खण्ड ५ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

अघमर्षण (३)

अब इस क्रम के दूसरे मन्त्र पर विचार कीजिए। सृष्टि के कारणों में एक कारण ‘काल’ भी है। हम आज, कल, अब, तब आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। और हर शिक्षित या अशिक्षित पुरुष जानता है कि इन शब्दों के क्या अर्थ हैं? यदि मनुष्य को ‘काल’ की अनुभूति न हो, तो वह ‘अब’ ‘तब’ आदि शब्दों का प्रयोग न करे और भूत-कालिक, वर्त्तमान-कालिक और भविष्य-कालिक क्रियाओं का अर्थ भी न समझ सके। बच्चा भी जानता है कि ‘मैं गया था’ और ‘मैं जाऊँगा’ में क्या भेद है? काल की यह अनुभूति कैसे होती है? आपको अनुभव तो होता है, परन्तु अनुभवों के साधनों पर ध्यान नहीं देते। ज़रा घड़ी की ओर देखिये! आप कहते हैं कि आठ बजे लिखने बैठे थे। अब नौ बज गये, एक घण्टा हो गया। आपको इस घण्टे की अनुभूति है। आपने कैसे जाना कि एक घण्टा हो गया? आप कहेंगे कि घण्टे की सुई पहले आठ के चिन्ह पर थी, अब नौ के चिन्ह पर आ गई, अर्थात् आपने काल की अनुभूति का अनुमान घण्टे की सुई की गति से लगाया। यदि घण्टे की सुई ठहर जाती और अपनी चाल बन्द कर देती तो आपको ‘काल’ की अनुभूति न होती अथवा काल को जानने के लिए आपको किसी अन्य गतिशील वस्तु की सहायता लेनी पड़ती, जैसे धूप अमुक स्थान से चलकर अमुक स्थान तक पहुँच गई, अथवा कोई दूसरा काम इतना हो गया। यदि गति न हो तो काल की अनुभूति न हो।

इसी रहस्य को वेदमन्त्रों में बताया गया है, अर्थात् ‘समुद्रा-दर्णवादधि सम्वत्सरो अजायत’। अर्थात् ‘काल’ की अनुभूति सृष्टि की गतिशील वस्तुओं की प्रगति से होती है। पृथिवी अपनी कीली पर एक बार घूम जाती है, तो इसकी गति के माप को हम दिन कहते हैं।

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‘सम्वत्सर’का अर्थ है ‘दिन’, वर्ष नहीं। दिन अर्थात् वह काल जिसमें पृथ्वी एक बार अपनी कीली पर घूमती है। इसी काल को आगे चलकर ‘अहोरात्रि’ कहा है। ‘अहोरात्रि’ अर्थात् दिन और रात्रि मिलकर एक सम्वत्सर हुआ। यह व्याख्या मानवी कल्पना का परिणाम नहीं है, अपितु ‘मिशतः वशी’ परमात्मा ने इसको स्थापित किया है, और वही इसको चलाता है। ‘मिशतः’ सम्बन्धकारक (षष्ठी) है। जगत् की वस्तुओं के दो भाग हैं-एक जड़, ज्ञान-शून्य या अचर, दूसरा चेतन, ज्ञान-वाला या चर। ‘मिशतः’ का अर्थ है चेतन, प्राणी। ‘वशी’ का अर्थ है व्यवस्था को वश में रखनेवाला। परमात्मा जड़ और चेतन दोनों को वश में रखता है। परन्तु चेतन वस्तुओं को ‘वश’ में रखना कठिन है। जड़-जगत तो व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं करता, परन्तु चेतन वस्तुएँ, तो निरन्तर कुछ न कुछ हस्तक्षेप किया ही करती हैं। बड़े-बड़े पत्थर के टुकड़े वश में किये जा सकते हैं, परन्तु मक्ख्यिाँ वश में नहीं आ सकतीं, क्योंकि वे चेतन होने के कारण सदा कुछ न कुछ किया ही करती हैं। आप पत्थरों को तोल सकते हैं, परन्तु मेंढकों को नहीं, क्योंकि मेंढक बिना चले नहीं रह सकते।

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वेदमन्त्र में परमात्मा को ‘मिशतः वशी’ अर्थात् चेतन वस्तुओं को वश में रखनेवाला बताया है। परमात्मा ने दिन-रात बनाकर चेतन जगत् के भीतर ‘काल’ की अनुभूति उत्पन्न कर दी। काल की अनुभूति ही क्रिया का ‘कारण’ है। जड़ जगत् के लिए ‘काल’ की अनुभूति का कोई अर्थ नहीं। उनमें किसी प्रकार की अनुभूति नहीं। घड़ी से आप समय देखते हैं। घड़ी को समय की अनुभूति नहीं। घड़ी उपयोगी है, परन्तु केवल चेतन जगत् के लिए क्योंकि, घड़ी उसकी क्रियाओं को एक व्यवस्था में बाँध देती है।

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वैदिक शिक्षा की एक विशेषता यह है कि वह ‘आकस्मिक रचना’ का खण्डन करता है। संसार में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाले भी बहुत हैं। परन्तु वे नहीं बता सकते कि ईश्वर ने इससे पहले भी कभी सृष्टि रची थी या यह ईश्वर की समस्त आयु में पहला ही परीक्षण है। और यदि पहले भी सृष्टि रचना की थी, तो वह इसी प्रकार की थी या इससे भिन्न? उस पहली सृष्टि का वर्त्तमान सृष्टि से कुछ सम्बन्ध भी था या नहीं? बुद्धिमान् मनुष्य के अतीत्, वर्त्तमान और भविष्य में होनेवाले कामों में एक सम्बन्ध होता है। आप भूत से भविष्यत् और भविष्यत् से भूत को जान सकते हैं। किसी मनुष्य को हिन्दी में पत्र लिखते देखकर मैं कह सकता हूँ कि इसने पहले हिन्दी पढ़ी होगी। इसी प्रकार जगत् की रचना को देखकर रचनेवाले के गुणों का ज्ञान होता है। जगत् की रचना जादू नहीं है जिसमें कारण और कार्य का सम्बन्ध न हो। यह सृष्टि और जादू में भेद है।

सुनार आभूषण बनाता है। इसका तात्पर्य यह है कि आभूषण के लिए उपादान कारण ‘सोना’ चाहिये। आभूषण बनाने के लिए ज्ञान होना चाहिये। आभूषण बनाने के लिए कुछ ‘काल’ भी होना चाहिये। यह है सृष्टि अथवा रचना। जादूगर के लिए न सोने की आवश्यकता है न समय की। वह यकायक अपने तमाशा देखनेवालों के सामने इस प्रकार व्यवहार करके दिखाता है मानो उसने बिना उपादान के, झट से आभूषण बना दिया। वृक्ष नहीं हैं और पके हुए आम के फल दिखा दिये। कपड़े नहीं हैं और कपड़े दीखने लगे। ईश्वर जादूगर नहीं है, वह बिना उपादान के कोई वस्तु नहीं बनाता। बिना काल के भी कोई वस्तु नहीं बनाता। ईश्वर मेंह बरसाता है। मेंह के लिए बादल चाहिये, बादलों के लिए भाप चाहिये, भाप के लिए पानी और गर्मी चाहिये, गर्मी और पानी से भाप बनाने के लिए कई महीने चाहियें। जो वर्षा श्रावण मास में होती है। उसकी रचना में कई मास लग जाते है। वैशाख और ज्येष्ठ में भाप बननी आरम्भ होती है और एक क्रम से। जादूगर जादू की मेज पर खाली जेब में से बिल्ली का बच्चा निकालकर दिखा सकता है, परन्तु ईश्वर की सृष्टि में बिल्ली का बच्चा उत्पन्न करने के लिए बिल्ली एवं बिल्ला भी चाहिये, दोनों का समागम भी चाहिये और बिल्ली के पेट में बच्चा बनने के लिए काल भी चाहिये।

वेद कहता है कि ईश्वर धाता या विधाता है, जादूगर नहीं। अन्य मतावलम्बी कहते हैं कि ईश्वर जादूगर है, बिना प्रकृति के क्षण-भर में सृष्टि बना देता है। यदि, चाहे तो, बाप के बिना सन्तान उत्पन्न कर दे, चाहे तो, कान में से बच्चा उत्पन्न कर दे, चाहे, नाक में से। पुराण आदि अनेक धर्म-ग्रन्थों में ऐसी कहानियाँ छपी हुई हैं। परन्तु, वेद की शिक्षा इसके विपरीत है। वेद का कथन है कि सृष्टि-रचना ईश्वर का स्वभाव है। वह सदा रचता रहा है और रचता रहेगा। और यह सृष्टि एक-सी होगी। मूलतः एक-सी होगी। गौण में कुछ भेद हो सकता है, केवल इतना मात्र कि मूल में अन्तर न पड़े।

आम के वृक्ष की जड़ें एक-सी होंगी। ऊपरी आकृति में कुछ भेद हो सकता है, जैसा कि एक दिन और दूसरे दिन में हो सकता है।

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यह ईश्वर का प्रथम परीक्षण नहीं है, यह उसका स्वभाव है। स्वभाव के लिए शिक्षा या परीक्षण की आवश्यकता नहीं।

परन्तु स्मरण रखना चाहिये कि अनन्त ईश्वर की सृष्टि सान्त नहीं है। ‘आदि और अन्त’ मानवी मन की कल्पना-मात्र है। सत्य तो यह है कि सत्-स्वरूप ईश्वर की कोई भी सीमा नहीं। न तो ईश्वर की कोई सीमा है न ईश्वर की सृष्टि की। अल्पज्ञ जीव सीमा की कल्पना करता है।

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मनसा परिक्रमा (१)

अब हम संध्या के तीसरे भाग को लेते हैं, अर्थात् परमात्मा के अस्तित्व को अपने मनुष्य-समाज में अनुभव करना। पहले भाग में हमने ‘पिण्ड’ से आरम्भ किया। हमारा शरीर और उसके अंग हमारे निकटतम पदार्थ हैं। हमको ज्ञात हुआ कि हमारे इस शरीर के अंगों में परमात्मा की गरिमा का प्रकाश होता है। यदि ईश्वर न होता, तो हमारे आँख, कान, नाक, हाथ, पैर आदि अपना काम न कर सकते।

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‘पिण्ड’ के पश्चात् ‘ब्रह्माण्ड’ की पारी आई। जो दृश्य हमने अपने शरीर में देखा वही अधिक विस्तार के साथ जगत् में दिखाई दिया। हमको अनुभव होने लगा कि जिधर दृष्टि दौड़ाते हैं, उधर ही परमात्मा के पराक्रमों का दर्शन होता है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में केवल इतना अन्तर था कि पिण्ड से हमारा व्यक्तिगत सम्बन्ध था। हमारी आँख केवल ‘हमारी’ थी, किसी अन्य मित्र या सम्बन्धी की न थी। परन्तु ब्रह्माण्ड में दूसरे जीवों का भी सम्बन्ध है? मनुष्यों का भी और पशु, पक्षी, कीट, पतंग का भी। हमारा यह दावा है कि आँख हमारी है। हमारा भाई भी इस आँख को अपनी नहीं बताता। परन्तु, सूर्य पर संसार भर का दावा है। एक राजा कह सकता है कि सूर्य मेरा है और उसके साथ ही उसके महल में रहनेवाला एक कुत्ता भी कह सकता है कि सूर्य मेरा है।

यही अनुभूति सामाजिक तथा नागरिक जीवन की आधारशिला है। नागरिकता का अर्थ यह है कि हम दूसरों के आदान-प्रदान के द्वारा अपने जीवन को व्यतीत करना सीखें।

हमारा अपनी जाति अर्थात् मनुष्यों से विशेष सम्बन्ध है। क्या मानव-समाज के आचार-व्यवहार में भी ईश्वर की अनुभूति का कोई उपयोग है? क्या हम ईश्वर का स्मरण करके अपने नागरिक जीवन को उच्च बना सकते हैं? क्या ईश्वर की उपेक्षा करके अपने नागरिक जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं? क्या ईश्वर के उपासक और नास्तिक दोनों का सामाजिक जीवन सफलता के साथ व्यतीत हो सकता है?

संध्या के तीसरे भाग में इस बात पर बल दिया गया है कि जिस प्रकार पिण्ड और ब्रह्माण्ड में ईश्वर की सत्ता का प्रकाश मिलता है, उसी प्रकार मानव-समाज में भी ईश्वर की महत्ता का प्रभाव मिलता है। मानव-समाज, में भी ईश्वर की महत्ता का प्रभाव मिलता है। मानव-समाज, समग्र जगत् का एक अंश है, परन्तु है महत्त्वपूर्ण अंग- दूध में घी के समान, फलों में रस के समान, शरीर में मस्तिष्क के समान।

पहाड़, नदी, पृथ्वी आदि से अधिक आश्चर्यजनक है कीट-पतंग का जीवन। हिमालय पर्वत से अधिक शिक्षाप्रद है हिमालय पर्वत के किसी भाग में रहनेवाले मच्छर या चूहे का जीवन। पहाड़ पत्थर है, मच्छर प्राणधारी है। पहाड़ ज्ञान-शून्य जड़ है, मच्छर चेतन है और चलता-फिरता तथा मनमाने कार्य करता है। समुद्र के जल से अधिक विचित्र छोटी-सी मछली है जो इधर से उधर दौड़ती-फिरती है और जिसकी चाल-ढाल से उसके मन की प्रवृत्ति का बोध होता है। परन्तु इन सब क्षुद्र पक्षी आदि से अधिक विचित्र और जटिल है मनुष्य-समाज, जो सृष्टि के बड़े-से बड़े कामों में हस्तक्षेप करके सृष्टि को अपने मस्तिष्क के ढाँचे में ढालना चाहता है। शेर, चीते, हाथी, हिरन सहस्रों वर्षों से जंगलों में रहते हैं। परन्तु उन्होंने जंगलों में कोई परिवर्तन नहीं किया, जबकि मनुष्य की सदैव यह उत्कण्ठा रही कि सृष्टि में कुछ-न-कुछ परिवर्तन करना चाहिये। वह सृष्टि के आरम्भ से यही करता आया है। जंगलों को काटना, नदियों पर पुल बनाना, पहाड़ों में गुफायें खोदना, नगरों को आबाद करना, नगरों को उजाड़ना, जल-डमरूमध्य को थल-डमरूमध्य और थल-डमरूमध्य को जल-डमरूमध्य बनाना, समुद्र की तरंगों को वश में करना। यह है मानवी मस्तिष्क का स्वभाव! और इस स्वभाव ने मानव-समाज के नागरिक जीवन में भाँति-भाँति की जटिलताएँ उत्पन्न कर दी हैं। आपस के झगड़े बढ़ते जाते हैं और इनका समाधान करने के लिए जो उपाय किये जाते हैं उनसे नागरिक जीवन और पेचीदा होता जाता है।

मनुष्यों में परस्पर झगड़े हुए। उनके लिए पंचायतें बनाई गई। फिर शासकों की ओर से न्यायालय स्थापित हुए। न्यायाधीशों को विधान की सीमा के भीतर रखने के लिए वकीलों का आविर्भाव हुआ। एक न्यायालय के ऊपर दूसरा न्यायालय आरोपित किया गया। तनिक सोचिये तो कितनी जटिलताएँ हैं। और इसका मूल कारण केवल एक है, अर्थात् सृष्टि की शक्तियों को वश में करने के लिए मनुष्य निरन्तर प्रयास किया करता है। यही मानवी मतों में भेद का कारण होता है, इसलिए परस्पर मुठभेड़ हो जाती है। कुदरत अथवा सृष्टि कहती है कि सब मिलकर रहो। विभिन्न धर्मों के उपदेशक भी यही कहते हैंऔर हर मनुष्य का हृदय भी यही कहता है कि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने का एकमात्र यही मार्ग है, परन्तु फिर भी मनुष्य इस नियम के उल्लंघन करने का यत्न करता है और इसको सुगमता से तोड़ डालता है।

प्रश्न यह है कि ईश्वर की उपासना से इन उलझनों में कुछ कमी हो सकती है या नहीं? यदि लोगों के हृदयों में भक्ति का भाव समा जाय, तो क्या मनुष्य के रहन-सहन में कुछ परिवर्तन हो सकता है? और यदि हो सकता है तो किस प्रकार?

मनुष्य का अनुभव क्या कहता है? बहुतों का मत है कि यदि ईश्वर-भक्तों का संसार से सर्वनाश कर दिया जाय तो मानव-समाज की आधी से अधिक कठिनाईयाँ दूर हो जायँ। ईश्वर के उपासकों की कमी नहीं है। मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों की इतनी भरमार है कि गिनना कठिन है। परन्तु हर एक मन्दिर, मस्जिद या गिरजा युद्ध-केन्द्र बना हुआ है। सबसे अधिक हृदय की संकीर्णता उपासनालयों में है। सबसे अधिक द्वेश फैलानेवाले धर्माध्यक्ष और धर्मोपदेशक हैं।

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तो क्या इस बुराई में कुछ कमी हो सकती है? हाँ, अवश्य । यदि हम यह अनुभव कर सकें कि मानव-समाज के रहन-सहन में केवल मानवी इच्छाओं का ही हाथ नहीं है, कोई और शक्ति भी है जो परोक्ष रूप से मानवी प्रवृत्तियों को वश में रखती है और मानवी स्वातन्त्र्य को एक सीमा के बाहर जाने नहीं देती। स्वातन्त्र्य पर भी नियन्त्रण है और संध्या करने से इस नियन्त्रण की पुष्टि होती है।

संध्या के तीसरे भाग में छः मन्त्र हैं और उनका नाम है ‘मनसा परिक्रमा’ अर्थात् विचार के रूप में मनुष्य का वातावरण पर ध्यान नियन्त्रित करना।

इन छः मन्त्रों में छः दिशाओं का वर्णन है- आगे, पीछे, दायें, बायें, नीचे, ऊपर। उपासक अपने मन में इन छः दिशाओं की परिक्रमा करता है और यह देखने का यत्न करता है कि परमात्मा की कौन-कौन सी शक्तियाँ उसकी सहायता कर रही हैं। प्राची अथवा सामने, दक्षिण अथवा दायें, प्रतीची अथवा पीछे, उदीची अथवा बायें, ध्रुवा अथवा नीचे, उर्ध्वा अथवा ऊपर-इन छहों दिशाओं में हमारी सहायता करने के लिए कोई न कोई चीज तैयार है। हम संसार में अकेले नहीं हैं।

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मनसा परिक्रमा (२)

‘मनसा परिक्रमा’ के छः मन्त्रों के पहले भागों पर विचार कीजिये। इस भाग में चार बातें अलग-अलग बताई गई हैं। प्रथम दिशा कानाम, द्वितीय दिशा का अधिपतितृतीय उस दिशा का क्ष, चतुर्थ उस दिशा का इषु ये चार क्या हैं? यही देखना है।

दूसरे भाग में उपासक इन चारों को नमस्कार करता है। तीसरे भाग में वह अपने शत्रु को इन चारों के हवाले करता है और उन शत्रुओं के साथ सीधे कोई ऐसी कार्यवाही नहीं करना चाहता, जो इन चारों के विरुद्ध पड़े।

एक दृष्टान्त लीजिये। यदि किसी देश या समाज का शासन बहुत अच्छा हो तो व्यक्तियों को असन्तोष नहीं होता। शासन का प्रबन्ध इतना दृढ़ होता है कि भले आदमी अपनी भलाई के काम में निःसंकोच संलग्न रह सकते हैं और बुरे लोगों को विघ्न डालने का साहस नहीं होता। यदि शासन निकम्मा है तो जिसकी लाठी उसकी भैंस हो जाती है। बलवान् निर्बलों पर अत्याचार करते हैं और उनको अपनी उन्नति करने में बाधा पड़ती है। अच्छे शासन में प्रजा अपने शासकों की आज्ञाओं का हृदय से पालन करती है। और यदि कोई विघ्नकारक मनुष्य उठ खड़ा भी हो तो केवल शासकों तक अभियोग ले जाने मात्र से विघ्न की निवृत्ति हो जाती है। विधान को अपने हाथ में लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनको भरोसा होता है कि हमारे शासक जो कुछ करेंगे उचित ही करेंगे। वह इतने न्यायकारी हैं कि अन्याय की सम्भावना नहीं। वे इतने शक्तिशाली हैं कि वह उचित कार्य करने में किसी से डरेंगे नहीं।

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यह उसी समय होगा जब शासन पर लोगों की श्रद्धा हो और हर व्यक्ति हृदय से शासन का पोषक हो।

यह है विशेषता मानवी शासन की। परन्तु हर एक मानवी शासन अनुकरण करता है ईश्वरीय शासन का। अर्थात् जिस प्रकार ईश्वर के बनाये सूर्य को देखकर हम अपने दीपक बनाते हैं, इसी प्रकार सृष्टि में मानवी समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए कुछ ऐसे नियम भी हैं जो ईश्वर-संचालित अर्थात् दैवी हैं। भौतिक संसार में तो हम इस बात को सुगमता से देखते रहते हैं, सदाचार का जगत् अधिक सूक्ष्म है और केवल सूक्ष्मदर्शी लोग ही इसको जान पाते हैं।

मोटी दृष्टि वाले कहा करते हैं कि झूठ फलता है और सच्चे लोग कष्ट उठाते हैं। अत्याचारियों का बोल-बाला होता है और न्यायप्रिय लोगों को कष्ट होता है।

परन्तु, यह बात तथ्य नहीं है। यथार्थ बात यह है कि ईश्वर और उसका सृष्टिक्रम भले लोगों का पोषक है बुरों का नहीं। बुरे लोग कभी-कभी आरम्भ में सफलीभूत दृष्टिगोचर होते हैं। परन्तु एक सीमा के पश्चात् कुदरत उनके नाश के साधन उपस्थित कर देती है। यदि, ऐसा न होता तो समस्त जगत् ही नष्ट हो जाता।

इतना ही नहीं, बुरे लोगों की जो कुछ थोड़ी-सी सफलता दिखाई पड़ती है, वह या तो उन शुभ गुणों के कारण है, जो दूसरे बहुत-से भले लोगों में विद्यमान हैं, या उन बुरे लोगों के स्वयं के अपने अनेक शुभ गुणों के कारण हैं। उदाहरण के लिए, यदि एक समाज में बहुत-से भले आदमी हैं तो उनके यश के कारण कुछ बुरे आदमी भी थोड़ा-सा लाभ उठा लेंगे। या यदि एक चोर है और दानी भी है, तो उसकी चोरी कुछ दिनों तक दब सकती है। परन्तु, कोई बुराई न तो देर तक स्वयं जीवित रहती है, न अपने स्वामी को जीवित रहने देती है। यह ईश्वर का प्रबन्ध है और इसका प्रकाश हम हर समाज में देखते हैं। गिरते हुए मनुष्यों को सम्भालने का प्रबन्ध ईश्वर की ओर से सदा काम करता रहता है।

यह ठीक है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु उसके दुष्कर्मों का फल भी तो मिलता ही रहता है, और फल के माध्यम से मनुष्य को नियमोल्लंघन करने से बचने की प्रेरणा मिलती रहती है। असंयमी व्यक्ति रोग-ग्रसित हो जाता है और वह रोग उसकी आँखें खोल देता है और उसके असंयमी होने में कमी हो जाती है।

हमारे शुभ और अशुभ कर्म प्रतिफल के लिए किसी दूरस्थ कल्पित तथा अविश्वसनीय काल अर्थात् कयामत अथवा प्रलय की प्रतीक्षा नहीं करते। जब कयामत होगी, तो बुरों को दण्ड और भलों को शुभफल मिलेगा। ऐसे दण्ड या शुभफल का वर्त्तमान समाज पर क्या प्रभाव होगा? जो मुसलमान या ईसाई ऐसी धारणा रखते हैं कि कयामत अथवा प्रलय के दिन ही हमारे कर्मों का निर्णय होगा, उनके शास्त्रों में भी अनेक उदाहरणों द्वारा समझाया गया है कि अमुक पुरुष या अमुक जाति ने गुनाह किये और खुदा ने उनको हिलाक अथवा नष्ट कर दिया। इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर प्रलय की प्रतीक्षा नहीं करता। अपितु, हमारे समाज के दैनिक जीवन में कुछ-न-कुछ सुधार होता रहता है। यदि हम ध्यानपूर्वक निरीक्षण करें, तो जिस प्रकार भौतिक जगत् में ईश्वर की ओर से सुधार होता रहता है, उसी प्रकार सामाजिक जगत् में भी।

‘मनसा परिक्रमा’ के ६ मन्त्रों में यही बताया गया है। यह संध्या का तृतीय खंड है। इसमें उपासक ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति अपने समाज में करता है।

इन ६ मन्त्रों के दूसरे और तीसरे भाग (तेभ्यो नमः इत्यादि तथा योस्मान् द्वेष्टि) एक-से हैं। कुछ भी अन्तर नहीं।

दूसरे भाग (तेभ्यो नमः इत्यादि) में नमस्कार है। नमस्कार का अर्थ है ‘सिर झुकाना’ अर्थात् अपने को दूसरों के लिए समर्पण करना। जब हम दूसरों के सामने सिर झुकाते या ‘नमस्ते’ करते हैं तो हम मानसिक स्तर पर अपने हित को दूसरों के हित के लिए त्यागते हैं। एक विद्वान ने ‘नमस्ते’ की व्याख्या करते हुए कहा है कि जब हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर किसी को ‘नमस्ते’ कहते हैं तो उसका यह आशय होता है कि सिर प्रतीक है बुद्धि का, हाथ प्रतीक है बल का, और हृदय प्रतीक है प्रेम का, अर्थात् हम व्यक्त करते हैं कि जितनी बुद्धि हममें है उससे, और जितनी शक्ति हममें है उससे, और जितना प्रेम हमारे दिल में है उससे, हम आपके समक्ष सिर झुकाते हैं। हम बुद्धि-पूर्वक उसका हित-चिन्तन करेंगे इसलिए सिर झुकाते हैं, बल से उसकी सहायता करेंगे इसलिए हाथ जोड़ते हैं, और हृदय से प्रेम करेंगे, इसलिए, जुड़े हुए हाथों के निचले भागों को वक्षः स्थल पर रखते हैं, और ऊपरी सिरे को सिर के नीचे। इस सारभूत व्याख्या पर विचार करने से ‘नमस्ते’ या नमस्कार के गौरव का परिज्ञान हो जाता है। हम नित्य सन्ध्या करते समय कहते हैं ‘तेभ्यो नमः’। हम उन समस्त शक्तियों के प्रभाव को स्वीकार करते हैं जो हमारे समाज की रक्षा करती हैं। समाज के साथ सहयोग करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म है, क्योंकि यदि हम समाज से विद्रोह करते हैं तो हमारा कोई काम चल नहीं सकता।