खण्ड ७ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)

सप्तम मन्त्र

मन्त्र इस प्रकार है-

नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।     

– यजुर्वेद ३२//१0

इस मन्त्र का महर्षिकृत अर्थ इस प्रकार है-

हे मनुष्यो! सः अर्थात् वह परमात्मा, नः अर्थात् अपने लोगों का, बन्धुः अर्थात् भ्राता के समान सुखदायक, जनिता अर्थात् सकल जगत का उत्पादक, सः अर्थात् वह, विधाता अर्थात् सब कामों का पूर्ण करने हारा, विश्वा अर्थात् सम्पूर्ण, भुवनानि अर्थात् लोक मात्र और, धामानि अर्थात् नाम, स्थान, जन्मों को, वेद अर्थात् जानता है और, यत्र अर्थात् जिस, तृतीये अर्थात् सांसारिक सुख दुःख से रहित नित्यानन्द युक्त, धामन् अर्थात् मोक्षस्वरूप  धारण करने हारे परमात्मा में, अमृतम् अर्थात् मोक्ष को, आनशानाः अर्थात् प्राप्त होके, देवाः अर्थात् विद्वान लोग, अध्यैरयन्त अर्थात् स्वेच्छा पूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिल के सदा उसकी भक्ति करें।

मन्त्रार्थ में निम्न बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गया है-

१.      वह परमात्मा हमारा बन्धु-भ्राता के समान सुखदायक है।

२.      वह परमात्मा ही सकल जगत् का उत्पादक है।

३.      वह परमात्मा सब कामों का पूर्ण करने वाला है।

४.      वह परमात्मा सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम, स्थान, जन्मों को जानता है।

५.      उस परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छा पूर्वक विचरते हैं।

६.      वह परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है।

७.      हमें सदा उसी की भक्ति करनी चाहिए।

आईये, महर्षि कृत अर्थ-सौष्ठव पर विचार करें-

नो बन्धुः अर्थात् वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक है।

उणादि कोष १//१0 के अनुसार महर्षि दयानन्द बन्धु शब्द के अर्थ को इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं-

प्रेम्णा बध्नातीति बन्धुःसज्जनो वा’  जो प्रेमभाव से, स्नेह भाव से बन्धन में डालने वाला होता है, वह बन्धु होता है। हमारे अपने-अपने कर्मों के अनुसार इस शरीर के बन्धन में हमें डालने वाला वह हमारा बन्धु ही तो है। इस बन्धन में डालने का कारण उसका अपना कोई स्वार्थ भाव नहीं है, वह हमारे कल्याण के लिए ही, हमें सुख देने के लिए इस बन्धन में, शरीर के बन्धन में हमें डालता है। थोड़ा चिन्तन करें तो पता चल जायेगा कि शरीर निर्माण का सामर्थ्य बड़े वैज्ञानिक में नही है।

निश्चय से निर्माण करना, वह भी शरीर का निर्माण करना हमारे सामर्थ्य के बाहर है। स्थालीपुलाक न्यायानुसार केवल रसनेन्द्रिय को देखें विविध-मिष्ठ, तिक्त, कटु, कसैले आदि रसदायक पदार्थ न होते तो रसनेन्द्रिय से प्राप्त सुख से हम वंचित रहते यदि पदार्थ तो होते किन्तु ‘रसना’ नहीं होती या मिलती तो दोषयुक्त मिलती तो कैसे सुख मिलता? वह कैसा अद्भुत बन्धु है कि उसने मात्र शरीर ही नहीं अपितु मन-बुद्धि सहित ज्ञानेन्द्रियां व कर्मेन्द्रियाँ बनाई हैं। इनके द्वारा ही हम सांसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं, इनमें से किसी एक की न्यूनता का, कमी का चित्त में विचार करके देखें तो चित्त उद्विग्न हो उठेगा। निश्चय से वह परमात्मा सुखदायक है।

किसी भी प्रकार की आपत्ति के समय जो साथ देता है, सचेत करता है, सहयोग करता है वही बन्धु होता है। सत्य ही इस कसौटी पर एक मात्र वह परमात्मा ही हमारा बन्धु है। वह हमारे अत्यन्त निकट है किन्तु अज्ञानवश हम उसे देख नहीं पाते हैं, वह हमारे अत्यन्त निकट है, इतना निकट है कि उसे हम छोड़ना चाहें तो हम उसे छोड़ नहीं सकते हैं-

        अन्ति सन्तं पश्यति अन्ति सन्तं जहाति।  

-अथर्ववेद १०//८//३२

वह परमेश्वर तो सबको सदैव सुख देने वाला है। उससे सुख लेने की पात्रता हममें होनी चाहिए।

जनिता अर्थात् सकल जगत् का उत्पादक है।

वह परमपिता परमात्मा ही सकल जगत् का उत्पादक है। लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि जहां क्रिया है वहाँ कर्त्ता होना चाहिए, जहाँ नियम है वहाँ नियामक होना चाहिए, जहाँ व्यवस्था है वहाँ व्यवस्थापक का होना आवश्यक है। समस्त चेतन नहीं अपितु जड़ जगत् भी गतिशील है-पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, तारे, वायु, नदी आदि सभी तत्व क्रियाशील हैं, नियमित एवं व्यवस्थित क्रियाशील हैं। इनकी क्रियाशीलता, इनका उत्पादन मनुष्य -शक्ति से परे है, उसमें इतनी  सामर्थ्य ही नहीं कि वह यह सब उत्पादन कर सके। डाक्टर कहीं का भी हो, किसी भी देश का हो यदि नेत्र विशेषज्ञ होगा तो संसार स्थित सभी मानवों के समान विकार ग्रस्त नेत्रों की समान रूप में चिकित्सा करेगा। शल्य क्रिया (आपरेशन) विधि भी एक समान होगी आदि सभी बातें उस नियामक के नियम का ही बोध देती हैं। कहीं का भी उदर विशेषज्ञ चिकित्सक संसार स्थित किसी भी मानव के उदर की चिकित्सा कर सकता है आदि सभी बातें उस जनिता के, उत्पादक के रचना कौशल का परिचय देती है। सूर्य के उदय -अस्त का नियम, चन्द्रमा के विकास -ह्रास का नियम आदि सभी उसी नियामक को जनिता सिद्ध करते हैं।

सः विधाता अर्थात् वह सब कामों का पूर्ण करने हारा है।

वह परमात्मा विधाता है-विधान के अनुसार नियम के अनुसार सृष्टि रचना, सृष्टि संचालन या सृष्टि संरक्षण तथा सृष्टि संहर्त्ता होने के कारण वह विधाता है। यह सब कार्य नियमित व व्यवस्थित है। पक्षपात की गन्ध भी परमात्मा में नहीं होती है। इन सब कार्यों के द्वारा वह परमात्मा सम्पूर्ण जीवों के नियमानुसार ही कामों का पूर्ण करने हारा है। यह सब वह लोकहिताय ही करता है।

किसी-किसी को यह शंका होती है कि हमने धन की कामना से, पुत्र की कामना से या अन्य किसी कामना से ईश्वर की आराधना की किन्तु हमारी कामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। अतः वह सब कामों का पूर्ण करने वाला है, यह कथन निरर्थक है।

इस प्रश्न का उत्तर लोक व्यवहार से ही मिल जायेगा। धन सम्पन्न व्यक्ति का पुत्र अच्छी तरह जानता है कि मेरे पिता का इतना सामर्थ्य है कि वह धनादि से मेरी कामनाएँ पूर्ण कर सके। बस एक दिन पिता-पुत्र बाजार से जा रहे थे-रास्ते में चाट वाला दिखाई दिया, पुत्र ने चाट खाने की इच्छा प्रकट की। पिता खिलाने की सामर्थ्य भी रखता है किन्तु पिता बल पूर्वक मना कर देता है। कारण- पुत्र टायफायड के ज्वर से अभी ठीक हुआ है अभी उसकी कामना पूर्ण करना उसके लिए हानिकारक है। पुत्र अज्ञानतावश यह नहीं जानता है तथा यह कहता है मेरा पिता मेरी कामना पूर्ण करने में असमर्थ है, वह ‘दयाहीन है’ आदि पिता के प्रति उसके आक्षेप व्यर्थ और अज्ञानता के कारण हैं।

इसी प्रकार परमात्मा भी जानता है कि व्यक्ति की कौन सी कामना उसके हित की दृष्टि से पूर्ण करने योग्य है, कौन सी नहीं। वह सबको कर्मानुसार यथायोग्य फल देने वाला है। वह परमेश्वर (कर्मानुसार) सबके कामों का पूर्ण करने हारा है।

विश्वा भुवनानि धामानि वेद अर्थात् सम्पूर्ण लोक मात्र और नाम, स्थान, जन्मों को जानता है।

वह परमेश्वर सम्पूर्ण भुवनों अर्थात् भवन्ति भूतानि यस्मिन् तत् भुवनम्तानि भुवनानि अथवा भवतीति भुवनं लोको वा (उणादि २//८१) सम्पूर्ण लोकों का ज्ञात वही परमात्मा है।

वही परमात्मा धामानि अर्थात् नाम, स्थान, जन्मों को जानता है। लोक प्रचलित अर्थ में धामानि का अर्थ -स्थान होता है। प्रश्न है महर्षि ने धामानि के तीन अर्थ -नाम, स्थान, जन्म किस आधार पर किये हैं?

हमारी मान्यता यह है कि ऋषि कृत अर्थ में न्यूनता खोजने की अपेक्षा उसमें श्रद्धा भाव रखते हुए अन्वेषण और चिन्तन या मनन करना चाहिए। निरुक्त का वचन है-

‘धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि, नामानि, जन्मानीति

निरुक्त ९//२८

निरुक्त के उक्त वचनानुसार ही महर्षि ने धामानि का अर्थ, ‘नाम, स्थान, जन्मों को जानता है’ किया है । वह ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वान्तर्यामी है तथा सर्वज्ञ भी है। भला उससे क्या छिपा है, वह क्या नहीं जानता है तथा वह कहाँ नहीं है? वह तो सर्वान्तर्यामी है, सर्वज्ञ है तथा सर्वव्यापक है अत एव वह लोक मात्र और नाम, स्थान, जन्मों को जानता है। ऋग्वेद का वचन भी इस मन्त्र के अनुसार है-

                                    यो नःसेभुवना यन्त्यन्या।               

– ऋग्वेद ४२//१७//२७

वह कौन है जो हमारा पिता अर्थात् पालन करने वाला और जनिता अर्थात् उत्पन्न करने वाला है जो हमें विधाता अर्थात् उचित कार्यों में नियोजन करने वाला तथा धनादि का दाता है जो धामानि अर्थात् नाम, स्थान, जन्मों को सम्पूर्ण भुवनों को जानता है। जो अकेला ही सूर्यादि प्राकृतिक देवों का तथा चक्षु आदि इन्द्रियों का या विद्वानों का नाम रखने वाला है। अस्तित्व रखने वाली समस्त वस्तुएँ तथा विद्वान् उसके विषय में ही जिज्ञासाएँ करते हैं।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्ध्यैरयन्त अर्थात् जिस सांसारिक सुख-दुख से रहित नित्यानन्द युक्त मोक्षस्वरूप धारण करने हारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेछापूर्वक विचरते हैं।

जहाँ विद्वान लोग-‘विद्वांसो हि देवाः’के अनुसार जो विद्वान हैं, सद्विवेकी हैं, वे ही देव हैं, वे देव विवेक से संसार की वास्तविक स्थिति को जानते हैं। वे तृतीय धाम को जानते हैं, और उसी की कामना करते हैं। तृतीय धाम क्या है?

ऋषि के विचारानुसार सांसारिक दुख-सुख दो धाम हैं। संसार में दुःख व्यक्ति को भय ग्रस्त करके बन्धन में डालता है, सुख आसक्ति में डालकर बन्धन में डालता है। एक लोहे का पिंजरा या बेड़ी है तो दूसरी सोने की बेड़ी, दोनों को ही बन्धन जानकर इनसे ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। हमारे पाठक सोच रहे होंगे कि सुख को बन्धन कहना उचित नहीं है किन्तु महर्षि ने सांसारिक सुख को बन्धन ही कहा है।

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अतएव ‘सांसारिक सुख-दुःख से रहित’ कहकर महर्षि ने दो धामों से परे विद्वान लोगों को तृतीय धाम मोक्षस्वरूप परमात्मा में विचरण करना है। यह तृतीय धाम आनन्द युक्त नित्यानन्द युक्त परमात्मा में विचरण करना है। यह विचरण सदैव के लिए नहीं है। मोक्ष की भी अवधि है। सान्त (अन्त वाले) कर्मों का फल अनन्त नहीं होता है। अतः मोक्ष नित्य अर्थात् सदा के लिए नहीं अपितु एक लम्बे काल की अवधि के लिए है अधिक जानकारी के लिए ऋषि दयानन्द कृत ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का नवम समुल्लास का अध्ययन करना चाहिए।

आगे महर्षि ने उस परमात्मा को गुरु आचार्य, राजा और न्यायाधीश लिख कर उसी की भक्ति करने की प्रेरणा दी है। निस्सन्देह वह महान् होने के कारण गुरु है, आचरण की प्रेरणा देनेवाला होने के कारण आचार्य है, तेजस्वी होने के कारण वह राजा है, सबको यथावत् कर्मों का फल देने के कारण वह न्यायाधीश है। ऐसे महान् गुणों वाले परमात्मा की उपासना करना चाहिए, अन्य की नहीं।

यह मन्त्र बन्धुत्व के इस अहम् का विनाश करता है जो यह कहते हैं हम तुम्हारे सच्चे बन्धु हैं। सच्चा बन्धु तो एक मात्र वह परमपिता परमात्मा है।

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