खण्ड ५ (हवन के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

षष्ट सोपान-आघारावाज्यभागाहुति मन्त्र

ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।

इस मंत्र के उच्चारण के पश्चात पृथिवीस्थ अग्नि को घी की आहुति दी जाती है। यहाँ, घृत की आहुति प्रज्जवलित अग्नि की उत्तर दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर लगातार धार बांधकर देने का विधान है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! हम अग्नये ज्ञान प्राप्त कर आगे बढ़ने के लिए स्वाहा यह आहुति प्रदान करते हैं। यह ज्ञान स्वरूप परमात्मा के लिए है, यह मेरी नहीं।

ओम् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।

इस मंत्र से ‘सोम’ देवता को घी की आहुति दी जाती है।

औषधियों में स्थित रस को ‘सोम’ कहा जाता है। इसलिए, सोम के लिए दी जाने वाली आहुति का तात्पर्य औषधियों के रस की पुष्टता को बढ़ाना है।

इस मन्त्र की समाप्ति पर प्रज्जवलित अग्नि की दक्षिण दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर लगातार धार बांधकर आहुति देने का विधान है।

इन दोनों मंत्रों में आहुति देते समय धार की निरंतरता प्रतीकात्मक रूप से हमें चेताने के लिए है कि हमारे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ की निरंतरता टूटे नहीं।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! सोमाय शान्ति की प्राप्ति के लिये अथवा स्वभाव में सौम्यभाव के विकास के लिए यह आहुति प्रदान करते हैं। यह सोमस्वरूप परमात्मा की कृपा से है, यह मेरी नहीं।

 ओम् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतयेइदन्न मम।

इस मंत्र से ‘प्रजापति’ देवता को घी की आहुति दी जाती है। ब्राह्मण- ग्रंथों के अनुसार अव्यक्त देवता को ‘प्रजापति’ नाम से कहा जाता है। इस कारण जब भी ‘प्रजापति’ के लिए कोई आहुति दी जाती है, तो उसका उच्चारण न कर मौन रहा जाता है। ऐसा ‘प्रजापति’ देवता की अव्यक्तता का बोध कराने के लिए ही है, परन्तु आजकल की प्रथा के अनुसार इस मंत्र का उच्चारण करके ही आहुति दी जाती है।

इस मंत्र के उच्चारण के पश्चात जलती हुई अग्नि के मध्य में आहुति दी जाती है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! प्रजापतये-प्रजापति बनने के लिए आहुति प्रदान करते हैं। प्रजा पालक परमात्मा के लिए यह आहुति है। यह मेरी नहीं है।

आज्याहुति का अन्तिम मन्त्र है-

ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय इदन्न मम।

इस मंत्र के उच्चारण के पश्चात अन्तरिक्षस्थ अग्नि अर्थात विद्युत को घी की आहुति दी जाती है। आहुति जलती हुई अग्नि के मध्य में दी जाती है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! इन्द्राय अर्थात् ऐश्वर्य के लिए वास्तविक जीवन में इन्द्र बनने के लिए यह आहुति है। यह इन्द्र के लिए परमैश्वर्य सम्पन्न परमात्मा के लिए है। यह मेरी नहीं है अर्थात् यह परमेश्वर की कृपा से सम्भव हो सका है।

आत्म उन्नति की साधना में इन आहुतियों का विशेष महत्त्व है।

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प्रथम आहुति उत्तर भाग में श्चि से पूर्व की ओर क्यों?

ओम् अग्नये स्वाहा से उत्तर दिशा में प्रज्ज्वलित अग्नि में पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा पर्यन्त देने का विधान है। पश्चिम दिशा अन्धकार प्रधान दिशा है अर्थात् अज्ञान से ज्ञान प्रधान दिशा की ओर गति करनी है। प्रज्जवलित अग्नि चित्त में प्रज्जवलित संकल्पाग्नि की तीव्रता के लिए है। आघार- पिघले हुए घृत को निरन्तर धारा में डालना आघार कहलाता है। जिस प्रकार पिघले हुए घृत की निरन्तर धार अग्नि को तीव्र करती है, उसी प्रकार अज्ञान को दूर करने के लिए तपस्या की सतत् धारा आवश्यक है। ज्ञान प्राप्ति के लिए नियम-संयम की आवश्यकता है। नियम, संयम पूर्वक ज्ञानाग्नि को प्रज्जवलित करना ही तो तप है।

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ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा

-गीता ४//३७

गीता का वचन है कि ज्ञान की अग्नि से निष्काम कर्म करने की प्रवृत्ति बन जाती है निष्काम कर्म सर्वकर्मों की वासना को ही समाप्त कर देते हैं ।

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द्वितीय आहुति सोम अर्थात् शान्ति के संसार में यात्रा करने के लिए है। द्वितीय आहुति ब्रह्म, पितर, ज्ञानी जन के सहयोग से अन्तःकरण स्थित काम -क्रोधादि विकारों को शान्त करने के लिए है।

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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रतिदिन यज्ञ करते थे। उनके जीवन में तेजस्विता थी, वह तेजस्विता राक्षस भाव से सम्पन्न लोगों को विनाश के मार्ग पर ले जाती थी, किन्तु उसी यज्ञभाव से राम में वह सौम्यता भी थी, जो माता कैकयी के आदेश को मान कर वनवास के दुखों को सहन करने में सक्षम रही। तभी तो वे श्रीराम सामान्य जन के लिए भगवद् रूप हो गये।

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यह सौम्य भाव हमारे अन्दर हो। यह तभी हो सकता है जब ज्ञान को तेजस्विता के साथ अन्तःकरण स्थिति काम-क्रोधादि विकृत अन्धकार नष्ट हो। इसी व्रत के लिए यह द्वितीय आहुति है।

मध्य की दो आहुतियाँ

शेष दो आहुतियाँ (घृत की) मध्य में प्रज्जवलित अग्नि में समर्पित करने का विधान है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, आहुति साधन के रूप में जीवन की साधना के लिये है। चतुर्थ आहुति उद्देश्य की पूर्ति है।

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आर्यों की मर्यादा यही रही है कि संसार में रहें, ज्ञान अर्जित करें, धन अर्जित करें, स्वास्थ्य प्राप्त करें, सद्गुणों का विकास करें-यह सब प्रजा के जन-जन के कल्याण के लिए प्रदान करें। अत्यन्त त्याग अर्थात् संसार को ही छोड़कर भागना तथा अत्यधिक भोग-स्वमात्र स्वजिजीविषा भाव भी ‘इन्द्र’ ऐश्वर्य –मोक्ष प्राप्ति का मार्ग नहीं, अपितु मध्य मार्ग का अवलम्बन कर चलने का व्रत लेने के अर्थ में ही मध्य में आहुति देने का विधान है। मध्य में आहुति जीवन के केन्द्र परमानन्द की प्राप्ति के लिए इन्द्र-ऐश्वर्य-मोक्ष के लिये है।

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भयंकर गर्मी पड़ रही थी- लू के थपेड़े शरीर को सन्तप्त कर रहे थे। इस भयानक अवस्था में कुछ मजदूर पत्थर तोड़ रहे थे। एक महात्मा जी ने देखा एक व्यक्ति बड़े आवेश में, जोश में तेजी से पत्थर तोड़ रहा था। महात्मा जी ने स्नेह भाव से पूछा- भाई क्या कर रहे हो? उत्तर मिला- अन्धा है क्या देखता नहीं, पत्थर तोड़ रहा हूँ। महात्मा जी शान्त भाव से आगे बढ़े तो देखा उन्हीं भीषण परिस्थितियों में नीचे मुख किये उदासी के साथ एक अन्य मजदूर पत्थर तोड़ रहा था। महात्मा जी ने उससे भी पूछा- ‘भाई आप क्या कर रहे हैं?’ उसने बड़ी उदासी के साथ उत्तर दिया- ‘रोजी रोटी कमा रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ!’ महात्मा जी और आगे बढ़े तो देखा- उसी भीषण तपती धूप में लू के थपेड़ों में एक और मजदूर आनन्द -भाव के साथ गीत गाता हुआ पत्थर तोड़ रहा था। महात्मा जी ने उससे पूछा- ‘भाई क्या कर रहे हो?’ उसने बड़े आनन्द-भाव से मुस्कराते हुए उत्तर दिया- ‘भगवान् का मन्दिर बना रहा हूँ और क्या कर रहा हूँ?’

जीवन की ये तीन दशायें हैं- प्रथम आवेश भरा, क्रोध भरा जीवन। द्वितीयउपेक्षा भरा, उदासी भरा जीवन। तृतीयआनन्द भरा जीवन। हमारे पाठक इन तीन प्रकार के जीवन में से किस जीवन की प्रशंसा करेंगे? निश्चय से आनन्दयुक्त जीवन की, विषम परिस्थितियों में भी आनन्दमय जीवन की।

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ब्रह्मचारी का कर्तव्य है, ज्ञानार्जन- यही अग्नये स्वाहा है। गृहस्थ जीवन की सफलता सोम भाव में है, व्यवहार की सौम्यता में है, सोम नाम चन्द्रमा का है- चन्द्रमा जैसे अपनी किरणों के माध्यम से औषधियों, फलों में जीवन शक्ति एवं रस भर देता है, वैसे ही गृहस्थ अपने सरल सौम्य जीवन से सबको जीवन प्रदान करे, आनन्द प्रदान करे- यही सोमाय स्वाहा की सार्थकता है। वानप्रस्थ जीवन की सफलता प्रजा अर्थात् इन्द्रियों का स्वामी बनने में है, मन को संयमित कर इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनने के लिए ‘प्रजापतये स्वाहा’ की आहुति है। अन्तिम पड़ाव संन्यासाश्रम है। संन्यासी लक्ष्य को प्राप्त करता है। वह काम्य कर्मों का न्यास (त्याग) करता है-‘काम्यानां कर्मणां न्यासः इति संन्यास’। जिसकी कामनाएँ-आसक्ति समाप्त हो जाती है, वह बन्धन मुक्त हो मोक्ष मार्ग का पथिक हो जाता है। उसका जीवन तो विश्व-विजय का दम्भ रखने वाले राजाओं के आगे भी नहीं झुकता, बल्कि कह उठता है-

चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह।

जिसको कछु चाहिये वह शाहन का शाह।।

इस भाव को जागृत करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। इस प्रयास को बल मिले, संकल्प शक्ति शिथिल न हो, एतदर्थ यज्ञ करना चाहिये। आहुति देते हुए गृहीत संकल्प को निरन्तर अभ्यास से दृढ़ करना चाहिए। केवल मात्र वाणी से जोर शोर से मन्त्र मात्र बोलकर आहुति देने मात्र से आध्यात्मिक उन्नति का लाभ नहीं मिलता है। अतः अर्थ या भाव ज्ञान के साथ मन्त्रोच्चारण तथा तदनुकूल आचरण ही मोक्ष की ओर अग्रसर करने वाला है।

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संसार की समस्त वस्तुओं का दुरुपयोग या सदुपयोग हो सकता है। विष है, तलवार है, इसका प्रयोग मारने में हो सकता है या रक्षा करने में हो सकता है। अर्थात् ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति विवेक से संसार का भोग, मोक्ष के लिए करता है। अज्ञानी व्यक्ति अविवेक के कारण वासनाओं में लिप्त हो, इसी संसार में बन्धन को प्राप्त होता है।

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एक जादूगर होता है, जादू दिखाता है- एक फल के कई फल, एक रुपये के अनेक रुपये आदि-आदि जादू के खेल दिखाकर सभी को चकित करता है, प्रशंसा का पात्र होता है, किन्तु उस का अन्त क्या होता है? वह बिखरे हुए सामान को बटोर लेता है तथा झोले में से कटोरा निकाल लेता है और कहता है- दो आने, चार आने, आठ आने – भीख मांगता है।

हम जादूगर के समान संसार में धन का, वैभव का, कार-कोठी का चमत्कार मात्र न दिखाते रहें, अन्त में भिक्षुक न बनें, खाली हाथ फैलाकर न जावें, अपितु यज्ञीय भाव से संयुक्त होकर पुण्य का सञ्चय करें, धनादि का सदुपयोग करें, अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन को मोह या लोभवश बैंकों में जमा करके मात्र न जावें, अपितु उनके द्वारा पुण्य संचय करें। इसी भाव को बलवान् बनाने के लिये प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करें। अर्थ ज्ञान के साथ करें, सुन्दर उपादेय भाव को ग्रहण करके करें।

सप्तम सोपानप्रातः सायं आहुति मन्त्र

वेद और श्रोत गंन्थों के अनुसार सांयकाल की आहुतियों के पश्चात प्रातःकालीन आहुतियों को मिलाकर एक अग्निहोत्र माना जाता है और वहाँ अग्निहोत्र का प्रारम्भ सांयकाल की आहुतियों के साथ होता है। परन्तु, आज व्यवहार में हम देखते हैं कि प्रातःकालीन मंत्रों के पश्चात सांयकालीन मंत्रों को बोला जाता है। पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ भी व्यवहारिक क्रम के अनुसार ही पहले प्रातःकालीन मंत्रों के अर्थों को दिया जा रहा है-

प्रातः काल होम करने के मन्त्र

१ ओम् सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।। 

२ ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।।

३ ओम् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।।

४ ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या।

जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा।।

प्रातःकालीन होम के मंत्र व सायंकालीन के होम के मंत्र कुछेक शब्दों को छोड़कर एक जैसे ही हैं। वे शब्द हैं- सूर्य, अग्नि, वर्चः, ज्योतिः, रात्रि और उषसासूर्य का अर्थ भौतिक सूर्य भी होता है और ईश्वर भी। भौतिक सूर्य अपने प्रकाश से सबको प्रेरणा देता है। ईश्वर को सूर्य इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह सभी जड़ और चेतन पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानता है। अग्नि शब्द का अर्थ भी भौतिक अग्नि के साथ-साथ प्रसंगानुसार ईश्वर भी होता है। वर्चः – ज्ञान का आधार। ज्ञान का आधार भौतिक अग्नि भी है और परमेश्वर भी। ज्योतिः – क्योंकि भौतिक सूर्य पृथिवी आदि सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, इसलिए इसे ज्योतिः शब्द से कहा गया है। यह शब्द ईश्वर का भी विशेषण है। ईश्वर सभी आत्माओं को शरीर, इन्द्रियां आदि देके प्रकट अर्थात प्रकाशित करता है और वेद-ज्ञान के माध्यम से सभी जड़ और चेतन पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जनाता है। सायंकालीन के होम के मंत्रों में ‘रात्रि’ शब्द आया है और प्रातःकालीन होम के मंत्रों में उषसा शब्द आया है। रात्रि शब्द का अर्थ तो सामान्य ही है और उषसा शब्द का अर्थ है- भोर समय की उज्ज्वलता व लालिमा।इन मंत्रों का आध्यात्मिक अर्थ करते समय ‘सूर्य’ व ‘अग्नि’ शब्दों का अर्थ परमात्मा कर लिया जाता है। महाभारत -काल के उपरान्त डिण्डिम घोष के साथ अकेले महर्षि ने ही वेद मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थ को महत्त्व प्रदान किया। उनसे पूर्व तो भौतिक, मात्र भौतिक अर्थ की ही प्रधानता रही। सूर्य शब्द का अर्थ भी भौतिक दृष्टि से रहा। भौतिक अर्थ से सूर्य को इतना अधिक महत्त्व दिया गया कि परमेश्वर के स्थान पर सूर्योपासनादि का प्रचलन अधिक हुआ।
इन मंत्रों में आए कुछेक शब्दों का अर्थ नीचे दिया जा रहा है-
वेतु– प्राप्त कराना सजूः समान रूप से  जुषाणः अर्थात् बड़े प्रेम से इन्द्रवत्या विद्युत् स्वाहा जो मैं आहुति दे रहा हूँ, वह मेरी नहीं है। मैं ऐसा अपने मन से कह रहा हूँ।

भगवद्गीता का वचन है-

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।

यष्चन्द्रमसि यष्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।

-गीता १५//१२

जिस सूर्यगत तेज से सम्पूर्ण संसार प्रकाशित है जो तेज चन्द्रमा और अग्नि में है, वह तेज परमात्मा का है।

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ज्योति शब्द का अर्थ प्रकाश व परमेश्वर दोनों अर्थों में वैदिक वाङ्गमय में प्राप्त होता है।

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ज्योति शब्द के बाद मन्त्र में आये वर्च शब्द के अर्थ पर विचार करें तो पता चलेगा कि वर्च का अर्थ ज्ञान उचित है।

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सूर्य तेजस्वी है, उसका तेज-प्रकाश अपने लिए नहीं अपितु जन-जन के कल्याण के लिए है, याजक अपने जीवन में तेजस्विता धारण करें। ज्ञान की तेजस्विता, धन-बल की तेजस्विता या शारीरिक बल की तेजस्विता। ज्ञान, धन, बल ये तीनों तेजस्विता उसके अन्दर हों, पर ज्ञान विवाद के लिये, दम्भ के लिए न हो, धन बाह्याडम्बर के प्रदर्शनार्थ अभिमान जनक न हो तथा शारीरिक स्वास्थ्य दूसरों को पीडित करने के गर्व में लिप्त न हो। तीनों बल सबके कल्याण के लिए हों।

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किसी कवि का प्रसिद्ध वचन है-

उदेति सविता ताम्र ताम्र एवास्तमेति च।

सम्पत्तौ विपत्तौ महतामेकरूपता।।

सूर्य उदय काल तथा अस्त काल में लाल ही होता है उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को सुख-दुःख में सम अवस्था में रहना चाहिये, क्योंकि -‘चक्रनेमिक्रमेणसुखानि दुःखानि ’। सुख-दुःख तो कूप में से पानी निकालने वाले रहट के डिब्बों के समान हैं-भरते हैं, खाली होते हैं, फिर भरते हैं। सूख के दिन नहीं रहे तो दुःख के भी दिन नहीं रहेंगे। ‘सूर्योज्योति.’ की ये आहुतियाँ ‘स्थितधीः’ बनने के संकल्पार्थ हैं।

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सूर्य की किरणें मल शोषण का कार्य कर उसके दुर्गन्ध से रहित कर देती हैं। समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, कुरीतियां, अत्याचार, अनाचार आदि मलों का शोषण करने का व्रत याज्ञिक को ग्रहण करना चाहिए।

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सूर्य अपने प्रकाश से भुवन भर को आलोकित करता है। सूर्य प्रकाश सहित जागरण का सन्देश देता है। हमें अज्ञानालोक से सुप्त संसार को जगाना है। वेद का वचन है-

                       सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि।      

-अथर्ववेद १//१//४

हम वेद मार्ग पर अर्थात् ज्ञान के मार्ग पर चलें, ज्ञान विरुद्ध न चलें। वेद के इस वचन के आधार पर हमें जीवन पर्यन्त ज्ञान का प्रकाश फैलाने का संकल्प ग्रहण करना चाहिए।

सूर्य ज्योति में समत्व भाव भी प्राप्त होता है। धनी, निर्धन, प्रशंसक-निन्दक, रोगी-स्वस्थ आदि सभी को समान भाव से प्रकाश देता है।

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सांय कालिक होम के मन्त्र-

1. ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।

2. ओम् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा।

3. ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा।

4. ओं सजूर्देवेन सवित्र सजू रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा।

1. इस मंत्र में ‘अग्नि’ शब्द भी दो बार आया है और ‘ज्योति’ शब्द भी दो बार आया है। प्रथम बार जो ‘अग्नि’ शब्द आया है, उसका अर्थ है ईश्वर। प्रथम बार जो ‘ज्योति’ शब्द आया है, वह प्रथम बार आने वाले ‘अग्नि’ शब्द का विशेषण है। जो दूसरी बार ‘अग्नि’ शब्द आया है, उसका अर्थ है भौतिक अग्नि। इसी प्रकार, दूसरी बार आने वाला ‘ज्योति’ शब्द दूसरी बार आने वाले ‘अग्नि’ शब्द का विशेषण है। ‘ज्योति’ शब्द ईश्वर का विशेषण इसलिए है, क्योंकि ईश्वर सब वस्तुओं को प्रकट करता है अर्थात सब पदार्थ ईश्वर द्वारा उत्पन्न होने के पश्चात ही हमारे द्वारा जानने के योग्य बनते हैं। ‘ज्योति’ शब्द भौतिक अग्नि का विशेषण इसलिए है, क्योंकि अग्नि की सहायता से ही हम सब भौतिक वस्तुओं को जान पाते हैं। जो वाणी सत्य बोलने वाली है, उसको भी ‘स्वाहा’ शब्द से कहा जाता है।

2. अग्नि नामक ईश्वर विद्या का आधार है। इसी भांति भौतिक अग्नि का प्रकाश भी ज्ञान का आधार है। यदि हमारे चक्षुओं में भौतिक अग्नि का प्रकाश न हो, तो विद्या प्राप्ति के मार्ग में हमें बहुत अधिक क्षति पहुँचेगी। इसी सत्य को अपनी वाणी से कहने के लिए यह मंत्र है।

3. क्योंकि, तीसरा मंत्र पहले मंत्र की ही पुनःवृति है इसलिए इसे मौन रहकर देने का विधान है। अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए।

4. देव रूपी ईश्वर द्वारा उत्पन्न की गई भौतिक अग्नि, जो समान रूप से सभी पदार्थों का सेवन करती है और जो रात्रि से युक्त होके विद्युत् के रूप में रहती है, सभी को प्राप्त होती है। उस अग्नि में मैं आहुति दे रहा हूँ। यह आहुति मेरी नहीं है। इस मंत्र में आया ‘जुषाणः’ शब्द भी ‘सुजू’ शब्द की भांति अग्नि का विशेषण है, जिसका अर्थ है- प्रीति से व समान रूप से सेवन करना। सेवन करने के लिए प्रीति का होना आवश्यक होता है। प्रीति वाले को ही ‘जुषाणः’ शब्द से कहा जाता है। ईश्वर भी सबसे प्रीति करता हुआ सबके साथ न्याय का व्यवहार करता है। 

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भौतिक दृष्टि से प्रज्जवलित अग्नि पर आहुति देते हुए निम्न संकल्पों को आत्मसात् कर लें-

अग्नि की ज्वाला सदैव ऊर्ध्व गति वाली होती है आप किना ही प्रयत्न करें, उसकी ज्वालाएं कभी नीचे की ओर नहीं होती हैं। जब कभी हम सन्मार्ग पर अग्रसर होते हैं तभी हमको गिराने वाले अनेक आलोचक, निन्दक हमें अपने सन्मार्ग से हटाने का प्रयास करते हैं, किन्तु हमें अग्नि की ज्वाला के समान सदैव ऊपर उठना चाहिए। जीवन में अनेक बाधाएं आती हैं, हमारे मार्ग को अवरुद्ध कर देती हैं परन्तु हमें रुकना नहीं है।

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वेद का वचन है-

पृथिव्या अहुमुदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद् दिवमा रुहम्।

दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वज्र्योतिरगामहम्।।

-यजुर्वेद १७//६७

मैं पृथिवी से-शरीर से ऊपर उठकर अन्तरिक्ष में-अन्तःकरण की साधना में संलग्न हो जाऊँ। अन्तरिक्ष से -अन्तःकरण की साधना से द्युलोक में- ज्ञान के आलोक में विचरण करूँ फिर ज्ञानालोक से मोक्ष में-ब्रह्मानन्द प्राप्त कर लूँ।

अग्नि में मल शोधन की शक्ति है। मनु वर्णित प्रसिद्ध श्लोक है-

दह्मन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।

– मनु-स्मृति ६//७१

अग्नि में तपाने से जैसे धातुओं (सोना-चांदी आदि) के मल समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य को प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करना चाहिए कि मेरे अन्दर कोई दोष न रहे।

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तृतीय मन्त्र से मौन आहुति क्यों

वैदिक गवेषक श्री युधिष्ठिर सीमांसक जी ने अपनी ‘नित्य कर्म विधि’ में ‘जामित्व’ दोष से बचने के लिए मौन आहुति मानी है। प्रथम मन्त्र को पुनः उच्चारण करना जामित्व दोष कहलाता है।

प्रातः ‘सूर्यो ज्योति.’ की आहुति दिन में दृढ़ संकल्प के द्वारा आत्म -विकास के मार्ग पर चलने का व्रत है। सांयकाल सूर्य के अभाव में ‘अग्नि की तेजस्विता’ आत्म-विकास का संकल्प है किन्तु शयन काल में न सूर्य है, न अग्नि का बोध है, उस समय की संकल्प -साधना का अवलम्ब परमात्मा है। मेरा मन शान्त भाव से, बाह्य इन्द्रियों के शान्त रहने से या उनसे कार्य न होने से मौन होकर मन के शिव संकल्प के लिए प्रजापति को समर्पित होने के लिए यह मौनाहुति देता है। शयन काल में भी आत्म-विकास की साधना शिवत्व के भाव से युक्त रहे, इसी दृष्टि से मौन आहुति का विधान है।

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इस प्रकार इन मन्त्रों से आत्म-विकास, आत्म-ज्योति प्राप्त करने के लिए आहुतियों का विधान है। केवल आहुतियाँ दें, आत्मोन्नति की साधना का अभ्यास न हो तो ये आहुतियाँ धनादि के समान भौतिक लाभ ही दे सकेंगी। केवल भौतिक उन्नति जीवन का सही उद्देश्य नहीं है। भौतिक प्रगति साधन है, आत्म-विकास के लिए। आत्म-विकास के अभाव में मानव जीवन पशु जीवन है। इसलिए चतुर्थ मन्त्र में समान भाव से सवित्रा शब्द परमात्मा की प्रेरणा को ग्रहण करने के लिए है। दिन में उषसा इन्द्रवत्या-प्रकाश युक्त सूर्य से प्रेरणा ग्रहण करनी है एवं रात्रि में सूर्य के अभाव में रात्र्येन्द्रवत्या-रात्रि के प्रकाशदायक अग्नि के साथ प्रेरणा ग्रहण करनी है। दिन में ऐश्वर्य का अहं न हो रात्रि में विलासिता का अज्ञान न हो, यह संकल्प ग्रहण करना है। यह संकल्प जुषानः-(जुशी प्रीतिसेवनयोः) प्रेम से, सेवा भाव से परमेश्वर की अनुकम्पा को आत्मसात् करना है। मानव जीवन की सार्थकता इसी में है।