खण्ड ८ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)

अष्टम मन्त्र

                  अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

        युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम।।

                                                                        -यजुर्वेद 0//१६

हे अग्ने अर्थात् स्वप्रकाशज्ञान स्वरूप  सब जगत् को प्रकाश करने हारे, देव अर्थात् सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिससे, विद्वान् अर्थात् सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके अस्मान् अर्थात् हम लोगों को, राये अर्थात् विज्ञान व राज्यादि ऐश्वर्य  प्राप्ति के लिए, सुपथा अर्थात् अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से, विश्वानि अर्थात् सम्पूर्ण, वयुनानि अर्थात् प्रज्ञान और उत्तम कर्म न अर्थात्  प्राप्त कराईये और अस्मत् अर्थात् हमसे जुहुराणम् अर्थात् कुटिलता युक्त एनः अर्थात् पापरूप  कर्म को युयोधि अर्थात् दूर कीजिए इस कारण हम लोग ते अर्थात् आप की भूयिष्ठाम् अर्थात् बहुत प्रकार की स्तुतिरूप  उक्तिम् अर्थात् नम्रता पूर्वक प्रशंसा विधेम अर्थात् सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।

अर्थ के अनुसार हमें निम्न बातों को ध्यान में रखकर अपने जीवन निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने का सत्प्रयत्न करना चाहिए-

(क)    वह ईश्वर ज्ञानस्वरूप, प्रकाशदाता एवं सकल सुखदाता है।

(ख)   वह सम्पूर्ण विद्यायुक्त है। अतएव हमें विज्ञान, राज्यादि ऐश्वर्य (आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति) की प्राप्ति के लिए पूर्ण श्रेष्ठ ज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराने वाला है।

(ग)    उसी के सामर्थ्य, दया अथवा न्याय व्यवस्था से हम कुटिलता युक्त पापरूप कर्म से बचने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

(घ)    हमें सदैव स्तुति पूर्वक उसकी उपासना करनी चाहिए।

(ङ)    यही आनन्द में रहने का उत्तम उपाय है।

ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के प्रारम्भिक मन्त्र में दुर्गुणों को दूर करने की तथा भद्र प्राप्ति की प्रार्थना है, अन्तिम यह मन्त्र इस प्रार्थना को पूर्ण करने के उपाय के साथ वर्णित है। महर्षि ने इस मन्त्र के अर्थ में जो रस, आनन्द भर दिया है, वह प्रशंसनीय है। इसका रसास्वादन करके हम भी भक्ति भाव में निमज्जित हों। (हे) अग्ने देव विद्वान् अर्थात् स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप  सकल जगत को प्रकाश करने हारे, सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिससे सम्पूर्ण विद्या युक्त हैं।

उक्त अर्थानुसार अग्ने का अर्थ महर्षि ने ‘स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप सकल जगत् को प्रकाश करने हारे’ किया है, यह अर्थ अपने आप में पूर्ण व शास्त्रानुसार है। कतिपय विद्वान् अग्नि शब्द से मात्र भौतिक अग्नि को ही ग्रहण करते हैं किन्तु महर्षि ने ‘अग्नि’ से परमेश्वर अर्थ किया है। इसके लिए उन्होंने शास्त्रों के प्रमाण भी उपस्थित किये हैं-

                                              इन्द्रं मित्रसेमातरिश्वानमाहूः।             

– ऋग्वेद १//१६४//४६

ऋग्वेद वर्णित यह मन्त्र स्पष्ट ही यह बोध देता है, कि वह ईश्वर एक है किन्तु विद्वान लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं।

यजुर्वेद अ. ३२ का एक मन्त्र इस प्रकार है-

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः।

        तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपस्स प्रजापतिः।        

यजुर्वेद ३२//

यह मन्त्र भी परमेश्वर को अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा आदि नामों से वर्णित कर रहा है।

शतपथ ब्राह्मण के प्रमाण इस प्रकार है-

काण्ड एक अध्याय-५-‘ब्रह्म ह्मग्निः’ काण्ड ६ अध्याय २ -‘आत्मा वा अग्निः

काण्ड ९ अध्याय १-‘अयं वा अग्निः प्रजाश्च प्रजापतिश्च

‘मैत्र्युपनिषद् प्रपाठक ६ खण्ड ९-‘प्राणोऽग्निः परमात्मा

मनु-स्मृति अध्याय १२ श्लोक १२३ में वर्णित है-

                                   एतमेके -से- ब्रह्मशाश्वतम्।।                   

कुछ उस परमात्मा को अग्नि, दूसरे प्रजापति, अन्य-इन्द्र, इतर प्राण तथा कतिपय ब्रह्म नाम से जानते हैं।

श्री शंकराचार्य जी वेदान्त भाष्य १//२//२८ में लिखते हैं-

अग्निषब्दोऽप्यग्रणीत्वादियोग्राश्रयेण परमात्मविषयएवं भविष्यति अग्नि शब्द का निरुक्त के ‘अग्रणीर्भवति’के अनुसार परमात्मा ही अर्थ होगा। इत्यादि अनेक प्रमाणों के आधार पर महर्षि ने अग्नि शब्द को परमेश्वर अर्थ में वर्णित किया है, यह पूर्णतया उचित ही है। वहाँ  परमेश्वर स्वयं प्रकाशस्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप  है। उसे ज्ञान स्वरूप  कहकर ऋषि इस तथ्य को स्पष्ट करना चाहते हैं कि सृष्टि के आदि में समस्त ज्ञान को देने वाला परमात्मा ही है।

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‘देव’ का अर्थ भी महर्षि ने सकल सुखदाता परमेश्वर किया। विश्व की रचना, उसका पालन, उसका संहार सभी कल्याण देने वाले हैं। दाता तो सच्चा वही है। वह तो सुख के लए ही सब कुछ देता है, हम अपने अज्ञान से उसे दुःखमय कर लेते हैं।

विद्वान से तात्पर्य वह परमेश्वर सम्पूर्ण विद्यायुक्त वर्णित किया गया है। यह भी समीचीन है। वह सम्पूर्ण विद्या युक्त है तभी तो उससे प्रार्थना की जाती है-

                                                  मेधां में-से-ददातु में।                        

यजुर्वेद ३२//१५

वही परमात्मा -‘कविर्मनीषी’ है। अतः महर्षि ने विद्वान् का अर्थ जो ‘सम्पूर्ण विद्यायुक्त’ किया है वह उचित है।

अस्मान् राये सुपथा= हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से।

राये शब्द का अर्थ महर्षि ने ‘विज्ञान व राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति’ किया है। निघण्टु में ‘रायः धनं नाम’ धन अर्थ में पठित है। अतः रायः का अर्थ राज्यादि ऐश्वर्य तो समझ में आता है किन्तु विज्ञान अर्थ का आधार क्या है? श्री शंकराचार्य जी ने ‘राये’ का अर्थ ‘धनाय कर्मफलभोगाय’ किया है। यहां भी धन तो समझ में आता है। (निघण्टु के वचनानुसार।)

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सुपथा अर्थात् अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से। आप्त लोग ही श्रेष्ठ धर्म युक्त मार्ग पर चला करते हैं। आप्त के विषय में न्यायदर्शन अध्याय १ पाद १ सूत्र संख्या ७ की व्याख्या में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा, यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिया प्रयुक्त उपदेष्टा, साक्षात्करणमर्थस्याप्तितया प्रवर्त्त इत्याप्तः

अर्थात् जो साक्षात् सब पदार्थ विद्याओं का जानने वाला धर्मात्मा, आत्मा में जिस प्रकार का सत्यज्ञान है उसका सर्व कल्याणार्थ उपदेष्टा है तथा पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों का यथावत् ज्ञाता तदनुसार व्यवहार करना आप्ति कहलाता है। इस आप्ति से युक्त व्यवहार की प्रवृत्ति आप्त-प्रवृत्ति है। जो मनुष्य आप्त निर्दिष्ट मार्ग से चलता है वह उन्नति को प्राप्त होता है।

विश्वानि वयुनानि नय अर्थात् सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराईये। निघण्टु के अनुसार ‘वयुन इति प्रज्ञान नाम’ वयुन-प्रज्ञान, प्रकृष्ट ज्ञान, उत्तम ज्ञान तथा ज्ञानानुसार ही कर्म वयुन कहलाता है। प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि आप हमें सुपथ मार्ग पर ले चलें यह सुपथ मार्ग-विश्वानि   वयुनानि अर्थात् सम्पूर्ण श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति से सम्भव है। संसार में कुपथ भी है, सुपथ भी है। कुपथ अन्धकार का मार्ग है, सुपथ प्रकाश का मार्ग है। हमें सुपथ के मार्ग पर चलना चाहिए। मनु महाराज लिखते हैं-

         आपदां कथितः-से- तेन गम्यताम्।।

इन्द्रियों को संयमित न करना आपत्ति का मार्ग है, उसको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है। यह सम्पत्ति का मार्ग वयुन-प्रज्ञान से, श्रेष्ठ, उत्तम ज्ञान से प्रशस्त होता है।

अस्मत् जुहुराणमेनो युयोधि– हमसे जुहुराणम् अर्थात् कुटिलतायुक्त

एनः अर्थात् पाप कर्म को युयोधि अर्थात् दूर कीजिये।

हे प्रभो! हमसे इस संसार में चलते हुए अनेक विषय वासना युक्त पापकर्म हो जाते हैं। हममें कुटिलता का समावेश हो जाता है। आप सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् हैं अतः आपसे निवेदन करते हैं कि हमारे जुहुराणम् (हवृ कौटिल्ये) कुटिलतायुक्त कर्म को दूर कीजिये क्योंकि ये कुटिलतायुक्त कर्म एनः अर्थात् पाप हैं।

संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो कुटिलता युक्त कर्म करके नाना प्रकार के पापों का सञ्चय करके या पाप मार्ग में प्रवृत्त होकर धन कमाते हैं तथा अर्जित धन को स्वल्प मात्रा में दानादि में व्यय करके या अन्य हितकारी कार्यों में लगाकर पुण्य का अर्जन करना चाहते हैं। यह कार्य छल युक्त कहलाता है। छल संयुक्त कार्य कुटिल कार्य के अन्तर्गत आता है। दूसरे पाप कार्य द्वारा अर्जित धन अधिक होकर पाप वासना को प्रशस्त करता है-वासना बन्धन में डालती है।

यजुर्वेद अध्याय २0 मन्त्र १७ इस प्रकार है-

                             यद् ग्रामे-से-तस्यावयजनमसि।              

हम लोग जो गांव में (कृषि में) जो जंगल में (एकान्त में) जो सभा में (नगर में) जो मन में जो शूद्र में जो स्वामी या वैश्य में जो एक के ऊपर धर्म में (पारस्परिक व्यवहार में) जो अपराध या पाप करते हैं, हे भगवन्! आप उन सबसे हमें छुड़ाने में समर्थ हो।

उक्त मन्त्र प्रत्येक दशा में कुटिलता युक्त कर्मों को छोड़ने की प्रेरणा दे रहा है।

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ते भूयिष्ठां नम उक्तिम् विधेम अर्थात् आपकी बहुत प्रकार की स्तुतिरूप  नम्रतापूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सदा आनन्द में रहें।

यहां महर्षि ने ‘नम उक्तिम्’ का अर्थ नम्रतापूर्वक प्रशंसा किया है। धातुपाठ के अनुसार –णम्प्रहृत्वे शब्दे । नम का अर्थ नम्रता और शब्द करना है। नम्रता-झुकना, प्रणाम करना, आदर करना, सत्कार करना आदि अर्थ नम्रता में निहित है। उक्ति -कथन या प्रशंसा करना है। अतः महर्षि ने  परमेश्वर की स्तुति-‘गुण कीर्तनं नाम स्तुतिः’ गुणों का गान करेंगे तभी गुणों के प्रति श्रद्धाभाव, नम्रता का भाव जायेगा। अतः स्तुति के साथ गुणगान के साथ नम्रतापूर्वक उस परमेश्वर की प्रशंसा करनी चाहिए वह भी सदा करनी चाहिये, की प्रेरणा महर्षि ने दी है।

प्रश्न है यह सब क्यों करना चाहिए? इसका समाधान महर्षि के इस वचन में निहित है-‘सर्वदा आनन्द में रहे’। क्या कोई व्यक्ति सर्वदा आनन्द में रह सकता है? ऋषि की मान्यतानुसार व्यक्ति कुटिलता युक्त पाप कर्म को त्यागकर सुपथ पर चले और नित्य ईश्वर की उपासना भी करे तो सर्वदा आनन्द में रहता है।