रीति से समझ लेना चाहिए। तभी मन्त्र का असली रहस्य खुल सकेगा।

गति क्या है? इस विषय में दार्शनिक जगत् में भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘गति’ वास्तविक नहीं, भ्रान्तिमात्र है, जैसे, सूर्य चलता नहीं, परन्तु चलता प्रतीत होता है। रेल के यात्री को सड़क के वृक्ष चलते दिखाई देते हैं, वस्तुतः वे चलते नहीं। इतना तो ठीक है कि कभी-कभी हम ठहरी चीज को चलती समझ लेते हैं परन्तु साथ ही यह भी तो है कि हम चलती चीज को ठहरी हुई समझते हैं। रेल का यात्री न चलते हुए वृक्षों को चलता हुआ देखता है और चलती हुई रेल को ठहरी हुई कहता है। इससे स्पष्ट है कि जो युक्ति ‘गति’ को भ्रान्तियुक्त मानने के लिए दी जाती है, वही युक्ति ‘स्थिति’ को भ्रान्त मानने के लिए दी जा सकती है। इससे ‘गति’ मात्र का खण्डन नहीं होता। भ्रान्ति इसलिए नहीं है कि ‘गति’की कोई सत्ता नहीं, अपितु इसलिए है कि भ्रान्ति का कारण अन्य है।

‘गति’के अस्तित्व के विरोधी एक हेत्वाभास देते हैं। वे कहते हैं कि कोई वस्तु उस स्थान पर गति नहीं कर सकती, जहां वह है और उस स्थान पर भी गति नहीं कर सकती, जहां वह नहीं है, अतः दोनों अवस्थाओं में गति असम्भव है। अतः ‘गति’ भ्रममात्र है। (A thing does not move where it is. It does not move where it it not. Therefore, it does not move at all) यह ठीक है कि जिस देश-विशेष को मैं घेरे हुए हूं उसी देशविशेष में मेरी गति असम्भव है। गति के लिए उस स्थान को छोड़ना होगा। यह भी ठीक है कि जहां मैं हूं ही नहीं, वहां मेरी गति कैसे होगी? परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि मैं उस स्थान को जहां मैं हूं छोड़ भी नहीं सकता। (A thing does not move where it is. It cannot move where it it not. But, it can move from where it is, to where it is not)          

यदि गति वास्तविक है तो जगत्, अर्थात् गतिविधान भी वास्तविक हुआ और जगत् अविद्या, माया या भ्रान्तिमात्र नहीं रहा। विधान (System) भ्रान्तियों का नहीं हो सकता। जगत् का भाव है अभाव नहीं। सूर्य निकलता और डूबता है। वृक्ष बढ़ता और नियमपूर्वक उसका ह्रास हो जाता है। यह केवल गति नहीं, अपितु गतिविधान है। दो गतियों में परस्पर सम्बन्ध है। जैसे, किसी यन्त्र के भिन्न-भिन्न पुर्जे अलग-थलग नहीं होते। पुर्जे अलग रहें तो वह यन्त्र नहीं, न वे पुर्जें यन्त्र के हैं। इसी प्रकार, यदि असम्बद्ध गतियां हों, तो वह न गतिविधान है न जगत् है।

यन्त्र के पुर्जे नहीं जानते कि वे यन्त्र के पुर्जे हैं। यन्त्र भी नहीं जानता कि कौन पुर्जा मेरा है और उसका क्या काम है। इसका ज्ञान तो यन्त्र के संचालक को ही है, जो हर पुर्जे के वैयक्तिक धर्मों का ज्ञान रखता है और उन पुर्जों को यन्त्र के संचालन में क्या करना है, इसको भी समझता है। इसी प्रकार जगत् के गतिविधान का भी एक संचालक है। वह जानता है कि सूर्य को क्या करना है और चन्द्रमा को क्या करना है। चन्द्रमा नहीं जानता कि सूर्य क्या है। सूर्य नहीं जानता कि चन्द्रमा क्या है, परन्तु जगत् के गतिविधान का नियन्ता सूर्य और चन्द्र दोनों की गतियों का ज्ञाता तथा स्वामी है। उसी नियन्ता के लिए ‘ईश’ कहा है। ‘परमात्म-तत्त्व’ की सिद्धि में परमोत्कृष्ट हेतु यही है कि यह प्रपंच एक गतिविधान है। गति के संचालक के बिना कोई गतिविधान बन ही नहीं सकता। कुछ लोग यह तो मानते हैं कि यह प्रपंच गतिविधान है, परन्तु वे इसको स्वयं-संचालित या आटोमैटिक (Automatic) कहते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि आटोमैटिक (स्वंय -संचालित) यन्त्र भी वस्तुतः स्वंय संचालित नहीं होता। उसका भी कोई ‘वशी’ (वश में रखनेवाला) होता है। इस प्रपंच की ओर देखने और इसकी रूपरेखा पर विचार करने से यह आवश्यक हो जाता है कि हम ‘परमात्म-तत्त्व’ की ओर जाएं। प्रपंच का प्रवाह है। यह प्रवाह ही ईश्वर के अस्तित्व का सूचक है।

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अब आप इस गतिविधान से अपने सम्बन्ध का हिसाब लगाइए। आप ऐसे चक्र से सम्बद्ध हैं, जो कभी एक अवस्था में नहीं रहता, निरन्तर गतिवान् है, इसलिए यदि किसी देश से चिपक जायेंगे तो नष्ट हो जायेंगे। वह यन्त्र आपके लिए रुकेगा नहीं। इसलिए आवश्यक है कि हम इस गतिविधान के साथ ऐसी भावना रक्खें जैसी एक यात्री की मार्ग के साथ होती है। यात्री मार्ग पर चलता है, उससे चिपटता नहीं, अर्थात् मार्ग के प्रत्येक प्रदेश से उसका सम्बन्ध क्षणिक होता है। वह उसको छोड़कर आगे बढ़ जाता है। यदि यात्री का पैर एक स्थान पर चिपक जाए, तो यात्रा भंग हो जाए। वह मार्ग पर चलेगा, चिपटेगा नहीं। इसी का नाम ‘क्रान्ति’ है। क्रान्ति का अर्थ है आगे बढ़ना। आगे बढ़ने का अर्थ यह है कि पिछले स्थान को छोड़ना। इसीलिए ‘तेन त्यक्तेन’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘तेन’ का अर्थ है ‘जगता’। मार्ग यात्रा का साधक है, परन्तु तभी तक जब तक कि वह मार्ग ‘त्यक्त’ होता जाए, अर्थात् छूटता जाए, मार्ग चिपटे तो बुरा और यात्री चिपटे तो बुरा। मार्ग अर्थात् जगत् तो किसी से चिपटता नहीं। उसका स्वभाव ही चिपटने का नहीं। हां, मनुष्य चिपटना चाहता है और उसकी यह चिपटने की इच्छा उसकी यात्रा में बाधक होती है। आप चलते नहीं, ढकेले जाते हैं। आपकी आन्तरिक इच्छा चिपटने की होती है। परन्तु, दैवीशक्ति आपको बाधित करती है कि आपको आगे को ढकेल दिया जाए। आप अपने भोगों के लिए जगत् का प्रयोग अवश्य करें, क्योंकि जगत् आपके भोगों का साधक है, उसी के द्वारा आप भोगेंगे। परन्तु इस साधक का विशेषण है ‘त्यक्त’। त्यागा जाता हुआ या त्यागा जानेवाला अर्थात् जगत् को जो मार्ग के समान यात्रा का साधन बनाना चाहता है, उसे त्यागभाव धारण करना होगा, चिपटने की भावना छोड़ देनी होगी। हम जगत् के एक मनोरम, सुन्दर और सुखप्रद उद्यान में से गुजरते हैं। समस्त उद्यान हमारे सुख के लिए है। मनुष्य जीवन से बढ़कर और कौनसा सुखप्रद जीवन होगा! परन्तु जगन्नियन्ता का आदेश है कि इस बाग का उपभोग करो, मार्ग के रूप में। यह मार्ग है, सराय नहीं। सड़क को घेरकर खड़े हो जाइए, पुलिस गिरफ्तार कर लेगी। मार्ग चलने के लिए है, डेरा डालने के लिए नहीं। इसलिए त्यागभाव धर्म का मुख्य अंग है। न भोगने का नाम त्याग नहीं, भोग से न चिपटने का नाम त्याग है और त्यागमय उपभोग सदा सुखकारी होता है। दुख भोग में नहीं, चिपटने में है। इसलिए दो आदेश साथ-साथ दिये हैं-भुञ्जीथाः’ और ‘मा गृधः’ भोगों और चिपटो मत्। जगत् को भोगने से आप कहां रुक सकते हैं। आपकी शारीरिक आवश्यकताएं आपको भोगने के लिए बाधित करती हैं। यह कैसे सम्भव है कि आप खाना न खाएं! सौन्दर्य का निरीक्षण करके आनन्द न लें! भोग तो जीवन के साथ है, परन्तु भोग को मर्यादा में रखने के लिए चिपटो मत, यह आदेश भी आवश्यक है। मुमुक्षु भोगने के साथ त्यागने के लिए भी उद्यत रहता है।

अब प्रश्न यह है कि न चिपटने का आदेश क्यों दिया? मार्ग और सराय में भेद है। मार्ग भी स्थान है और सराय भी। परन्तु सराय केवल आपके लिए है, मार्ग सबके लिए है। जगत् के गतिविधान में सबका भाग है, केवल एक का नहीं। जगतरूपी धन ‘कस्यचित्’, अर्थात् किसी एक का नहीं है, सबका है। ऐसा तो नहीं है कि वह धन किसी का नहीं है। किसी का न होता तो उसे कोई न भोगता। यदि कोई न भोगता तो उस धन का लाभ ही क्या था? धन व्यर्थ नहीं है, भोगने की वस्तु है। परन्तु एक जीव के भोगने की नहीं, सबके भोगने की, अतः जब कोई एक व्यक्ति धन पर प्रभुत्व जमाना चाहता है, तो धन उसको सुखद होने के स्थान में दुखद हो जाता है। जिस प्रकार स्वादिष्ट वस्तु अधिक देर तक मुंह में रखने से स्वादहीन हो जाती है, उसी प्रकार धन से चिपटने से धन अलाभकर हो जाता है।

 इस प्रकार इस मन्त्र में चार बातें मुख्य हैं-

(1) जगत् के गतिविधान की वास्तविकता, (2) ईश्वर का उस पर प्रभुत्व (3) जगत् भोग के लिए है, (4) जगत् से चिपटना नहीं चाहिए।

पांचवां मंत्र

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।

दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

-ऋग्वेद १0//१२१//१, अथर्ववेद ४//२//७, यजुर्वेद १३//४, २१//१, २५//१0

अर्थ– सृष्टि की रचना से पूर्व, प्रकाशयुक्त पदार्थों के बीजरूप को अपने गर्भ में रखनेवाला या धारण करनेवाला परमात्मा विद्यमान था। वह उत्पन्न हुई सृष्टि का अकेला, अद्वितीय स्वयंसिद्ध, स्पष्ट स्वामी था। उसी परमात्मा ने इस पृथिवी को और इस द्युलोक को धारण किया हुआ है, उसी एक परमात्मा को हवि द्वारा हम धारण करें।

व्याख्या– सृष्टि पर दृष्टि डालते ही बुद्धिमान् पुरुष के मन में यह प्रश्न उठता है कि यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हो गई, किसने उत्पन्न की और उत्पत्ति से पूर्व इसकी क्या अवस्था थी? यह प्रश्न न केवल नैसर्गिक है, अपितु अत्यन्त आवश्यक है। किसी वस्तु के प्रयोग से पहले उसकी स्थिति और प्रकृति का जानना आवश्यक है। घोंसला बनाने से पहले चिड़ियां भी जांच लेती हैं कि कौन -सा सुदृढ़ होगा।

क्या सृष्टि स्थायी और एकरस है? नहीं तो क्या कोई ऐसा काल रहा होगा जब इसकी उत्पत्ति हुई? अवश्य। तो क्या उस उत्पत्ति-काल से पहले यह थी? नहीं। अगर होती तो उत्पत्ति का क्या अर्थ था? यदि नहीं थी, तो क्या, उसका कारण था? अवश्य। परन्तु, इस विषय में मतमतान्तरों में बहुत भेद है। कुछ तो कहते हैं कि सृष्टि से पहले कुछ न था, शून्य से उत्पन्न हो गई। जैसे बीज गलकर जब अपने अस्तित्व को शून्य बना देता है, तो उससे वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। वेदमन्त्र इसका खण्डन करता है। उपनिषद् कहती हैं- असत् से सत् कैसे उत्पन्न होगा? यदि शून्य से ही कोई चीज बन जाए तो साध्य के लिए साधन की आवश्यकता न हो। शून्य तो हर किसान के पास है। शून्य को खरीदने के लिए श्रम या पैसे की जरूरत नहीं। आलसियों और निकम्मों के पास भी शून्य होता है। फिर क्या आवश्यकता है कि गेहूं उत्पन्न करने की इच्छावाला गेहूं का ही बीज बोये और चने का इच्छुक चने का ही बीज । यदि अभाव से भाव की उत्पत्ति हो जाए तो ‘अभाव’ तो सभी को प्राप्त है। परिश्रम ‘भाव’ के लिए करना पड़ता है, अभाव के लिए नहीं। दस रुपये पचास रुपये के बराबर नहीं होते, अतः जो आदमी दस रुपये के स्थान में पचास रुपये प्राप्त करना चाहता है, उसे अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। परन्तु दस रुपये का अभाव, पचास रुपये का अभाव और लाख रुपये का अभाव बराबर है। हर कार्य के लिए कारण चाहिए और निश्चित कारण चाहिए। बर्फ पानी से बनेगी, रेत से नहीं। इसलिए वेद ने कहा -‘हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे’ सृष्टि के पहले शून्य नहीं था। ‘हिरण्यगर्भः’ था। इसी को आगे ‘भूतस्य पतिः’ कहा है। हिरण्यगर्भ किसको कहते हैं? ‘हिरण्य’ का अर्थ है, ‘सोना’। ‘गर्भ’ का अर्थ है, ‘अण्डा’। ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ हुआ ‘सोने का अण्डा’। पुराण आदि ग्रन्थों में जैसे इन्द्र, गणेश या महादेव आदि शब्दों के सम्बन्ध में गप्प कथायें प्रसिद्ध हो गई हैं, इसी प्रकार ‘हिरण्यगर्भ’ के विषय में भी कपोल-कल्पित गप्पें हैं। प्रजापति का सोने के अण्डे से उत्पन्न होना पुराणों की गप्प है। क्या सृष्टि से पहले सोना था और सोने का अण्डा कैसे बना?

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हम कह चुके हैं कि हर कार्य के लिए नियत कारण चाहिए। प्रत्येक कार्य के तीन कारण होते हैं- उपादान, निमित्त और साधारण। साधारण कारण का अर्थ यह है कि वह सब कार्यों में सामान्य हो, विशेष न हो, जैसे काल और देश। कोई कार्य बिना देश या काल के सम्भव नहीं। परन्तु, एक ही देश और एक ही काल में लाखों कार्य होते हैं। देश और काल, उन कार्यों में कोई विशेषता उत्पन्न नहीं करते। दूसरा निमित्त कारण है, जैसे, घड़े का कुम्हार या अंगूठी का सुनार। परन्तु, केवल कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता। घड़े के निर्माण के लिए ‘मिट्टी’ (उपादान कारण) चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि से पहले केवल एक ईश्वर या खुदा था और कुछ न था। उसी ने कहा, ‘कुनू (हो जा)’ और सृष्टि उठ खड़ी हुई। वेदमन्त्र में यह नहीं कहा कि केवल प्रजापति ने इच्छामात्र से भूत या जगत् उत्पन्न कर दिया। उसके लिए एक विशेष नाम दिया है ‘हिरण्यगर्भ’। स्वामी दयानन्द ने इसका अर्थ किया है, वह सत्ता जिसके गर्भ में प्रकाशक पदार्थ बीजरूप में थे। ‘गर्भ’ ‘गृह’ का ही रूपान्तर है। जैसे, बच्चा पिता और माता के शरीर में गर्भरूप में विद्यमान होता है, वही उत्पत्ति या जन्म के समय ‘प्रजा’ (सन्तान) के रूप में आविर्भूत होता है। प्रजा के उत्पन्न होने से पिता ‘प्रजापति’ हो जाता है। पिता स्वयं पुत्र नहीं होता। यदि पिता के गर्भ में पुत्र का आत्मा न आता तो न प्रजा होती न प्रजापति। इसी प्रकार, प्रजापति के गर्भ में सृष्टि का बीजरूप विद्यमान था, अर्थात् सृष्टि से पहले ‘हिरण्यगर्भ’ था। यदि सुनार बिना सामान के आभूषण बना सके, तो वह सुनार न होगा, जादूगर होगा। सृष्टिक्रम में जादूगर को कोई स्थान नहीं है। जादूगर मूर्खों की आंख में धूल डालने के लिए होते हैं। परमात्मा ने बिना उपादान के न कभी सृष्टि बनाई, न आज बनाता है। आज भी ईश्वर की सृष्टि में पानी से भाप और भाप से बादल बनते हैं। रेत से बादल नहीं बनते और न बिना पानी के बनते हैं। ईश्वर आज भी वैसा ही सर्वशक्तिमान् है, जैसा सृष्टि के पहले था। वह भूतपति और सृष्टि-रूपी जगत् का पालक था। यहां ‘पति’ का अर्थ है पालक या पिता। ‘प्रजापति’ का अर्थ है ‘प्रजापिता’। लौकिक समाज में पति और पिता में भेद होता है। परन्तु प्रजा का अर्थ तो सन्तान ही है, अतः ‘प्रजापति’ का अर्थ होगा ‘प्रजापिता’।

नवीन वेदान्तियों का कहना है कि केवल ब्रह्म से ही बिना उपादान या प्रकृति के ही सृष्टि उत्पन्न होती है। वेदान्तियों ने कहा कि ब्रह्म  निमित्त कारण भी है और उपादान भी। इतना तो ठीक है कि ब्रह्म एक ऐसा निमित्त कारण है, जो उपादान कारण से पृथक् या दूर नहीं है। उसके और उपादान के बीच में कोई व्यवधान नहीं है, परन्तु निमित्त और उपादान में अनन्यत्व नहीं है। उपादान परिणामी होता है। निमित्त परिणामी नहीं होता। वह उपादान और उपादेय दोनों का पालक और पोषक होता है। उपादान भिन्न-भिन्न होते हैं। जिस सोने से अंगूठी बनी है, उसी से उसी समय हार नहीं बन सकता, परन्तु सुनार वही हो सकता है।

 ऐसे प्रजापति या भूतपति को एक कहा गया। ‘एक’ शब्द पर विशेष बल है। वेद एक-ईश्वरवादी है, अनेक ईश्वरवादी नहीं।

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सृष्टि को अंग्रेजी में ‘यूनिवर्स’ (Universe) कहा है, अर्थात् समस्त सृष्टि एक है। इसके सभी कानून एक हैं, अनेक नहीं। दो और दो मिलकर हर जगह और हर काल में चार ही होंगे। यदि ऐसा न होता तो वह यूनीवर्स (Universe) न होकर (Multiverse) कहलाती। उपादान भिन्न होते हुए भी ‘कर्त्ता’ एक ही है। वह न केवल सृष्टि बनाता है, अपितु उससे अलग भी नहीं होता। यह प्रभु की विशेषता है। कुम्हार मिट्टी से अलग था, घड़ा बनाकर अलग हो जाता है। वह उत्पादक है, पालक नहीं। इसीलिए, वह भूतों का पति नहीं। ईश्वर पति है, अर्थात् जिस सृष्टि को उसने रचा है, उसको रचकर वह कहीं अलग नहीं जा बैठा और न उसका पालन उसने छोड़ दिया है। जो सृष्टि बीजरूप में उसके गर्भ में थी, वह अब भी उसी के आधार पर ठहरी हुई है। वह आज भी इन सब को धारण किये हुए है।

‘कस्मै देवाय हविषा विधेमा’। यहां ‘कस्मै’ का अर्थ है ‘एकस्मैं’। वेद में ‘ए’ शब्द का लोप हो गया है, अर्थात् हम उसी एक देव की उपासना करें। किसी दूसरे को अपना ईश्वर न मानें।

‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ में ‘कस्मै’ के प्रायः तीन अर्थ किये गये हैं। तीनों अर्थ ही व्याकरण के अनुसार समीचीन हैं। परन्तु, प्रकरण के विचार से मुझे एक सबसे अच्छा जंचा। उससे बहुत कम लोग परिचित हैं। इसलिए, यहां कुछ विस्तार से लिखा जा रहा है। तीनों अर्थों पर विचार कीजिए-

(१)        ‘कस्मै’ शब्द ‘किम्’ सर्वनाम का चतुर्थी एकवचन है। ‘किम्’ प्रश्नवाचक है। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ का अर्थ हुआ ‘‘किस देव की उपासना की जाए?’’ यह वाक्य ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त में दस ऋचाओं में से पहली नौ ऋचाओं के अन्त में आया है। इस पक्ष के लोगों का कहना है कि अन्त के वाक्य में प्रश्न उठाया कि किसकी उपासना की जाए? और मन्त्रों के पूर्व भाग में उत्तर दिया अर्थात् उपास्य देव के लक्षण बताए। यह बात सर्वथा अनुचित तो नहीं है। वेदों में ऐसे प्रश्नों की शैली विद्यमान है, परन्तु सभी मन्त्रों में लगातार प्रश्नों को दुहराना कुछ कम जंचता है। यदि ‘कस्मै’ के साथ ‘चित्’ लगाकर ‘कस्मैचित्’ कर दिया जाय तो ‘चित्’ अनिश्चितता का बोधक होने से सर्वथा अमान्य हो जाता है।

(२)        ‘क’ का अर्थ है सुखस्वरूप। ‘क’ अकरान्त संज्ञा है, राम के समान। ‘क’ का चतुर्थी ‘काय’ होना चाहिए। वेद में बहुल होने से ‘कस्मै’ रूप भी बन गया, अर्थात् सुखस्वरूप ईश्वर की हम उपासना करें। निरुक्त और शतपथ दोनों इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। ‘क’ प्रजापति का नाम भी है। परन्तु, अकारान्त संज्ञा के चतुर्थी विभक्ति में ‘स्मै’ आदेश के उदाहरण वेद में अन्यत्र पाये नहीं जाते। ईश्वर के शुभगुण तो अनन्त हैं। ‘सुखस्वरूप’ भी एक विशेषण है। परन्तु, इसे बार-बार दुहराया क्यों गया? आक्षेप अपरिहार्य तो नहीं है, अतः यह व्याख्या अनुचित नहीं कही जा सकती। फिर भी ‘प्रकरण’ पूर्णरूपेण सन्तोषप्रद नहीं है।

(३)        शबर स्वामी ने पूर्वमीमांसा के भाष्य में ‘हिरण्यगर्भ’ इति-मन्त्र की व्याख्या करते हुए उपयुक्त अर्थ के साथ एक अर्थ यह भी किया कि ‘कस्मै देवाय’ का अर्थ है ‘एकस्मै’। यहां छांदस ‘ए’ का लोप हो गया है। वेद में इस प्रकार के लोपों के उदाहरण बहुत मिलेंगे। ‘एकस्मै देवाय’ में कोई व्याकरण की खींचातानी भी नहीं, क्योंकि, ‘एक’ सर्वनाम है और अर्थ यह हुआ कि केवल एक ईश्वर की ही उपासना है, कई देवी-देवताओं की नहीं। इस अर्थ का गौरव इस सूक्त के कई और शब्दों से विदित है। सूक्त के अन्त का मन्त्र है ‘प्रजापते न त्वद्’ इति। इसमें ‘न अन्यः’ अर्थात् ‘कोई और नहीं’ ऐसा शब्द आया है, अर्थात् प्रजापति के एकत्व पर बल है। इस सूक्त के अन्य मन्त्रों में भी ‘एक’ शब्द कई बार दुहराया गया है। मन्त्रों के पहले चरणों में सूर्य आदि ‘हिरण्यों’ अर्थात् प्रकाशवाले पदार्थों के नाम गिनाये हैं, जिनको उपास्यदेव नहीं माना। इस विशेषता को दिखलाने के लिए भी ‘एकस्मै देवाय’ कहना उचित प्रतीत होता है। साधारण पुरुषों के हितार्थ भी यही व्याख्या अधिक उपयुक्त है, क्योंकि प्रायः अविद्यावश लोग कई ईश्वरों को मान बैठते हैं और सुधारक उपदेष्टाओं के निरन्तर परिश्रम करने पर भी यह बहु-ईश्वरवाद का रोग बार-बार लौट आया है, अतः वेद में अति प्राचीनकाल से इस पर बल दिया जाना सर्वथा उचित ही है। एक ईश्वरवाद वेद का मुख्य और मौलिक सिद्धान्त है। उपासना की समस्त सामग्री का नाम ‘हविः’ है। भौतिक हो या अभौतिक, शारीरिक हो या मानसिक। प्रजापति की उपासना मन, वचन और कर्म तीनों साधनों द्वारा होनी चाहिए। हमारा मन उपास्यदेव के गुणों के मनन करने में लगा हो। वाणी से मन्त्रों को बोलें और कर्म शुभ करें। इनमें से बहुत-से कर्मों का उल्लेख मन्त्रों के कई वाक्यों में आया है।

इस प्रकार मन्त्र में इतनी बातें दी हुई है-

(१) सृष्टि के पूर्व ईश्वर था। (२) ईश्वर हिरण्यगर्भ अर्थात् उपादान से युक्त था। (३) उसने सृष्टि बनाई और अब भी धारण कर रहा है। (४) वह एक ही है, कई नहीं। (५) उसी की उपासना करनी चाहिए, अन्य किसी की नहीं।

छठा मंत्र

इन्द्र मृळ मह्यं जीवातुमिच्छ चोदय धियमयसो धाराम्।

यत् किंचाहं त्वायुरिदं वदामि तज्जुषस्व कृधि मा देववन्तम्।।

-ऋग्वेद ६//४७//१0

अर्थ– सर्वशक्तिमन् ईश्वर! कृपा करो। मेरे लिए जीविका को दीजिए। तलवार की धार के समान बुद्धि को तीक्ष्ण बनाइये। तुझको मन से चाहनेवाला मैं जो कुछ भी यहां, इस जीवन में मांगूं, निवेदन करुं, उसको दीजिए। मुझे देवों के दिव्य गुणों से युक्त कीजिए।

व्याख्या-इस मन्त्र में सबसे मुख्य शब्द ‘जीवातुम्’है। इसको हम समस्त मन्त्र का प्राण कह सकते हैं। अन्य सब शब्द इसी शब्द के उपव्याख्यान मात्र हैं। ‘जीवातुम्’का अर्थ है, जीविका या रोजी। रोजी में वे सब साधन सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा हम अपने जीवन को ठीक और काम के योग्य रख सकते हैं। जीवन को ठीक रखने के लिए भोजन, वस्त्र, मकान, औषधियां चाहिएं। जी बहलाने के लिए इष्टमित्र और स्नेही चाहिएं। शत्रुओं के आक्रमणों को रोकने के लिए संरक्षक चाहिएं। यशोलाभ के लिए कुछ प्रशंसक भी चाहिएं। ये हैं जीवन को स्वस्थ रखने के साधन। परन्तु, स्वस्थ जीवन का कुछ उपयोग भी तो हो, क्योंकि स्वस्थ जीवन का भी तो कुछ उद्देश्य आवश्यक है। रथ सुन्दर है, सुदृढ़ है, परन्तु कहीं यात्रा नहीं करनी, तो ऐसे रथ का कोई क्या करेगा? हर चीज के तीन गुण परमावश्यक हैं-(१) उपयोग (Utility) (२) दृढ़ता (Durability) (३) सौन्दर्य (Beauty) । इसमें सबसे मुख्य है, उपयोग। यदि सुदृढ़ और सुन्दर वस्तु का कोई उपयोग नहीं, तो वह सर्वथा बेकार है। उपयोग से दूसरे नम्बर पर दृढ़ता है। उपयोग हो ही तब सकता है, जब वस्तु कुछ देर ठहरी रह सके। सौन्दर्य तीसरे नम्बर पर है, क्योंकि सौन्दर्य सापेक्षिक है और उपयोग न होने से सुन्दर से सुन्दर वस्तु भी कुरूप प्रतीत होने लगती है। एक अत्यन्त कुरूप परन्तु आज्ञाकारी और सेवा करनेवाले पुत्र को लोग अधिक चाहते हैं, उस पुत्र की अपेक्षा जो बहुत सुन्दर है, परन्तु माता-पिता को कष्ट दिया करता है। इस मन्त्र में जीवन के साधन और उपयोग दोनों की ओर संकेत किया गया है।

‘इन्द्र’परमात्मा का नाम है। ऐश्वर्यवान् को इन्द्र कहते हैं। उपासक के लिए यह उचित ही है कि अपने लिए जीविका मांगते हुए वह ईश्वर को ‘इन्द्र’ नाम से सम्बोधित करे। ‘मृळ’ का अर्थ है ‘प्रसन्न हूजिए, कृपा कीजिए।’प्रार्थी आदेश नहीं चाहता, कृपा चाहता है, अर्थात् जो चीज वह मांगता है, उसे वह बहुत प्यारी समझता है। हम उसी वस्तु की मांग करते हैं, जो बहुत प्यारी लगती है। ‘जीवन’से प्यारा मनुष्य के लिए है भी क्या? मनुष्य अपने जीवन को बचाने के लिए धन, दौलत, रिश्तेदार यहां तक कि यश का भी परित्याग कर देते हैं। परमात्मा ने जब हम को जीवन दिया, तो साथ ही जीवन के लिए प्रेम भी दिया। यह जीवन-प्रेम सब प्राणियों में पाया जाता है और इसी आधार पर प्राणी अपने जीवन की रक्षा करने में तत्पर रहता है तथा जहां कहीं अपने को अशक्त पाता है, वहां परमात्मा से प्रार्थना करता है। इस मन्त्र में दी हुई प्रार्थना इसी भाव की सूचक है।

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हमारे ‘जीवन’में ईश्वर की कृपा तो है ही, परन्तु साथ ही हमारी भी जन्म-जन्मान्तर की कमाई है। इसलिए, सबसे प्रथम चीज यह है कि हमारे हृदय में जीवन के लिए मान और प्रेम होना चाहिये और हमारी हर क्रिया से यह प्रकट होना चाहिए कि हम जीवन को ठीक रखने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। जीवन बहुमूल्य पदार्थ है। यदि उसको त्यागना भी पड़े, तो केवल उसी वस्तु के लिए, जो जीवन से भी अधिक मूल्यवान् है। देश और जाति का नेता कभी-कभी अपने जीवन को संकट में डाल देता है, परन्तु उसी समय जब वह बहुत से जीवनों की रक्षा के लिए एक जीवन को दे डालना आवश्यक समझता है। जो निष्प्रयोजन जीवन नष्ट कर देते हैं, वे पाप करते हैं। आत्मघात सबसे बड़ा पाप है। समस्त प्रकार की हत्याओं से बड़ी हत्या है।

ऐसे बहुमूल्य जीवन को सुरक्षित रखना सुगम नहीं है। मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। कुछ बाधाएं बाधाओं के रूप में आती हैं और कुछ प्रलोभनों के रूप में। जो शत्रु शत्रु बनकर सामने आता है, उससे रक्षा करना सुगम है, परन्तु जो मित्र बनकर आता है, उससे बचना अत्यन्त कठिन है। मनुष्य की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह शत्रु को मित्र और मित्र को शत्रु समझ बैठता है।

आप तनिक मनुष्य-जीवन पर दृष्टि डालें, उनकी विफलता और सफलता का परिगणन करें। आपको ज्ञात होगा कि अधिकतर मनुष्य इसीलिए क्लेश उठाता है कि वह शत्रुओं को मित्र और विष को अमृत समझता है। योगदर्शन में अविद्या को सभी अन्य क्लेशों का क्षेत्र बताया है। मित्र कहलाने वाले शत्रुओं से बचने के लिए सतर्क होने की आवश्यकता है। सतर्क होने के लिए ‘तर्क’ चाहिए। न्यायदर्शन में मुक्ति के सोलह साधन बतायें हैं, उनमें से एक ‘तर्क’ भी है। तर्क के लिए चाहिए तीक्ष्ण बुद्धि। जीवन में तो बहुत सी चीजें शामिल हैं-नाक, कान, आंख आदि, परन्तु इनसे भी अधिक मूल्यवान् बुद्धि है।

जिसके बुद्धि नहीं वह तो निर्बलों से भी निर्बल है। एक पतला-दुबला मनुष्य अपनी बुद्धि की सहायता से बड़े-बड़े शेरों को पकड़कर बन्दरों की तरह नाच नचाता है। 

बहुधा, दार्शनिक तथा धार्मिंक क्षेत्रों में बुद्धि की अवहेलना की गई है। धर्म के विषयों में बुद्धि को लगाना अश्रद्धा और अधार्मिकता का सूचक समझा जाता है। प्रायः धार्मिंक सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने अनुयायियों को अपनी बुद्धि के प्रयोग से निरुत्साहित किया। बहुधा, जब कोई बच्चा किसी विषय में तर्क करता है, तो गुरुजन डांट देते हैं, ‘‘क्या तुम हमसे भी अधिक जानते हो?’’ बच्चे की तर्कशक्ति मारी जाती है। जब-जब धर्मगुरुओं के समक्ष जनता ने कोई प्रश्न उठाया, तो उनको यही कहकर चुप कर दिया कि तुम क्या जानो, ईश्वर तुमसे ज्यादा जानता है। ईश्वर की बात में ननु-नच नहीं करनी चाहिए, परन्तु वेद की यह शिक्षा नहीं है। यदि हम बुद्धि का प्रयोग न करें, तो कैसे जान सकें कि अमुक आचार्य माननीय है और अमुक आचार्य माननीय नहीं है। सभी सम्प्रदाय अपने आचार्य को सच्चा और दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों को झूठा समझते हैं। हमारे पास कौन-सी कसौटी है, सिवाय बुद्धि के, जिससे हम जान सकें कि अमुक मत मन्तव्य है और अमुक अमन्तव्य। इसीलिए, मनु ने धर्म के दश लक्षणों में एक ‘धी’ को सम्मिलित किया है। ‘धी’ अर्थात् बुद्धि के बिना तो धर्म के शेष नौ लक्षण व्यर्थ-से सिद्ध होते हैं।

कुछ लोगों का कहना है कि मनुष्य अल्प है, उसकी बुद्धि छोटी है, अतः वह काम पड़ने पर धोखा दे जाती है। यह ठीक है कि सबकी बुद्धि एक-सी नहीं होती। सब चाकू भी तो एक-से पैने नहीं होते। लौकी काटने के चाकू से आप कलम नहीं बना सकते। कठोर वस्तुओं के लिए तेज चाकू चाहिए, परन्तु इससे बुद्धि की अवहेलना तो नहीं हुई। कल्पना कीजिए कि अपनी बुद्धि को आप अल्प समझकर इसका उपयोग छोड़ दें, तो दो हानियां होंगी। प्रथम तो आप निःशस्त्र हो जायेंगे। आपके पास बुद्धि को छोड़कर और था ही क्या? जो कुछ था उसे भी आप खो ही बैठे। अब आप अपना काम कैसे चलायेंगे? दूसरी सबसे बड़ी हानि यह होगी कि बुद्धि दिन-पर-दिन और भी कुण्ठित होने लगेगी और आप मनुष्य के स्तर को छोड़कर भेड़ के स्तर को पहुंच जायेंगे। जिस कुंजी (Key) का प्रयोग न किया जाए, उसको जंग लग जाता है। इसी प्रकार जो लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग छोड़ देते हैं, वे अपनी बुद्धि को सर्वथा कुण्ठित कर लेते हैं। यह तो ऐसी स्पष्ट बात है कि आप इसका परीक्षण अपने या दूसरों के ऊपर सुगमता से कर सकते हैं। इसलिए, वि़द्यालयों में जो पाठ्य-विषय की पाठ्यपुस्तकें नियत की जाती हैं, उनमें ध्यान रखा जाता है कि पढ़नेवालों की बुद्धि का विकास अधिक-से-अधिक हो। हर एक की बुद्धि पैनी नहीं होती, परन्तु पैनी करते-करते अधिक पैनी हो जाती है और प्रयोग छोड़ देने से पैनी-से-पैनी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है, अतः धर्म का सबसे बड़ा शत्रु वह है, जो अपना धर्म चलाने के हेतु धर्म के नाम पर तर्क और बुद्धि की अवहेलना करता है। तर्क को विशुद्ध बनाना और बात है और तर्क की अवहेलना दूसरी बात। तर्क में विशुद्धता भी तर्क के प्रयोग से ही आती है।

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संसार में देखा जाता है कि बाजार में शाक-भाजी बेचनेवाले से लेकर मोक्ष का मार्ग दिखानेवाले गुरुओं तक सभी हमारी आंखों में धूल डालने का यत्न करते हैं। नारंगी बेचनेवाला मीठी नारंगियों में खट्टी मिला देता है। सम्प्रदायों का चालाक प्रवर्तक कल्पित स्वर्ग का ऐसा चित्र हमारे सामने रखता है कि हम मुग्ध होकर अपना तन,मन,धन सब गुरुजी के अर्पण कर देते हैं। जैसे मीठी नारंगी की जांच बुद्धि से होगी, उसी प्रकार, सच्चे स्वर्ग की पहचान भी तो बुद्धि से ही हो सकेगी, अतः वैदिक सिद्धान्त यह है कि अपनी बुद्धि का सदा प्रयोग करते रहो और जब तक बुद्धि से सिद्ध न हो जाए किसी की बात मत मानो। न्यायदर्शन में महामुनि गौतम ने धोखेबाजों के कुतर्कों से बचने के लिए बहुत-सी बहुमूल्य कसौटियां दी हैं, जिनके प्रयोग से हमारी बुद्धि तलवार से भी पैनी हो सकती है और हम न केवल जीविका प्राप्त करने अपितु जीवनोद्देष्य की पूर्ति में भी सफल हो सकते हैं।

अगले चरण में ‘अहम्’ का एक विशेषण आया है, ‘त्वायुः’। ‘त्वायुः’ का अर्थ है तुझे चाहने या प्यार करनेवाला। प्रार्थी ईश्वर को प्यार करता है। उसकी प्राप्ति के लिए मन से कामना करता है, वह आस्तिक है। ‘इन्द्र’ का भक्त है। ‘अनिद्र’ या नास्तिक नहीं है। ईश्वर का प्यारा किसी ऐसी वस्तु की कामना कर ही नहीं सकता, जो ईश्वर को प्रिय न हो या उसको उचित न जान पड़े। उपासक की कामनाएं उपास्यदेव की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिएं। इच्छा उपासक की नहीं, अपितु उपास्य की है। ‘राजी हैं हम उसी में, जिसमें तेरी रज़ा हो।’ आग्रह का कोई प्रश्न ही नहीं। अपनी इच्छाओं को अपने प्यारे के सिर पर थोपना या थोपने का विचार करना ‘प्रेम’ का दुरुपयोग है। प्रायः हम मतमतान्तरों की गाथाओं में इस प्रकार की प्रार्थनाओं का उल्लेख पाते हैं, जब उपासक अड़ जाता है। कहते हैं कि तुलसीदास कृष्ण-मन्दिर में कृष्ण की मूर्ति के सामने अड़ गये और कहने लगे कि  ‘तुलसी मस्तक तब झुके धनुषबाण लो हाथ।’ क्या जाने यह घटना ऐतिहासिक है या कल्पनामात्र है। परन्तु, इसकी पीठ पर जो भावना है, वह अवैदिक है। भक्त अड़ता नहीं, उपास्य से प्यार करता और उसी के स्वभाव के अनुकूल अपना स्वभाव बनाता है। जीविका मांगी, इसलिए कि जीवन सुरक्षित रहे। अन्य कामनाएं मांगी, जो उपासक को उपासक होने के नाते मांगनी चाहिए, परन्तु इन सब कामनाओं का भी एक ध्वेय है, अर्थात् ‘मुझे देव बनाइए।’ मनुष्य मनुष्य-रूप में उत्पन्न होता है और देव बनना चाहता है।

उपनिषद् कहती है, ‘ब्रह्मविद् ब्रह्म एव भवति।’ ब्रह्म का उपासक ब्रह्म ही हो जाता है। ‘एव’ का अर्थ है ‘इव’। लगभग वैसा ही। लोहे के गोले मे आग से सम्पर्क करते हुए यदि गर्मी न आए, तो आग का सम्पर्क ही व्यर्थ है। भगवान् की उपासना करके यदि भगवान् के गुण अपने में न आएं, तो ऐसी उपासना से क्या लाभ? इसलिए, उपासक में ‘देववन्तम्’ बनने की इच्छा होनी चाहिए और उसी के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

लोग ईश्वर से ऐसी चीजें मांगते हैं, जिनसे उनमें देवत्व तो दूर रहा, मानवता भी नहीं रहने पाती। हम चाहते हैं कि हमारा उपास्यदेव हमारे पापों के बदले हमको उपासना के बल पर शुभ फल दे। यह वैदिक प्रार्थना नहीं है।

इस वेदमन्त्र में सारांशतः इतनी बातें दी है- (१) जीवन प्यारी चीज है, इसके लिए जीविका की प्रार्थना करनी चाहिए। (२) बिना बुद्धि के जीवनयात्रा असम्भव है, अतः बुद्धि की तीक्ष्णता आवश्यक है। (३) उपासक को उपास्य से वही चीज मांगनी चाहिए, जिससे उपासक का उपास्य से प्रेम प्रकट हो। भक्त को भगवान् के वश में होना चाहिए। भगवान् को भक्त के वश में बताना भक्ति नहीं, अभक्ति है। (४) जीवन का उद्देश्य यह है कि मनुष्य नित्यप्रति मनुष्यता के साधारण स्तर से उठकर देवत्व की ओर पग बढ़ाता जाए। यही परमपद है।

सातवां मन्त्र

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।

-ऋग्वेद १0//१९१//२, अर्थर्ववेद ६//६४//१

 अर्थ– हे मनुष्यों! तुम लोग मिलकर चलो। संवाद, अर्थात् प्रेमपूर्वक आपस में बातें करो। तुम्हारे मन मिलकर सत्यासत्य-निर्णय के लिए सदा विचार करें। जैसे, प्राचीन काल में विद्वान् लोग परस्पर विचार करके, सत्यासत्य का निर्णय करके, अपने-अपने उपभोग के भाग को प्राप्त करते आए हैं, अर्थात् प्राचीलकाल से विद्वानों की यह प्रथा चली आती है कि मन, वचन और कर्म से मिलकर रहें और प्रेम से निर्णय करके अपने-अपने हिस्से की चीजों का उपभोग करें।

व्याख्या– इस वेदमन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मानव समाज के निर्णय का मूलाधार क्या हो और निर्मित समाज की रक्षा कैसे हो तथा उससे किस प्रकार अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके।

‘संगच्छध्वं,’ ‘संवदध्वं,’ ‘वः मनांसि’ ये सब मध्यम पुरुष बहुवचन हैं। यह ईश्वर की ओर से सब मनुष्यों के प्रति उपदेश है। या ऋषि, उपदेशक, आचार्य इस ईश्वर- उपदेश को जनसाधरण के लिए व्यक्त करते हैं। यह मन्त्र ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में आया है, इसलिए भी प्रतीत होता है कि समस्त वेद में जो कुछ अब तक उपदेश दिया गया, उसका निचोड़ यह है कि मनुष्य-समाज सर्वोत्कृष्ट हो। सम्बोधन मनुष्यों के प्रति है, क्योंकि मनुष्य ही उपदेश को समझ सकते हैं और मनुष्यों के सामाजिक अनुशासन के द्वारा ही अन्य पशु-पक्षी लाभान्वित हो सकते हैं।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी (Gregarious animal) है, अर्थात् यह समूह में रहना पसन्द करता है। यों तो मनुष्य के अतिरिक्त हिरन, सुअर, बैल, गाय आदि भी झुण्ड बनाकर रहते हैं- कौवे, कबूतर, चींटियां, मधुमक्खियां झुण्डों में ही काम करती हैं। परन्तु, मनुष्य समाज को बनाना और बनाकर उसे सुरक्षित रखना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बुद्धिपूर्वक योजनाओं की आवश्यकताएं पड़ती है। मधु-मक्खियों का एक-जैसा संगठन अनादि काल से चला आता है। उसके लिए किसी विशेष समाज-शास्त्र के निर्माण की आवश्यकता नही पड़ती, परन्तु मनुष्य-समाज को ठीक रखने के लिए नित्यप्रति हर देश और हर भाषा में नवीन शास्त्र रचे जाते हैं, फिर भी यह निर्णय नहीं हो पाता कि समाज के निर्माण का श्रेष्ठतम साधन क्या हो? मनुष्य के परस्पर मिलने के तीन रूप हैं- साथ चलना, मिलकर वार्तालाप करना और मिलकर सोचना। इसमें पहला सूक्ष्म है और पिछला सूक्ष्मतम। ‘गम्’ धातु से चलने के अर्थ में ‘गच्छत’ होना चाहिए था। परन्तु वेद ने ‘गच्छत’ (परस्मैपद) न कहकर आत्मनेपद ‘गच्छध्वम्’ कहा और ‘सम्’ उपसर्ग लगाकर अर्थों में विशेषता उत्पन कर दी। केवल इकट्ठे होने का नाम समाज नहीं है। लाखों मनुष्यों की भीड़ ‘समाज’ नहीं है। दस आदमियों के सम्मिलन को भी समाज कह सकते हैं, यदि उसमें समाज के गुण हों। संस्कृत भाषाविज्ञों ने ‘समज’ और ‘समाज’ के अर्थों में भेद किया है। यदि बहुत-से पशु कहीं एक स्थान पर इकट्ठे हो जाते हैं, तो उसको ‘समाज’ न कहकर ‘समज’ कहते हैं, ‘समज’ और ‘समाज’ का धातु तो एक ही है, परन्तु ये एक ही भाव के द्योतक नहीं। समाज के लिए योजना चाहिए।

‘संगच्छध्वम्- हे लोगो, साथ चलो!’ साथ कैसे चलें? सबकी चाल बराबर नहीं। कोई तेज चलता है, किसी की गति मन्द होती है। मन्द गतिवाला तेज कैसे चलेगा? उसमें सामर्थ्य नहीं, वेगवाला अपने वेग को क्यों कम कर दे? इससे क्या लाभ? परन्तु, यदि सब ऐसा ही सोचें तो, कोई समाज बन ही न सकेगा और समाज के न बनने से व्यक्ति की समुन्नत होने में अशक्त होंगे। क्या कोई बीच का मार्ग है? अवश्य है! किसी फौज को मार्च करते हुए देखिए! हजारों सैनिक हैं, उन सबकी शक्तियां समान नहीं। उनका वेग समान नहीं। परन्तु, उनका नियन्त्रण इस प्रकार का है कि जब एक का बायां पैर उठता है, तभी सबका बायां पैर उठ जाता है। तेज चलनेवाला सैनिक अपनी तेजी को रोकता है। सुस्त सैनिक कुछ विशेष यत्न करके तेज सैनिक का साथ देता है। तेज मनुष्य का आत्मनिरीक्षण सुस्त मनुष्य को प्रेरित करता है और उसके वेग में वृद्धि हो जाती है। यत्न और नियन्त्राण दो साधन हैं, संगमन या साथ चलने के। इनसे तेज और सुस्त दोनों को लाभ पहुंचता है। जो सेना इस शुभ गुण से सम्पन नहीं होती वह, सेना नहीं कहलाती और न वह शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकती है। आपने बड़े-बड़े मेलों में देखा होगा कि पुलिस के नियन्त्रित बीस आदमी लाखों की भीड़ को भगा देते हैं, अतः वेदमन्त्र इस बात पर बल देता है कि किसी जाति या समाज की उन्नति का स्तर मनुष्यों की गणना या संख्या पर निर्भर नहीं है। उनमें ऐसा नियन्त्रण भी होना चाहिए कि वे परस्पर मिलकर अपनी गतियों को समन्वित कर सकें।

गतियों को समन्वित करने का साधन है संवाद या मिलकर स्नेहयुक्त बात करना। तेल या घी को संस्कृत में स्नेह कहते हैं और स्नेह नाम प्रेम का भी है। स्नेहयुक्त वाणी चलने में समन्वय उत्पन्न कर देती है। सेनापति की बाएं-दाएं (left, right) की आवाज सुनकर ही सैनिकों के पैर साथ-साथ पड़ने लगते हैं। ड्रिल के आदेश मानों संवाद ही हैं। बाप अपने छोटे-से बच्चे को साथ लगाना चाहता है। बच्चा कहता है मैं तेज नहीं चल सकता मुझमें सामर्थ्य नहीं। बाप उत्तर देता है, ‘बच्चे, कुछ बात नहीं। मैं मन्द गति से चलूंगा, तू मेरी अंगुली पकड़ ले।’ बच्चा अपनी गति कुछ तेज करता है। संवाद से प्रेरणा मिलती है। जो तुम्हारा परम शत्रु है उसके साथ भी संवाद करने से शत्रुता कम हो जाती है। वाणी पैरों की प्रेरिका है। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो वाणी का ठीक-ठीक प्रयोग कर सकता है। पैर स्थूल हैं, वाणी सूक्ष्म है। परन्तु, वाणी से भी सूक्ष्मतम है, ‘मन’, इसलिए वेदमन्त्र कहता है कि ‘वः मनांसि संजानताम्’  तुम्हारे मन साथ मिलकर विचार करें। विचार सबसे प्रबल वस्तु है, अतः समाज-निर्माण का उत्कृष्ट साधन परस्पर विचार करना है। झगड़ा विचारों के भेद से आरम्भ होता है। मैं कुछ सोचता हूँ, आप कुछ सोचते हैं, तो बात-बात पर झगड़ा हो जाता है। मतभेद गाली-गलौज की जड़ है और जब वाग्युद्ध आरम्भ हो गया, तो स्थूल युद्ध के होने में कोई देर नहीं लगती। कौरव-पाण्डवों के विचार भिन्न-भिन्न थे, जब द्रोपदी ने ताना मारा कि ‘अन्धों के अन्धे ही पैदा हुए’ तो कौरवों के हृदय में तीर-सा लगा और उन्होंने ठान ली कि चाहे जो कुछ हो, पाण्डवों का नाश करना चाहिए। मतभेद के कारण एक घर के लोग लड़ पड़ते हैं और घर नष्ट हो जाता है। छोटे-छोटे मतभेद बड़े मतभेदों को उत्पन्न कर देते हैं और थोडी-सी बात पर बड़ी बड़ी लड़ाइयां हो जाती हैं, अतः मनुष्य-समाज के निर्माण का सबसे बड़ा साधन है, बैठकर विचार-विनिमय करना। सभाएं इसीलिए बनाई जाती हैं कि भिन्न-भिन्न विचारों के लोग अपना-अपना दृष्टिकोण प्रकट करें। ऐसा करने से सन्धि का कोई-न-कोई उपाय निकल आता है। पहले से लड़ाई ठानने की इच्छा करनेवाले लोग भी परस्पर विचार करने लगते हैं, तो बहुधा अपनी जिद को छोड़ने के लिए उद्यत हो जाते हैं। राजनीति के क्षेत्र में परस्पर विचार-विनिमय (negotiations) को बहुत बड़ा महत्त्व दिया गया है और संसार का इतिहास बताता है कि प्रायः जनसंहार को रोकने और मानव-समाज को सुरक्षित रखने में ‘संवदध्वम्’ का उपदेश बड़े काम की चीज है।          

जब मनुष्य परस्पर विचार करने लगता है, तो उसको स्वहित और परहित के समन्वय का ज्ञान हो जाता है। प्रत्येक स्वार्थ में स्वलाभ के साथ–साथ स्वहानि छिपी रहती है। यदि विचार-विनिमय का अवसर मिले, तो यह छिपी हुई हानि प्रकट हो जाती है और मनुष्य परहित के गौरव को भी अपने विचारों में स्थान देता है।

मन्त्र के अन्तिम चरण में उदाहरण देकर देव और साधारण मनुष्यों के कर्मों की शैली में भेद बताकर यह सिद्ध किया है कि एक मार्ग मूर्खों का है और दूसरा विद्वानों का। इस सृष्टि में हिस्सा तो सभी का है – मूर्खों का भी और विद्वानों का भी। दोनों प्रकार के लोगों को जीवन-यात्रा करनी है, दोनों को साधनों की आवश्यकता है, दोनों का भाग चाहिए। परन्तु विद्वानों और अविद्वानों में अपने-अपने भाग के प्राप्त करने के अपने-अपने ढंग हैं। आदिकाल से देवों का यह स्वभाव रहा है कि साथ चलें, साथ संवाद करें और साथ मिलकर विचार करें। मूर्ख केवल अपना हित देखता है, विद्वान् पराये हित में अपना हित समझता है, अतः जब वह दूसरों का हित करने लगता है, तो दूसरे उसी का अनुकरण करके उसका हित करते हैं, अतः सर्वत्र, सर्वथा और सर्वदा सबका हित होता है और समाज समुन्नत होता है। मूर्ख अपना हित चाहता है, औरों के साथ स्पर्धा, खींचातानी और संघर्ष चलता है, सब एक-दूसरे को हानि पहुंचाने का यत्न करते हैं। हर तरफ से हानि पहुंचाने की प्रबल इच्छा और प्रयत्न हो, तो समाज हानियों का मन्दिर बन जाता है। ऐसा समाज कैसे स्थापित और सुरक्षित रक्खा जा सकता है। शतपथ-ब्राह्मण में इसी तथ्य का बड़ी उत्तमता से वर्णन किया है-

 प्रजापति के दो सन्तान हैं, देव और असुर। मनुष्यों की दो कोटियां सदा से प्रसिद्ध हैं। अच्छे या देव और बुरे या असुर। देवों और असुरों में कभी बनती नहीं। वे झगड़ने लगे। असुरों ने चाहा कि आहुतियां अपने-अपने मुंह में ही डालें, अतः वे नष्ट हो गये, क्योंकि ‘अतिमान’ अर्थात् स्वार्थ पराभव का मुख या हेतु है। देवों ने एक -दूसरे के मुख में आहुतियां दी। वे जीत गये, क्योंकि एक-दूसरे की भलाई में तत्पर रहने का नाम ही यज्ञ है। यज्ञ उसी का है, जो परहित की भावना रखता है। जो स्वार्थी है, वह यज्ञ कर ही नहीं सकता। समाज का निर्माण यज्ञ से होता है। यज्ञ का अर्थ है- परोपकार, इससे सबको अपना-अपना भाग मिल जाता है। यह देवों की प्रथा है, यही देव-मार्ग है।

इतिहास इसी तथ्य का साक्षी है। वर्तमान भारतवर्ष के समक्ष दो इतिहास उपस्थित हैं- एक देवों का, दूसरा असुरों का। रामायण पर दृष्टि डालिए। राजा दशरथ के चार पुत्र हैं। राज्यरुपी आहुति किसके मुख में डाली जाए? राम कहते हैं भरत के मुख में। भरत कहते हैं राम के मुख में। परिणाम यह होता है कि राज्य सभी का हो जाता है और अनन्त काल तक समाज के लिए एक आदर्श बन जाता है। ‘रामराज्य’ के लिए आज भी लोग तड़पते हैं। इसके विपरीत दूसरा उदाहरण है भारत के मुगल सम्राट् शाहजहां का। उसके भी चार लड़के थे और भारतवर्ष का बड़ा साम्राज्य था। चारों ने उसको हड़पने का यत्न किया। चारों ने अपने-अपने मुंह में आहुतियां डाली। यह तो देवों की प्रथा नहीं थी, असुरों की प्रथा थी। शास्त्र की बात ठीक सिद्ध हुई कि अतिमान पराभव का मुख है। न केवल चारों पुत्र ही प्रनष्ट हुए, मुगलराज्य की श्री भी सदा के लिए लोप हो गई और मानवजाति के इतिहास में एक बड़ी दूषित मिसाल छोड़ गई।

 सुमति का अर्थ है कि – परस्पर मिलकर विचार करो। विचारों से वाणी शुद्ध बनेगी और वाणी से कार्यों में एकता आएगी। 

आठवां मन्त्र

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति कर्म लिप्यते नरे।।

-यजुर्वेद अध्याय ४0, मन्त्र २

अर्थ– इस संसार में कर्मों को करते हुए ही मनुष्य सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। यही एक साधन है, जिसके द्वारा तुझ मनुष्य में कर्म लिप्त न होंगे। इसके भिन्न दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

व्याख्या– इस मन्त्र में ‘कर्म’ का गौरव और माहात्म्य दिखाया गया है। विस्तृत व्याख्या करने से पहले, मुख्य भावना को समझने का यत्न करना चाहिए। जब एक बार भावना हृदयंगम हो जाती है, तो अन्य तत्सम्बन्धी बारीक बातें समझने में सुगमता होती है। मुख्य भावना यह है- ‘कर्म करो तभी कर्म के बन्धनों से छुटकारा मिलेगा।’ कर्म क्या है और कर्म का बन्धन क्या है? इसके लिए एक दृष्टान्त पर विचार कीजिए। एक चोर ने चोरी की। चोरी एक कर्म था। शासन की ओर से उसे कारागार मिला। यह कारागार ही कर्म का बन्धन है, बन्धन ही दुख का लक्षण है। कैदी जेल में बन्द है। यह बन्धन है। वह नहीं चाहता, फिर भी चक्की पीसनी पड़ती है, यह बन्धन है। कहीं आ-जा नहीं सकता, यह कर्म का बन्धन है। किसी अपने प्यारे से मिल नहीं सकता, यही बन्धन है। ये सब कर्म के बन्धन हुए। कर्म था चोरी, कर्म के बन्धन हुए वे कर्म, जो बिना इच्छा के जबरदस्ती करने पड़ते हैं। वेदमन्त्र कहता है कि इन कर्म के बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए भी निरन्तर कर्म करने चाहिए। उन कर्मों का प्रकार भिन्न होगा। उनकी प्रकृति भी भिन्न होगी। उनके लक्षण भी भिन्न होंगे, परन्तु वे होंगे ‘कर्म’ ही। कर्म के बन्धन, बिना कर्म किये नहीं छूट सकते। अनाचार दोष से रोग उत्पन्न होता है। उपचार से रोग दूर होता है। अनाचार भी कर्म था, जिसका बन्धन हुआ रोग। उपचार भी कर्म है, परन्तु भिन्न प्रकार का, इसलिए वह ‘बन्धन’ को छुड़ाने वाला है, बन्धन को कड़ा करनेवाला नहीं।

यह प्रश्न केवल दार्शनिक नहीं, लोक-व्यवहार की नित्य की चीज है। हम रोज तकदीर और तदबीर की बहस सुनते हैं। तकदीर बन्धन है और तदबीर कर्म है। जीवन में हम सैकड़ों बन्धन देखते हैं। जिनको हमने नहीं बनाया। वे बन्धन कहीं से बने-बनाये आ गये। जेल के विशाल भवन को चोर ने नहीं बनाया। किसी और शक्ति ने जबरदस्ती उस पर यह बन्धन थोप दिया। वह जकड़ा है। जैसा तकदीर में दिया है, होगा। इससे छुटकारा नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि खुदा जो चाहता है, करता है, जिसको चाहता है सन्मार्ग दिखाता है, जिसको चाहता है ‘गुमराह’ करता है। अल्लाह की मर्जी के विरुद्ध हो भी क्या सकता है? सरकार जबरदस्त है, उसने मजबूत जेलखाना बनाकर उसमें चोर को ठूंस दिया। कितनी ही भागने की तदबीर करो, भाग नहीं सकते। इसलिए, उस घड़ी की प्रतीक्षा करो जब ईश्वर की ही मर्जी हो और वह बन्धन से मुक्त कर दे। ऐसे तकदीर के गुलामों की संख्या ईश्वर-भक्तों में सबसे अधिक है। इसका परिणाम है ‘आलस्य’, क्रियाहीनता। आलस्य के साथ इसी के बहुत से बाल बच्चे हैं, जो अन्य रूपों में प्रकट होते हैं और बन्धनों को जकड़ते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो बन्धन से छूटने के लिए हाथ पैर मारते हैं। कोई जेल की दीवार फांदकर भागता है। कोई खिड़कियों की छड़ों को तोड़ देता है। कोई चौकीदार की आंख में धूल डालता है। इसको आप तदबीर कह सकते है। तदबीर के नाम पर सहस्रों पातक किये जाते हैं, जिनसे बन्धन ढीले नहीं होते, अधिक कड़े हो जाते हैं। यह ‘तदबीर’ थे तो कर्म, परन्तु सोचकर नहीं किये गये थे, अतः ऐसे कर्म छुटकारे के हेतु सिद्ध नहीं होते।

कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है। कर्म करना संसार की हर वस्तु का स्वभाव है। मनुष्य भी इसी संसार का एक भाग है। सारी मशीन चलती है तो ऐसा कौन-सा पुर्जा है, जो बिना चले रह सके। लेकिन एक काम इच्छा से किया जाता है और एक बिना इच्छा के। जीते तो सभी हैं, परन्तु जीकर क्या करेंगे, ऐसा तो बहुत कम लोग सोचते हैं। इसलिए वेदमन्त्र में एक शब्द आया है ‘जिजीविषेत्’। इस रहस्य का सौन्दर्य समझने के लिए कुछ संस्कृत व्याकरण का पारिभाषिक ज्ञान आवश्यक है। मनुष्य को चाहिए कि जीने की इच्छा करे। किस प्रकार? कर्म करते हुए ही, बिना कर्मों को करने की इच्छा के जीने की इच्छा से कोई लाभ नहीं। यदि कुदरत को यह मंजूर न होता कि हम चलें तो हमको पैर न मिलने चाहिए थे, यदि यह मंजूर न होता कि हम देखें तो आंखे देना निरर्थक था। इसलिए कुदरत ने हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव में कुछ ऐसी प्रेरणा दी हुई है कि निरन्तर काम करना ही है। भेद केवल इतना ही है कि जो काम हम अपनी इच्छा से करते हैं, उसके करने में मजा आता है। लोग नित्य सैर को जाते हैं। परन्तु यदि, सरकार आदेश दे दे कि तुमको अवश्य ही सैर को जाना पड़ेगा, तो सैर भी जान का बबाल हो जाती है। इसलिए, वेदमन्त्र में उपदेश है कि पहले से ही ऐसी इच्छा करो कि सौ वर्ष जीना है, तो निष्क्रिय न होकर अपितु कार्यक्रम बनाकर निरन्तर कर्म करने की योजना भी हो और इच्छा भी। सभी जीते रहना चाहते हैं। उनसे पूछो ‘‘क्यों? किस काम के लिए?’’ तो इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यदि दो वर्ष और जीते रहो तो क्या करोगे? विचारा नहीं। ‘बस खायेंगे, पियेंगे, मौज करेंगे।’ खाना-पीना और मौज करना कर्म तो नहीं। ये तो जीवन के साधनमात्र हैं। खाना आसान है, पीना आसान है, परन्तु मौज करना तो आसान नहीं। (Eat you can, drink you can. But, you cannot be merry) इसलिए कर्म करने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए। जो बुद्धिमत्ता से कर्मों की योजना बनाता है और उस पर चलने का यत्न करता है, उसका बन्धन छूट जाता है। जेल का जो कैदी जेल में रहकर नियुक्त कर्म करता रहता है, वह जेल के बन्धन से अवश्य छूट जाता है। कर्मों के करने में तीन प्रकार के दोष आ सकते हैं- कर्त्तव्य को न करना, अकर्त्तव्य का करना, कर्त्तव्य का उलटा करना। ये तीनों प्रकार के दोष कर्मबन्धन के कारण होते हैं। यदि गेहूं न बोये जाएं तो गेहूँ पैदा न होगा, उगे हुए गेहूं में अधिक पानी देना, इससे गेहूं उत्पन्न होकर नष्ट हो जायेंगे और गेहूं के स्थान पर जौ बो देना, तब भी गेहूं पैदा न होगा, अतः कर्तव्य कर्म के करने पर ही बन्धन छूटेगा। गीता में इसी वेदमन्त्र पर आधरित एक श्लोक है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

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इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बिना सोचे-समझे, अर्थात् किस कर्म से क्या फल होगा, किसी काम को कर दिया जाए। कर्म की प्रेरणा ही उसके फल की दृष्टि से होती है। गेहूं बोनेवाला पहले देख लेता है कि गेहूं उगाने रूपी फल की प्राप्ति तभी होगी, जब गेहूं बोया जाएगा।

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यहां फल की, न उपेक्षा है न अवहेलना। प्रश्न यहां चिन्तन का है। जब यह निश्चित हो गया कि अमुक कर्म हमारा कर्तव्य है, तो फल का चिन्तन छोड़ देना चाहिए। फल की प्रेरणा आरम्भ में होती है, परन्तु यदि कर्तव्य-पालन के समय मन में फल की उत्कण्ठा आती रहेगी, तो मन में दुविधा उत्पन्न हो जाएगी और कर्त्तव्य के यथेष्ट फल में बाधा होगी। कर्म का फल तुम्हारे हाथ में नहीं। इसके लिए एक दृष्टान्त लीजिए-

आप सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं। आपने पद को स्वीकार ही तब किया जब आपको निश्चित हो गया कि अमुक वेतन मिलेगा, परन्तु जब आप अपने काम में लगे तो वेतन आपके चिन्तनक्षेत्र का विषय नहीं रहा। कार्यालय का कार्य ही एकमात्र चिन्तन का विषय है, वेतन आपके शासक के चिन्तक का विषय है, अतः जो सेवक सेवा का ध्यान छोड़कर, हर घड़ी वेतन पर दृष्टि रखता है, वह अपने पद का काम न करके अनेक भूलें करता हैं, क्योंकि वह कर्म का हेतु न होकर कर्मफल का हेतु बन जाता है। गीता में कहा है कि तेरा अकर्म से सम्पर्क न होना चाहिए।

कर्महीनता का नाम अकर्म है और उलटे काम का नाम विकर्म है।

—-

यहां एक बात स्पष्ट कर देनी चाहिए। ‘कर्मकाण्ड’ के अर्थों में भी बहुत-कुछ विकार हुआ है। श्री शंकर स्वामी के समय में कर्मकाण्ड का केवल यही अर्थ लिया जाता था कि यज्ञों के विषय में प्रचलित कुछ क्रियाएं करना, जैसे पात्र साफ करना, वेदी बनाना, अमुक मन्त्र पढ़कर चावल निकालना या पकाना या अमुक मन्त्र पढ़कर अमुक आहुति देना। सम्भव है कि किसी अंश तक यह कर्मकाण्ड का बाह्यरूप रहा हो, परन्तु यह वास्तविक कर्मकाण्ड नहीं है। केवल ‘हल’ का एक मन्त्र पढ़कर उठा लेने का नाम कृषि-कर्म नहीं है और न व्यापार-सम्बन्धी किसी मन्त्र के पढ़ देने का नाम व्यापार है। समिधा कितनी बड़ी हो, यह कर्मकाण्ड नहीं। सम्भव है कि वेदानुयायी को ऐसे निरर्थक कृत्यों से बचाने के लिए ही शंकर स्वामी ने इस प्रकार के तर्कों का प्रयोग किया हो, क्योंकि उस युग के कुमारिल भट्ट या मंडन मिश्र आदि ऐसे ही कर्मकाण्ड के प्रचारक थे और महात्मा बुद्ध आदि ने इसी जाल से मनुष्यों को सुरक्षित रखने के लिए वेदों का विरोध् किया था, परन्तु यह तो कल्पित उपचार था जिसने एक रोग दूर करने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न कर दिया। कर्म के जाल से छूटने के प्रयत्न ने लोगों को नास्तिक बना दिया। कर्मकाण्ड के जाल से छूटे तो मायाजाल के शिकार हो गये। इससे कर्म का बन्धन तो नहीं छूटा। कर्म अर्थात वैदक कर्म अवश्य ही छूट गये। देश निरुद्यम हो गया। कर्म और ज्ञान के बीच अकम्प पर्वत खड़ा हो गया। परन्तु यह पर्वत भाष्यकारों की कल्पना का फल है। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के बीच से इस व्यवधान को हटाने की आवश्यकता है और यह बात केवल यथेष्ट स्वाध्याय से ही पूरी हो सकती है।

नौवां मन्त्र

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।

अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।

-अथर्ववेद काण्ड ३, सूक्त ३0, मन्त्र १

अर्थ मैं तुमको हृदयवाला, मनवाला और द्वेषरहित बनाता हूँ। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करे, जैसे गाय नव-उत्पन्न बछड़े के साथ करती है।

व्याख्या इस मन्त्र में यह उपदेश दिया गया है कि मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ कैसे बर्तना चाहिए। तुम लोगों को मैं बनाता हूं, अर्थात् मेरे उपदेश का उद्देश्य यह है कि आप ऐसे बन जाएँ। यहां उपदेशक कौन है और किसको उपदेश दे रहा है? सभी वेदमन्त्रों की यह शैली है कि वे ईश्वर की ओर से मनुष्यों के लिए अथवा आचार्यों की ओर से शिष्यों को या उपदेशकों की ओर से श्रोताओं के प्रति उपदेश हैं। वैदिक भाषा में ‘ऋषि’ वेद को कहते हैं, अर्थात् प्रत्येक उपदेशक को ऐसा उपदेश देना चाहिए कि मनुष्य अपना आचरण सुधार सकें। ‘कृणोमि’ का अर्थ है ‘करोमि’, या बनाता हूं। मनुष्य कैसा हो? ‘सहृदयम्’ या हृदयवाले, ‘सांमनस्यम्’ मस्तिष्कवाले, ‘अविद्वेषम्’ द्वेष न करनेवाले। आदर्श मनुष्य के यही लक्षण हैं। हृदय प्रतीक है, प्रेम का। मन या विचार प्रतीक है, बुद्धि का। अविद्वेषिता प्रतीक है, विश्वहित का। हृदय में प्रेम हो और बुद्धि न हो तो विश्वहित में बाधा पड़ती है, नादान दोस्त से बुद्धिमान् दुश्मन अच्छा समझा जाता है। जिसमें बुद्धि न हो, ऐसा दोस्त अपने लिए भी हानिकारक है और दूसरों के लिए भी। कल्पना कीजिए कि आप सो रहे हैं, आपकी नाक पर एक भिंड (बर्र) बैठ जाती है। आपका एक नादान दोस्त आपके पास बैठा है। आपके प्रेम से प्रेरित होकर वह आपको भिंड के काटने से बचाना चाहता है और पास से एक पत्थर उठाकर आपकी नाक पर मार देता है। भिंड उड़ जाती है और आपकी नाक घायल हो जाती है। ऐसे व्यवहार को आप क्या कहेंगे? दोस्त हृदय वाला है, परन्तु मस्तिष्क शून्य है।

क्या आपको ज्ञात है कि संसार में ऐसे बु़द्धिहीन सहृदय कितने लोग हैं? लाखों माताएं मूर्खतायुक्त प्रेम के कारण अपनी सन्तान को नष्ट कर देती हैं। हजारों प्रेमी लोग प्रेम का अनुचित प्रदर्शन करते हैं। बुद्धिहीन प्रेम के कई रूप हैं, कहीं मोह है, कहीं मद, कहीं प्रमाद, कहीं कामुकता। इन सबके हृदय में प्यार है। परन्तु, यह सब प्यार नहीं है, प्यार का ढोंग है। इसमें सहृदयता का सर्वथा अभाव है। वेदमन्त्र का उद्देश्य ऐसी सहृदयता नहीं है। उसके लिए सौमनस्यता की आवश्यकता है। बुद्धिमान् मित्र आपका हितैषी है। इसलिए, प्रेम के साथ यथेष्ट ज्ञान की आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् शत्रु है, वह कम-से-कम अपने हित को समझकर आपको अपने हित की सुरक्षा के लिए ही मित्र बनाना चाहता है। जो बुद्धिमान् पुरुष है, वह यह भी अनुभव करेगा कि दूसरों के हित में ही अपना हित है, अतः वह परमार्थ के लिए न सही, स्वार्थ के लिए भी विश्व-हित में भागीदार हो जाता है। जो पुरुष वृक्ष की शाखा पर बैठा हुआ है, यह सोचता है कि यदि वृक्ष की शाखा कट गई तो वह कहां रहेगा, वह कितना मूर्ख है। भारतवर्ष का इतिहास बताता है कि बुद्धिहीन देशहितैषियों ने कितनी बार भारत की स्वतन्त्रता को नष्ट कर दिया। इसलिए, सहृदयता के लिए सांमनस्य की परम आवश्यकता है। दोनों भावनाएं मिलकर ही विद्वेष की भावना को दूर कर सकेंगी। विद्वेष भयानक रोग है, सांक्रमिक रोग है। जहां सब रोग समाप्त हो जाते हैं, विद्वेष शेष रहता है। वेद के अन्य मन्त्रों में भी विद्वेश के दोषों की ओर संकेत किया गया है। उपनिषदों में उल्लेख मिलता है कि जब आचार्य शिष्य को उपदेश देता था, तो आचार्य और शिष्य दोनों मिलकर व्रत करते थे कि हम दोनों कभी एक-दूसरे से द्वेष न करेंगे। यदि इस प्रथा को सत्यता के साथ सुव्यवस्थित रक्खा जाए, तो देश के विद्यालय देश के कल्याण का कारण बन सकते हैं। मनुष्य को दूसरे मनुष्यों के साथ उचित व्यवहार करने के लिए तीन साधनों का सम्मिलन अत्यावश्यक है- (१) प्रेम करो, (२) बुद्धि के साथ प्रेम करो, (३) इस प्रकार बर्ताव करो कि द्वेश के लिए कोई स्थान न रहे। जहां द्वेष -भावना उत्पन्न होती दिखाई दे, स्मरण रक्खो कि वेदमन्त्र आपके कान में चिल्लाकर कह रहा है कि ऐसा करना सृष्टि-क्रम और ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है।

—-

समस्त भाषाओं में तीन प्रकार के शब्द होते हैं- रुढ़ि, योगरुढ़ि और योगिक। किसी वस्तु का अर्थ बताने के लिए कोई शब्द चाहिए। आप किसी वस्तु के लिए कोई मनमाना नाम दे सकते हैं। ऐसे नामों को रुढ़ि कहेंगे। इन शब्दों से अर्थों के विषय में किसी गुण की कल्पना नहीं कर सकते। शब्दों की दूसरी कोटि है, यौगिक शब्दों की, अर्थात् जिस वस्तु में जो गुण, कर्म और स्वभाव पाया जाये उसका वैसा ही नाम रक्खा जाए। यौगिक शब्द धातुओं से बनते हैं। धातु किसी क्रिया के द्योतक होते हैं। उस क्रिया को ध्यान में रखकर ही उस वस्तु का नाम रखा जाता है, जैसे -‘रक्षक’ नाम है ‘रक्षा’ करने वाले का। मनुष्य भी रक्षा कर सकता है, कुत्ता भी रक्षा कर सकता है, घोड़ा भी रक्षा कर सकता है, अतः ये सब रक्षक हुए। यहां रक्षक यौगिक शब्द हुआ। परन्तु, जिस प्रकार पहाड़ की चट्टानों के टुकड़े पानी के बहाव में पड़कर कालान्तर में गोल-मोल बन जाते हैं, इसी प्रकार यौगिक शब्द लौकिक सरिता के बहाव के साथ विशेष वस्तुओं के द्योतक होने लगते हैं। इनका नाम है, योगरुढ़ि, अर्थात् धात्वर्थ लुप्त नहीं होगा, इसलिए वे यौगिक हैं, परन्तु धात्वर्थ की व्यापकता संकुचित हो गई, अतः धात्वर्थ बताने वाले सब पदार्थों को छोड़कर अधिक प्रसिद्ध विशेष अर्थ का द्योतन करने से उनमें यौगिकता के साथ रुढ़िपन भी आ जाता है। जैसे, ‘जलज’ शब्द जब यौगिक रहा होगा, तो जल से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थों को जलज कहते होंगे। मछली भी जलज है, क्योंकि जल से उत्पन्न होती हैं। कीचड़ भी जलज है, क्योंकि कीचड़ की उत्पत्ति जल से होती है। परन्तु, कालान्तर में ‘जलज’ अपनी व्यापकता को छोड़कर संकुचित हो गया और केवल पुष्पविशेष के लिए उसका प्रयोग होने लगा। इसलिए, जलज का अर्थ केवल ‘कमल’ है, अतः जलज योगरुढ़ि शब्द है। जितना जनता में प्रचार अधिक बढ़ता है, शब्द यौगिक से योगरूढि और योगरुढ़ि से रुढ़ि हो जाते हैं। जलज जब योगरुढ़ि हुआ तो उसमें यौगिकता शेष थी। परन्तु, यदि आप अपने पुत्र का नाम जलज या कमल रख लें तो जलजपना सर्वथा जाता रहा। अब नाम गुण का द्योतक नहीं है।

इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्या’ शब्द आया है। ‘अघ्न्या’ यहां योगरुढ़ि है। इसका यौगिक अर्थ होगा, ‘न मारने योग्य’। यों तो हर -एक चीज ही न मारने योग्य है, परन्तु संसार की जितनी वस्तुएं उपकारक हैं, वे सभी ‘अघ्न्या’ है। यह यौगिक शब्द है। घोड़ा अघ्न्य है। बकरी अघ्न्या है। माता-पिता ‘अघ्न्य’ हैं। हन्तव्य वही है, जिससे दूसरों को हानि पहुंचे जैसे सांप, बिच्छु, आदि और वे भी प्रत्येक अवस्था में नहीं, परन्तु इस वेदमन्त्र में ‘अघ्न्य’ यौगिक न होकर योगरुढ़ि शब्द है, यहां ‘अघ्न्या’ विशेष पशु है, अर्थात् गाय। एक बार एक यूरोपियन ने मुझसे पूछा कि आप गाय को मारने से क्यों परहेज करते हैं? मैंने कहा कि हम तो किसी प्राणी की हत्या नहीं करना चाहते। सभी को अपनी जान प्यारी है। किसी की जान लेना ठीक नहीं, परन्तु गाय के लिए एक विशेष बात है। हम उसका दूध पीते हैं और इसलिए हमारे मन में वहीं प्रेम उत्पन्न हो जाता है जो माता के लिए होना चाहिए। माता अविद्वेषता की न केवल प्रतीक है, अपितु बहुत अच्छा दृष्टान्त है। माता अघ्न्या है, पूज्या है, अविस्मृतव्या है। परन्तु गाय का दृष्टान्त सामान्य माता से भी विशेष है। गाय अपने बछड़े को प्यार करती है, परन्तु सबसे अधिक प्रेम ‘वत्सं जातम्’ अर्थात् नवोत्पन्न बछड़े के लिए होता है। आप कभी गाय को बछड़ा देते देखें और गाय को भावनाओं तथा गतियों का निरीक्षण करें। मनुष्य की माता बच्चा जनने के पश्चात् अपनी पीड़ाओं में विह्वल हो जाती है और बच्चे की ओर कम ध्यान जाता है, अतः प्रसवकाल में प्रसूता की देखभाल का भार अधिकतर उसके सम्बन्धियों को सम्भालना पड़ता है, परन्तु गाय का पहला काम यह होता है कि वह बछड़े के शरीर को गर्भ के मल से साफ कर दे। गाय के पास बछड़े को शुद्ध करने के लिए, न तो जल होता है, न कपड़ा। परन्तु, प्रेम स्वयं साधन है और स्वयं साध्य भी। प्रेम के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं। गाय का प्रेम जल और वस्त्र दोनों का स्थान लेने के लिए पर्याप्त है। शरीर का सबसे पवित्र स्थान जिह्वा है। आप गन्दी चीज को पैर या हाथ से छू सकते हैं, नाक से सूंध सकते हैं, परन्तु, जिह्वा इतनी पवित्र समझी जाती है कि कोई गंदी चीज जीभ पर रखने में संकोच होता है। परन्तु गोमाता अपने पवित्र से पवित्र अंग, अर्थात् जीभ से बछड़े की गन्दगी को साफ करती है। जब तक बछड़ा गन्दगी से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, वह बराबर चाटती रहती है। गन्दगी से छुटकारा बच्चे की पहली आवश्यकता थी। बच्चे की जान बचना कठिन था। जब बच्चा गन्दगी से मुक्त हो गया, तब उसके भोजन का प्रश्न उठता है। गाय का बच्चे के लिए प्रेम उसके दूध के रूप में प्रकट होता है। गाय का प्रेम उसके भीतर से इतना जोर मारता है कि जब तक बच्चा उसके थन से मुंह लगाकर उसके दूध का पान नहीं कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता। प्रत्येक माता अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए उत्सुक रहती है, परन्तु उतनी नहीं जितनी गौ। ‘गौ’ का अपने नवजात शिशु के लिए ‘प्रेम’- इससे अधिक उत्कृष्ट और शिक्षाप्रद दृष्टान्त तो दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। यह आदर्श है। इसलिए, वेद में गाय के नवजात बछड़े का दृष्टान्त देकर मनुष्य के कर्तव्य का एक जाज्वल्यमान उदाहरण प्रस्तुत किया है।

अब इस दृष्टान्त के दार्शनिक पहलू पर विचार कीजिए। मनुष्य को मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? गोमाता कहती है कि बच्चे की दो प्रमुख आवश्यकताएं हैं- पहला स्थान और दूसरा भोजन। स्थान पहला कर्म है, भोजन दूसरा। मैली बोतल में शुद्ध दूध डालने से दूध भी मैला हो जाता है। मलयुक्त शरीर में पुष्टिकारक भोजन भी बल का संचार नहीं करता। इसी प्रकार हर मनुष्य को चाहिए कि परोक्ष या प्रत्यक्षरुप में हम दूसरों की शुद्धि का ध्यान रक्खें। गाय पशु है, अतः वह केवल शरीर की शुद्धि का ही ध्यान रख सकती है। मनुष्य को मनुष्य की हर प्रकार की शुद्धि का ध्यान रखना है। हम स्वयं कोई ऐसा काम न करें, जिससे संसार में किसी प्रकार का शरीरिक या सामाजिक मल अधिक हो और भरसक कोई ऐसा उपाय न छोड़ें, जिससे दूसरों की शुद्धि होती हो। शुद्ध रहना अच्छी चीज है, परन्तु दूसरे को शुद्ध करना या शुद्ध रखना इससे भी अधिक आवश्यक है। प्रत्येक डाक्टर के लिए उचित है कि उसका शरीर, उसके अंग, उसके वस्त्र स्वच्छ हों, परन्तु जो डाक्टर अपने रोगियों के मल को दूर करते समय अपने कपड़ों की शुद्धता पर अधिक ध्यान रखता है, वह योग्य डाक्टर नहीं हो सकता। जो माता अपने वस्त्रों को शुद्ध रखने के लिए अपने बच्चे को गन्दा रखती है, वह माता कहलाने योग्य नहीं है। उससे कई गुना अच्छी वह माता है, जिसकी धोती रात को उसके बच्चे के पेशाब से गन्दी हो जाती है। स्वच्छ महलों में स्वच्छ वस्त्र धारण करनेवाली महारानियां, जिनके बच्चे दूसरी नौकरानियों के अधीन रहते हैं, वास्तविक माता नहीं हैं। माता का पद महारानी के पद से कहीं ऊंचा है। इसलिए माता और विशेषकर गोमाता का दृष्टान्त, हमको यह शिक्षा देता है कि अपने सम्पर्क में आनेवाले मनुष्यों की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक शुद्धि का विचार रक्खें। भोजन का प्रश्न, तो स्थान के पश्चात् उठेगा। जो धनाढ्य सेठ अपने दरवाजे पर रोज फकीरों को सदावर्त बांटता है और भिखमंगों की शुद्धि पर ध्यान नहीं देता, वह कोई प्रशंसा का काम नहीं करता। वह भिखमंगों की संख्या में वृद्धि करता है। भारतवर्ष की कंगाली का यह भी एक कारण है। हम परोपकार को भी बिना बुद्धि के करते हैं, अतः इस परोपकार से भी सामाजिक बुराइयां बढ़ती हैं। यदि हमारे देश के ब्राह्मण लोग वेदमन्त्र के रहस्य को दृष्टि में रखते, तो उनका पहला कर्तव्य था कि अछूतों की छूत को छूड़ाते। नवजात बछड़ा अछूत है- छूने के योग्य नहीं, मैला है, गन्दा है। गाय ने चाट-चाटकर उसको अस्पृश्य से स्पृश्य बना दिया। इसी प्रकार हमारा कर्तव्य है कि जितनी निम्न जातियां हैं, जो वस्तुतः अस्पृश्य हैं, उनको स्पृश्य बना दें, परन्तु हमारा उनके साथ ऐसा व्यवहार है कि उनकी अस्पृश्यता अधिक हो जाती है। उनके घर, उनके वस्त्र, उनके रहन-सहन ऐसे हैं कि उनको शु़द्ध होने का अवसर ही नहीं मिलता। यदि कोई अछूत पढ़ना चाहे तो पढ़ नहीं पाता, अच्छे वस्त्र पहनना चाहे तो ऊँचे लोग इसमें अपना अपमान समझते हैं। यह ऐसा व्यवहार तो नहीं, जिसकी प्रेरणा इस वेदमन्त्र से ली गई हो। अछूतों के गुण-कर्म और स्वभावों को मैला रखते हुए यदि उनके खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध भी कर दिया जाए, तो यह मैली बोतल में शुद्ध दूध डालने के समान ही होगा। अतः जहां उनकी आर्थिक अवस्था सुधारी जाए, वहां उनके गुण, कर्म और स्वभावों में जो मैलापन है, उसको भी दूर करने की आवश्यकता है। हमारे मनों सहृदयता और सांमनस्यता की परम आवश्यकता है। परन्तु, इन सूक्ष्म भावनाओं को मूर्त और स्पष्ट बनाने के लिए ‘वत्सं जातं इव अघ्न्या’ का चित्र अपने समक्ष रखना होगा। इतना उच्च आदर्श व्यवहार में लाना कठिन अवश्य है, परन्तु अतिशयोक्ति युक्त आदर्श भी प्रेरणा तो करते ही हैं। वैदिक उच्च आदर्श से प्रेरणा मिलती है।

दसवां मन्त्र

उद् वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्।

देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम्।।

– ऋग्वेद १//५0//१0, अथर्ववेद ७//५३//७, यजुर्वेद २0//२१, २७//१0, ३५//१४, ३८//२४

अर्थ– हम लोगों ने पाप या अन्धकार से ऊपर उठकर प्रकाश को देखा और परम प्रकाशक ईश्वर को पा लिया। आगे बढ़कर देखा तो अधिक तेजवाले प्रकाश को पाया और आगे बढ़े तो हर प्रकाशक वस्तु में व्यापक सर्वोत्कृष्ट ज्योति अर्थात् परम-प्रभु की प्राप्ति हुई।

व्याख्या– तमसः परि, अर्थात अंधकार से ऊपर। ‘तमस्’ नाम है, अंधेरे का और पापों का भी। मनुष्य का साधारण जीवन अन्धकार या पापों से आच्छादित रहता है। खाने-पीने और संसार के बखेड़ों में लिप्त  मनुष्य को परमात्म-तत्त्व के दर्शन नहीं होते। हमको रोटी तो दिखाई देती है परन्तु, रोटी में व्यापक ईश्वर नहीं दीखता। पानी दीखता है, परन्तु पानी में व्यापक ईश्वर दिखाई नहीं देता। जब तक हमारी आंखों के समक्ष अन्धकार का गुबार छाया हुआ है, सूर्य के दर्शन नहीं होते। जब अधिक कुहरा पड़ता है, तो चमकता हुआ सूर्य भी दिखाई नहीं देता। संसार के साधारण व्यवहार कुहरे के समान प्रकाश को आच्छादित करते हैं। लोगों से पूछो कि क्या इस संसार में ‘आत्मतत्त्व’ भी है? वे कहते हैं ‘कहाँ है दिखाओ?’ तुम कहते हो कि फूलों में ईश्वर व्यापक है। हम फूल की हर पंखड़ी को तोड़कर देखते हैं, कहीं ईश्वर तो दिखाई नहीं पड़ता। यदि ईश्वर प्रत्येक आंख को समानरूप में दिखाई पड़ जाता, तो सभी मनुष्य समान रूप से आस्तिक और ईश्वर के श्रद्धालु होते और संसार में पाप, अन्धकार या क्लेश का नाम न होता। परन्तु, ऐसी समान-दृष्टि हम सबको मिली नहीं। परमात्मतत्त्व की बात तो दूर रही, साधारण भौतिक पदार्थ भी हम सबकी आंखों को स्पष्टता से समान प्रतीत नहीं होते। एक सुशिक्षित वैज्ञानिक एक छोटे-से पत्ते को देखकर उसमें जितने गुण देख सकता है, वे गुण साधारण बच्चे को तो नहीं दिखाई पड़ते। साधारण मनुष्य की अपेक्षा माली की आंख अधिक तेज है और साधारण माली की अपेक्षा वनस्पतिशास्त्र-विशारद वैज्ञानिक की। इससे एक बहुत बड़ी बात यह सिद्ध हुई कि ‘आस्तिकता’ जादू की भांति सबको यकायक प्राप्त नहीं हो जाती। जैसे बच्चा एक-एक अक्षर पढ़ते-पढ़ते अन्त में परम विद्वान हो जाता है, इसी प्रकार आत्मदर्शन का भी विकास होता है। इसकी भी कक्षाएं हैं। यदि आप सुयोग्य गणितज्ञ बनना चाहते हैं, तो छूमन्तर से गणित का ज्ञान न होगा। लगातार सैकड़ों मंजिलें तय करनी पड़ेंगी, तब कहीं जाकर आप गणित की उच्च कक्षा तक पहुंच सकेंगे। किसी विद्यार्थी के जीवन पर सावधानी के साथ दृष्टि डालिए। उसके क्रमशः विकास की परिगणना कीजिए। यदि गणित एक दिन में नहीं आता, यदि लिखना-पढ़ना एक दिन में नहीं आता, यदि रोटी पकाना एक दिन में नहीं आता, यदि कपड़ा सीना एक दिन में नहीं आता, तो यह कैसे सम्भव है कि इधर-उधर के दो भजनों को गा लेने या दो-चार उपदेशों को सुन लेने से आप आस्तिकता जैसी सर्वोत्कृष्ट विद्या के धनी बन जाएं? प्रस्तुत वेदमन्त्र में क्रमशः इसी विकास की ओर संकेत किया गया है।

किसी माघ के दिन प्रातः-काल उठकर देखिए। सवेरा हो गया। सूर्योदय को हुये दो घण्टे हो गये, परन्तु सूर्य चमकते हुए भी दिखाई नही पड़ता। चारों ओर कुहरा छाया हुआ है। यह नहीं कि सूर्य न निकला हो, परन्तु कुहरे ने हमारी निगाह को कुण्ठित कर दिया है। उसी समय यदि आप किसी ऊंची पहाड़ी पर चढ़ जाएँ, तो देखेंगे कि सूर्य चमक रहा है। क्यों? इसलिए कि आप कुहरे से ऊपर उठ गये। पूना से बम्बई जाते हुए जब रेलगाड़ी ऊंचाई पर चढती है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि गाड़ी ऊपर है और बादल नीचे मंडरा रहे हैं, क्योंकि आप उस स्तर से ऊंचे उठ गये जहां बादलों का अंधेरा था। जो बात भौतिक प्रकाश पर लागू होती है, वही मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान पर भी लागू होती है। निरक्षर पुरुष को किताबों के पृष्ठ ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों किसी ने स्वच्छ कागज पर रोशनाई फैला दी हो, परन्तु जब मनुष्य निरक्षर से साक्षर होने लगता है तो अक्षरों की एक-एक रेखा अपूर्व ज्ञान की द्योतक होती है, क्योंकि शिक्षार्थी अन्धकार से ऊपर उठ जाता है।

इस क्रमिक विकास के लिए वेद में तीन सुन्दर शब्द दिये हैं-

उत्, उत्तर (Comparative degree), उत्तम (Superlative degree)। इसमें एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा है। ईश्वर के दर्शन के इच्छुक को ‘तमस- परि’ अन्धकार या पापों से ऊपर उठना चाहिए। योगदर्शन में अष्टांग योग का वर्णन आता है। योग कुछ साधारण श्वास-प्रश्वासों के नियन्त्रण या शारीरिक आसनों का नाम नहीं है। बहुत-से नट ऐसे विचित्र आसन करते हुए देखे जाते हैं, जिन्हे देखकर आश्चर्य होता है कि उन्होंने अपने शरीर के प्रत्येक अंग पर कैसे आधिपत्य प्राप्त कर लिया! परन्तु वे योगी तो नहीं। वे आस्तिक्य, आत्मदर्शन या तत्त्वज्ञता में तो सर्वथा कोरे हैं। योग के आठ अंगों में अहिंसा, सत्य, तत्त्वज्ञता में तो सर्वथा कोरे हैं। योग के आठ अंगों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह वाला जो पहला अङ्ग है। वह तो अन्धकार और पापों से ऊपर उठने के ही लिए है। अहिंसा और सत्य की प्राप्ति क्षणभर में तो नहीं होती। जो अपने को साधु कहते हैं या जिनको संसार साधु कहता है उनको भी अहिंसा और सत्य की उपादेयता में सन्देह रहता है। जो लोग रात-दिन शास्त्रों में सत्य और अहिंसा के उपदेश सुनते और उनके आधार पर प्रतिदिन दूसरों को उपदेश देते हैं, वे भी यह कहते सुने जाते हैं कि सत्य और अहिंसा का सहारा लेकर, तो कुंजड़ा साक-भाजी बेचने में भी सफल नहीं हो सकता, बड़ी-बड़ी योजनाओं की बात तो दूर रही। योग और योगियों के पीछे दौड़नेवाले संसार में भरे पड़े हैं। बड़े-बड़े सेठ और सेठानियां नित्य ऐसे योगियों की खोज में रहते हैं, जो धनप्राप्ति का कोई सरल लटका बता सकें। वे योग के इच्छुक नहीं हैं। वे हिंसा और असत्य के तमस् या अंधकार से ऊपर उठना भी नहीं चाहते, फिर उनको सूर्य्यम् उदगन्म अर्थात् प्रभु के प्रकाश की झांकी कैसे मिले! हाँ, यदि वे ऐसा अभ्यास डालें कि उनके जीवन से पाप की प्रवृत्तियां दूर हो जाएं तो उनकी निगाह ऊंची उठ सकती है और कम-से-कम दूर से यह दिखाई पड़ जाता है कि किसी पहाड़ की चोटी पर सूर्य चमक रहा है। सूर्य का अभाव नहीं है, हमारे सिर पर न चमके न सही, दूसरों के सिर पर चमकता है। ये पहाड़ की चोटियां क्या हैं? महात्माओं के जीवन। वे हमको सांसारिक अंधकार से ऊपर उठे दिखाई पड़ते और हमको अपनी ओर बुलाते हैं कि ऊपर को आंख उठाओ और शनैः- शनैः पहाड़ी पर चढ़ते जाओ-

Lives of great men, all remind us,

We can make our lives sublime.

(Long Fellows’s Psalm of Life)

महात्माओं के जीवन हमको स्मरण कराते हैं कि हम भी अपने जीवनों को उत्कृष्ट बना सकते हैं। कब?- जबकि हम स्वः पश्यन्तस्वर्ग अर्थात् ऊपर की ओर देखें। ‘स्वः’ का अर्थ यहाँ कोई विशेष स्थान नहीं। विषय-वासनाओं के कुहरे से उठते ही आत्मा को प्रकाश की प्राप्ति होने लगती है। सम्राट अशोक का जीवन पापमय था, उसने मानव-संहार में कोई कसर उठा नहीं रक्खी। यकायक उसकी आंख उस अन्धकार से ऊपर उठ गई और उसको एक ऐसी ज्योति की किरण दिखाई दी कि उसका जीवन बदल गया। उसको सत्य और अहिंसा पर श्रद्धा हो गई। इसी प्रकार जब आपको प्रकाश की किरण सूझ पड़े, तो उससे सन्तुष्ट न हूजिए। आगे अभ्यास करते जाइए। जब आप उत्तरोत्तर उन्नति करेंगे तो आत्मप्रकाश के भी अधिक दर्शन होंगे। हर एक बात अभ्यास से आएगी। पूर्ण अभ्यास होने पर, देवत्रा देवं पश्यन्तःहर देव में परमात्मदेव के दर्शन हो जाते हैं, यह पराकाष्ठा है।

            —-

देव अर्थ है प्रकाशवान् पदार्थ का। देव तो बहुत-से हैं। सूर्य चमकता है, अतः देव है। चन्द्र चमकता है, अतः देव है। बिजली चमकती है, अतः देव है। अग्नि चमकती है, अतः देव है। जुगनू चमकता है, अतः देव है। बिजली का दीपक चमकता है, अतः देव है। गैस का हण्डा चमकता है, अतः देव है। मिट्टी का टिमटिमाता दीपक भी देव है, क्योंकि यह चमकता है। आपकी आंख चमकती है, अतः देव है। उल्लू की आंख चमकती है, अतः देव है। चींटी की आंख चमकती है, अतः देव है। परन्तु इन सब देवों से बड़ा और इन सबका मूलाधार परमात्मा महादेव है, जो उत्तमं ज्योतिःसबसे बड़ी ज्योति है। पापरुपी अन्धकार से उठकर जब मनुष्य का हृदय स्वच्छ होने लगता है, तो, जो प्रकाश पहले धुंधला-सा दिखाई पड़ता था, वह अधिक स्पष्ट हो जाता है और हम अनुभव करने लगते हैं कि जहां और ज्योतियां छोटी-छोटी थीं, वहां परमात्म ज्योति सबसे बड़ी और सबसे उत्तम है और समस्त अन्य ज्योतियां, उसी बड़ी ज्योति के आधार पर प्रकाशित हैं। उपनिषद् कहती है-

न तत्र सूर्य्यो भाति न चन्द्रतारकं

नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।

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सूर्य को देखने के लिए कोई दीपक नहीं जलाता। दीपक में भी सूर्य की ही रोशनी है। इसी प्रकार, परमात्मा की उत्तम ज्योति के प्रकाशित होने पर समस्त संसार प्रकाशित हो जाता है।

इस्लाम धर्म के कथानकों में एक कथानक ऐसा ही आता है, जिससे ज्ञात होता है कि आस्तिकता का भाव क्रमशः उन्नति करता है। कहते हैं कि अंधेरी रात में एक तारा दिखाई दिया। मनुष्य ने समझा, यह बड़ा चमकदार है। यही संसार का मालिक होगा। वह कहने लगा, ‘हाज़ा रब्बी’ (यही मेरा ईश्वर है)। थोड़ी देर में तारा डूब गया और चांद निकल आया। तब उसके जी में आया कि वह तारा ईश्वर नहीं। ईश्वर कभी डूबता नहीं। तारे से अधिक प्रकाश तो चांद का है, इसलिए चांद के प्रति सम्बोधन करके उसने कहा, ‘हाज़ा रब्बी- यही मेरा ईश्वर है।’ चांद भी डूब गया और सूर्य निकला। उपासक के मस्तिष्क में उसी प्रकार की फिर तर्कना हुई और उसने सूर्य के प्रति वही भाव प्रकट किये जो तारे के लिये किये थे- ‘हाज़ा रब्बी’ (यही मेरा ईश्वर है), परन्तु सूर्य को डूबते देखकर वह अज्ञान भी दूर हो गया और वह सोचने लगा कि ईश्वर वहीं है, जो कभी अस्त न हो और जिसके सहारे ही समस्त देव देवीप्यमान होते हों।

संसार में करोड़ों ऐसे मनुष्य हैं, जो हर चमकते पदार्थ को ईश्वर समझ बैठते हैं। आकाश में जब कभी कोई नया तारा दिखाई पड़ता है, तो ग्राम के मूर्खों में उसके लिए भक्तिभाव उत्पन्न हो जाता है। तारों की उपासना, उसी अविद्या का परिणाम है। परन्तु जैसे-जैसे अविद्या मिटती जाती है, मनुष्य असली मालिक का अनुभव करने लगता है।

संसारभर के ईश्वर-उपासकों के इतिहास पर विचार कीजिए। पता चलेगा कि सब एक ही स्तर पर नहीं हैं, क्योंकि सबका विकास एक-सा नहीं है। अंधेरी रात के पश्चात् जब उषाकाल आता है, तो प्रकाश की एक धीमी-सी रेखा प्रतीत होती है। वह सूर्य की किरण नहीं है, उसका आभास-मात्र है, परन्तु शनैः-शनैः वही रेखा अधिक होने लगती है और जब सूर्य निकलता है तो सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार, जब बच्चा सुनता है कि कोई ईश्वर जैसी चीज भी है, तो उसको आश्चर्य होता है कि वह ईश्वर कैसा है, जिसे हम आंखों से नहीं देख सकते। उसको बताया जाता है कि ईश्वर ऊपर है। वह अपनी आंख उठाकर आसमान की ओर ताकने लगता है। बच्चों से पूछो कि ईश्वर कहां है, तो वे हाथ ऊपर को उठा देते हैं। कोई कहता है कि बादलों में ईश्वर है। कोई कहता है बादलों के ऊपर है। अंग्रेजी बाइबिल में एक शब्द आता है ‘माई फ़ादर इन हैविन’ (My father in heaven) इसका अर्थ हुआ कि ‘मेरा बाप जो स्वर्ग में है।’स्वर्ग के लिए ‘हैविन’ कहा। अंग्रेजी में ‘हीव’ (heave) का अर्थ है, ऊपर को उठना। लोगों ने समझा कि यह जो ऊपर उठा हुआ दिखाई पड़ता है, अर्थात् आकाश, यही हैविन है और हमारे परमपिता परमात्मा उसी हैविन में रहते हैं। वस्तुतः यह बात है नहीं। ऊपर उठने का अर्थ है पापों से ऊपर उठना।

  ईश्वर का प्रकाश उसी हृदय में अधिक चमकता है, जिसमें पापों का अन्धकार कम हो गया है। मैले दर्पण में तो सूर्य की किरण का आभास नहीं पड़ता। इसी प्रकार, जिस हृदय में पापों का अन्धकार आच्छादित रहता है, उसमें आत्मप्रकाश की किरणें चमक नहीं पातीं। जब दर्पण निर्मल होता है, तभी उपासक कहने लगता है- त्वमेव प्रत्यक्षम्। त्वमेव प्रत्यक्षम् । ओहो! तू तो प्रत्यक्ष है। तू तो प्रत्यक्ष है। जब तक अंधेरा था तुझे देख नहीं पा रहा था। जब मेरी आंख की ज्योति बढ़ी तो तू नजर आने लगा।

आस्तिक भावों की उन्नति भी क्रमशः होती है और अभ्यास से होती है। यही इस मन्त्र का रहस्य है।

ग्यारहवां मंत्र

पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजत्रन्यकृतेन भोजम्।

अव्युष्टा इत्रु भूयसीरूषास आ नो जीवान् वरूण तासु शाधि।।

-ऋग्वेद मण्डल २, सूक्त २८, मन्त्र ९

अर्थ– हे राजा वरुण अर्थात् संसार के विधि-विधान के शासक परमात्मन्!  मेरे किये हुए ऋणों को दूर कर दीजिए। मेरे सम्बन्ध में जो दूसरों का किया हुआ ऋण हो, उसे भी दूर कर दीजिए। मैं दूसरों की कमाई न खाऊं। ऋण चुकाने की चिंता में प्रातः कालीन मनोवृत्तियां सुखरहित ही प्रतीत हुआ करती हैं। हे वरुण देव! हम  जीवों को उन उषाओं में पूर्ण रीति से अनुशिष्ट कीजिए, अर्थात् हमको ऋणों की चिन्ता से मुक्त कीजिए।

व्याख्या‘मा अहं अन्य कृतेन भोजम्’ यह वाक्य समस्त मन्त्र का निचोड़ है। अन्य वाक्य इसी भावना को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर घूमते हैं। ‘‘मैं किसी दूसरे की कमाई न खाऊँ। मैं अपनी ही कमाई पर निर्भर रहूँ।’’ सृष्टि का यह नियम है कि जो जैसा करेगा, उसे उसी के अनुकूल भोग मिलेगा। अपनी कमाई का भोग, न कि दूसरों की कमाई का। जो दूसरों की कमाई खाता है, मानो, वह दूसरों से ऋण लेता है, और ऋण ब्याजसहित चुकाना पड़ता है। इससे चिन्ता भी बढ़ती है और कर्त्तव्यपालन में भी बाधा पड़ती है।

सृष्टि में प्राणियों के उपभोग के लिए असंख्य पदार्थ हैं। परन्तु संसार एक बाजार है। यहां प्रत्येक वस्तु मिलेगी, परन्तु मुफ्त नहीं, उसका मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा। ‘‘जिसके पैसा नहीं है पास, उसको मेला लगे उदास।’’ इसलिए, बाजार जाने से पहले देख लो कि तुम्हारी जेब में पैसा है या नहीं। नहीं है, तो कमाई करो और जब पैसा पास हो जाए, तब बाजार जाओ। खाली हाथ बाजार जानेवाले, या तो बाजार की चीजों से वंचित रहकर जी मसोस के रह जाते हैं या चोरी करते हैं और कारागार की यातनाएँ झेलते हैं। जो बिना कमाई के खाना चाहते हैं, उनको ऋण चुकाने की चिन्ता रहती है और जिनकी प्रकृति दिवालियापन की है, अर्थात् जो ऋण लेकर देना नहीं चाहते, उनको सृष्टि क्षमा नहीं करती। उनको ऋण तो चुकाना ही पड़ता है।

इस मन्त्र में परमात्मा को ‘वरुण’ कहकर पुकारा है। ‘वरुण’ शब्द के साथ शासन और शासित की भावना संयुक्त है। जैसे समाज में ‘मित्र’ नाम है सत्यपति या ब्राह्मण  का, जो बिना दण्डविधान के समाज का संशोधन करता है, इसी प्रकार ‘वरुण’ नाम है क्षत्रिय या शासक का जो धर्मपति है, अर्थात् दण्डविधान के द्वारा समाज की रक्षा करता है। जैसे, शासन-विधान में राज्य के कानूनों का जाल-सा बिछा रहता है, वैसे ही वरुण के पाश या जाल सर्वत्र बिछे रहते हैं। सड़क पर चलने का एक नियम है। घर बनाने का एक नियम है। खेत जोतने का एक नियम है। विवाह करने का एक नियम है। व्यापार करने का एक नियम है, और यदि आपने एक नियम को भी भंग किया, तो राजपुरुष तुरन्त आपको पकड़ लेते हैं। हर क्रिया के लिए एक कानून है और हर कानून तोड़ने के लिए एक दण्ड है। विधि-विधान और दण्ड-विधान इन दोनों का नाम शासन है। यही ‘वरुण्य’ है, अर्थात् वरुण से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु। ब्राह्मण  उपदेश देता है, दण्ड नहीं देता। उसके उपदेशों में आन्तरिक प्रेरणा निहित है। परमात्मदेव के लिए भी हम दोनों प्रकार के भाव रख सकते हैं। ईश्वर मित्र है, क्योंकि वह हमारा हितैषी है। ईश्वर ‘वरुण’ है, क्योंकि वह हमारे कर्मों का फल देने वाला है। वेद में बहुत-से मन्त्रों का रहस्य समझने के लिए वरुण और मित्र की विवेचना को ध्यान में रखना आवश्यक है।ऋण लेना निकम्मेपन का प्रमाण है और न चुकाना देषद्रोह या समाजद्रोह है, इसके लिए परमात्मा की ओर से दण्ड मिलता है, इसलिए प्रत्येक ईश्वर-भक्त को चाहिए कि वह ऋणों से बचता रहे और जो ऋण उसे परिस्थिति के कारण लेने पड़ते हैं, उनको चुकाने के लिए चिन्तित रहे। ऋण में निमग्न मनुष्य को कितने दुख भोगने पड़ते हैं, उसका एक अच्छा दृष्टान्त मन्त्र के वाक्य में दिया हुआ है, ‘‘अव्युष्टा इत्रु भूयसीः उषासः’’। ‘उषा’ का अर्थ है, प्रातः काल होने से ठीक पूर्व का मन्द-प्रकाश। उसी को उषाकाल कहते हैं-घोर तड़का। अंधेरी रात की समाप्ति पर जब सूर्य उदय होने को होता है, तो सूर्य महाराज के चोबदार पहले से ही घोषणा कर देते हैं कि सूर्य महाराज आ रहे हैं। जागो, उनके स्वागत के लिए तैयार हो जाओ। उषाकाल दिन का चोबदार है। उषाकाल के आते ही पशु-पक्षी सबके मन में आनन्द की लहरें उठने लगती हैं। कमल खिलने लगते हैं। समस्त सृष्टि आनन्द मनाती है। भौतिक प्रकाश और अभौतिक आनन्द दोनों ही उषाकाल के परिणाम हैं।

परन्तु, यह आनन्द और प्रकाश उन्हीं को मिलता है, जो ऋण-रहित या ऋण-मुक्त हैं। जिनके सिर पर ऋण चढ़ा है, उनको न उषाकाल आनन्द देता है, न प्रकाश। थोड़ा-सा चित्र खींचिए उस मनुष्य का, जिसके ऊपर बहुत-सा कर्ज है, और कर्जवाले अपना-अपना कर्ज वसूल करने के लिए उसका पीछा किये हुये हैं। किसी प्रकार रात हो गई और कर्जदार ने रात का आश्रय लेकर कहा, ‘‘कल अवश्य ऋण चुका दूँगाा’’। चलो छुट्टी मिली। थोड़ी देर के लिए ही सही। ऋणी मनुष्य सो जाता है, परन्तु, ज्यों ही उषाकाल आता है, उसकी नींद खुल जाती है। क्या वह उषा का स्वागत करता है? कदापि नहीं। जिन चिन्ताओं से उसको थोड़ी देर के लिए मुक्ति मिली थी, वे फिर आ घेरती हैं। जिनका उधार लिया था, उन्होंने रात को कठिनाई से ही पिण्ड छोड़ा था। अब वे फिर आकर घेरेंगे। रात का भी बहाना नहीं। अब मैं क्या करुंगा? ऐसे चिन्तित पुरुष की उषाएं भी ‘अव्युष्टाः’ ही हो जाती हैं। ‘व्युष्टिः’ का अर्थ है, उषाकाल की प्रकाश की किरणें। व्युष्टि का उलटा है, ‘अव्युष्टिः’, अर्थात् उषाकाल प्रकाश देने के स्थान में अंधेरा देने लगता है, अर्थात् ऋणी मनुष्य के दिन भी रात से अधिक अंधेरे होते हैं। ऋणी मनुष्य ऋण की चिन्ताओं के कारण दुखी होकर वरुणदेव से प्रार्थना करता है कि हे भगवन्! ऋण के कारण, मेरा नाक में दम है। मैं सब प्रकार के सुखों से वंचित हूं। कृपा करके ऋण के पाशों से मुझे मुक्त कर दीजिए, और ऐसी शक्ति दीजिए कि मैं दूसरों की कमाई का उपयोग करने की इच्छा ही छोड़ दूं, और सब प्रकार के ऋणों से मुक्त हो जाऊँ।

ऋणी के लिए ऋणी होने की भावना पहली आवश्यक वस्तु है। जो ऋणी, ऋणी होते हुए भी अपने को ऋणी नहीं समझता, वह ऋण को चुकाने की भी कोशिश नहीं करता। ऋण को चुकाने की कोशिश भी वही करेगा, जो ऋण को भार समझता है। बहुत-से तो ऋण लेने से पहले ही ठान बैठते हैं, कि हमको ऋण का उपयोग करना है, चुकाना नहीं। नास्तिक चार्वाक का कथन है-

जब तक जियो, सुख से जियो। ऋण लेकर घी पियो। जब मर जाओगे, तो देह भस्म हो जायेगी। तुम मरकर वापस नहीं आओगे। जिसने तुमको कर्ज दिया है, वह किससे वसूल करेगा? यद्यपि दुनिया में लोग अपने को न नास्तिक कहते, न चार्वाक का अनुयायी मानते हैं, परन्तु, व्यवहार-रूप में इस श्लोक के ऊपर कार्य करने वाले सैकड़ों हैं। ऋण को लेने और न चुकाने के उपाय तलाश करने में संसार लगा हुआ है। भिन्न-भिन्न प्रकार के कानूनों का सहारा लेकर ऋण से बचने का यत्न किया जाता है। कचहरियों में कितनी नालिशें होती हैं, जिनमें ऋण लेनेवाले ऋण को स्वीकार ही नहीं करते या जानबूझकर दिवालिये बन जाते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो राजा वरुण से, सच्चे दिल से प्रार्थना करते हों, कि परमात्म-देव उनको उनके ऋणों से मुक्त कर दें। जिसने ऋण लेकर अपने को ऋण से दबा हुआ अनुभव किया, और इस चिन्ता के कारण उसकी सुखद उषाएं अव्युष्ट, अर्थात् चिन्ता के बादलों से आच्छादित हो गईं, वह अवश्य ऋण से छूट जाएगा, और वही अपनी कमाई का उपभोग कर सकेगा।

मनुष्य जिस परिस्थिति में जन्म लेता है, उसमें यह असम्भव है कि वह किसी का ऋण न लेवे। सम्भव केवल इतना ही है कि जिनका ऋण ले, उनका ऋण चुका दे। समस्त व्यापार ऋण के आश्रित है। समस्त सरकारें ऋण लेती हैं, जिसको नेशननल डैट (National Debt) या राष्ट्रऋण कहते हैं। ऋण का संविधान यह प्रकट करता है, कि आरम्भिक अवस्था में दूसरों की सहायता लेनी ही पड़ती है, चाहे आर्थिंक हो, चाहे नैतिक, चाहे शारीरिक। परन्तु, जब तक ऋण चुकाने की भावना बनी रहती है, सामाजिक उन्नति में कोई बाधा नहीं पड़ती। कोई बैंक ऋण देने में संकोच नहीं करता, यदि ऋण वसूल करने में कोई सन्देह न हो। छोटे व्यापारी ऋण लेकर ही व्यापार बढ़ाते हैं। परन्तु, यदि ऋण को न चुकाने के प्रयत्न होने लगते हैं, तो न बैंक चल सकता है, न व्यापार। इसलिए, ऋणी के मन में ऋणी होने की भावना जाग्रत होनी चाहिए।

शतपथब्राह्मण आदि ग्रन्थों में चार प्रकार के ऋणों का उल्लेख आता है-एक सामान्य है और तीन विशेष। तीन ऋण अधिक परिचित और प्रचलित हैं-एक-पितृऋण, दूसरा-देवऋण, तीसरा-ऋषिऋण।

पहला सामान्य ऋण तो, हर मनुष्य पर है, या यों कहना चाहिए कि हर प्राणी का हर प्राणी पर। हम अपनी हर एक सुविधा के लिए दूसरों के ऋणी रहते हैं। कभी-कभी तो हमको यह भी पता नहीं चलता, कि अमुक भोग के लिए हम किसके ऋणी हैं।

आप सड़क पर प्रातः काल सैर के लिए जा रहे हैं। दूर से हवा में उड़ती हुई गुलाब की सुगन्धि आपकी नाक में पड़ती है। आपको सुख का अनुभव होता है। यह गुलाब कहाँ है, किस बाग में है, किसने यह गुलाब लगाया है? यह सुगन्ध आपको दूसरों के परिश्रम से मिली है। आप उनके ऋणी हैं। यदि, आप इसको ऋण समझें, तो आप भी, ऐसे परोपकार के काम करें, और संसार गुलाबों की सुगन्ध से भर जाए। परन्तु, यदि आप समझें कि ‘‘माले मुफ्त, दिल बेरहम’’, तो संसार कण्टक बन जाए।

यहाँ एक छोटी-सी बच्चों की कहानी पर विचार कीजिए। एक पिता ने अपने बच्चे से कहा, ‘‘कल हम तुमको शीरमाल खिलायेंगे।’’ बच्चे ने पूछा, ‘‘शीरमाल क्या होता है?’’ पिता बोला, ‘‘शीरमाल वह चीज है, जिसके बनाने में हजारों आदमियों का हाथ लगता है।’’ बच्चे को बड़ी उत्सुकता हुई। वह बड़ी उमंग के साथ प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगता। जब प्रातःकाल हुआ और बच्चे ने  शीरमाल-शीरमाल पुकारना आरम्भ किया तो पिता ने दो पैसे की जलेबियाँ हलवाई की दुकान से दिला दीं। लड़के ने कहा, ‘‘यह तो शीरमाल नहीं है। शीरमाल के बनाने में तो हजारों मनुष्यों के हाथ लगते हैं। मैं तो, हजारों क्या, सौ मनुष्यों को भी नहीं देखता।’’ पिता बोला, ‘‘ये जलेबियाँ भी हजारों हाथों की बनी हुई हैं।’’ बच्चे ने कहा, ‘‘कैसे?’’

पिता ने उत्तर दिया, ‘‘देखो! जलेबी आटे की बनती है। आटा गेहूँ का बनता है। गेहूं को किसान बोता है। सोचो तो सही, कि खेत जोतने और गेहूं बोने से लेकर आटा तैयार होने तक कितने आदमियों के हाथ लगे होंगे।’’

लड़का दंग रह गया। वह हिसाब लगाने बैठा तो सैकड़ों की संख्या प्रतीत हुई। बाप ने कहा, ‘‘अभी तुमने पूरा नहीं सोचा। यह तो केवल गेहूँ का ही हिसाब लगाया है। घी के विषय में भी तो सोचो। फिर चीनी का नम्बर आएगा, फिर यह भी देखना पड़ेगा कि भट्टी में जो आग जलती है, उसके लिए ईधन उगाने और लकड़ी का कोयला प्राप्त करने के लिए कितने हाथ लगते हैं।’’

लड़के ने देखा कि हाथों की संख्या, जितना विचार दौड़ाते हैं, बढ़ती ही जाती है।

पिता ने कहा, ‘‘इतना ही नहीं। अभी तक, तो तुम्हारा ध्यान केवल गेहूं चीनी, घी या अग्नि तक ही सीमित था। जिस कडाही में जलेबियाँ बन रही हैं, उसकी कहानी भी सुनो, वह क्या कह रही है। कड़ाही लोहे की बनी है। लोहा खदान में होता है। कभी लोहे के कारखाने में जाओ या कोयले की खदानों पर दृष्टि डालो।’’

यह एक छोटी-सी कहानी है, जो बताती है, कि हमारे ऊपर दूसरे कितने मनुष्यों का ऋण है। हर एक जलेबी हमारे लिए शीरमाल है, जिसमें हजारों आदमियों के हाथ लग चुके हैं, और हम सब उनके ऋणी हैं। यह ऋण तो तभी छूट सकता है, जब हम भी देश या जाति के उद्योगों में भरसक यत्न करें और जैसे हमने दूसरों से ऋण लिया है, उसी प्रकार हम भी दूसरों को, उसका बदला चुका सके। जिस देश या जाति में ऐसे व्यक्ति रहते हैं, जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि ‘‘माहं राजन् अन्यकृतेन भोजम्’’ हे ईश्वर! हम दूसरों की कमाई न खाएं, अपितु जो कुछ उपभोग हमको प्राप्त हैं, उनमें हमारा भी पूर्ण भाग हो, तो संसार के समस्त कष्ट मिट जाएँ।

यह संसार एक सहयोगी संस्था है, एक कारखाना है, जिसके सभी मनुष्य भागीदार हैं। कारखाने के हित के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना हिस्सा लगाता है। जब तक भागीदार सत्यता पर आरूढ़ रहकर कारखाने में अपना-अपना भाग लगाते हैं, तब तक कोई किसी का ऋणी नहीं, या सब सबके ऋणी हैं, ऋण लेते हैं और ऋण देते हैं। किसी को किसी से शिकायत नहीं है, परन्तु जब भागीदारों की नीयत खराब हो जाती है, और स्वार्थ भागीदारों को अन्धा कर देता है, तो कारखाने टूट जाते हैं, जातियां नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। संसार के हर देश में व्यापारिक और औद्योगिक कम्पनियाँ चला करती हैं। जब तक भागीदार अपने-भाग के अनुपात से ही भोग करते हैं, ऋण का जाल किसी को कष्टप्रद नहीं होता, परन्तु, जब भाग के अनुपात से भोग का अनुपात बढ़ जाता है, तो वरुणदेव अपने पाशों को शिथिल करने के स्थान में कड़ा कर देते हैं।

वरुण की पाशों की जकड़ को ढीला करने की एक ही विधि है। वह है ऋणों की प्रकृति को समझकर अपने जीवन का एक नियम निर्धारित करना कि मेरा भोग मेरे भाग के अनुपात से बढ़ न जाए। ऐसा न हो कि, मैं कम दाम देकर अधिक दामों का माल खरीदूँ या धोखा देकर माल के दाम न चुकाऊँ।

भोग और भाग का अनुपात इस मन्त्र का मूलमन्त्र है, इसको अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, इससे सबका कल्याण होगा।

बारहवां मंत्र

                  सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमकृत।

अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि।।

-ऋग्वेद मण्डल १0, सूक्त ७९, मन्त्र २

अर्थ– जैसे सत्तू को साफ किया जाता है, उसी प्रकार, जिस विषय में बुद्धिमान लोग ज्ञानरूपी चलनी द्वारा वाणी को प्रयोग करते हैं, हितैषी विद्वान् लोग हित की बातों को ही समझते हैं। उनकी वाणी में लक्ष्मी रहती है।

व्याख्या– इस मन्त्र का आरम्भ ‘उपमा’ से होता है। सक्तु अर्थात् सत्तू और तितउ अर्थात् चलनी उपमाएँ हैं। ‘वाचं’ वाणी और ‘मनस्’, बुद्धि उपमेय हैं। समस्त वाक्य को कहेंगे ‘उपमान प्रमाण।’ न्यायदर्शन में गौतम महामुनि चार प्रकार के प्रमाणों का उल्लेख करते हैं- (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान् (४) और शब्द। इन प्रमाणों द्वारा ही मनुष्य को ज्ञान की उपलब्धि होती है। इनमें मुख्य प्रमाण प्रत्यक्ष ही है। ‘‘प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्’’ अर्थात् जो वस्तु प्रत्यक्ष है, उसके लिए अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि जब प्रत्यक्ष उपस्थित न हो, तभी दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में, तर्कवादियों ने प्रायः भूल की है। कुछ का कथन है कि जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता जैसे ईश्वर, उसकी प्रत्यक्ष के अभाव में अन्य प्रमाणों द्वारा सिद्धि भी कैसे होगी, क्योंकि अन्य प्रमाणों का आधार तो ‘प्रत्यक्ष’ ही है। यह युक्ति, प्रायः जैन आदि नास्तिकों ने आस्तिक्य के विरोध में दी है, परन्तु, आनुषंगिक रूप में यहां हम स्पष्ट कर दें, कि अनुमान आदि का प्रयोग ही वहाँ होता है, जहाँ ‘प्रत्यक्ष’ न लग सकता हो। यह ठीक है कि, अनुमान आदि शेष प्रमाणों का प्रमाणत्व प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर है, परन्तु प्रमाण और प्रमेय में भेद है, जो प्रमेय प्रत्यक्ष हो गया, उसके लिए दूसरा प्रमाण खोजने की आवश्यकता नहीं। ‘तुला’ अर्थात् तराजुएँ किसी मुख्य तराजु के आधार पर बनाई जाती हैं, परन्तु, सब वस्तुएँ मूल तराजू से ही नहीं तोली जा सकतीं, जब मुख्य तराजू नहीं मिलती, तभी दूसरी तराजूओं का प्रयोग होता है।

‘प्रत्यक्ष’ और उपमान’ का यह सम्बन्ध समझने के पश्चात्, आइए, समझें कि उपमान आखिर है क्या? साधारणतया उपमा और उपमेय में ‘साधर्म्य’ (समान गुण) होना चाहिए, परन्तु संसार की कोई दो वस्तुएँ ऐसी नहीं, जिनमें साधर्म्य न हो। सुअर की पूंछ और हाथी के माथे में भी साधर्म्य है, जैसे कि दोनों पंचभूतों से बने पदार्थ हैं, परन्तु, कभी किसी ने हाथी के माथे के लिए सुअर की पूंछ की उपमा नहीं दी। साधर्म्य ऐसा होना चाहिए, जो झट से दिखाई दे जाए। इसके लिए उपमा में दो गुण होने चाहिएँ-एक तो वह स्थूल हो, दूसरे बहु-परिचित। अज्ञात उपमेय को ज्ञात उपमा से नापते हैं। यदि उपमा अज्ञात हो तो उससे उपमेय के जानने में सुगमता न होगी। जैसे कोई कहे कि आपके घर पर ठहरने में, मुझे स्वर्ग जैसा आनन्द हुआ। यहां ‘उपमा’ स्वर्ग है और ‘उपमेय’ निवास का सुख है। स्वर्ग अज्ञात है, प्रसिद्ध साधर्म्य नहीं, अतः उपमा अनुचित है। वेद में बहुत-सी उपमाओं का प्रयोग हुआ है। वहाँ सर्वत्र, उपमाएँ उपमेयों की अपेक्षा अधिक स्थूल और अधिक परिचित हैं।

इस मन्त्र में सत्तू और चलनी (सक्तु और तितउ) घर की दैनिक वस्तुएँ हैं। ये सुपरिचित हैं। इन्हीं की उपमाओं का प्रयोग ‘वाचं’ और ‘मनसा’ दोनों सूक्ष्म उपमेयों के लिए किया गया है। यद्यपि, साधारण अर्थों को समझने के लिए हमारे इस लम्बे व्याख्यान की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु वेद में तो, सभी विद्याओं का समावेश है। वेद साहित्य और दर्शन के विषय में भी कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्षरूप से एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं, अतः हमने आवश्यक समझा कि कुछ प्रसंग से बाहर होते हुए भी, एक जटिल प्रश्न पर, कुछ व्यवहारिक प्रकाश डाल दें। इससे वेदों के साहित्यिक अलंकारों की शोभा की भी आभा का आनन्द मिलता है।

अब मन्त्र की मुख्य व्याख्या पर ध्यान दीजिए। उपमान से ही आरम्भ करें। सत्तू को छानने के लिए ‘चलनी’ का प्रयोग किया जाता है। क्यों? बिना छाने हुए सत्तू का क्यों प्रयोग नहीं करते? दो कारणों से। एक तो इतर पदार्थ न मिला हो, जैसे कूड़ा, तिनके या रेत आदि। तितउ का काम है कि वह असली सत्तू से इतर पदार्थ को निकालकर फेंक दें। दूसरे, सत्तू की भूसी या वह कर्कश अंश दूर हो जाए, जिसके कारण सत्तू को पचाने में कठिनाई पड़ती हो। सत्तू शुद्ध हो और कर्कश न हो।

वाणी में भी दो गुण होने चाहिएँ। वह सत्य ओर प्रिय हो। ‘‘सत्यं बूयात् प्रियं ब्रयात्।’’ अप्रिय सत्य ‘सत्य’ होते हुए भी निषिद्ध है, क्योंकि उसमें कर्कशता है। सत्तू के पीसने में त्रुटि है। सत्तू इतना मोटा पिसा है, कि वह खाने में नहीं आता। जो वाणी, उचित सावधानी के साथ नियोजित नहीं की गई, वह सत्य होते हुए भी लड़ाई का कारण होती है। काने को काना कहकर पुकारना लड़ाई मोल लेना है। सत्तू में इतर पदार्थ की मिलावट के समान ही सत्य वाणी में इधर-उधर की ऊटपटांग बातें मिला देना है। इसलिए असत्य प्रिय हो, तब भी न बोले। राजदरबारों में नित्य ही प्रिय असत्य बोला जाता है। इससे मनोरंजन तो होता है परन्तु, साथ ही हानि भी बहुत होती है। इंग्लैण्ड के एक राजा कैन्यूट की कहानी प्रसिद्ध है। उसके खुशामदी दरबारी कहा करते थे कि महाराज, आपकी आज्ञा तो समुद्र भी मानता है। राजा ने एक दिन आज्ञा दी कि उसकी कुरसी एक ऐसे स्थान पर रख दी जाए, जहां समुद्र की तरंगों का आवेग हो। दरबारियों को आशंका हुई। वे बोले, ‘‘महाराज! यहां तो समुद्र की लहरें आयेंगी?’’ राजा बोला, ‘‘समुद्र से कह दो कि अपनी तरंगें रोक लें।’’ दरबारियों ने कहा, ‘‘समुद्र कैसे मानेगा?’’ राजा ने कहा, ‘‘तुम तो कहा करते थे कि समुद्र राजा का आज्ञाकारी है! तुम ऐसा झूठ क्यों बोला करते हो?’’ दरबारी लज्जित हो गये। अन्य राजा भी इसी प्रकार करते, तो उनको कभी धोखा न खाना पड़ता।

इसलिए वेमन्त्र कहता है कि ‘वाचं’ अर्थात् वाणी को छानकर बोालो। उसमें से असत्यता (इतर पदार्थ foreign matter) और अप्रियता (कर्कशता indigestible matter) को निकाल दो।

ऐसी कौन-सी चलनी (तितउ) है जिससे वाणी के ये दोनों अवगुण दूर हो सकें? मन्त्र उत्तर देता है-तुम्हारी बुद्धि (मनः) ही ऐसी चलनी है। बुद्धि या तर्क से शुद्ध करके वाणी को बोलो। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थों से ‘इतर’ और ‘कर्कश’, दो पदार्थों को निकालने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के चलने बनाये गये हैं, इसी प्रकार वाणी से असत्यता और अप्रियता को दूर करने के लिए बृहद् तर्कशास्त्र का निर्माण हुआ है। अर्थात् यदि, हम बुद्धि से छानकर वेदवाणी का प्रयोग करेंगे, तो हम को परम शान्ति की प्राप्ति होगी।

वेद-वाणी विद्या की निधि है, इसी के द्वारा मनुष्य हित और अहित में विवेचन करता है। बुद्धिपूर्वक वाणी का प्रयोग करने वाले (सखायः) मित्र लोग (सख्यानि जानते) स्वहितों को पहचानते हैं, और अपनी विद्या द्वारा शान्ति की स्थापना करते हैं। जो बुद्धिरुपी चलनी का प्रयोग नहीं करते, उनकी वाणी अशुद्ध सत्तुओं के समान कलह, भ्रान्ति और हृास का कारण बन जाती है। सभी को विदित है कि मनुष्य ही केवल एक, भाषा-भाषी प्राणी है। यही मनुष्य-जीवन का गौरव है, परन्तु, जब यही भाषा बिना बुद्धि के प्रयुक्त की जाती है, तो मनुष्य जाति उन भीषण दोषों से दूषित हो जाती है, जो दोष किसी पशु-पक्षी या कीट-पतंग में भी नहीं पाये जाते। कहते हैं कि द्रौपदी ने अपनी अज्ञानता और बुद्धिहीनता के कारण, कौरवों पर एक ताना कस दिया कि ‘‘अन्धों के अन्धे ही उत्पन्न होते हैं।’’ यह वाणी का दुरुपयोग था और उस छोटे-से दोष का कितना भयानक परिणाम हुआ! यह तो एक प्रसिद्ध उदाहरण है, परन्तु, ऐसे उदाहरण हमें परिवार और हर जीवन-क्षेत्र में मिलेंगे, जिन्होंने संसार को दुख के सागर में निमग्न कर दिया। जो उपदेशक बुद्धि का प्रयोग करके विद्या प्राप्त करता है, और शुद्धभाव से उसका उपदेश करता है वह ‘सखा’ है और सखा के सखित्व का जो फल है, वही एक प्रकार से सख्य है। सख्य का परिणाम है, भद्रा लक्ष्मी। याद रखना चाहिए कि केवल बोलना ही भद्रा लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं करा सकता। वक्ता तो संसार में बहुत से हैं और बहुत से इनमें से प्रभावशाली भी होते हैं, जिनको वाक्-पटु, सभा-चतुर या वाचाल कहते हैं, वे सभी छानकर वाणी का प्रयोग नहीं करते। बड़े-बड़े व्याख्यान-दाता अपने उत्तेजक व्याख्यानों द्वारा जनता को पथभ्रष्ट कर देते हैं। कहा जाता है कि भाषा भावनाओं को व्यक्त करती है (Language is that which expresses thought), परन्तु यही भाषा नादान या स्वार्थी मनुष्यों से प्रयुक्त होकर भावनाओं के छिपाने का साधन बन जाती है। देश जब दो दलों में विभक्त हो जाता है, तो हर एक दल के पोषक, जनता में दूसरे पक्ष के विरुद्ध भ्रान्तियाँ उत्पन्न करते हैं। यह सब भाषा को न छानकर प्रयुक्त करने के कारण होता है।

वाणी-सम्बन्धी दुष्टकर्म चार हैं- पहला कठोर वचन, दूसरा झूठ बोलना, तीसरा सब प्रकार की चुगली और चौथा व्यर्थ की बातचीत करना। ये चारों वे प्रसिद्ध दोष हैं, जो शुद्ध सत्तुओं को भक्ष्य से अभक्ष्य बना देते हैं, और सखाओं को शत्रुओं में परिणत कर देते हैं। इन दोषों से बचने का एक मात्र उपाय है, वाणी को बुद्धि के तितउ से छानकर प्रयोग करना। जिन्होंने, भारतवर्ष की सभ्यता का कई सहस्त्र वर्षों का इतिहास पढ़ा है, वे जानते हैं कि जहां शुद्ध वेदवाणी ने आर्यजाति को, संसार की सबसे प्रमुख और प्रभावशाली जाति बना दिया, उसी जाति ने जब वेदवाणी को बुद्धि से अलग करके बर्तना आरम्भ किया, तो, वेदमन्त्रों को पढ़कर क्या-क्या अनर्थ नहीं किये गये! नये-नये अवैदिक धर्मों की स्थापना और उत्पत्ति, इसी बुद्धिहीनता का परिणाम थी। अतः यह आवश्यक है कि हम इस मन्त्र पर पूर्ण रीति से विचार करें और जो-जो परिस्थितियाँ, ऐसी उत्पन्न हो गई हैं, जिनके कारण हम लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं कर पाते, उनका निराकरण करें। जब हम कहते हैं कि वेद का पढ़ना और सुनना-सुनाना आर्यों का परमधर्म है, तो इसका यही अर्थ है कि वेदमन्त्रों के अर्थों को बुद्धि की कसौटी पर कसकर, और उनकी यथार्थ भावनाओं को समझकर उनके अनुसार आचरण करें, तभी हमारी उन्नति होगी और विश्व का कल्याण होगा।

तेरहवां मंत्र

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।।

-ऋग्वेद १//१६४//२०, अथर्ववेद ९//९//२०

अर्थ– दो सुन्दर पक्षी, जो सहयोगी हैं और परस्पर मित्र हैं, एक ही वृक्ष के ऊपर एक-दूसरे से लिपटे हुए स्थिति हैं। इन दोनों में, एक इस वृक्ष के फल को मजे से खाता है, और दूसरा पक्षी न खाता हुआ अध्यक्षता का काम करता है।

व्याख्या– देखने में यह एक पहेली-सी प्रतीत होती है, परन्तु इसमें उपमा द्वारा आर्यसमाज के इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है, कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन अनादि और अनन्त अर्थात् नित्य पदार्थ हैं, इनकी न कभी उत्पत्ति होती है, न विनाश। स्वामी दयानन्द ने तो ऐसा अर्थ किया ही है, परन्तु अन्य विद्वानों की भी इस विषय में पूर्णतया सहमति है। सायणाचार्य ने लिखा है कि इसमें दो लौकिक चिड़ियों का दृष्टान्त देकर जीव और परमात्मा-इन दोनों की स्तुति की गई है। निरुक्तकार यास्काचार्य ने भी ऐसा ही लिखा है कि जीव और ब्रह्म दोनों धर्म करनेवालों की यहाँ प्रतिष्ठा दिखाई गई है। श्री शंकराचार्य ने मुण्डक-उपनिषद् के भाष्य में तथा वेदान्त-दर्शन के भाष्य में इस मन्त्र को इसी प्रकरण में लिया है।

परन्तु, इतने स्पष्ट मन्त्र की साक्षी होते हुए भी वेदान्तियों के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों जैसे, शंकर-सम्प्रदाय तथा भास्कर -सम्प्रदायों ने अद्वैत-सिद्धि के पक्ष में क्लिष्ट कल्पनाएँ की हैं। सायण ने इस भय से कि कहीं कोई, उसके भाष्य को प्रचलित दार्शनिकों से विरुद्ध न कहे, इन मतों की कुछ युक्तियाँ दी हैं। परन्तु थोड़े- से विचार से ही स्पष्ट हो जाता है, कि वेमन्त्र से उनके सिद्धान्त की पुष्टि नहीं होती, अपितु वैदिक त्रैतवाद ही सिद्ध होता है। मूल व्याख्या करने से पूर्व, हमको यह प्राक्कथन करना पड़ा, इसका यही कारण है कि इस विषय में अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। इन ग्रन्थों के पूर्वापर-अध्ययन से निश्चय हो जाता है कि वेद के जिन मन्त्रों में जीव, ब्रह्म और प्रकृति के नित्यत्व का स्पष्ट वर्णन है, उनको निरस्त करने के लिए कितने हेत्वाभास दिये गये हैं। अब हम मूल व्याख्या पर आते हैं।

इस मन्त्र में उपमा अलंकार है, लुप्तोपमा अलंकार। साधारण उपमा में उपमा और उपमेय को अलग करके दिखाते हैं और उपमा के साथ इव, न, वत् (समान, ऐसा, जैसा) आदि साधर्म्य-सूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु ‘लुप्तोपमा’ में इन शब्दों का लोप कर देते हैं। केवल उपमा ही उपमेय का भी बोधक होती है। लुप्तोपमा का महत्व यह है कि साधर्म्य अधिक अनुभूत हो और जो कुछ थोड़ा-बहुत वैधर्म्य है, जड़ दृष्टि से ओझल हो जाए। जहां साधर्म्य है, वहां वैधर्म्य तो रहेगा ही। ‘इव’, ‘वत्’ आदि उपमा-बोधक शब्द साधर्म्य के साथ-साथ वैधर्म्य का भी अवबोधन कराते रहते हैं। जैसे कहा जाए कि राणा सांगा शेर के समान बहादुर था। इस वाक्य में ‘समान’ शब्द दो बातों का बोधक है। सांगा और शेर में निर्भयता का साधर्म्य अवश्य था, फिर भी सांगा शेर नहीं था, मनुष्य था। परन्तु, यदि सांगा को देखकर कोई कहे, ‘‘देखो! यह शेर आ रहा है’’ तो यहाँ ‘समान’ शब्द का लोप कर दिया गया, जिससे साधर्म्य अधिक चमक उठे, और वैधर्म्य आँखों से तिरोहित हो जाए। लुप्तोपमा अलंकार का यह विशेष महत्त्व है, और यह बात दृष्टि में रखने से मन्त्र की गम्भीरता का अधिक भान हो सकेगा।

वृक्ष का अर्थ है, भौतिक जड़ जगत् या भौतिक शरीर। इस पर दो पक्षी बैठे हैं-जीव और ब्रह्म। इनमें साधर्म्य भी है, और वैधर्म्य भी है। सबसे पहला साधर्म्य यह है कि दोनों का वृक्ष पर आवास है, परन्तु, सबसे मुख्य वैधर्म्य यह है कि एक फल खाता है, दूसरा, नहीं खाता। यह भेद थोड़े-से ही विचार से स्पष्ट हो जाता है। आप स्वयं अपने शरीर पर दृष्टि डालें। आप आंख से देखते हैं। सुन्दर वस्तुओं को देखकर आनन्द मनाते हैं। भयानक दृष्यों को देखकर, खेद का अनुभव करते हैं। दोनों अवस्थाओं में आप शरीररुपी वृक्ष के फल को चखते हैं-मीठे फल को भी और कड़वे फल को भी। आप इसके भोक्ता हुए। आंख आपकी है, आपके अधीन है। आप चाहें, तो, आंख को बन्द रखें। न सुन्दर दृश्य देखकर हर्ष होगा, न कुरूप को देखकर दुख, परन्तु, आप यत्न करने पर भी, इसमें देर तक सफल नहीं होंगे, क्योंकि, आपकी आन्तरिक भूख आपको बाधित करेगी कि आप आंखें खोलकर उनका उपभोग करें। यदि यह आन्तरिक भूख न होती, तो अन्धे कभी आंखों के लिए न तरसते। यह सिद्ध है कि आँख के आप उपभोक्ता हैं, और नैसर्गिंक रीति से हैं। यह आपका प्राकृतिक स्वभाव है। आप सदैव भोक्ता रहे हैं और रहेंगे।

परन्तु ‘आँख’ आपकी होते हुए भी आपकी नहीं है। आप उसका भोग कर सकते हैं, योग नहीं कर सकते। अर्थात् आप संयोजक नहीं हैं। आँख न आपने बनाई और न आप सर्वथा उसको अपनी आज्ञा में रख सकते हैं। जब आँख में पीड़ा होती है, तो, आँख आपकी अधीनता को परे फैंक देती है और आपसे विद्रोह कर बैठती है। आँख भौतिक है, जड़ है, चैतन्यशून्य है। यह विरोध क्यों करे, जब तक कोई दूसरा प्रेरक न हो। इससे ज्ञात होता है कि, आपके अतिरिक्त आप के ही समान चेतनत्व वाली कोई और सत्ता भी है, जो आपके साथ-साथ ही उसी वृक्ष पर बैठी है। यह आँख का स्वयं उपभोग तो नहीं करती, परन्तु, ‘अभिचाकशीति’ अर्थात् अध्यक्षता करती है। ‘अभिचाकशीति’ का अर्थ केवल देखना नहीं है। ‘अभि’ उपसर्ग का विशेष अर्थ है। ‘अभि’ ने देखने के कार्य को अधिक गौरवशाली बना दिया। द्रष्टा का अर्थ है-‘अध्यक्ष’।

यहां ‘त्रित’ शब्द है। एक, आप, जो आँख से देखते हैं। दूसरा, ब्रह्म जो आँख को आपके लिए बनाता और परिस्थिति के अनुसार उस की देखभाल रखता है, और तीसरी, आँख जो जड़ है, अर्थात् एक जड़ अर्थात् अचेतन वृक्ष पर दो पक्षी हैं। आँख का अध्यक्ष आँख से देखता नहीं, आँख के फल को चखता नहीं। परन्तु, आँख के भोक्ता के लिए, सामान इक्ट्ठा करता है। कल्पना कीजिए, इस अध्यक्षता की। इस जड़ सृष्टि में आप आगन्तुक हैं, मेहमान हैं, अतिथि हैं। आतिथ्य करनेवाला कोई और है, जो भोजन बनाता है, खाता नहीं। सृष्टि के असंख्य प्राणी अपने भोग के लिए अपने शरीरों में आँखें रखते हैं। इनमें से कोई आँखों का बनानेवाला नहीं। बहुत-से तो बालक के समान इतने अबोध हैं कि, आंख से देखते हुए भी यह नहीं जानते कि उनकी आँखें हैं। बच्चा माता के दूध को पीता है, परन्तु जानता नहीं कि दूध क्या है और कहाँ से आया है। आँख न स्वयं बनती है, न बिगड़ती है। बनने के लिए भी अध्यक्ष की आवश्यकता है और बिगड़ने के लिए भी, क्योंकि बिगाड़ भी एक परिवर्तन है, जिसमें चेतन की अपेक्षा होती है। हां, एक बात अवश्य है, दोनों पक्षी, एक भोक्ता और दूसरा अध्यक्ष एक-दूसरे के साथ ऐसे चिपटे हुए हैं, कि साधारण दृष्टि से पता नहीं चलता कि किसका कितना क्षेत्र है। शक्कर और दूध जब मिल जाते हैं, तो यह जानना कठिन होता है कि कितना अंश दूध का है और कितना शक्कर का। एक और दृष्टान्त लीजिए। कभी-कभी आपने देखा होगा कि एक ही वृक्ष पर दो भिन्न-भिन्न लताएँ चढ़ जाती हैं। वे एक-दूसरे से इतनी लिपट जाती हैं कि, यदि वृक्ष की चोटी पर उन दो लताओं के भिन्न-भिन्न प्रकार के फूल या पत्ते दिखाई पड़ें, तो यह कहना कठिन होगा कि अमुक फूल किस लता का है, क्योंकि दोनों आपस में गुत्थी हुई हैं। यही अवस्था इन दो पक्षियों की है। प्रायः बड़े-बड़े दार्शनिकों की बुद्धि चकरा जाती है कि अमुक क्रिया जीव के कार्यक्षेत्र की है, या ब्रह्म के। जहाँ भोग स्पष्ट है, वहाँ तो जीव की सत्ता स्पष्ट दीखती है, जहाँ भोग में बाधा है, वहाँ भोक्ता की असमर्थता भी उसकी सत्ता की सीमा की सूचक है। कहावत भी है कि मनुष्य चाहता है और ईश्वर रोकता है, अर्थात Man proposes God disposes.

एक और दृष्टान्त लीजिए। जब कोई प्राणी मरता है, तो उसका जीव उसके शरीर से निकलता है। मरने वाला अनुभव करता है कि मैं यहाँ से जा रहा हूं। ब्रैडला इंग्लैण्ड का एक प्रसिद्ध अनीश्वरवादी विचारक और प्रचारक था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में उसने एक अनीश्वरवाद प्रचारिणी सभा खोली थी। वह कहा करता था कि यदि, मनुष्य में जीव मानते हो, तो, कुत्तों में भी जीव मानना पड़ेगा। ईसाई दार्शनिक कुत्तों में जीव नहीं मानते। इस आधार पर, ब्रैडला मनुष्यों में भी जीव होने का निषेध करता था। परन्तु, सुना जाता है कि वह जब मरने लगा, तो, उसको अनुभव होता था कि कोई अज्ञात शक्ति, उसको उसके शरीर से निकलने के लिए बाधित कर रही है। मृत्यु की यह घटना तो सभी के समक्ष है। भेद केवल घटना की व्याख्या का है। कोई मरना नहीं चाहता। देह जड़ है। देह हमको निकाल नहीं सकती। हम निकलना नहीं चाहते। कोई तीसरी सत्ता, जो इस देह की अध्यक्ष है, हमको बाधित करती है कि अब भोग भोग चुके, खाना हो चुका, पत्तल पर से उठिए- इससे भी वृक्ष और दो पक्षियों की उपमा ठीक समझ में आती है। हमने यहां भोक्ता और द्रष्टा के स्थान में भोक्ता और अध्यक्ष शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि ‘अभिचाकशीति’ का ठीक अर्थ न समझकर कुछ लोगों की धारणा बन गई कि जीव को भोक्ता और ब्रह्म को द्रष्टामात्र (Mere spectator) कहें। यदि वृक्ष के धारण और जीव के पालन में ईश्वर का कोई हाथ नही, तो द्रष्टामात्र का क्या अर्थ, क्या प्रयोजन और क्या गौरव? निरपेक्ष दर्शक के अस्तित्व का प्रमाण भी क्या? वेद में अन्यत्र कहा भी है कि हे प्रभो! हम आपका दाहिना हाथ पकड़ते हैं, अर्थात्, हम अपने भोगों के लिए आपकी अध्यक्षता के आश्रित हैं।

जगत् की किसी घटना को लीजिए। आपको ये तीन सत्ताएँ स्पष्ट दिखाई देंगी- जड़ वृक्ष, अल्पज्ञ भोक्ता जीव, और सर्वज्ञ अध्यक्ष ब्रह्म। ये परस्पर संयुक्त हैं। कोई जीव न ईश्वर से अलग है, न प्रकृति से। न कोई प्रकृति ईश्वर से अलग अथवा ऐसी है, जो जीव का भोग न हो। न ईश्वर, प्रकृति और जीवों से अलग है।

अब प्रश्न यह है कि क्या ये तीन सत्ताएँ वास्तव में एक नहीं, तीन हैं? दर्शनशास्त्र का यह एक जटिल प्रश्न है। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्ट द्वैतवाद, भेदाभेदवाद आदि-आदि अनेक वाद हैं और इन विषयों के अध्ययन के लिए सैकड़ों ग्रन्थ मिलेंगे, जिन्होंने अपने मत की पुष्टि में बहुत कुछ प्रतिपादित किया है और उपनिषद् में आए हुए इस स्पष्ट त्रैत के एकीकरण का बहुत कुछ यत्न किया गया है। जीव और ब्रह्म में साधर्म्य होते हुए भी वैधर्म्य का निराकरण असम्भव है। दुख, अज्ञान, दो ऐसे धर्म हैं जिनका ईश्वर पर अध्यारोप कर ही नहीं सकते। अल्पज्ञता तथा जड़त्व, भोक्तृत्व और भोग्य पदार्थ, ये दोनों ब्रह्म में नहीं पाये जाते। एक में तीन और तीन में एक की कल्पना किसी भी प्रकार सम्भव प्रतीत नहीं होती। कुछ लोग समझते हैं कि जो कुछ उत्पन्न जगत् है, वह सब ईश्वर के लिए है। यह बात कहने में अच्छी लगती है। भक्त भक्ति के भाव में बहकर, कैसी भी भाषा का प्रयोग कर सकता है, परन्तु सत्यता तो ऐसी नहीं है। ईश्वर या उसके प्रतिनिधि को खिलाने-पिलाने का बखेड़ा, इसी भ्रान्ति का परिणाम है। हम अपने भोक्तृत्व को ईश्वर पर भी आरोपित करते हैं। मन्दिरों और देवालयों में जो ईश्वर को खिलाने का प्रतिदिन ड्रामा खेला जाया करता है, वह ड्रामे से इतर कुछ नहीं और अविद्यासूचक है। भोक्ता तो जीव है, अतः जीवों को खिलाने का यत्न करना चाहिए, ईश्वर को खिलाने का नहीं। देवी-देवताओं पर बलि चढ़ाना भी, इस वेदमन्त्र का ज्ञान न होने के कारण है।

यदि, इस मन्त्र का रहस्य लोगों की समझ में आ जाए तो, जड़-जगत् अल्पज्ञ जीव और सर्वज्ञ ईश्वर के परस्पर-सम्बन्ध को समझकर हम बहुत-से निरर्थक कार्यों से बच सकते हैं तथा देश और जाति के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

चौदहवां मंत्र

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।

-ऋग्वेद १0//१0//१२, अथर्ववेद १९//६//६, यजुर्वेद ३१//११

अर्थ– इस पुरुष का मुख  ब्रह्मण हो गया। इसके दोनों बाहु, क्षत्रिय मान लिये गये। इसकी वही दोनों जाँघें समझिए, जो वैश्य है। दो पैरों से शूद्र उत्पन्न हो गया।

व्याख्या– यह मन्त्र, उन थोड़े-से वेदमन्त्रों में से है, जिससे अधिक-से-अधिक लोग परिचित हैं। हिन्दुओं में जो वर्तमान जातिभेद, छूत-छात, ऊँच-नीच, वर्गद्वेष फैला हुआ है, उसका आधार यही मन्त्र समझा जाता है। यदि कल्पित गाथाओं को सर्वथा भुलाकर, केवल मन्त्रों पर ही विचार किया जाए, तो यह वेदमन्त्र वैदिक समाजशास्त्र का बड़ा उत्कृष्ट सुदृढ़ आधार सिद्ध होगा। मलाई, कीचड़ में पड़कर मल बन जाती है। सोना, मूर्खों के अधिकार में आकर मैला पड़ जाता है। औषधि, कुवैद्य के हाथ में पड़कर विष बन जाती है। ये बस अविद्या के परिणाम हैं और यह मन्त्र दुर्भाग्य से उन परिणामों का एक जीता-जागता नमूना है, जिसने हिन्दूजाति को नष्ट और हिन्दूसभ्यता को कलंकित कर दिया। इस मन्त्र का लोकपरिचित अर्थ यह है -प्रजापति के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र, इसलिए, ब्राह्मण सबसे ऊंचे और शूद्र सबसे निकृष्ट हैं। परिणामतः शूद्र अछूत समझे जाते हैं और उनको बहुत-से वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो ब्राह्मण आदि को हैं। यदि कोई पूछे कि आजकल तो ब्राह्मण मुख से उत्पन्न नहीं होते, न क्षत्रिय बाहू से, न वैश्य जंघाओं से, न शूद्र पैरों से। आजकल तो, सबका उत्पत्ति-स्थान तथा उत्पत्ति-विधान समान है, फिर यह भेदभाव क्यों? तो इसका, यह उत्तर दिया जाता है कि आदि सृष्टि में ऐसा ही हुआ था। अब जन्म-जन्मान्तरों से वहीं पूर्वजों का दोष, सन्तति में भी चला आता है और अन्तकाल तक चलता जाएगा। इस प्रतिपत्ति की पुष्टि में, न तो कोई तर्क था, न इतिहास की साक्षी, परन्तु, ऐसी मान्यता फैल जाने पर, भाष्यकारों ने भी किसी-न-किसी प्रामाणिक अथवा अप्रामाणिक ग्रन्थ के कुछ कथनों को, बिना किसी परीक्षा के अपने भाष्यों का आधार बना लिया। सायणाचार्य ने लिखा है कि कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीयसंहिता में स्पष्ट शब्द-प्रमाण है कि ‘‘प्रजापति ने मुख से तीन वर्णों का निर्माण किया।’’ जब जनता में यह प्रसिद्ध कर दिया जाता है कि अमुक बात, उनके धर्म-ग्रन्थों में लिखी है तो, जनता घोर-से-घोर पाप को भी पुण्य समझकर, उस पर आरूढ़ हो जाती है। धर्म-ग्रन्थों को आंख बन्द करके मान लेने का यह अत्यन्त दोषपूर्ण परिणाम है। इस युग में ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने धर्मग्रन्थों के परीक्षण को भी आवश्यक बताया और ‘ब्राह्मणोऽस्य’ इस मन्त्र के तर्कयुक्त उत्तम अर्थ हमारे सामने उपस्थिति किये। यह बात नहीं कि अन्य भाष्यकारों को उन प्रचलित मतों की निस्सारता खटकती न थी। भाष्यकार बुद्धिहीन तो न थे, विद्वान थे, मतिमान् थे। मन में समझते रहे होंगे कि ऐसी थोथी बात को कैसे मान्यता दी जाए? मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति का अर्थ ही क्या हो सकता था? परन्तु, बहुत प्राचीनकाल से यह रोग चला आता है कि धार्मिंक बातें परोक्ष हैं, उनमें बुद्धि लड़ाना पाप है।

मन्त्र के महत्त्व को समझने के लिए, एक और आवश्यक बात यह है कि मन्त्र के प्रकरण पर विचार करना चाहिए। यह मन्त्र पुरुषसूक्त का एक भाग है और थोड़े-से साधारण पाठभेद या क्रमभेद से ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में आया है। पुरुषसूक्त में क्या है, यह देखना होगा।

पुरुषसूक्त पूरा-का-पूरा लुप्तोपमा अलंकार है। केवल एक उपमा नहीं, अपितु, उपमाओं की एक श्रृंखला है, जिसमें सब उपमाएँ एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। ‘पुरुष’ का अर्थ है ‘शरीर’। केवल भौतिक शरीर नहीं, क्योंकि भौतिक शरीर तो जड़ है, जीवात्मा-युक्त शरीर, जिसको लोकभाषा में कहते हैं-जिन्दा, जीता-जागता, क्योंकि बिना शरीरी के शरीर नहीं होता। शरीरी के पृथक हो जाने पर शरीर नहीं कहलाता, लाश कहलाती है। शरीर वही है, जिसमें जीवात्मा पूर्णरुपेण जाग्रत् या कार्य करता हो। (A body is a body only so long as the soul therein is functioning in full vigour) शरीर शब्द की सिद्धि संस्कृत-वैयाकरणों ने ‘शृ हिंसायाम्’ धातु से की है। यह मुझे सर्वथा अनुचित प्रतीत होती है। धातु और धातुज शब्द में, कुछ तो सम्बन्ध आवश्यक है। यह आवश्यक नहीं है कि वर्तमान धातुपाठ पूर्ण ही हो, या वर्तमान व्याकरणों से जो सिद्ध होता है, वही हर अवस्था में लागू हो। शरीर कई ऐसे अवयवों या वस्तुओं का संघात नहीं जो असम्बद्ध हों। शरीर एक संस्थान या आर्गेनिज्म (Organism) है, अर्थात् इसका हर एक अंग अपने दूसरे अंगों के संरक्षण में सहायक होता है। आंख अपना भी संरक्षण करती है और शरीर का भी। भोजन को पचानेवाले अंग शरीर को भी शक्ति देते हैं और स्वयं अपने को भी, क्योंकि इनमें पुरुषत्व या शरीरत्व है। रेल का इंजन भाप बनाता है, परन्तु भाप उस इंजन को शक्ति नहीं देती। जितनी अधिक भाप बनेगी, उतना अधिक इंजन घिसेगा और कमजोर होगा, क्योंकि इंजन पुरुष नहीं है, परन्तु हमारा जठर पुरुष का अंग है। खाना न पाने से जठर भी नष्ट होगा और समस्त शरीर भी। यह एक विचित्र गुण है, जो ‘पुरुष’ अर्थात् शरीर में ही पाया जाता है।

पुरुष की उपमा देकर, वेदमन्त्र इस सूक्ष्म रहस्य को व्यक्त करता है कि जैसे शरीर एक पुरुष या आर्गेनिज्म है, उसी प्रकार जगत् भी एक आर्गेंनिज्म है, जिसका हर भाग जगत् के रक्षण में भागीदार है। समस्त पुरुषसूक्त में आदि से लेकर अन्त तक किसी-न-किसी रूप में लुप्तोपमा का महत्त्व दर्शाया गया है।

परन्तु ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखं’ इस मन्त्र में जगत् के अन्य अंगों से हटकर विशेषतः मानव-समाज को पुरुष माना गया है, और उसी प्रकार प्रत्येक अंग का पूरे मानव -समाज से सम्बन्ध दिखाया गया है। इसके दो पक्ष हैं-एक तो प्रत्येक अंग का दूसरे अंगों से भिन्न होना, दूसरा, हर अंग का दूसरे अंगों का पूरक होना। ‘भिन्नत्व’ और ‘पूरकत्व’ दोनों को एक साथ समझने की आवश्यकता है। जिस भिन्नत्व में पूरकत्व नहीं, वह पुरुष का अंग नहीं। शरीर में दो आंखें हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दाहिनी आँख अलग, बाईं अलग। परन्तु, दाहिनी बाईं के रूप के यथेष्ट प्रदर्शन में पूरक है। काना आदमी दो आँखों वाले के समान नहीं। इसी प्रकार, हर अंग का हाल है। जब मानव-समाज को विराट् रूप देकर पुरुष कहा गया तो उसके अंग गिनाये गये। उनके भिन्नत्व पर बल देने के लिए नहीं, अपितु पूरक होने पर। शरीर को पुरुष तभी तक कहेंगे, जब तक कि इसके अंग, दूसरे अंगों के पूरक हैं। यदि एक अंग, दूसरे की पूर्ति नहीं करता तो, वह या तो रोगी शरीर है या मृत शरीर। अवयवों के संघात का नाम अवयवी नहीं। यदि, केवल अवयवों के संख्या-सम्बन्धी जोड़ का नाम ही अवयवी होता, तो अवयवों की विशेष व्यवस्था न होती। इस प्रकार, समाजरुपी पुरुष के अंग भी सुव्यवस्थित होने चाहिएँ, जैसे स्वस्थ शरीर के अंग हेाते हैं। समाजशास्त्र इसी व्यवस्था का तन्त्र है। मनुष्यों की गिनती से समाज नहीं बनता। यदि किसी शरीर का सिर कट जाए, तो यह नहीं कह सकते कि दस अंगों में एक ही अंग तो कटा है, अतः १/१0 भाग अवयवों के उपस्थिति रहते हुए शरीर भी १/१0 सुरक्षित होगा। जब आप, वेदमन्त्र को इस दृष्टि से देखेंगे कि यह पुरुषसूक्त का अंग है और पुरुष का अर्थ है- सुव्यवस्थित अंगोंवाला शरीर, तो इस मन्त्र की उपयोगिता समझ में आ सकेगी। मन्त्र में मानव-पुरुष या मानव-विराट् के अंगों की गिनती नहीं गिनाई गई। यह अंगों का सूचीपत्र नहीं है, जिसमें कहा हो कि समाजरुपी दुकान पर, एक, सिर या ब्राह्मण है। दूसरा, बाहू या क्षत्रिय है। यहां प्रत्येक अंग की इतिकर्त्तव्यता का विधान है। मानव शरीर पर दृष्टि डालिए। उपमा के साधर्म्य को सोचिए। भोजन, हमारे शरीर में शुद्ध रक्त बनाता है। इस रक्त के जो बिन्दु मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं, वे मस्तिष्क का कार्य करने लगते हैं, जो पैर की अंगुली में पहुंचते हैं, वे पैर बन जाते हैं। जब डाक्टर बताता है कि बादामा खाओ, आंख की रोशनी बढ़ेगी, तो उसका यही तो अभिप्राय होता है कि बादाम से जो रक्त बनेगा, वह आंख में जाकर आंख बन जाएगा। इस उपमा को आप सब क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं पर घटा लीजिए। अब आप वेदमन्त्र पर आइए। लोगों ने मूर्खता से यह समझा कि शरीर के अंगों की भिन्नता दिखाई गई है, अर्थात् जो चार वर्ण हैं, वे एक-दूसरे से भिन्न हैं, पूरक नहीं, अतः ब्राह्मण अलग हो गये, क्षत्रिय अलग हो गये, वैश्य अलग और शूद्र अलग। एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं, प्रत्येक अंग अपनी ही रक्षा के लिए प्रयत्नशील हुआ। परस्पर सहयोग जाता रहा। हिन्दूसमाज की प्रचलित वर्ण-व्यवस्था में यहीं दोष है। नाम के लिए चार वर्ण हैं, परन्तु वे हैं, अलग-अलग, अर्थात् हिन्दू-समाज स्वस्थ समाज नहीं, रुग्ण समाज है या मृतप्रायः समाज। वेदमन्त्र का यह आशय कदापि नहीं था।

दूसरी भूल यह हुई कि वाक्य में जो उद्देश्य था, उसको विधेय समझ लिया गया। वाक्य था ‘अस्य मुखं ब्राह्मण आसीत्’ अर्थात् मानव-समाजरुपी विराट् पुरुष का जो मुख्य भाग होगा, उसका नाम हम ‘ब्राह्मण’ रखेंगे इत्यादि, परन्तु, हमने इसका अर्थ लिया कि जो ब्राह्मण कहलाता होगा, उसको हम समाज का मुखिया कहेंगे। इन दोनों की भावनाएँ बदल जाती हैं। जो वैद्य का काम करने योग्य होगा, और जो उस काम को योग्यता से करेगा, उसको हम वैद्य कहेंगे। यह भावना सुव्यवस्था की सूचक है। जिनका नाम वैद्य होगा, उससे हम वैद्य का काम लेंगे। यह भावना कुव्यवस्थित समाज की है। वर्तमान हिन्दूसमाज की भावनाएँ पूर्वकथित नहीं, उत्तरकथित हैं, इसलिए हिन्दूसामज वर्णव्यवस्थाहीन है और जो कुछ सम्प्रदाय अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ‘वर्णधर्म’ ‘वर्णधर्म’ की दुहाई देते हैं, वे दूषित विचारों का प्रचार करते हैं। जन्म से वर्णव्यवस्था मानने का यही दोष है। सबसे भयानक और घातक भावना यह है कि चार वर्ण प्रजापति के चार अंगों से उत्पन्न हुए। यहां तो तात्पर्य यह है, कि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों (गुण, कर्म और स्वभाव) तथा उनमें से हर एक का मानव-समाजरुपी स्वस्थ शरीर के रक्षण का उत्तरदायित्व दृष्टि में रखकर ऐसी व्यवस्था करनी आवश्यक है कि समष्टि रूप से मानव-समाज उन्नति करता रहे और इसमें रोग न होने पाये। इसकी सबसे अच्छी उपमा शरीर या पुरुष से ही दी जा सकती थी। इस भावना के साथ इससे अच्छी उपमा मिलनी कठिन थी। इस उपमा को सुनकर लोग फड़क उठे। उन्होंने पहले कभी यह उपमा सुनी न थी। परन्तु वेद में तो यह उपमा न जाने कितने काल से चली आती है। ईरान के प्रसिद्ध कवि, सादी शीराजी ने कहा है ‘‘बनी आदम आजाये यक दीगरन्द’’ अर्थात् मनुष्य परस्पर एक-दूसरे के अंग हैं। अंग कहने का अर्थ ही यह है कि वे पूरक या सहायक हैं। आँख स्वयं ही नहीं देखती, पैर और हाथ को भी देखने के योग्य बनाती है। आंखों की सहायता से हाथ मीठे फल को पकड़ लेता है।

यह वर्णव्यवस्था, जिसे चतुर्वर्ण्य कहते हैं, स्वतः सिद्धि नहीं, अपितु समाज-कल्पित और समाज-शासित है। प्रत्येक व्यवस्था का ऐसा ही रूप होता है। स्वयंसिद्ध वस्तु के लिए न बिगाड़ का भय होता है, न सुधार या संरक्षण की चिन्ता। स्वयंसिद्ध चीज मानव-चिन्ता के क्षेत्र से बाहर की वस्तु है। मनुष्य का सिर कन्धों के ऊपर होता है, यह स्वयंसिद्ध बात है। किसी को इसमें हस्तक्षेप की गुंजायश नहीं है, न कोई चिन्ता करता है, परन्तु मुख-प्रक्षालन मानव-कल्पित और मानव-शासित वस्तु है, अतः बचपन से इसकी शिक्षा दी जाती है। इसी प्रकार जहाँ तक मानव समाज के वर्गीकरण का प्रश्न है, इससे पहले मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है किः-

जब इस मानव -समाजरुपी ‘पुरुष’ (Organism) की व्यवस्था की गई, तो इस संकल्प के दो लक्ष्य थे-व्यक्ति की रक्षा और समष्टि की रक्षा। व्यक्ति की रक्षा के लिए जीविका का प्रबन्ध सोचा गया और समष्टि की रक्षा के लिए व्यक्ति के कर्तव्य निर्धारित किये गये। इन दोनों भावनाओं के समन्वय का नाम वर्णव्यवस्था है।

चतुर्वर्ण्य – व्यवस्था का प्रयोजन यह है कि समाज प्रत्येक व्यक्ति के गुणों (योग्यता) का निरीक्षण करे। उनके अनुकूल, उसके कर्म (कर्तव्यता) की नियुक्ति हो अर्थात् समाज प्रेरणा तथा आदेश द्वारा उससे अधिक-से अधिक काम ले और उसके विभाग (जीवन-साधनों का विभाजन) का प्रबन्ध करे। अच्छा शासन (गवर्नमेंट) उसको कहेंगे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता की परीक्षा की जाती है और उस योग्यता के अनुकूल, उसको सामाजिक संगठन तथा संरक्षण का काम सौंपा जाता है। इसी का नाम है- प्रजा का परिपालन। यह परिपालन केवल क्षत्रिय ही नहीं कर सकता, इस परिपालन में प्रत्येक छोटे-बड़े आदमी का हाथ है। समाज की गाड़ी को सभी मिलकर आगे बढ़ाते हैं। इसी का नाम तो सर्वतन्त्र शासन (डैमोक्रेसी) है। सरकार का काम तो केवल यह प्रबन्ध करना है कि कोई व्यक्ति ऐसा न छूट जाए, जो समाज की उन्नति में उचित मात्रा में भागीदार नहीं बनता, तथा यह भी देखना है कि कोई भूखा तो नहीं मर रहा? जहाँ कहीं शास्त्रों में विधान है कि राजा का कर्तव्य है कि चतुर्वर्ण्य की उचित व्यवस्था करें, वहाँ उसका यह तात्पर्य नहीं है कि थोड़े-से वेदमन्त्र सुनकर या एक लिखित परीक्षा लेकर यह घोषणा कर दे कि तुम ब्राह्मण वर्ण के हो, अपने नाम के आगे ‘शर्मा’ लगाया करो, तुम क्षत्रिय वर्ण के हुए, तुमको ‘वर्मा’ लगाने का अधिकार हो गया, तुम वैश्य वर्ग के हो, तुमको अपने नाम के साथ ‘गुप्त’ लगाने का अधिकार है, राज ने तुमको शूद्र प्रमाणित किया है, तुम अपने को ‘दास’ लिख सकते हो। वस्तुतः यह वर्णव्यवस्था नहीं, वर्णव्यवस्था का दुरुपयोग है और इससे द्वेष तथा भेदभाव बढ़ता है। वस्तुतः वैदिक आदर्श राज्य वह होगा कि जिसके प्रबन्ध में हर ब्राह्मणत्व की योग्यता रखनेवाले को ब्राह्मण के कर्त्तव्यों के पालन का अवसर मिले और उसी के द्वारा वह जीविका प्राप्त कर सके। इसी प्रकार अन्य लोग भी। न कोई निठल्ला रहे, न भूखा रहे, न अपने गुणों का दुरुपयोग करने के लिए प्रेरित हो सके। इस प्रकार वर्णव्यवस्था कर्म तथा फल दोनों का यथोचित निर्धारण करती है। वर्णव्यवस्था केवल आध्यात्मिक प्रश्न नहीं, आर्थिक प्रश्न भी है, जीविका का भी प्रश्न है। इसलिए, एक बात और स्पष्ट हो जाती है, जो शायद नई-सी प्रतीत हो, परन्तु, वेदमन्त्र पर विचार करने से उचित प्रतीत होती है, वह यह कि चतुर्वर्ण्य का सम्बन्ध केवल गृहस्थ आश्रम से है, क्योंकि गृहस्थ-आश्रम ही मानव-समाज का मुख्य और व्यावहारिक भाग है। मनु जी ने भी गृहस्थ-आश्रम को सब आश्रमों का मूलाधार माना है। अन्य आश्रम गृहस्थ के ही आश्रित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में, समाज के अन्य वर्गों का प्रश्न ही नहीं उठता। हर शिशु को पूर्ण रीति से विकास करने का अवसर मिलना चाहिए। वर्ण तो गुणों की परीक्षा के पश्चात् ही निश्चित हो सकेगा। कच्चे फलों का वर्गीकरण कैसा? जिस देश में पिताओं की प्रतिष्ठा देखकर, बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध हो, वह देश उन्नत तो नहीं कहा जा सकता। जहाँ, वेद पढ़ाने के लिए कुल के पूर्वजों का इतिहास देखना आवश्यक हो, वहां, पक्षपात भी अवश्य होगा और बहुत-से शिशु शैशवकाल में ही अयोग्य सिद्ध हो जायेंगे। मध्य-कालीन संस्कारों तथा रस्मों-रिवाज में, जो पग-पग पर वर्ग-भेद के चिह्न मिलते हैं, वे वैदिक काल के तो नहीं हो सकते और उन्होंने अपने काल में समाज की पर्याप्त हानि की होगी। वहीं संस्कार हमको दायभाग में मिले हैं। वानप्रस्थ और संन्यासियों में चार वर्गों का भेदभाव होना भी ठीक प्रतीत नहीं होता। ब्राह्मण वानप्रस्थ, क्षत्रिय वानप्रस्थ, वैश्य वानप्रस्थ, शूद्र वानप्रस्थ और इसी प्रकार ब्राह्मण संन्यासी, क्षत्रिय संन्यासी, वैश्य संन्यासी और शूद्र संन्यासी का क्या अर्थ? ये दोनों आश्रम तो वर्णभेद से ऊपर उठ जाते हैं। जब वर्णव्यवस्था जन्म-परक मान ली गई, तो संन्यासियों में भी दलबन्दी हुई। सम्प्रदायों की अपेक्षा से संन्यासियों का भी वर्गीकरण हुआ। पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा का केवल रूप बदला। पुत्रैषणा का स्थान लिया शिष्यैषणा ने, वित्तैषणा का स्थान लिया मठैषणा ने और लोकैषणा कुछ बढ़ गई, घटी नहीं। यह है साम्प्रदायिकता की घुड़दौड़, जो आजकल भी वातावरण को दूषित करती रहती है। यदि, वानप्रस्थ का काम तपस्या है और यदि संन्यासी का काम धर्म प्रचार है तो कौन संन्यासी किस सम्प्रदाय का है, इसका क्या अर्थ? सभी वानप्रस्थ सत्य की खोज करें और सभी संन्यासी बिना मत-मतान्तर की अपेक्षा के सर्वतन्त्र धर्म की प्रेरणा करें, तो ही समाजरुपी पुरुष के अंग और उपाङ्ग ठीक हो सकते हैं।

पन्द्रहवां मंत्र

इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुव्र्यश्नुतम्।

क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे।।

-ऋग्वेद १0//८५//४२, अर्थर्ववेद १४//१//२२

अर्थ– तुम दोनों वियोग मत करो, अलग-अलग न रहो। पूरी आयु को तुम दोनों भोगो। पुत्रों के साथ, नातियों के साथ, तुम दोनों खेलते हुए, अपने घर में आनन्द मानो।

व्याख्या– यह मन्त्र गृहस्थ आश्रम का मूलाधार है। इसमें वर और वधू को विवाह के समय का उपदेश है। ‘इससे पहली बात तो यह निकलती है कि वैदिक विवाह, एक पुरुष का, एक स्त्री के साथ ही होना चाहिए। बहुपत्नी-भाव और बहुपति-भाव वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध हैं। न तो एक पति की कई स्त्रियाँ होनी चाहिएँ, न एक स्त्री के कई पति। भिन्न-भिन्न देशों और युगों में भिन्न प्रथाएँ प्रचलित हैं। कहीं एक स्त्री के कई पति होते हैं, कहीं एक पति की कईं स्त्रियाँ होती है। हिन्दुओं में बहुपत्नी-प्रथा तो बहुत दिनों से चली आती है, विशेषकर राजाओं में। ऋषि-महात्माओं के साथ भी कहीं-कहीं कईं पत्नियों का उल्लेख मिलता है, जैसे याज्ञवल्क्य के दो पत्नियाँ थी। द्रोपदी के पांच पति विख्यात हैं। परन्तु, ये अपवाद मात्र हैं और समाज की, उस समय क्या अवस्या थी, इसका भी पूरा ऐतिहासिक ज्ञान नहीं हैं, अतः यह कहना कठिन है कि एक पति और एक पत्नी की वैदिक व्यवस्था कब और क्यों तोड़ी गई। पौराणिक गाथाओं ने अनेक प्रकार के बहाने खोजने के लिए कहानियां गढ़ लीं, जिनका सिर-पैर नहीं मिलता। जैसे द्रोपदी के विषय में कुन्ती का अज्ञानवश वरदान। इससे यह तो पता चलता है कि भारतवर्ष में बहुपत्नी-प्रथा तो रही, परन्तु उसको प्रशंसनीय नहीं समझा गया। सम्भव है, जब जातिभेद के कारण रोटी-बेटी का प्रश्न उपस्थित हुआ तो लड़के-लड़कियों की संख्या में अधिक भेद होने के कारण या किसी राजनैतिक भय के उपस्थित होने पर उस समय के नेताओं ने कुछ सामयिक व्यवस्थाएँ जारी कर दी हों, परन्तु वेदमन्त्रों तथा संस्कार पद्धतियों को देखने से तो यही जान पड़ता है कि एक पत्नी और एक पति की व्यवस्था ही प्रशंसनीय मानी गई है। सम्भव है कि उच्छृंखल राजाओं ने अपनी शक्ति के घमण्ड में शास्त्रकारों को विशेष व्यवस्था देने पर बाधित किया हो। परन्तु, बहुपति-भाव तो संसार में लगभग ‘नहीं’ के बराबर है। कुछ पहाड़ी जातियाँ ही इसके उदाहरण हैं। बहुपत्नी-प्रथा यद्यपि अनेक देशों और मतों में विहित मान ली गई है, परन्तु, उसके दुष्परिणाम भी कुछ कम नहीं हैं। रामायण की कहानी तो अनेक-पत्नी-प्रथा का ही दुष्परिणाम है। मुसलमानों में अनेक-पत्नी विधान ने इस्लाम धर्म के बहुत से अच्छे गुणों को नष्ट कर दिया। इस्लाम के फूलने-फलने में जो कुछ बाधाएँ उपस्थित हुई, उनका कारण हजरत मुहम्मद साहेब की कईं पत्नियाँ थी। यदि खुदैजा न मरती और मुहम्मद साहेब का चित्त डांवाडोल न होता, तो इस्लाम का वह इतिहास न होता, जिसके लिए इस्लाम के बुद्धिमान् पोषकों को लज्जित और खिन्न होना पड़ता है।

वेदमन्त्र का आदेश है कि गृहस्थ के दो स्तम्भ हैं- एक ‘पति’ और दूसरा ‘पत्नी’। यदि पति को मुख्यतम पति और स्त्री को उपपति (assistant lord or assistant master) कहा जाए तो ठीक होगा, परन्तु स्त्री के लिए स्त्री प्रत्ययान्त शब्द होना चाहिए, अतः ‘पत्नी’ शब्द का प्रयोग किया गया। परन्तु, हर स्त्री को ‘पत्नी’ नहीं कह सकते। पत्नी वहीं है, जिसका यज्ञ अर्थात् विवाह-संस्कार के द्वारा सम्बन्ध हुआ हो, अतः पति और पत्नी का पवित्र सम्बन्ध यज्ञ द्वारा होना चाहिए और कई पत्नियों के साथ विवाह नहीं होता। विवाह-संस्कार के जितने अंग शास्त्रों में दिये हुये हैं, उनमें द्विवचन का ही प्रयोग है, बहुवचन का नही। पौराणिकों ने और विशेषकर कुलीन ब्राह्मणों ने बहुत स्त्रियों के पक्ष में जो कपोल-कल्पित विधान गढ़ रक्खा है कि जिस प्रकार एक यूप में कई पशु बांधे जा सकते हैं और एक पशु, कई यूपों में नहीं बंध सकता, इसी प्रकार, एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर सकता है, पर, एक स्त्री कई पतियों से नहीं, यह युक्ति तो निःसार है ही, परन्तु, यह अवैदिक भी है । वेदमन्त्र में द्विवचन का प्रयोग इसीलिए है। याज्ञिक लोगों ने भी यज्ञ में पति के साथ पत्नी के भी बैठने का विधान दिया है, वहाँ एक पत्नी का ही उल्लेख है। इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण-५//२//१//१0 का निम्न उद्धरण बड़े महत्त्व का है-

यज्ञ करते समय पति पत्नी को बुलाता है- हे पत्नी! आ, हम दोनों स्वर्ग को चढें। अर्थात् स्वर्ग की इच्छा से, जो यज्ञ किया जा रहा है, वह हम दोनों का सांझा है। यज्ञ तभी सफल होगा, जब हम दोनों मिलकर यज्ञ करेंगे। पत्नी को क्यों बुलाया, क्योंकि पत्नी, पति का आधा भाग है। जब तक पत्नी नहीं होती, सन्तान भी नहीं होती और मनुष्य उस समय तक ‘असर्व’ अर्थात् अधूरा रहता है, अतः जब पत्नी को प्राप्त करता है, तो सन्तान होती है। तभी ‘सर्व’ अर्थात् पूर्ण होता है। पति पत्नी को इसलिए बुलाता है कि जब तक अधूरा रहूंगा, यज्ञ में मेरी गति कैसे होगी? इसलिए, मैं पूरा होकर यज्ञ करुंगा, अधूरा होकर नहीं।

शतपथ का यह उद्धरण विवाह और गृहस्थ की पवित्रता और गौरव को बड़ी उत्तम रीति से प्रतिपादित करता है। विवाह स्वर्ग की सीढ़ी है। गृहस्थाश्रम में पति और पत्नी मिलकर, जो यज्ञ करते हैं, मानो, स्वर्ग की सीढी पर चढ़ रहे हों। विवाह सन्तान के लिए आवश्यक है, इसीलिए, वेदमन्त्र कहता है – गृहस्थ बनकर स्थिरता के साथ यहीं रहो। पति और पत्नी का कामवासना के लिए क्षणिक सम्बन्ध नहीं है, कि जब चाहा तोड़ दिया, जब चाहा जोड़ लिया, यह तो व्यभिचार या वेश्यावृत्ति है। क्षणिक सम्बन्ध से बच्चे तो उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे, पशु-पक्षियों के, परन्तु उसे सन्तान या सन्तति नहीं कह सकते। ‘इह एव’ शब्द से वैवाहिक सम्बन्ध के स्थैर्य पर बल दिया गया है। उसको अधिक सुदृढ़ करने के लिए मन्त्र में उपदेश है ‘मा वि यौष्टम्’- दोनों में वियोग न हो। पति-पत्नि के अलग-अलग रहने से गृहस्थ का संगठन टूट जाता है। अनेक पत्नियाँ होने से, पति और पत्नी के बीच में दूसरी पत्नी व्यवधान या रुकावट पैदा करती है। इसका सन्तान पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दोनों का साथ रहना, पूरी आयु के लिए भी आवश्यक है। बहुत से विद्वानों ने आंकड़े इकट्ठे करके यह सिद्ध किया है कि वैवाहिक जीवन वालों की आयु अविवाहित स्त्री-पुरुष की अपेक्षा लम्बी होती है। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि यदि स्त्री-पुरुष का सहयोग आयु की क्षीणता का कारण होता, तो, सृष्टि का क्रम ऐसा न होता। यह ठीक है कि हर नियम का दुरुपयोग हो सकता है और वह दुरुपयोग हानिकारक भी होता है, परन्तु यदि शास्त्र की मर्यादा का आदर किया जाए, तो गृहस्थ-आश्रम जीवन के दीर्घ बनाने में भी सहायक होता है। अतः वेद का स्पष्ट आदेश है कि पति-पत्नी को यथाशक्ति साथ रहने और हर काम में परस्पर सहायक होने की आवश्यकता है। विवाह का उद्देश्य है, सन्तान-निर्माण। निर्माण का अर्थ केवल जन्म देना ही नहीं है, अपितु उसे धार्मिक बनाना भी है। अतः वेद ने एक मनोवैज्ञानिक बात कही कि नाती-पोतों के साथ खेलो। बच्चों के साथ खेलने में, जो आनन्द लेते हैं, उनकी वृद्धावस्था में भी नवीनपन (rejuvenation) रहता है। जो माता-पिता बच्चों के साथ खेलना नहीं जानते, उनके बच्चे, उच्च भावनाओं को प्राप्त नहीं कर सकते। यदि आपके बच्चे आपसे डरते हैं, तो समझ लीजिए कि आपकी गृहस्थ-अवस्था में कोई त्रुटि है। जिन रईसों या राजाओं के बच्चे, सदैव नौकरों के साथ रहते हैं, वे बहुधा द्वेष आदि दोष के भागी हो जाते हैं। जो माताएँ अपने कष्ट को कम करने के लिए अपने बच्चों को नौकरों के हवाले कर देती हैं, वे नहीं जानती कि बच्चे की संवृद्धि के लिए केवल भोजन की ही आवश्यकता नहीं है, प्रेम भी एक सूक्ष्म भोजन है, जो मनुष्य के स्वभाव को बनाता है। अतः माता-पिता का प्रेम बच्चों के निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक है। माता के हृदय में अपनी सन्तान के लिए एक नैसर्गिक प्रेम होता है। वह गर्भ के कष्टों को सहते हुए आनन्द मानती है और बच्चे के पालने-पोसने में उसको जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उनको सहन करने में, उसे शिकायत नहीं होती। कष्ट सहते हुए हर्षित होना, यह माताओं का अद्वितीय गुण है और किसी माता को अपने इस गुण का अनादर नहीं करना चाहिए।

सन्तान के निर्माण में जो माता का भाग है, उससे कम पिता का नहीं। इस विषय में जनता में एक भ्रम है और आजकर के भौतिक-विज्ञान-वेत्ताओं ने इस भ्रम को कुछ ओर बढ़ा दिया है। लोग समझते हैं कि जीव माता के गर्भ में उस समय आता है, जब शरीर बनकर या आधा बनकर तैयार हो जाता है, अतः पिता के गुणों का सन्तति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। इससे संतति-निर्माण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व माता पर छोड़ दिया जाता है। यदि कईं पत्नियाँ हुईं और उनकी भिन्न-भिन्न सन्तानें हुईं, तो स्थिति और भी विचित्र हो जाती है और पिता, केवल, उसी पत्नी की सन्तान को प्यार करता है, जो उसे सबसे प्रिय होती है, परन्तु वैदिक शास्त्रों में पिता और माता दोनों को बराबर-बराबर उत्तरदाता ठहराया है। यदि जीव माता के ही गर्भ में प्रविष्ट होता और उसका पिता से कोई सम्बन्ध न होता, तो फिर, पिता के गुण बच्चे में कैसे पाये जाते? परन्तु, पशु-पक्षियों में भी देखा जाता है कि पिता के शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के गुण सन्तान में विद्यमान रहते हैं और समय पाकर उनका विकास होता है। ऐतरेय उपनिषद् के निम्न वाक्य से हमारे कथन की पुष्टि होती है-

‘गर्भ पहले तो पुरुष के शरीर में होता है। यह रेत या वीर्य कहलाता है, अर्थात् वीर्य ही उसका शरीर है। वहां, वह पिता के शरीर के सब अंगों से तेज को खींचता और अपने में धारण करता है, अर्थात् पिता के शरीर में, उसके वीर्यरुपी भवन में ठहरकर, वह पिता के गुणों से समन्वित हो जाता है। जब वह पिता के गर्भ से चलकर गर्भाधान-संस्कार द्वारा माता के गर्भ में आता है, तो यह उसका पहला जन्म है।’

इस प्रकार, माता और पिता का दीर्घकाल तक बच्चों के साथ रहना और उनकी देखभाल करना आवश्यक है।

‘‘मोदमानौ स्वे गृहे’’ – अपने निज घर में सुख मनाएँ। यहां ‘‘गृह’’ से तात्पर्य ईंट -पत्थर के मकान से नहीं है। मकान गृह नहीं है, गृह बनाने का एक स्थानमात्र है। गृह तो एक आध्यात्मिक और सामाजिक वस्तु है, जो परस्पर प्रेम से ही बन सकती है। गृह समस्त समाज की इकाई है। यहां, समाज की आरम्भिक शिक्षा दी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति का समस्त मानव-समाज के साथ सीधा सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, जब तक गृहस्थ के माध्यम की सहायता न ली जाए। कुछ नेताओं ने कभी-कभी ऐसे परीक्षण किये, जिनमें स्त्री और पुरुष बिना गृहस्थ की मर्यादा के सन्तानोत्पत्ति करें और जो बच्चे उत्पन्न हों, वे देश या जाति के बच्चे समझे जाएँ। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) की यहीं राय थी, यद्यपि उसके इस प्रस्ताव का कभी किसी ने परीक्षण नहीं किया। रूस में जब कम्यूनिज्म की आँधी आई और उस आँधी में सब पुराने वृक्ष उखड़ कर धराशायी हो गये, तब विवाह-वृक्ष की प्रथा भी ध्वस्त हो गई। तब, गृहस्थ की मर्यादा के बिना सन्तानोत्पत्ति आरम्भ हुई, परन्तु, परीक्षण आरम्भ होते ही यह व्यवस्था, बिना दीर्घकाल तक चले ही शान्त हो गई, क्योंकि उसके दुष्परिणाम स्वयं लैनिन आदि को समाज के लिए घातक दिखाई पड़े। गृहस्थ आश्रम में भी अन्य संस्थाओं के समान दोष हैं, परन्तु, आवश्यकता रोग को दूर करने की है, रोगी को मार डालने की नहीं। वेदमन्त्रों के भावों को समझकर उन पर चलने से, ये रोग दूर हो सकते हैं। अति प्राचीनकाल में, जब प्लैटो आदि दार्शनिक या अन्य मतमतान्तर नहीं थे, ऐसे शुद्ध और सर्वोत्कृष्ट भावों की विद्यमानता, वेदों के गौरव को सिद्ध करती है।

सोलहवां मंत्र

अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमर्ती वाचं वदतु शन्तिवाम्।।

-अर्थर्ववेद काण्ड ३, सूक्त ३0, मन्त्र २

अर्थ– पुत्र पिता का अनुव्रत हो, अर्थात् उसके व्रतों को पूर्ण करे। पुत्र माता के साथ उत्तम मनवाला हो, अर्थात् माता के मन को सन्तुष्ट करने वाला हो। पत्नी को चाहिए कि वह पति के साथ मीठी और शान्तिप्रद वाणी बोले।

व्याख्या– इस वेदमन्त्र में वे आरम्भिक साधन बताये हैं, जिनसे गृहस्थ सुव्यवस्थित रह सकता है।

ऊपरी दृष्टि से ऐसा लगता है कि जिन बातों का इस मन्त्र में प्रतिपादन है, वे अतिसाधारण और चालू हैं, उनको असभ्य और अशिक्षित लोग भी समझते हैं, उनके लिए वेदमन्त्र की आवश्यकता नहीं, परन्तु गम्भीर दृष्टि से पता चलेगा कि बहुत-सी बातें विचारणीय और ज्ञातव्य हैं। उदाहरण के लिए दो शब्दों पर विचार कीजिए- एक ‘पुत्र’ और दूसरा ‘अनुव्रत’। यहां केवल इतनी ही बात नहीं है कि, लड़कों को मां-बाप की सेवा करनी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। यद्यपि, जिस किसी ने संसार में सबसे पहले लोगों को यह उपदेश किया होगा, उस समय इतनी छोटी-सी बात भी बहुत बड़ी और अद्भुत मालूम होती होगी। आज भी यद्यपि कथनमात्र से इस बात को सभी जानते हैं, फिर भी व्यवहार में तो अत्यन्त न्यूनता दिखाई देती है। आज्ञाकारी राम तो कथाओं का ही विषय है। व्यवहार में तो, जिन घरों में हिरण्यकश्यप् नहीं हैं, वहां भी किसी-न-किसी बहाने से सन्तान प्रह्लाद का स्वांग खेलने के लिए उत्सुक रहती है। कुछ ऐसे भी मनचले हैं, जो ऐसी शिक्षाओं को असामयिक और प्राचीनकाल की दास-प्रथा का प्रतीक समझते हैं। बेटा बाप की आज्ञा क्यों माने? इस प्रकार के प्राचीन आचार-शास्त्र के बहुत-से छोटे-मोटे नियम हैं, जो आजकल गर्हित और भावी विकास के बाधक समझे जाते हैं। यूँ तो हर मानवी संस्था में समय-समय पर दोष आ जाया करते हैं और उनके सुधार की आवश्यकता होती है। यदि, संसार के सभी पिता हिरण्यकश्यप बन जाएँ तो, ऐसी संस्थाएँ भी प्रशंसा की दृष्टि से देखी जाएँगी, जो बालकों में प्रह्लाद की भावनाओं का प्रसार करें, क्योंकि परिवार का संगठन तो, तभी सुरक्षित रह सकता है, जब पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों। कोढ़ी माँ-बाप की सन्तान को उनसे अलग रक्खा जाता है, ताकि वह कोढ़ दूसरी पीढ़ी में न आ जाए। चोर और डाकुओं की सन्तान के भी पृथक्करण की आवश्यकता होती है, परन्तु ये तो अपवादमात्र हैं। यह साधारण जीवन का आचार-शास्त्र नहीं, अपितु आचार-सम्बन्धी हस्पतालों की नियमावली है, जो सामान्य जीवन से कुछ भिन्नता रखती है।

अच्छा! आइए पहले ‘अनुव्रत’ शब्द पर विचार करें। इसके लिए देखना यह है कि सृष्टिक्रम में सन्तानोत्पत्ति की व्यवस्था क्यों रखी गई? यदि कोई परिवार सन्तानहीन ही लुप्त हो जाए, तो क्या हानि है? और यदि एक क्षण में समस्त संसार नष्ट हो जाए तो, किसी का क्या बिगड़े? परन्तु, ये प्रश्न वहीं कर सकते हैं, जो जीव की स्वतन्त्र सत्ता और उसकी आवश्यकताओं पर विचार नहीं करते। परमात्मा ने यह सृष्टि, खेल के लिए नहीं बनाई। यह जीव के विकास के लिए बनाई गई है। दुर्गुणों से बचने और सद्गुणों को ग्रहण करने के लिए बनाई गई है। पशु-पक्षियों की बुद्धि इतनी कम है कि उनके आचार की व्यवस्था, ईश्वर ने सीधी अपने हाथ में रक्खी है। जैसे, बहुत छोटे बालकों पर बुद्धिमान् पिता, उनकी व्यवस्था का भार नहीं छोड़ता, परन्तु विद्वान् और परिपक्व सन्तान अपना विधान आप बनाने में स्वतन्त्र होती है। यही प्रथा पशु-पक्षियों की है। मधुमक्खी का छत्ता बनाने या बया को घोंसला बनाने के लिए किसी इंजीनियरिंग कालेज की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु, मनुष्य का बच्चा तो मुंह धोने का नियम भी सीखता है, अतः स्पष्ट है कि मानवजाति के लिए एक आचार-शास्त्र चाहिए, जो परम्परा से चालू रहे। इसी का नाम व्रत है। जब यज्ञोपवीत दिया जाता है, तो एक मन्त्र पढ़ते हैं-

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।

इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।।

यजुर्वेद १//५

अर्थ- मैं एक व्रत करता हूं। परमात्मा इस व्रत के पालने में मेरी सहायता करें। वह व्रत क्या है? असत्य का त्याग और असत्य का ग्रहण। आर्यसमाज के प्रवर्तक ने आर्यसमाज के नियमों में, इसीलिए, इस व्रत को विशेष स्थान दिया है। इस नियम पर प्रत्येक मनुष्य के विकास का आधार है। जिसने सत्य की खोज नहीं की, वह सत्य का पालन क्या करेगा? जो लोग ‘श्रद्धा’ का अर्थ लेते हैं- ‘‘सत्य की खोज से संकोच और प्रचलित प्रथाओं या गुरुजनों पर अन्धविश्वास’’, वे श्रद्धा शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैं। ‘श्रद्धा’ दो शब्दों से बनता है, ‘श्रत्’ अर्थात् सत्य और ‘धा’ अर्थात् धारण करना, अतः श्रद्धा का भी वही अर्थ है, जो ‘अनृतात् सत्यमुपैमि’ का। प्रत्येक बच्चे को यह व्रत लेना पड़ता है और यह आशा की जाती है कि आयुपर्यन्त इसका पालन करे। मानव जाति के कल्याण के लिए यह आवश्यक है और हर गृहस्थ को यह व्रत लेना चाहिए।

परन्तु यह परम्परा तो तभी चल सकती है, जब भावी सन्तान पूर्वजों के व्रत का आदर करे। इसलिए कहा कि पुत्र को पिता का ‘अनुव्रत’ होना चाहिए। यह दायभाग में सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जो कोई पिता अपने पुत्र के लिए या कोई आचार्य अपने शिष्य के लिए छोड़ सकता है। ‘अनुव्रत’ का प्रश्न तो, तभी उठेगा जब ‘व्रत’ होगा। माता-पिता के जो आचरण आकस्मिक या स्वाभाविकरूप से इस ‘व्रत’ के अन्तर्गत नहीं, वे अनुपालनीय भी नहीं। इसीलिए, गुरु उपदेश देता है कि हमारे जो-जो सुचरित हैं, वे ही पालनीय हैं, अन्य नहीं, व्यक्तिगत घटनाएं नहीं। अपितु, वैदिक दिशा-निर्देश ही प्रत्येक माता-पिता को करणीय और प्रत्येक पुत्र या पुत्री के लिए अनुकरणीय हैं।

अब ‘पुत्र’ शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। हर बच्चा जो उत्पन्न होता है, पुत्र कहलाने के योग्य नहीं, शास्त्र के विधान से उसको ‘पुत्र’ बनने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिए। पुत् नाम है नरक का। नरक से जो रक्षा करे, उसे पुत्र कहते हैं।

पुत्र के अन्तर्गत लड़के और लड़की के बच्चे  भी आते हैं, क्योंकि वे सब भी नरक से तारने वाले हैं।

यह नरक-त्राण क्या है, इस पर विचार करना चाहिए। पौराणिकों ने नरक को एक स्थान-विशेष माना है, जहाँ पापी लोग जाते हैं और यदि पुत्र मृतकों का श्राद्ध-तर्पण करता है, तो, उसके पितृगण नरक से छूटकर स्वर्ग में चले जाते हैं। यह बात वैदिक कर्मफल सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। फिर प्रश्न है कि पुत्र, पिता को नरक से कैसे छुड़ाता है?

एक दृष्टान्त लीजिए। आज, हमारे पुत्रों ने अपनी योग्यता से देश-देशान्तरों में वैदिकभाषा, वैदिक -संस्कृति का प्रचार कर दिया। जब हमने दूसरा जन्म लिया, तो ये परम्पराएँ उस जन्म में हमारी सहायक होंगी। यदि, हमारी सन्तान की भूलों से वैदिक-परम्पराएँ नष्ट हो गईं, तो हम ऐसी दुनिया में जन्म लेंगे, जो अवैदिक और प्रतिकूल होंगी, अतः हमें बड़ी कठिनाई होगी। यही नरक है।

स्वामी दयानन्द से पूर्व की सैकड़ों पीढ़ियों के लोग, यदि, यह बात समझते और अपने पूर्वजों के नरकत्राण की दृष्टि से वैदिक-धर्म का लोप न होते देते तो, स्वामी दयानन्द को फिर से वैदक-धर्म का जीर्णोद्धार करने का कष्ट न उठाना पड़ता और उनका जीवन आरम्भिक कक्षा की शिक्षा देने के स्थान पर, उच्च कक्षा की शिक्षा देने में काम आता। कल्पना कीजिए कि मैं मरकर अरब में पुनर्जन्म लूँ, तो वहां अवैदिक इस्लाम का प्रचार पाऊँगा और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के प्राबल्य के आधार पर, यदि वैदिक जीवन व्यतीत करना चाहूं, तो कितनी कठिनाई होगी! परन्तु यदि, इस पीढ़ी में वहां वैदिक धर्म का प्रचार हो जाए, तो मुझे कितनी सुविधा हो! वैदिक संस्कृति में पले हुए वैदिक व्रतों के व्रती पिताओं के पुत्रों का कर्त्तव्य है कि अपने पितृगण के भावी क्षेत्र को अनुकूल बनाने के लिए पिताओं के अनुव्रत हों। इस प्रकार, वे अपने और अपने पीछे आनेवालों के लिए क्षेत्र तैयार कर सकेंगे। व्यक्ति तो मर चुकते हैं, परन्तु संस्कृतियां बनी रहती हैं। कुलों की सन्तति, राज्यों की सन्तति, और धन-सम्पत्ति की सन्तति से कहीं मूल्यवाली है, संस्कृति की सन्तति। इसी संस्कृति को स्थिर या चिरस्थायी बनाने के हेतु हम सन्तान चाहते हैं। संस्कृति की सन्तति मुख्य चीज है, वही साध्य है और सन्तान उस सन्तति का साधन है।

अब कहा कि पुत्र को ‘‘मात्रा संमनाः’’ माता के समान मनवाला होना चाहिए। माता प्रेम की निधि है। माता से अधिक प्रेम, तो कोई करता ही नहीं और प्रेम एक प्रकार का गोंद है, जिससे अनैक्य में ऐक्य उत्पन्न होता है, स्वार्थ में परमार्थ आता है, दानवता में मानवता का संचार होता है, अतः अपने मानसिक विकास का सबसे बड़ा साधन है, माता के स्नेह को स्मरण रखना। माता का कृतज्ञ होना ही मनुष्य के आत्म-निर्माण की पहली सीढ़ी है।

मन्त्र के पिछले चरण में पत्नी के लिए उपदेश है कि पति के साथ मीठी और शान्तिप्रद वाणी बोले। पुरुष स्वभाव से कुछ कर्कश होता है और स्त्री का स्वभाव कोमल होता है। पुरुष दांत है, तो स्त्री जीभ है। जीभ और दांत का सामीप्य है। कर्कशता और कोमलता का सम्मिलन है। समस्त शरीर में जहां नर्म पेशियां हैं, वहां कठोर अस्थियां भी हैं। यदि हड्डियां ही होतीं, मांस नहीं होता, तो शरीर का व्यापार कैसे चलता? शरीर शरीर न होता, पत्थर की चट्टान होता और यदि पेशियां ही होतीं, यह ढांचा ही न होता, तो हम चल-फिर न पाते। अतः कठोर वस्तुओं को अपना धर्म पालने के लिए कोमल वस्तुओं के सामीप्य, सान्निध्य और सहायता की आवश्यकता है। मशीन को चालू रखने के लिए तेल की आवश्यकता होती है। गृहस्थ के जटिल जीवन में पत्नी अपनी मधुरवाणी से कर्कशता को कोमल बनाए रखती है। जब पति बाहर के व्यापार से थका-माँदा झुँझलाया हुआ, सायंकाल को घर लौटता है, तो पत्नी अपनी मधुर स्वागतकारिणी वाणी से सारी थकावट दूर कर देती है। पत्नी वस्तुतः पति की रक्षिका बन जाती है। यह आनन्द केवल वैवाहिक जीवन में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसीलिए पत्नी को ‘जाया’ कहा, न केवल इसलिए कि उससे पुत्र उत्पन्न होगा, जो उसके कुल को स्थिर रखेगा, परन्तु, इसलिए भी कि पत्नी की मीठी बोली पति के लिए प्रतिदिन नये जीवन का संचार करती है।

सत्रहवां मंत्र

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

-ऋग्वेद १0//११७//३

अर्थ– मूर्ख आदमी मुफ्त का भोजन पाने का यत्न करता है, अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। जो व्यक्ति, अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता, उसका ऐसा करना नाश का ही कारण है। जो अकेला खानेवाला है, वह केवल पाप का भागी होता है। मैं सत्य कहता हूँ, अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचितमात्र भी सन्देह नहीं है।

व्याख्या– मनुष्य जीवन के दो बड़े विभाग हैं- एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्त्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य? यदि ऐसा है, तो मुख्य कौन है और गौण कौन? तुलसीदास का कहना है कि कर्म प्रधान है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर भी विचार कीजिए। आपका मन क्या गवाही देता है? आपने एक घोड़ा मोल लिया। उससे काम लेंगे और कुछ उसे भोजन देंगे। उसे कुछ करना है और कुछ भोगना है। आपको सवारी देना उसका कर्म है, दाना-घास खाना उसका भोग है। इन दोनों में से मुख्य कौन है और गौण कौन? आप चूंकि, भोजन देते हैं, इसलिए काम लेते हैं, अथवा काम लेते हैं, इसलिए, भोजन देते हैं। आपकी प्रथम भावना क्या थी और दूसरी भावना क्या हुई? आप कहेंगे कि हमको घोड़े से काम लेना था, इसलिए, हमें उसके खरीदने की इच्छा हुई और चूंकि, बिना भोजन दिये काम लेना असम्भव है, अतः उसको भोजन भी देते हैं। यदि, बिना भोजन दिए आप काम ले सकते, तो केवल उसके काम की ही परवाह करते, उसके खाने की नहीं। जो बेगार में काम कराते हैं, वे जानते हैं कि बेगारवाला, बिना भोजन के भी काम करने पर मजबूर होगा, इसलिए वे उसके भोजन की भी परवाह नहीं करते, अतः सिद्ध हुआ कि कर्म मुख्य है और भोग गौण। आवश्यक होते हुए भी उसकी आवश्यकता को प्रथमता नहीं दी जा सकती।

इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कहीं जा सकती है कि प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा न हो, तो कर्म नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है, अपितु, इसलिए कि उससे उसे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है, अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए, लोगों ने अर्थ को ही सर्वेपरि माना है।

यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक (शासन-तन्त्र) में इस प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है कि क्या एक अध्यापक, इसलिए अध्यापक कहलाता है कि वह अध्यापन का कार्य करता है, अथवा इसलिए कि वह अमुक वेतन पाता है? एक डाक्टर को आप, इसलिए डाक्टर कहते हैं कि वह डाक्टरी करता है, अथवा इसलिए कि वह इतना धन कमाता है? एक सैनिक का सैनिक नाम उसके कर्म के कारण हुआ अथवा उसके वेतन के कारण? यह तो ठीक है कि अध्यापक, वकील, सैनिक या डाक्टर सब जीविका उपार्जन करते हैं और जीविका के लिए ही काम करते हैं, परन्तु, यदि जीविका-उपार्जन को ही मुख्य माना जाए, तो सब एक-से होंगे, विशेषता न होगी तथा प्रत्येक का सम्मान, उसकी आर्थिक मात्रा के अनुसार होना चाहिए, परन्तु समाज का ऐसा नियम तो नहीं है। एक रोगी मनुष्य डाक्टर की खोज करता है, तो उसकी धनाढ्यता को न देखकर, उसकी डाक्टरी की योग्यता को देखता है। ऐसे डाक्टर को बुलाऊँ, जो डाक्टरी अच्छी कर सके। यह प्रवृत्ति तुलसीदास के ऊपर के कथन को पुष्ट करती है कि न केवल परमात्मा ने, अपितु, मानव समाज ने भी कर्म को भोग पर प्रधानता दी है।

जब इतना निश्चित हो गया, तो भोग को कर्म के अधीन रखना होगा, कर्म को भोग के अधीन नहीं। कर्म आधार है, भोग आधेय है। आधेय बिना आधार के ठहर नहीं सकता, इसलिए, वेदमन्त्र कहता है ‘‘मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेताः’’ अर्थात् मुफ्त का खाने की इच्छा करने वाला मूर्ख है। वह भोग को प्राथमिका देता है। यह बात सृष्टि नियम के विरुद्ध है। जिस अन्धेरनगरी में ‘टका सेर भाजी और टका सेर खाजा’ बिकता था, वह नगरी पूरी अन्धेरनगरी न थी। कुछ तो उजाला भी था। पूरी अन्धेरनगरी तो वह होती, जहाँ खाजा और भाजी मुफ्त मिला करती और टका कमाने की भी आवश्यकता न पड़ती। डाक्टर डाक्टरी सीखता भी इसीलिए है कि उसे पूर्ण विश्वास है कि जिस भोग की उसे आकांक्षा है, सृष्टि-क्रम उसको कर्म पर प्रधानता नहीं देता। मूल्य तो उसी चीज का दिया जाता है, जो मूल्यवान् हो। कपड़ा अपने मूल्य से बड़ा है। मूल्य का मूल्य भी कपड़े की अपेक्षा से है न कि मूल्य की अपेक्षा से। बिना कर्म के भोजन की इच्छा करना, परले दर्जे की मूर्खता है। जिस पुरुष को थोड़ी-सी भी बुद्धि है, वह ऐसी मूर्खता कभी नहीं करेगा। संसार को काम प्यारा है, चाम नहीं।

मुफ्त भोजन खाने की इच्छा विश्वव्यापी और संक्रामिक रोग है, जिसने मानवजाति को सबसे अधिक पीड़ित किया है। हर नर-नारी को इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है। यह मीठा विष है, जिसकी हानि को बुद्धिमान् मनुष्य ही सोच सकते हैं। जो इस रेाग में फँस गया, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। वह किसी भी प्रकार बच नहीं सकता।

इस कथन की तथ्यता पर थोड़ा-सा विचार कीजिए। मुफ्त खाकर अपने ऊपर परीक्षण कर लीजिए अथवा दूसरे मुफ्तखोरों के जीवन का निरीक्षण कीजिए। कुदरत को यह अभीष्ट नहीं कि मुफ्तखोरों को रहने दे। थोड़ी देर के लिए सहन अवश्य करती है, वह भी उतना ही जितना हर पाप को। वह मनुष्य को अवसर देती है कि यदि वह स्वयं ही अपनी भूल का अनुभव करे और सुधर जाए, तो अच्छा है, अन्यथा इसमें दण्डविधान तो काम करता ही है। माता-पिता अपनी सन्तान की निर्बलताओं को यथाशक्ति तथा अत्यन्त सहिष्णुता के साथ सहन करते हैं और बड़ी से बड़ी भूलों की उपेक्षा करते हैं, परन्तु निठल्ली सन्तान से, वे भी तंग आ जाते हैं और उनका स्वाभाविक प्रेम-तन्तु भी टूट जाता हैं। इसलिए, मुफ्तखोरी से बड़ा कोई पाप नहीं और सर्वथा नाश ही उस पाप का एकमात्र दण्ड या प्रायश्चित्त है। मनुष्य की स्वार्थसिद्धि भी तभी होती है, जब वह दूसरों के हित की बात सोचता है। व्यवसाय-जगत् पर दृष्टि डालिए। कोई व्यवसाय चल नहीं पाता, जब तक उसका आधार परार्थ न हो। कपड़े का व्यापारी दूसरों के हित को दृष्टि में रखकर कपड़े बनाता है। हलवाई दूसरों की रुचि को देखकर मिठाइयाँ बनाता है। आप जितना परहित को दृष्टि में रखकर व्यापार करेंगे, उसमें उतनी ही अधिक सफलता होगी। हर व्यवसाय के लिए प्रश्न रहता है कि उसके साफल्य के लिए बाजार चाहिए। ‘बाजार’ का क्या अर्थ? यही न कि जिस वस्तु को आप अपने स्वार्थ का साधन बनाना चाहते हैं, उसमें दूसरे मनुष्यों का कितना हित निहित है। इससे विदित होता है कि परोपकार आपका पहला कर्त्तव्य और ध्येय होना चाहिए।

परोपकार के दो रूप हैं। एक विनिमय अर्थात्, जो तुम्हारे साथ जितनी भलाई करे, उसका कम-से-कम उतना बदला, तो तुम दे ही दो। दस रुपये की चीज पाकर उसको दस रुपये अवश्य दो, अर्थात् ‘मोघं अन्न’ की प्राप्ति मत करो। मत समझो कि चार रुपये में दस का माल मिल गया, तो तुम लाभ में हो। ये मुफ्त के छह रुपये, जिसको तुम लाभ समझते हो, अन्त में तुम्हारे नाश का कारण सिद्ध होंगे। व्यवसाय में, जिसको चालाकी और धोखाधड़ी कहा जाता है, वह व्यवासय की अवनति का कारण होता है। जब सत्य के आधार पर समस्त जगत् की स्थिति है, तब व्यवसाय, जो जगत् का ही एक छोटा-सा-अंश है, असत्य पर कैसे टिक  सकता है? कहते हैं कि व्यापार की सफलता के लिए साख चाहिए। साख का अर्थ ही यह है कि लोगों को विश्वास हो कि तुम दस रुपये में पूरे दस का माल देते हो। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों में सत्य की बड़ी महिमा गाई गई है, परन्तु, दुर्भाग्यवश वह महिमा धर्म-ग्रन्थों और धर्म-उपदेशों तक ही सीमित है, व्यावहारिक-जीवन मे उसका प्रयोग बहुत कम है। मैं यहां एक ही उदाहरण दूंगा। डर्बन में मुझे एक सुन्दर कम्बल दिया गया। उसमें फैक्टरी की आर से एक चिट लगी थी, जिसमें लिखा था कि इस कम्बल में साठ प्रतिशत ऊन है, शेष रुई है। यदि भारतीय फैक्टरी होती, तो यह लिखा होता कि इसमें शत-प्रतिशत ऊन है। प्रसिद्धि है कि लंदन का कुंजड़ा, आपको स्पष्ट कह देगा कि अमुक सेब खट्टा है। क्या प्रयाग और काशी में भी ऐसे कुंजड़े मिलेंगे? सुना है कि इंग्लैण्ड आदि देशों में, दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि इतना दूध है और इतना पानी, क्योंकि पानी मिला दूध पचाने के लिए हलका समझा जाता है। क्या भारत में कोई हलवाई ऐसा करेगा?

परोपकार का दूसरा रूप है दान। जब आप मूल्य का विनिमय करते हैं, तो पूरा बदला नहीं दे पाते। पूरे दाम चुकाने पर भी, कुछ न कुछ रह ही जाता है। मनुष्य स्थूलरूप से तो दूसरों के परोपकार पर जीवित रहता ही है, परन्तु, बहुत-से परोक्ष, अदृष्ट और सूक्ष्म रूप हैं, जिनका परिगणन कठिन होता है, जैसे-आप किसी अन्धेरी सड़क पर जा रहे हैं, किसी पास के मकान से विद्युत्- दीपक की किरणें आ रही हैं, आप इसका मूल्य तो नहीं चुकाते, न मकान वाला आपसे विनिमय मांगता है, परन्तु आपको उससे लाभ अवश्य हुआ है। यहाँ दान का प्रश्न उठता है। यह परोक्ष लाभ भी मुफ्तखोरी होगी, यदि आप दान नहीं देते। इसीलिए, छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म के तीन स्कन्धों का निरुपण करते समय पहले स्कन्ध में दान को भी शामिल किया है, जो ‘मोघं अन्न’ के पाप से बचना चाहता है, उसे दान देना चाहिए, क्योंकि आपके भोगों में दूसरों की देन है। इसका बदला दान से ही हो सकता है। आपका दान सृष्टि के सूक्ष्म नियमों द्वारा उन तक भी पहुंच जाता है, जो आपसे अपने उपकारों का मूल्य नहीं मांगते। जो दान नहीं देता, उसके लिए वेद कहता है कि वह ‘‘नो अर्यमणं पुष्यति नो सखायं पुष्यति’’ अर्थात् वह अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता।

अन्त में वेदमन्त्र में, दान न देनेवाले मनुष्य की घोर निन्दा की है। ‘‘केवलाघो भवति केवलादी’’ जो अकेला खाता है, उसके पास अन्त में ‘पाप’ के सिवाय कुछ शेष नहीं रहता, अर्थात् उसके समस्त पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जब पुण्य क्षीण हो गये, तो सुख किसका मिले? पुण्य के क्षीण होते ही सुखों का भी क्षय हो जाता है।

अंगेजी की एक कहावत है- दान धन का नमक है (Charity is the salt of riches)। अंगे्रजी शब्द साल्ट का अर्थ है, नमक। नमक का अर्थ है, फलों को सुरक्षित रखने का साधन। जैसे, यदि आप नींबू या आम को कई महीनों तक सुरक्षित रखना चाहें तो, उसमें नमक मिलाकर आचार बना लो, नींबू या आम बिगडेगा नहीं। इसी प्रकार, यदि आप अपने धन की रक्षा करना चाहते हैं तो, दान देते रहिए। दान से धन घटता नहीं, बढ़ता है। दान उभयपक्षी हित है। इससे दान पानेवाले का तो हित होता ही है, दान देनेवाले का, उससे कम हित नहीं होता। इसलिए, यासकाचार्य ने दान देनेवाले की ‘देव’ संज्ञा की है। तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए।

अश्रद्धा और लज्जा से भी देने पर क्यों बल दिया गया? इसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी सात्त्विक भावनाओं की कमी होने पर यदि, मनुष्य किसी पाप की प्रवृत्ति में फँसने लगता है, तो, समाज का भय उसे दलदल में फिसलने से बचा लेता है और कालान्तर में उसकी सतोगुणी प्रवृत्ति लौट आती है। डूबते को तिनके का सहारा। अश्रद्धा से देते-देते भी, श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। अश्रद्धा और लज्जा से दिया हुआ दान भी दूसरों के उपकार में लगता ही है।

अथर्ववेद में अतिथि-सत्कार के सम्बन्ध में बहुत अच्छा उपदेश है, जो गृहस्थ अतिथि को बिना खिलाये, स्वयं खा लेता है, वह घरों की श्री को खा जाता है अर्थात् नष्ट कर देता है।

अर्थात् गृह की शोभा इसी में है कि हम अकेले न खाएँ।

अठारहवां मंत्र

अनच्छये तुरगातु जीवमेजद् ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्।

जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमत्र्यो मत्र्येना सयोनिः।।

-ऋग्वेद १//१६४//३0, अथर्ववेद १//१0//८

अर्थ– प्रकृति से बने हुए जड़ घरों के मध्य में न बदलने वाले जीव को चलायमान करता हुआ, बिना विलम्ब के समय पर सबको अनुप्राणित करता हुआ मैं, ईश्वर अन्तर्यामी-रूप से सोता अर्थात् ठहरता हूँ। जीव चेतनारहित जड़ जगत् की प्रकृतियों की सहायता से गतियुक्त होता है। न मरनेवाला जीव, मरण-धर्मवाले शरीर के साथ जन्म लेने वाला होता है।

व्याख्या– श्री सायणाचार्य इस मन्त्र के भाष्य के आदि में लिखते हैं- ‘अनेन देहस्य असारता जीवस्य नित्यत्वं च प्रतिपाद्यते’ – अर्थात् इस मन्त्र में देह की असारता जीव का नित्यत्व बताया गया है। इससे आर्यसमाज के इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों नित्य हैं।

प्रत्येक देह में तीन चीजें पाई जाती हैं। प्रथम, भौतिक शरीर, जो जड़ होने से स्वयं कुछ नहीं कर सकता, दूसरा, चेतन जीव जो शरीर को चलाता है। परन्तु, यह जीव भी स्वयमेव प्रत्येक गति पर अधिकार नहीं रखता। अल्प होने के कारण वह एक और महती शक्ति से प्रेरणा चाहता है। वह शक्ति है, परमेश्वर। मनुष्य अथवा पशु-पक्षियों के जितने शरीर हैं, वे सब ‘पस्त्य’, अर्थात घर हैं, अर्थात् चेष्टा, इन्द्रिय और अर्थ का आश्रय हैं। जीव बिना प्राकृतिक शरीरों की सहायता के कुछ नहीं कर सकता। जो गति होती है, वह शरीर में या शरीर की सहायता से होती है। जगत् के दो भाग किये हैं- स्थावर और जंगम, न चलनेवाला और चलनेवाला, अचर और चर। परन्तु, अचर जड़ शरीर चर-जीव से चरत्व को ग्रहण करके स्वयं चर जैसा बन जाता है। मेरे हाथ में जड़ कलम है। इस कलम में चरत्व नहीं, यदि, मैं इसे बक्से में बन्द करके अपने कमरे में रख दूं, तो सौ वर्ष पश्चात् भी वह वहीं की वहीं मिलेगी, एक इंच भी आगे न बढ़ेगी। यह न अंग्रेजी पढ़ी है, न हिन्दी, न संस्कृत। परन्तु, जब मैं अपना चरत्व इसे उधार दे देता हूं, तो इससे वाक्य-के-वाक्य ऐसे निकलते हैं, मानो यह कोई विदुषी हो। चर और अचर का परस्पर सहयोग कैसे होता है, इसके लिए सांख्यकारों ने एक दृष्टान्त दिया है। कहते हैं कि एक लंगड़ा है, चल नहीं सकता। दूसरा अन्धा है, देख नहीं सकता। दोनों यात्रा करने में असमर्थ हैं। लंगड़ा बोला, ‘‘भाई अन्धे, तेरे पैर हैं, आँखे नहीं। मेरे आँखे हैं, पैर नहीं। तू मुझे कंधे पर बिठा ले। मैं मार्ग देखता चलूंगा। तू मेरे बताये मार्ग पर पैरों से चलना। हम दोनों मिलकर यात्रा करेंगे।’’ जीव के आँखें हैं, पैर नहीं। प्रकृति के पैर हैं, आँखे नहीं। मेरी कलम हिन्दी नहीं जानती। वह कागज पर दौड़ सकती है, यदि कोई मार्ग-प्रदर्शक हो। मैंने अपना ज्ञान कलम को दिया। कलम ने अपनी चाल मुझे दी। दोनों ने मिलकर लेख पूरा कर दिया। समस्त चराचर की सम्पूर्ण चेष्टाओं की कहानी लंगड़े-अन्धे के सहयोग जैसी है। इसलिए, वेदमन्त्र कहता है कि जीव है तो ध्रुव, परन्तु, शरीर में आने से वह एजत् अर्थात् गतिवाला हो जाता है। सांख्यदर्शन में कपिल मुनि ने जगत् के विकास का यह क्रम दिया है- स्वधा अर्थात् प्रकृति से जब प्रपंच का आरम्भ होता है, तो प्रकृति अपने को महत्तत्व में बदल लेती है, अर्थात् प्रकृति का पहला परिणाम, प्रकृति और जीव का सम्पर्क है। लंगड़ा अन्धे की ओर और अन्धा लंगड़े की ओर आकर्षित हो रहा है। यह महान् कार्य है, अर्थात् जो महती सृष्टि बननेवाली है, उसका यह एक महान् आरम्भ है। लंगड़े के अन्धे की गर्दन पर सवार होते ही, अन्धे की आँखों में रोशनी-सी आने लगती है। इसी प्रकार महत्तत्व का अगला क्रम है, अहंकार। प्रकृति जड़ होने से उसमें अहं-भाव का लेशमात्र भी न था, परन्तु, जब जीव ने प्राकृतिक शरीर को ‘पस्त्य’ अर्थात् घर बना लिया, तो शरीर के हर एक अवयव में ‘मैं’ का भाव उत्पन्न हो गया। पैर में कांटा लगा नहीं और पैर चिल्लाया नहीं कि हाय मुझे घायल कर दिया। आँख कहने लगी, मैं देखती हूँ। जो प्रकृति, ‘मै-भाव’ से शून्य थी, वह ‘मैं-मैं’ चिल्लाती है- यह है अहंकार। पंचतन्मात्रा और पंचभूत भी तो इसी सहयोग के परिणाम हैं। आप पंचभूतों का नाम अलग-अलग गिनाते हैं, उनके गुण भी बताते हैं, परन्तु क्या आपने सोचा है कि गुण क्या चीज है? ‘गन्धवती’ पृथिवी। ‘गन्धवती’ का क्या अर्थ? क्या बिना नासिका के सूंघने का कोई अर्थ है? यदि जीवात्मा का, उस भौतिक गोलक से सम्पर्क न होता, जिसको आप नाक कहते हैं, तो ‘गन्ध’ शब्द निरर्थक ही था। पृथिवी तो थी, परन्तु कैसी थी? उसका लक्षण क्या था, या गुण क्या था इसका बोध तो जीवात्मा के सम्पर्क से ही हुआ। जड़ साइकिल पर जब आप चढ़ते हैं, तो साइकिल दौड़ने लगती है। आप जब इत्र को सूँघते हैं, तो इत्र का सुगन्ध उपलब्ध और अवगत हो जाता है। जब वीर्य का जड़ भाग चेतन आत्मा से संयुक्त होता है, तो विकास की गति का आरम्भ हो जाता है। वह माता के गर्भ में ही नहीं, अपितु जन्म के पश्चात् भी बराबर काम करता रहता है। जो लोग समझते हैं कि अण्डे में जीव नहीं होता, वे जीव के महत्तव को नहीं समझते। अण्डे में स्थूलशरीर चाहे न हो, परन्तु, भावी शरीर के समस्त अङ्ग सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहते हैं। अन्धा स्वयं नहीं चल रहा, लंगड़े की आँखों की सहायता से चल रहा है, अतः जीव के लिए -‘एजत्’- ‘चलानेवाला’ शब्द का प्रयोग हुआ है।

अब एक और प्रश्न उठता है। क्या पुरुष और प्रकृति, अर्थात् जीव और शरीर से ही काम चल जाएगा? क्या लंगड़ा और अन्धा मिलकर समस्त सृष्टि के समस्त प्रपंच की व्याख्या कर सकेंगे? ऐसा तो सम्भव प्रतीत नहीं होता। लंगड़े और अन्धे दोनों की शक्तियां परिमित हैं। चींटी  के शरीर में भी लंगड़े और अन्धे का सहयोग है, हाथी के शरीर में भी, साधारण बच्चे के शरीर में भी और एक ऋषि के शरीर में भी। वे स्वयं भी अल्प हैं और उनकी सामूहिक शक्तियाँ भी अल्प हैं। दोनों को एक तीसरी शक्ति की आकांक्षा है, जो उनके संयोग और वियोग को नियमित और शासित कर सके। न तो संयोग ही, केवल लंगड़े और अन्धे के अधीन है, न वियोग ही। लंगड़ा अंधे की गर्दन को छोड़ना नहीं चाहता, और अन्धे को भी कुछ मजा आ रहा है, क्योंकि लंगड़े की आँखों का प्रकाश उसको मिल रहा है, परन्तु वे स्वाधीन नहीं हैं। वेदमन्त्र में कहा है ‘‘अनत् शये तुरगातु’’ – इस संयोग-वियोग को समुचित और यथेष्ट रूप देने के लिए मैं, ईश्वर इन दोनों में व्यापक होकर इन दोनों को अनुप्राणित करता हूँ।

एक अग्नि, या एक वायु भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई पड़ते हैं, इसी प्रकार जगदीश्वर एक होता हुआ भी भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न जैसा प्रतीत होता है।

कठोपनिषद् के एक अध्याय में कहा गया है कि जीव केवल प्राण और अपान के सहारे नहीं जीते। इन दोनों को आश्रय देनेवाली एक और शक्ति है, जिसके सहारे प्राणी जीते हैं। यही शक्ति ईश्वर है, जो ‘अनत् शये’ सबको अनुप्राणित करती हुई स्थित है।

‘तुरगातु’ का अर्थ है, जल्दी जानेवाला, अर्थात् ईश्वर की अनुप्राणित करनेवाली शक्ति के संचार में कोई बाधा नहीं पड़ती। वह शीघ्र ही हर स्थान पर कार्य करती है, क्योंकि वह सर्वत्र शयन करती है, सर्वव्यापक है।

मन्त्र के अन्तिम दो चरणों में दो द्वन्द्व दिये हैं -जीव और मृत, तथा अमत्र्य और मत्र्य। जीव अमत्र्य हैं, इसका कभी नाश नहीं होता, यह अमृत है। अमृत का उलटा है मृत या मत्र्य अर्थात् शरीर। शरीर की विचित्रता यह है कि वह एक क्षण भी एक अवस्था में नहीं रहता। जीवन अविनाशी है। गीता के सबसे उत्कृष्ट श्लोक तो ये ही हैं-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।

-भगवद्गीता अध्याय २, श्लोक २३, २४

अर्थ– जीवात्मा को शस्त्र काटते नहीं, आग जलाती नहीं, जल गलाते नहीं, हवा सुखाती नहीं। न यह जीव काटा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न गलाया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है। ‘यह नित्य है’, हर कहीं जा सकता है। ठहरा हुआ है, अचल है और सनातन, अर्थात सदा रहनेवाला है।  

इसके विपरीत शरीर है। छोटी-सी सुई भी इसको काटने में समर्थ है। आग की छोटी-सी चिंगारी इसको जला सकती है। यह गल भी सकता है और सूख भी सकता है। यह मृत भी है और मत्र्य भी। न अचल है, न सनातन।

ऐसे दो सर्वथा भिन्न स्वभाव वाले चेतन, जीव और अचेतन शरीर का ‘संयोनिः’ अर्थात संयुक्त होना संसार की जटिलतम समस्याओं में से एक है। सम्पर्क भी ऐसा कि अत्यन्त घनिष्ठ। दार्शनिक संसार में यह एक क्लिष्टतम प्रश्न रहा है। बहुत-से दार्शनिक तो इस प्रश्न पर इतने मुग्ध हो जाते है कि वे अपने अमृतत्व को भूलकर जीवन के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर बैठते हैं। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध दार्शनिक ह्यूम  ने तो यहाँ तक कह दिया कि मुझे तो अपने शरीर में जीव का कोई अस्तित्व लक्षित नहीं होता। केवल परम्परा से चले आनेवाले व्यवहार के आधार पर मैं कह बैठता हूं कि ‘‘मै हूँ’’।

परन्तु चाहे दार्शनिकों की उलझनें सुलझें या न सुलझें, चाहे वे अपने कल्पित मापदण्डों द्वारा इनकी व्याख्या कर पाएँ या न कर पाएँ, तथ्य यही है कि अमर जीव नाशवान् शरीर में आकर काम करता है। ‘‘मृतस्य स्वधामि’’ का अर्थ है, इस मरणधर्मा शरीर के गुण-त्रय (सतोगुण, रजोगुण, तमागुण) के साथ मिलकर जीव अपना कार्य करता है।

श्राद्ध का अन्न तो जड़ शरीर के ही काम आ सकता है, न कि अमर और चेतन जीव के। मृतक श्राद्ध में जिस अन्न का नाम हम लोगों ने ‘स्वधा’ रक्खा है, वह सम्बन्धित जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। वह तो शरीरधारी ब्राह्मणों को ही खिलाया जाता है और उसकी वही गति होती है, जो नाशवान् शरीर की। स्वधा का वास्तविक अर्थ तो तीन गुणवाली प्रकृति है।

जीव का नाशवान शरीर से सम्पर्क होने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि शरीर अनावश्यक है, अथवा इसका सम्बन्ध कल्पित या स्वप्न के समान अतथ्य है। यदि ऐसा होता तो धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य, हिंसा-अहिंसा का प्रश्न न उठता। हालाँकि, बकरी का जीव भी अमर और अच्छेद्य है, परन्तु, बकरी का मारना यानि बकरी के शरीर को मारना हिंसा है, क्योंकि शरीर नाशवान् होते हुए भी जीव की जीवनयात्रा के लिए आवश्यक है। जीव मरता नहीं, शरीर मरता है। परन्तु, जीव के विकास में सहायक होकर मरता है। अनित्य पदार्थों का भी मूल्य है, वे निरर्थक नहीं हैं। शरीर की स्वधाएँ, जीव के व्यवहार में सहयोग देती हैं और अनादर के योग्य नहीं हैं। 

उन्नीसवां मंत्र

स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्य्याचन्द्रमसाविव।

पुनर्ददताध्नता जानता संगमेमहि।।

-ऋग्वेद मण्डल ५, सूक्त ५१, मन्त्र १५

अर्थ– हम लोग कल्याणकारी मार्ग पर चलें, जैसे सूर्य और चन्द्रमा चलते हैं। आदान-प्रदान करने वाले के साथ, हिंसा न करनेवाले के साथ, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने वाले के साथ संगति करें।

व्याख्या– इस वेदमन्त्र में उपदेश दिया गया है कि संसार के भिन्न भिन्न प्राणी अनेक प्रकार की असमानताएँ अथवा विशेषताएँ रखते हुए भी किस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं।

यह तो स्पष्ट ही है कि संसार की कोई दो वस्तुएँ एक-सी नहीं है। उनमें कुछ समता और कुछ विषमता अवश्य है। यदि कुछ भी विषमता न होती तो दो क्यों होती, एक ही होती। और यदि एक वस्तु होती, तो गिनती भी न होती। एक किसको कहते? एक शब्द का भाव ही दो, तीन, चार की अपेक्षा से है। यदि एक ही वस्तु होती, तो यह जगत, जिसमें हम रहते हैं, कैसा होता? हम नहीं जानते। हमारी आँखे उस प्रकार के जगत् को देखती नहीं। हमारी बुद्धि उसकी कल्पना नहीं कर सकती। हम जिस जगत् के अंश हैं, उसको हमने नहीं बनाया, परन्तु उसमें रहना अवश्य है और उसके गुप्त नियमों का निरीक्षण करके, अपने आचरणों का ठीक करना है।

हम सबकी यह प्रबल इच्छा रहती है कि हम कल्याणप्रद मार्ग पर चलें। कोई भी जान-बूझकर गलत रास्ते पर नहीं चलता और यदि उसे सन्देह हो जाए कि जिस मार्ग पर वह चल रहा है, वह ठीक नहीं तो झट रुक जाता है, और यदि निश्चत हो जाए कि वह मार्ग वस्तुतः गलत है तो, उसका परित्याग कर देता है। यह हम सबकी नैसर्गिक इच्छा है। ठीक मार्ग को ही ‘‘स्वस्ति पथ’’ कहते हैं, वही सीधा मार्ग है।

सीधे मार्ग के तीन लक्षण हैं, प्रथम उस पर चलकर उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच सकें। दूसरा, वह सरलतम हो, अर्थात् सबसे छोटा हो। गधा भी समझता है कि यदि सीधे मार्ग पर जा सकते हो तो, घूमकर दूर का मार्ग न पकड़ो। तीसरे, उस मार्ग पर चलना सुगम हो, कम-से-कम कठिनाई हो। सुगम और लघुतम मार्ग को भी छोड़ देते हैं, यदि उससे उद्दिष्ट लक्षय पर न पहुँच सकें। यदि मार्ग छोटा परन्तु, दुर्गम या कण्टकाकीर्ण हो, तो ऐसे मार्ग को छोड़कर लम्बा मार्ग लेना पड़ता है। इस तथ्य को मनुष्य के हृदय-पटल पर अंकित करने के लिए बहुत-से दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। इस वेदमन्त्र में जो दृष्टान्त दिया गया है, वह लौकिक भी है और वैज्ञानिक भी। वह है, सूर्य और चन्द्र के परस्पर सहयोग का।

चाँद और सूरज को हम नित्य देखते हैं। रात में चाँद चमकता है, दिन में सूर्य। सूर्य बहुत बड़ा है, चाँद बहुत छोटा है। हैं दोनों सितारे, जो आकाश में चमकते हैं। आपको ज्ञात होता कि सूर्य कितना बड़ा है? किसी खगोल-विद्या विशारद से पूछिए। पृथिवी को तो आप जानते ही हैं, यह पृथिवी है, अर्थात् प्रथित या फैली हुई। आप तो इसके एक छोटे-से अंश को ही देखते हैं। हममें करोड़ों में से एक होगा, जो पृथिवी की परिक्रमा कर आया है। पृथिवी बहुत बड़ी है। किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी पर खड़े हो जाइए और इधर-उधर दृष्टि दौड़ाइए, पृथिवी की विशालता का कुछ परिचय हो जाएगा। परन्तु, क्या आपको पता है कि सूर्य और पृथिवी के परिमाणों में क्या अनुपात है? यदि पृथिवी को चूरा करके एक गोला बनाएँ, और ऐसे तेरह लाख गोले इकट्ठे करके, फिर उन सबके चूरे को मिलाकर एक बड़ा गोला बनाएँ, तो वह गोला सूर्य के बराबर होगा। और चाँद! यह तो पृथिवी के गोले से बहुत छोटा है। इतना बड़ा सूर्य और इतना छोटा चाँद! इन दोनों के सहयोग से दिन-रात होते हैं। दिन और रात का होना, हमारे जीवन के लिए कितना हितकर है, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते, करने का यत्न भी नहीं करते, क्योंकि यह एक चिर-परिचित घटना है। बड़ी से बड़ी घटनाएँ यदि, सदा होती रहें तो, हमारा ध्यान उनकी ओर नहीं आता। जब ध्यान नहीं जाता, तो हम उससे उपदेश भी नहीं लेते। बड़े-से-बड़े उपदेष्टा के साथ रहनेवाले उनके नौकर उनके व्याख्यानों पर कभी ध्यान नहीं देते। इसी प्रकार, चाँद और सूर्य के सहयोग का दृष्टान्त जन-जागरण पर कोई प्रभाव नहीं डालता। इसीलिए, वेदमन्त्र द्वारा इस दृष्टान्त को देने की आवश्यकता हुई। बात बहुत छोटी है, सक्षम है, समीप है, फिर भी इतनी बड़ी है कि करोड़ों मनुष्यों ने कभी इस पर ध्यान ही नहीं दिया। इसकी आप परीक्षा कर लीजिए। जिन्होंने इस वेदमन्त्र को नहीं पढ़ा, उनसे पूछिए, कि सहयोग का सबसे अच्छा दृष्टान्त कौन-सा है? जो उत्तर मिलें, उनको इकट्ठा कर लीजिए। देखिए कि, कितने उत्तरों में सूर्य और चाँद का दृष्टान्त दिया गया है। वेद के उपदेशों की यह विशेषता है कि बात छोटी हो, परन्तु उसमें भाव बड़ा हो।

सूर्य और चन्द्रमा की आकाश की यात्राओं पर विचार कीजिए, आपको ये साथ चलते दिखाई नहीं पड़ते। जब सूर्य निकलता है तो, चाँद छिप जाता है, और जब चन्द्रदर्शन होते हैं तो, सूर्यदर्शन होना कठिन हो जाता है।

आप दिल्ली के जन्तरमन्तर में जाइए, और किसी विशेषज्ञ से प्रार्थना कीजिए कि वह यन्त्रों द्वारा आपको यह समझा दे कि सूर्य, पृथिवी और चाँद की चालें किस प्रकार होती हैं, दिन कैसे होता है। रात कैसे होती है, दिन-रात कैसे घटते-बढ़ते रहते हैं, ऋतु परिवर्तन कैसे होता है। पृथिवी के कुछ भाग अत्यन्त गरम और कुछ अत्यन्त ठण्डे क्यों है, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के निकट वर्ष के आधे भाग में निरन्तर दिन और दूसरे आधे भाग में निरन्तर रात क्यों होती है, तो आपको ‘सूर्याचन्द्रमसाविव’ का ठीक-ठीक अर्थ समझ में आ सकेगा, और यदि आप इस खगोल-सम्बन्धी दृश्य का मानव-समाज की चाल-ढाल से मुकाबला करें, तो आपको आश्चर्य होगा कि इन दोनों दृश्यों में कितना सादृश्य है। यदि, मनुष्य इस सादृश्य को समझ ले तो, सामाजिक विकास और सामाजिक उन्नति में कितनी सहायता मिल सकती है।

अब वेदमन्त्र यह दिखलाता है कि मनुष्य में क्या-क्या गुण होने चाहिएँ, जिनसे दूसरे लोग उससे आकर्षित होकर उसके साथ मिल सकें। मन्त्र में तीन गुणों का वर्णन है- ददता, अध्नता, जानता।    

(१) ददता, अर्थात् दानशील वाले के साथ। वेद में दानशीलता की महिमा स्थान-स्थान पर दिखाई गई है। ऋग्वेद में ‘दाशुष’ शब्द का कई स्थानों में इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रेम परमात्मा का सबसे प्रिय गुण है। भिन्न-भिन्न कोटियाँ तथा भिन्न-भिन्न भाँति की भक्तियाँ, इसी प्रेम का रूप हैं। वहीं मनुष्य ईश्वर का प्रियतम है, जो प्रेम करता है, और प्रेम का प्रमाण है, दानशीलता। दया भी दानशीलता का ही एक रूप है। जिससे आप प्रेम करते हैं, उसके साथ कुछ उपकार करना चाहते हैं, कुछ देना चाहते हैं और जिसको आप कुछ देते हैं, वह समझता है कि आप उससे प्यार करते हैं और वह आपकी ओर आकर्षित होता है। आकर्षण संगठन का हेतु है। लोहा चुम्बक की ओर खिंच आता है, क्योंकि चुम्बक अपनी शक्ति लोहे को प्रदान करके उसे चुम्बक जैसा बना देती है। दानी की ओर आकर्षित होना, प्रत्येक प्राणी के जीवन से प्रकट होता है। कुत्ते को कभी-कभी रोटी का एक टुकड़ा डाल दिया करो, वह हरदम आपके साथ रहने लगेगा। बच्चे को मिठाई दे दिया करो, वह अपनी माता की गोद छोड़कर, आपके पास आ जाएगा। जिसमें यह दानशीलता नहीं, उससे सब घृणा करने लगते हैं। यदि आप धनाढ्य हैं, तो धन का दान करें, यदि आप शक्तिसम्पन्न हैं, तो शक्ति का दान करें। यदि विद्या का धन आपके पास है, तो दूसरों को विद्या का दान दीजिए। इससे, आप में दैवी शक्तियों का संचार होगा और, आसुरी प्रवृत्तियां कम होंगी।

(२) दूसरा गुण है ‘अघ्नता’ अर्थात्, जो हिंसा न करता हो, उसके साथ हम जल्दी मिल सकते हैं। हिंसा क्या है? दूसरे के हित या कार्य में बाधक होना। आप नहीं चाहते कि आपके मार्ग में कोई रुकावट हो। रुकावट से आपको दुख होता है। प्रेम का परिणाम ही अहिंसा है। जिससे आप प्यार करते हैं, उसे आप कोई कष्ट नहीं देना चाहते। विश्वबन्धुत्व के लिए, अहिंसा परम आवश्यक गुण है। हिंसक प्राणियों से सभी दूर भागते हैं, और अहिंसक, हिंसकों को भी अपना साथी बना लेता है।

(३) तीसरा गुण है, ‘जानता’। एक-दूसरे को समझने का यत्न करें। समाज-निर्माण में सब से बड़ा विघ्न, न समझने के दोष से पड़ता है। १0 प्रतिशत झगड़े एक-दूसरे को न समझने के कारण होते हैं। पति-पत्नी प्रेम करने की इच्छा करते हुए भी शत्रु बन जाते हैं, क्योंकि वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न नहीं करते। भाई-भाई इसलिए, लड़ पड़ते हैं, क्योंकि वे एक -दूसरे को समझ नहीं पाते। दो देशों के निवासी एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझने के कारण घोर युद्ध कर बैठते हैं, जिसमें लाखों मनुष्यों का संहार हो जाता है। अतः वेद का यह उपदेश है कि समाज का सुदृढ़ निर्माण करना चाहते हो तो, एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का यत्न करो और यदि कोई भ्रान्ति हो जाए, तो उसे मिलकर दूर कर लो। यह सम्भव है कि आप दोनों के भावों में कोई भेद न हो। संसार के मनुष्य इतने बुरे नहीं होते, जितने प्रतीत होते हैं, हाँ, लोगों का दृष्टिकोण अलग-अलग होता है। बालकों की पाठ्यपुस्तकों में इसी दोष को स्पष्ट करने के लिए छह अन्धों और हाथी की कहानी गढ़ी गई है। कहते है कि छह अन्धे थे और, वे एक हाथी का वर्णन करने लगे। एक ने कहा- ‘‘हाथी पंखे के समान होता है’’, क्योंकि उसने हाथी के केवल कान टटोले थे। दूसरे ने कहा- ‘‘खम्भे के समान’’, क्योंकि उसने हाथी के चार पैर छुए थे। तीसरे ने सूंड टटोली थी, इसलिए, वह बोला कि हाथी लटकने वाली मोटी रस्सी के समान होता है। चौथा, जिसने हाथी की पीठ टटोली थी, कहने लगा, ‘‘भाई! तुम सब झूठे हो। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि हाथी एक सपाट चौकी के समान होता है। पांचवां बोला- ‘‘क्यों गप्पें मार रहे हो? हाथी कोई बड़ी भारी चीज नहीं है। एक हाथ भर की पतली रस्सी है’’, क्योंकि उसने केवल पूंछ टटोली थी। छठे ने हाथी के दांतों को टटोलकर कहा, ‘‘यह कड़ी-कड़ी नुकीली क्या चीज है? क्या इसी को हाथी कहते हैं, जिसके लिए ऐसा आश्चर्य किया जा रहा है?’’

हाथी की यह कहानी ऐसी प्रसिद्ध है कि, कई भाषाओं के कवियों ने इस पर कविताएँ रची हैं। वस्तुतः, छहों ठीक थे। उनके उत्तरों में भेद इसलिए था, कि उनके दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न थे। आप किसी विशाल भवन का, भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर फोटो लीजिए। एक ही भवन के भिन्न-भिन्न फोटो दिखाई पड़ेंगे। एक मनुष्य का फोटो भिन्न-भिन्न स्थानों से लिया जाए, तो उसमें भी भिन्नता होगी। ये सब दृष्टिकोणों की भिन्नताओं का खेल है। हम सब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होते हैं, अतः हमारा दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होता है, और हम छहों अन्धों के समान लड़ बैठते हैं। यदि कोई समाखा हमको समझा दे, कि बात एक ही है तो, हमारी भ्रान्ति दूर हो जाती है, अतः समाज-संगठन के लिए एक-दूसरे को समझना आवश्यक है।

छोटी बात पर बड़ी लड़ाइयाँ कैसे होती हैं, उसका एक निज उदाहरण देता हूँ। मेरे एक मित्र थे, कृषि विभाग के अध्यक्ष। उनके कृषि-परीक्षणालय में गन्ने बहुत अच्छे होते थे। एक दिन उनके एक देहाती सम्बन्धी आये। उन्होंने उनके लिये अच्छे गन्ने मँगाये और खाने के लिए कहा। वे उस समय अतिथि गृह (Drawing room) में बैठे थे, वहां बहुमूल्य दरियाँ बिछी हुई थीं। गन्ने की छोई फर्श को खराब न करे, इसलिए उन्होंने अतिथि महोदय के समक्ष एक टोकरी रख दी, कि खाते समय छोइयाँ, इसमें डाल दीजिए। अतिथि थे, गांव के रहनेवाले। उन्होंने इस प्रकार गन्ने चूसते कभी किसी को नहीं देखा था। वे बिगड़ गये और कहने लगे, ‘‘तुमने क्या मुझे बैल समझा है कि मेरे सामने टोकरी लाकर रख दी?’’ अध्यक्ष महोदय को लेने के देने पड़ गये। बहुत कुछ क्षमायाचना की, परन्तु, भ्रान्ति दूर न हुई। ऐसे उदाहरण बहुत से मिलेंगे। सभाओं के संगठन, तो इसी प्रकार टूटते हैं। अतः समाज-निर्माण के लिए दानशीलता, अहिंसा तथा एक दूसरे को समझने का यत्न करना आवश्यक है।

भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालिए। यह उदारता का अभाव ही था कि पृथिवीराज और जयचन्द में मनमुटाव होता गया और, वह मनमुटाव यहां तक बढ़ा, कि एक सहस्त्र वर्ष से उसके दुष्परिणाम मिटने पर नहीं आते।

भारतवर्ष में दान और अहिंसा दोनों गुणों का प्राचुर्य समझा जाता है। भारतीयों की दानशीलता के कारण ही, भारत के सशक्त हजारों और लाखों नर-नारी भिखमंगे बन रहे हैं। पवित्र तीर्थों और भिखमंगों का अटूट सम्बन्ध है। हजारों माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं कि किस प्रकार भीख मांगी जाती है। जब रेल गंगा या यमुना के पुल से गुजरती है, तो सैकड़ों यात्री जेबों से पैसे निकालकर नदीं में फेंकते हैं, इसको वे गुप्तदान समझते हैं। जब ग्रहण पड़ता है, तो मेहतरों को दान दिया जाता है, क्योंकि यह समझा जाता है, कि ये मेहतर लोग राहु और केतु की सन्तान हैं और इसलिए उनके पार्थिव उत्तराधिकारी हैं। इनको दान देने से चाँद या सूरज कैद से छूट सकेंगे। नागपंचमी के दिन नागों को दूध पिलाया जाता है, और जो इतना नहीं कर सकते, वे दीवारों पर सांप बनाकर उन पर दूध चढा़ते हैं। सोचना यह है कि, ऐसी दानशील और अहिंसक जाति का यथोचित संगठन क्यों नहीं हो पाता? इसका कारण यह है कि, हम वास्तविकता पर विचार नहीं करते? रोटी का चित्र देखने से भूख की निवृत्ति नहीं हो सकती। उस जाति को दानशील कैसे कहा जा सकता है जिसके ब्राह्मण सैकड़ों लोगों को नीच और अछूत कहकर, उनको विद्यादान नहीं दे सकते, या जिसके लखपति या करोड़पति अपना दान इस रूप में देते हैं कि दान लेनेवाले कभी अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य न बन पाएँ, और प्रतिदिन अपनी भूख दूर करने के लिए उनके दरवाजों पर हाथ फैलाते रहें। हमारी जातियाँ और उपजातियाँ दूसरों के मार्ग में  नित्य रोड़े अटकाती रहती हैं। धर्म का ढोंग, धर्म समझा जाता है। बड़े और छोटे का भाव, हर बात में पाया जाता है। यदि हम सूर्य और चाँद के समान अपना आचरण करें  तो, ये सब बुराइयाँ घट सकती हैं। वेदमन्त्रों के अध्ययन का, तो यही लाभ है कि हम उनके उपदेशों को, अपने दैनिक जीवन में लाने का यत्न करें।

बीसवां मंत्र

इन्धानास्त्वा शत हिम द्युमन्त  समिधीमहि।

वयस्वन्तो वयस्कृत सहस्वन्तः सहस्कृतम्।

अग्ने सपत्नदम्भनमदब्धासो अदाभ्यम्।

चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय।।

-यजुर्वेद अध्याय ३, मन्त्र १८

अर्थ– यज्ञ की अग्नि! जलते हुए हम, यज्ञ करने वाले लोग, तुम प्रकाशयुक्त को सौ वर्ष तक जलाएं। अन्न रखनेवाले हम लोग, अन्न पैदा करनेवाले, तुझको प्रज्वलित करें। बलवाले हम यज्ञकर्ता लोग, तुम बल पैदा करनेवाले को जलाते रहें। हे अग्नि! शत्रुओं को दमन करने वाले और किसी से हिंसित न होने वाले हम लोग, तुझको सौ साल तक जलाते रहें। विविध प्रकार के आश्चर्यजनक रुपों को धारण करनेवाले हे अग्निदेव! तेरे कल्याणप्रद पार को मैं पा सकूँ।

व्याख्या– इस वेदमन्त्र में, यज्ञ करनेवाले पुरुषों और यज्ञ के साधन अग्नि की योग्यताओं का वर्णन किया गया है, यज्ञकर्म भौतिक भी है, और अभौतिक भी। एक यज्ञ बाहर होता है। अग्नि जलती है और उसमें हवि डाली जाती है। यह तो यज्ञ का भौतिक रूप है। परन्तु, अग्नि में घी, कपूर, शक्कर या कपूरचकरी आदि पदार्थों के जलाने मात्र को ही यज्ञ नहीं कहते। जैसा यज्ञ बाहर हो रहा होता है, उसी के समानान्तर यज्ञ करनेवालों के अन्तरात्मा में भी होना चाहिए, तभी यज्ञ की पूर्ति होगी। अध्यात्म यज्ञ के बिना, यज्ञ अधूरा रहता है। बिना अध्यात्म यज्ञ के, अग्नि में हवियों को डालना, अग्निपूजा, अर्थात Fire Worship ही है, जो जड़-पूजा के समान है। यज्ञ का अर्थ, जड़-वस्तु की पूजा नहीं है। चेतन जीव, अचेतन की उपासना करके सुख प्राप्त नहीं कर सकता। याज्ञिकों को चाहिए, कि यज्ञ करने से पहले, अपने में कुछ योग्यताओं को धारण करें।

इसको आप, एक दृष्टान्त के द्वारा समझने की कोशिश कीजिए। आपका कोई प्यारा  बन्धु आपके घर आता है। आपका समस्त परिवार, विशेष सुख का अनुभव करता है। गृह-पत्नी भोजन तैयार करती है। भोजन बनाने की प्रत्येक क्रिया में, एक अपूर्व उत्साह होता है। भोजन तैयार होता है। आगन्तुक के समक्ष परोसा जाता है। देखने में तो, ये कुछ भौतिक क्रियाएँ हैं, परन्तु, यदि आप अपने मनों का निरीक्षण करें, तो हर क्रिया में एक विशेष अभौतिक तरंग ओत-प्रोत मिलेगी। जिस माता का पुत्र कईं वर्ष परदेश में काटकर घर को लौटे, और वह माता उसके सामने भोजन परोसे, तो उस माता का हृदय बताएगा कि बिछुड़े हुए पुत्र के सामने भोजन रखना शुष्क भौतिक क्रिया नहीं है। इसमें कई वर्षों के वियोग का दुख और पुनर्मिलन के सुख की कहानी छिपी हुई है।  परन्तु यदि, यही आगन्तुक अतिथि या पुत्र, बाजार में हलवाई की दुकान पर खाना खाये, तो सम्भव है कि भोजन अधिक दक्षता से बना हो, परन्तु, है वह बाहरी क्रिया। खरीदनेवाले ने पैसे फेंक दिये और हलवाई ने भोजन तोल दिया। हलवाई को पैसे मिल गये, और खानेवाले की उदर-तृप्ति हो गई। इसको प्रीति-भोज तो नहीं कहते। यह शुष्क ‘भोज’ है। ‘प्रीति’ का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हलवाई की दुकान पर उसका शत्रु भी आता और ठीक दाम देता, तो हलवाई उसको भी भोजन तोल देता। इसी प्रकार, यज्ञ की बात है।

याज्ञिक बाहर आग जलाता है, परन्तु बाहर आग जलाने से पूर्व उसके हृदय में, श्रद्धारुपी अग्नि जलनी चाहिए। इसलिए, वेदमन्त्र में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है कि हम जलते हुए लोग, तुझे जलाएँ। जिस प्रकार तू तेजामय है, हम भी तेजोमय हों। बाहरी अग्नि और भीतरी अग्नि, दोनों की ज्वालाएँ, समानान्तर रूप में जलनी चाहिएँ। जहाँ, याज्ञिक लोग, बिना भीतर की अग्नि को प्रज्वलित किये, केवल बाहर की अग्नि जलाते हैं, वे साधारण पाचक के समान हैं, जिन्हें केवल वेतन से प्रयोजन है। इसी प्रकार जो याज्ञिक, केवल दक्षिणा के लोभ में यज्ञ कराते हैं, उनको आध्यात्मिक लाभ तो होता ही नहीं, ऐसे याज्ञिक, यजमान का भी पूरा भला नहीं कर सकते। यह ठीक है कि यजमान का कर्त्तव्य है कि याज्ञिकों को दक्षिणा दे, परन्तु, इससे पूर्व याज्ञिकों के हृदय में यज्ञ के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। यह पहली योग्यता है, जो यज्ञ करनेवाले याज्ञिक और यज्ञ के साधन अग्नि में होनी चाहिए। यज्ञ के एक मन्त्र में कहा गया है, ‘‘सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’’। पूरी रीति से जलती हुई प्रकाशवाली अग्नि में शुद्ध घी की आहुति दीजिए, अधजली, धुएँ वाली अग्नि में नहीं। उससे घृत की आहुति का पूरा विश्लेषण न होगा और यज्ञ का पूरा लाभ भी न होगा, लेकिन उसी के साथ याज्ञिक का हृदय भी ‘‘सुसमिद्ध’’ होना चाहिए।     

अग्नि अन्न को उत्पन्न करती है। गरम देशों में अन्न अधिक उत्पन्न होता है। अतिशीत  प्रधान स्थानों में कुछ भी अन्न नहीं होता। यज्ञ को वैदिक शास्त्रों में, अन्न का उत्पादक माना जाता है। जहाँ यज्ञ अधिक होंगे, वहाँ अन्न भी अधिक उत्पन्न होगा। परन्तु, यज्ञ भी तो वहीं करेगा, जिसके पास अन्न है, अतः याज्ञिक लोग अपने को ‘‘वयस्वन्तः’’ कहते हैं। पृथिवी माता से गेहूं की प्रार्थना करनेवाला किसान पहले बीजरूप में गेहूं रख लेता है, तब कृषि की तैयारी करता है। यज्ञ भी एक कृषिकर्म है, यज्ञ है, बीज का बोना।

सहस्कृत् का अर्थ हुआ ‘‘बल को उत्पन्न करेवाला’’। याज्ञिक भी अपने को बलवाला कहता है। बलवान ही बल का मूल्य समझता है और वही अपने से अधिक बलशाली से बल की याचना करता है। निर्बल यज्ञ करने का अधिकारी नहीं। यज्ञ करने के लिए अपने शरीर और अपनी इन्द्रियों पर स्वामित्व होना आवश्यक है। आलसी लोग यज्ञ नहीं करते। वैदिक कार्यकलाप में कई प्रकार के यज्ञों का विधान आता है। उन सबमें बल की आवश्यकता होती है। हर प्रकार के बल की, शारीरिक बल की, मानसिक बल की और आत्मिक बल की। यज्ञ का आरम्भ भी बल से होता है और इसका परिणाम भी बल होता है। बलवान होकर बलवान अग्नि को प्रज्वलित करो, तुम्हारा बल बढेगा। यह तो एक प्रत्यक्ष बात है कि जो लोग नित्य यज्ञ करते हैं, उनको शुद्ध वायु मिलता है। शुद्ध वायु रोगों का नाशक होता है, शरीर को पुष्ट करता तथा बल को बढ़ाता है इसलिए, जो शत्रु का नाश कर सके और शत्रु जिसका नाश न कर सके, उसको अदाभ्य कहा। याज्ञिक को ‘अदब्धासः’ होना चाहिए। वह ऐसा प्रबल हो कि शत्रु नष्ट हो जाए, परन्तु शत्रु से उसको हानि की सम्भावना न हो। यज्ञ में रोग उत्पन्न करने वाले कृमि नष्ट हो जाते हैं। मानव जाति के शारीरिक स्वास्थ को ठीक रखने का यज्ञ सर्वोत्कृष्ट साधन है, परन्तु साथ ही यज्ञ करने में जिन मन्त्रों का प्रयोग होता है, उनका अर्थ समझने से यजमान और याज्ञिक सभी को मानसिक बल मिलता है, तथा आन्तरिक भावनाएँ शुद्ध होकर कुभावनाओं को फूलने-फलने का अवकाश नहीं मिलता। यज्ञ में घी की आहुतियाँ डालते समय एक मन्त्र का विनियोग  कर दिया गया है-

अत्यन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय

चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेधय स्वाहा।।

     

अर्थात् हे अग्ने! मैं जो घी की आहुति देता हूँ, यह हवि तेरा आत्मा है, इससे जल, बढ़ और हमको भी प्रज्वलित कर और बढ़ा। प्रजा द्वारा, पशुओं द्वारा, आत्म-ज्ञान द्वारा और अन्न आदि जीवनोपयोगी पदार्थों द्वारा। जब याज्ञिक इस मन्त्र की गूढ़ भावनाओं पर विचार करके मन्त्र का उच्चारण करता है, तो उसकी इच्छा-शक्ति और आत्मबल में संवृद्धि होती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कहा, ‘‘प्रसुव यज्ञं, प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।’’ ऐश्वर्य के लिए यज्ञ को प्रेरित कर’ और ‘‘वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु’’ परमात्मा वाणियों का पति या रक्षक है, वह हमारी वाणियों अर्थात् विद्या-प्राप्ति के साधनों को सम्पादित करे।  

अन्त का टुकड़ा बड़े महत्त्व का है। यज्ञ के जो गुण गिनाये, वे नमूना मात्र हैं। यह केवल यज्ञ के लाभों की झांकी मात्र है। ज्यों-ज्यों यज्ञ विशुद्ध होता जाएगा और याज्ञिक को आनन्द आने लगेगा, यज्ञ के अन्य लाभों की उपलब्धि होगी।

यह तो हुई, भौतिक अग्नि की बात। अग्नि नाम परमात्मा का भी है, और आध्यात्मिक यज्ञ का प्रेरक अग्नि नामवाला, ईश्वर ही है। जिस प्रकार भौतिक अग्नि ‘चित्रावसु’ है, उसी प्रकार ईश्वर भी चित्रावसु है। वस्तुतः भौतिक अग्नि भी तो, चित्रावसु के द्वारा उत्पन्न हुए विचित्र पदार्थों में से एक है, उसकी विचित्रता अपार है। ईश्वर के अपार आनन्द की थोड़ी-सी झलक पाकर, जीव उसका पार पाना चाहता है। जैसे, पक्षी उड़कर अनन्त आकाश का पार पाना चाहता है, उसकी अन्तिम सीमा तक पहुंच जाना चाहता है, परन्तु, आकाश तो अनन्त है, उसकी सीमा नहीं, अतः भरसक यत्न करने पर भी पक्षी थोड़ा-बहुत हाथ पैर मारकर थक कर बैठ रहता है, परन्तु उसकी उड़ान की इच्छा की तृप्ति नहीं होती। जीव भी जब परमात्मा के गुणों का चिन्तन करने लगता है, तो उसके ज्ञान की पिपासा बढ़ जाती है। वह जितना जानता है, उससे अधिक जानना चाहता है, जितना आनन्द भोगता है, उससे अधिक आनन्द की आकांक्षा होती है, अपार की अपारता में यही तो विशेषता है कि, पार पाने की प्रेरण बनी रहे, परन्तु पार मिले नहीं। परमात्मा पूर्ण है। जीव अपूर्ण और अल्प है। यदि जीव पूर्ण होता तो उसके जानने और करने के लिए क्या शेष रहता, और यदि अब पूर्ण हो जाए तो, आगे उसकी उन्नति रुक जाए, परन्तु न पार मिलता है, न पार खोजने की इच्छा ही समाप्त होती है, ऐसी परिस्थिति में जीव विचित्रता को लक्ष्य में रखकर यही कह सकता है कि ‘‘ते पारं अशीय’’, अर्थात मैं तेरा पार पा जाता!