खण्ड ९ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

मन्त्र के पहले भाग का शेष भाग से क्या सम्बन्ध है? इसको पूर्णतया समझ लेना चाहिये। इसकी उपेक्षा करने से मन्त्र का ठीक-ठीक आशय समझ में नहीं आ सकता।

उपासक को क्या करना है?

पहली प्रार्थना यह की गई कि-

‘पश्येम शरदः शतम्।’

अर्थात् सौ वर्ष पर्यन्त देखें। देखने का क्या अर्थ है? ज्ञान की प्राप्ति। हमारा उपास्य देव चक्षु अर्थात् देखनेवाला है। वह दूरदर्षी और दूरज्ञ है। हम भी ज्ञान की प्राप्ति करें, जिससे हम जान सकें कि हमको कितना मार्ग चलना है। सौ वर्ष, आयु की मध्यस्थ अवधि मानी गई है, कुछ न्यूनाधिक भी हो सकती है। परन्तु, हर मनुष्य की यह इच्छा और यत्नशीलता होनी चाहिये कि वह सौ वर्ष तक जीवित रहे, जिससे अपने कर्तव्य का पूर्णतया पालन कर सके। उसको जीवन से प्रेम होना चाहिये। मनुष्य संसार में मरने के लिए नहीं आया। यह ठीक है कि मृत्यु भी होती है। परन्तु, सृष्टि में उत्पन्न होने का प्रयोजन ‘जीवन’ है ‘मृत्यु’ नहीं। जब आप बाज़ार में जाते हैं तो जाने का विशेष प्रयोजन होता है। बाज़ार से लौटना, जाने का प्रयोजन नहीं है। वह केवल प्रयोजन-सिद्धि का सूचक है। इसलिए सबसे पहली चीज़ जो उपासक को समझनी है यह है कि ‘मृत्यु जीवन का उद्देश्य नहीं है।’

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जीवन की महत्ता समझकर ही मनुष्य जीवन से प्रेम कर सकता हैं, और महत्ता का बोध होने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। इसलिए, प्रार्थना की गई कि हम सौ वर्ष तक आँखें खोलकर देखते रहें। सब विद्याओं का उपार्जन करते रहें। अन्धे होकर जीना ठीक नहीं।

दूसरी प्रार्थना है-

‘जीवेम शरदः शतम्।’

अर्थात् सौ वर्ष तक जीते रहें।

कुछ लोगों को यह बात अनोखी प्रतीत होती है कि जीने की ‘प्रार्थना’ का नम्बर दूसरा क्यों? यह तो सबसे पहली प्रार्थना होनी चाहिये। यदि, जीवन ही न रहा तो विद्या-प्राप्ति का क्या अर्थ?

परन्तु, इस आशंका का समाधान तो बहुत सुगम है। हम पहले कह चुके हैं कि मनुष्य को दैव के हाथ का खिलौना नहीं बनना है। उसे कर्तव्य-पालन करना है। जब हम कहते हैं कि सौ वर्ष तक जीवित रहे, तो इसका अभिप्राय केवल साँस लेते रहने से नहीं है, अपितु, ज्ञानपूर्वक जीवन बिताना है। जीवन के उद्देश्य को पूरा करना ही जीवन है। जीवन का उद्देश्य बिना ज्ञान के पूरा नहीं होता।

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तीसरा प्रार्थना यह की गई कि-

‘श्रृणुयाम शरदः शतम्।’

अर्थात् सौ वर्ष तक सुने, अर्थात् हम बहरे न हो जायें।

इस प्रार्थना में भी एक रहस्य है। जब ‘पश्येम’ अर्थात् देखने की प्रार्थना के अन्तर्गत पाँचों इन्द्रियों का व्यापार आ चुका तो फिर सुनना अर्थात् श्रृणुयाम क्यों दुहराया गया? यहाँ सुनने से अभिप्राय प्रत्येक ध्वनि को ग्रहण करने से नहीं है। इस स्थान पर ‘श्रृणुयाम’ अर्थात् सुनें का पारिभाषिक प्रयोग हुआ है। ‘श्रुति’का अर्थ है ‘वेद’। मनुस्मृति में जहाँ धर्म के चार अंगों में ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ का उल्लेख है, वहाँ ‘श्रुति’ का अर्थ हर एक वाक्य नहीं अपितु ‘वेद’ है। वेद का सुनना अर्थात् श्रवण साधन भी है और साध्य भी। वेद के अध्ययन से सफल जीवन भी बिताया जा सकेगा और वेद के पढ़ने से ईश्वर का सान्निध्य भी प्राप्त होगा जो जीवन का मुख्य उद्देश्य है। वेद पढ़ने से वेद पढ़ने वाले का उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। उसका कर्तव्य हो जाता है कि साथ-ही साथ एक और इच्छा का प्रकाशन करें।

‘प्रब्रवाम शरदः शतम्।’

सौ वर्ष तक बोलते रहें, अर्थात् जो वेद हमने पढ़ा है, उसका दूसरों को उपदेश करते रहें। जो वेद का प्रकाश दान में मिला है, उसको बुझने न देना विद्वानों का कर्तव्य है। जब लोगों ने ‘प्रब्रवाम शरदः शतम्’ का पाठ भुला दिया, तो वैदिक सूर्य छिप गया। छोटे-छोटे मत-मतान्तर फैल गये, आध्यात्मिक अन्धकार ने संसार को घेर लिया। यदि, हम समझकर संध्या करते तो हमको अपने कर्तव्य के पालन की उत्कण्ठा होती।

कुछ लोग कहेंगे कि हममें इतनी योग्यता ही नहीं कि वेद को पढ़ सकें या दूसरों को पढ़ा सकें। परन्तु, वेद-मन्त्र कहता है कि परमात्मा ने हर मनुष्य के भीतर बीज-शक्ति रख दी है। उसको धीरे-धीरे बढ़ाया जा सकता है। मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्य भी कुछ-न-कुछ सीख सकता है या दूसरों को पढ़ा सकता है। शक्ति बढ़ाने से बढ़ती और उपेक्षा करने से घटती है। संध्या करने से यदि मनुष्य की बीज-शक्ति न बढ़ी तो ऐसी संध्या से वास्तविक लाभ नहीं। यदि, हम उपर्युक्त चार प्रार्थनाओं को ध्यान में रखेंगे अर्थात् सौ वर्ष तक ज्ञान की प्राप्ति करना, उस ज्ञान के फलस्वरुप सौ वर्ष तक वेद पढ़ना या सुनना, और सौ वर्ष तक दूसरों को पढ़ाना या सुनाना, तो हम पाँचवीं प्रार्थना करने के अधिकारी हो जायेंगे।

‘अदीनाः स्याम शरदः शतम्।’

अर्थात् सौ वर्ष अर्थात् आयु पर्यन्त तक अदीन रहें।

अदीन का अर्थ समझने में लोग भूल करते हैं। कुछ लोगों की धारणा है कि स्वतन्त्रता का अर्थ है कि हम किसी से सम्बन्ध न रक्खें। हमको किसी से क्या काम? सृष्टि का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि प्रत्येक का जीवन एक-दूसरे से सम्बद्ध है। अतएव, हम जगत् से सम्बन्ध-विच्छेद तो कर ही नहीं सकते। मनुष्य ‘स्वतन्त्र’ अर्थात् Independent होने के लिए नहीं बनाया गया और न परतन्त्र अर्थात् Dependent होने के लिए। मनुष्य बनाया गया है परस्परतन्त्र अर्थात् Interdependent होने के लिए। अर्थात् आप मुझसे सहायता चाहें और मैं आपसे। यदि मनुष्य में इस परस्परतन्त्रता की भावना उत्पन्न हो जाय तो दासता दूर हो जाय। विश्व-भ्रातृत्व अर्थात् Universal Brother-hood तो तभी सफल हो सकता है जब हर मनुष्य समझे कि उसका जीवन दूसरों के जीवनों पर आधारित है। संध्या का तत्व समझनेवाला किसी दूसरे को दास बनाने या रखने का यत्न न करेगा। वह अदीनता का मूल्य समझता है।

मन्त्र के अन्तिम भाग में प्रार्थना की गई है-

‘भूयश्च शरदः शतात्।’

अर्थात् सौ वर्ष से भी अधिक जीवित रहें।

ऊपर कह चुके हैं कि सौ वर्ष जीवन का औसत है। इससे भी अधिक जीवित रहना सम्भव है। यदि, जीवन व्यतीत करने के नियम वेदोपदेश के अनुकूल हैं, तो जीवन-काल बढ़ सकता है। परन्तु, इस मन्त्र में विशेष बात यह बताई गई है कि केवल सौ वर्ष की गणना ही पर्याप्त नहीं है। दीर्घायु के साथ वे पाँच शर्तें भी दी गई हैं, जो पाँच प्रार्थनाओं में वर्णित हैं। आयु का माप पृथिवी या सूर्य की गति से नहीं होनी चाहिये। प्रश्न यह नहीं है कि हम कितने वर्ष जीवित रहें। प्रश्न यह है कि इस जीवन में हमने अपने लिए क्या किया? और संसार के लिए क्या किया? किसी सिक्के का मोल उसके धातु के तोल पर निर्भर नहीं है? अपितु उन वस्तुओं की मात्रा पर है जो उस सिक्के के बदले बाजार में खरीदी जा सकती हैं। इसलिए वेद में उपदेश है कि सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीवित रहने की इच्छा करो। निठल्ले और काहिल के जीवन से तो मौत अच्छी! दीर्घायु का रहस्य साँसों की संख्या पर निर्भर नहीं है, अपितु कर्मों के बाहुल्य और महत्त्व पर।

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गायत्री

गायत्री मन्त्र इतना लाभप्रद है कि इसकी आवश्यकता आयु-भर बनी रहती है। इसलिए ‘गायत्री’ को महामन्त्र भी कहते हैं। उपासना में ‘गायत्री’ का विशेष स्थान है। संध्या अर्थात् सांयकाल और प्रातःकाल की उपासना गायत्री से आरम्भ होती और गायत्री पर समाप्त होती है। इसलिए गायत्री मन्त्र के अर्थों पर विचार करना चाहिये।

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उपासना में तीन बातें आवश्यक हैं। प्रथम, उपासक के उन गुणों का स्पष्ट अर्थात् विस्तृत वर्णन, जो उपासक के साथ विशेष सम्बन्ध रखते हैं। दूसरे, उपासक के हृदय में उपास्य के लिए प्रेम का भाव उत्पन्न हो, और वह उपासना के साथ निरन्तर बढ़ता जाय। तीसरे, उपासक को आध्यात्मिक उन्नति में सहायता मिले। गायत्री में ये तीनों गुण विद्यमान हैं। उपासना का प्रयोजन न तो उपास्यदेव की प्रसन्नता है न उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति। ईश्वर स्वयं ही आनन्दस्वरूप है। कोई उपासक उसके आनन्द में क्या वृद्धि कर सकता है? ईश्वर किसी वस्तु की इच्छा भी नहीं रखता। उसको किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। यदि कोई भी उसकी उपासना न करे तो ईश्वर की ईश्वरता में कोई न्यूनता न होगी। जो उपासक अपने ईश्वर को खिलाना, पिलाना या प्रसन्न करना चाहते हैं वे, उपासक के उच्च उद्देश्य को न समझकर खुशामदी बन जाते हैं। ऐसी उपासना ‘गायत्री’ की भावना के विरुद्ध है। बहुत-से उपासक तो ईश्वर को रिश्वत देने से भी नहीं झिझकते।गायत्री मन्त्र का सबसे बड़ा गुण यह है कि उपासक उपास्यदेव के गुणों को प्राप्त करने का सदा उत्सुक रहता है-

जो उपासक ईश्वर को दयालु कहता है, परन्तु, अपने हृदय में दया को स्थान नहीं देता और ईश्वर का नाम लेकर प्राणियों के गले पर छुरी चलाता है, वह उपासना का अर्थ समझने में धोखा खाता है। ईश्वर दयालु है। वह कदापि नहीं चाहता कि उसके उपासक दयाशून्य हो जायें । यदि उपासक इतना ही निर्दयी है, जितना अनुपासक, तो उपासना का लाभ ही क्या हुआ? संध्या एक साबुन है, जो मैले कपड़े को उजला बना देता है। जो उपासना साबुन की भाँति उपासक को शुद्ध नहीं कर सकती वह उपासना दूषित है।

‘गायत्री’ में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि वह हमारी बुद्धियों को प्रेरित और विकसित करे। मनुष्य और इतर प्राणियों में बुद्धि का ही भेद है- पशु बुद्धि-शून्य हैं, मनुष्य बुद्धिवाला है। बुद्धि की संवृद्धि से आत्मा की संवृद्धि होती है। इसलिए जो लोग समझते हैं कि उपासना के विषय में तर्क नहीं करना चाहिये और जो गुरु जी कहें उसको आँखें मींचकर मान लेना। चाहिये, वे भूले हुए हैं। ईश्वर का उपासक अनुपासक की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् होना चाहिये।

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नमस्कार मन्त्र

संध्या की समाप्ति नमस्कार-मन्त्र से होती है। सम्पूर्ण संध्या करते हुए मनुष्य का हृदय ईश्वर की महत्ता और दयालुता से इतना प्रभावित हो जाता है कि अनायास ही उसका मस्तिष्क परमात्मा के चरणों में झुक जाता है और उसके मुख से धन्यवाद के शब्द निकलने लगते हैं।

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इस मन्त्र में दो शब्द मुख्य हैं ‘शम्’ और ‘मयस्’। ‘शम्’ का अर्थ है ‘शान्ति’। ‘मयस्’ का अर्थ है ‘आनन्द’। शान्ति और आनन्द मस्तिष्कक प्रवृत्तियों अर्थात् Psychological tendencies के विचार से भिन्न-भिन्न हैं। परन्तु इन दोनों का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। जहाँ आनन्द है, वहाँ शान्ति अवश्य होगी।

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यह तो हुआ ईश्वर का निज स्वरूप। जब उपासक ईश्वर का ध्यान करता है तो उसके क्षोभ दूर हो जाते हैं। उसमें भी शान्ति और मयस् अर्थात् आनन्द का संचार होने लगता है। यह जीव का अपना गुण नहीं, ईश्वर- प्रदत्त है। यदि उसका अपना गुण होता तो उपासना की आवश्यकता न होती। इसलिए ‘शम्’और ‘मयस्’ का कर्त्ता हुआ ईश्वर। इसलिए उसको कहा शं जमा कर अर्थात् शंकर, मयस्क जमा र अर्थात् मयस्कर। अर्थात् ईश्वर न केवल स्वयं ही शान्त और आनन्दस्वरूप है, अपितु, उपासक को भी शान्त ओर आनन्दमय बना देता है। इसीलिए, उपासक बार-बार उसको नमस्कार करता है और कहता है कि आप ‘शिव’ अर्थात् कल्याण-प्रद हैं। ‘शिवतर’ अर्थात् अत्यन्त कल्याण के दाता हैं। आपसे अधिक कोई नहीं।

‘तुझको परम पिता! प्रणाम बार-बार हो।’