खण्ड ५ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)

पंचम मन्त्र

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आईये, ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के पंचम मन्त्र के अर्थ पर विचार करें। महर्षि लिखित मन्त्र के अर्थ में जो ‘रस’ है, उसका रसास्वादन करें। मन्त्र इस प्रकार है-

          येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वःस्तभितम् येन नाकः

यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै हविषा विधेम ।।          

-यजुर्वेद ३२//

येन अर्थात् जिस परमात्मा ने, उग्रा अर्थात् तीक्ष्ण स्वभाव वाले, द्यौ अर्थात् सूर्य आदि, अर्थात् और, पृथिवी अर्थात् भूमि को, दृढ़ा अर्थात् धारण, येन अर्थात् जिस जगदीश्वर ने, स्वः अर्थात् सुख को, स्तभितम् अर्थात् धारण और, येन अर्थात् जिस  ईश्वर ने, नाकः अर्थात्  दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है, यः अर्थात् जो अन्तरिक्षे अर्थात् आकाश में, रजसः अर्थात् सब लोक लोकान्तरों को, विमान अर्थात् विशेष मानयुक्त, अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता है और भ्रमण कराता है, हम लोग उस कस्मै अर्थात् सुखदायक देवाय अर्थात् कामना करने योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए, हविषा अर्थात् सब सामर्थ्य से, विधेम अर्थात् विशेष भक्ति करें।

इस मन्त्र में परमात्मा के वैशिष्टय पर निम्न रूपों में प्रकाश डाला गया है-

(क)      वह परमात्मा तीक्ष्ण स्वभाववाले सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों व पृथिवी को धारण करने वाला है।

(ख)      उसी ईश्वर ने समस्त सुख को धारण कर रखा है।

(ग)       वही ईश्वर आकाश में स्थित सब लोक-लोकान्तरों (दृष्य अदृष्य लोकों का) का विशेष मान के साथ-परिमाण, नियम या नियन्त्रण के साथ निर्माण करने वाला और भ्रमण कराने वाला है।

इन गुणों से युक्त परमात्मा की हम अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से भक्ति करें।

महर्षि ने उस  परमेश्वर की महत्ता का वर्णन हमें अल्पता के बोध के लिए और उस महान् सर्वशक्तिमान ईश्वर के सामर्थ्य को दर्शाने के लिए किया है। हम थोड़ा सा प्राप्त करके, निर्माण करके ‘अहं’ में आ जाते हैं, जीवन के लक्ष्य को भूल कर संसार में भटक जाते हैं,  ईश्वर की भक्ति से विमुख हो जाते हैं। इस मन्त्र का अर्थ हमे भक्ति करने की प्रेरणा देता है। इसका संक्षिप्त आशय इस प्रकार है-येन द्योरुग्रा पृथिवी दृढा अर्थात् जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाव वाले सूर्यादि और भूमि को धारण किया है।

          केनेयंसेव्यचो हितम्।                       

  -अथर्ववेद 0//२//२४

अर्थात् किसने इस भूमि की रक्षा की किसने विशाल द्यु लोक को धारण किया वह कौन है, वह जिसने ऊँचे, तिरछे, विशाल अन्तरिक्ष की रचना की है।

द्वितीय मन्त्र इसका उत्तर देता है-

          ब्रह्मणा-से-व्यचो हितम्।            

-अथर्ववेद 0//२//२५

अर्थात् ब्रह्म ही इस भूमि का रचयिता है, ब्रह्म ही द्युलोक का धारण करने बाला है, ब्रह्म ही इस विशाल उन्नत अन्तरिक्ष का धारणकर्त्ता  है। इस ब्रह्माण्ड में अनेक सौर मण्डल हैं। इन समस्त सौर मण्डल की अद्भुत शक्ति सम्पन्नता, समग्रता, तेजस्विता, उग्रता का धारणकर्त्ता  मात्र एक वही ब्रह्म है। सूर्य, चन्द्र की उग्र-तेजस्वी रश्मियां मिलकर ब्रह्माण्ड को नियमित, व्यवस्थित व नियन्त्रित रखे हुये हैं। इनकी उग्रता से, तेजस्विता से मलों का परिशोधन, रोगोत्पादक कृमियों का नाश, ऋतुओं की नियमित स्थिति, विविध फलादिकों में विविध स्वाद संयुक्त रसों का समावेश, औषधियों में रोगोपशमन की शक्ति सभी में ओजस्विता, पौष्टिकता का समावेश, निद्रा प्राप्त कर पुनः जीवन शक्ति का संचार आदि सभी कल्याणकारी शक्तियों को उस महान् प्रभु ने ही तो धारण कर रखा है।

आज का वैज्ञानिक भी द्युलोक की विशालता, उग्रता तेजस्विता को देखकर आश्चर्यचकित है। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुना बड़ा है। वैज्ञानिकों के अनुसार प्रकाश की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकिण्ड है। इतनी तेजगति होने पर भी सूर्य का प्रकाश धरती पर आने के लिए छः सात मिनट का समय ले लेता है। द्युलोक की इस विशालता को देखकर ही सर जगदीशचन्द्र वसु ने उचित ही लिखा है।-

‘हो सकता है मनुष्य समुद्र के बिन्दुओं की गणना कर ले, यह भी सम्भव है वह रेगिस्तान के कणों की गिनती कर ले परन्तु द्युलोक स्थित अनन्त ग्रह, नक्षत्र, चांद, सितारों और सूर्यों की गिनती करना असम्भव है’।

इस प्रकार द्युलोक को, विशाल द्युलोक को धारण करने वाला वह महान् प्रभु है।

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किसी बाग में जायें, विविध लताएं, विविध सुगन्ध-सौन्दर्य समन्वित पुष्प क्या मनुष्य के सामर्थ्य की देन है? विविध वृक्ष, विविध फल, विविध गुण तथा विविध रूप  में उनके तने पत्तियां आदि सभी तो विस्मयकारी हैं। इतना ही नही कहीं विशाल पर्वत समूह है तो विस्तृत मैदान भी हैं, कहीं विविध स्वादयुक्त जलवाली नदियां, जलाशय आदि हैं तो कहीं रेगिस्तान हैं, कहीं उपजाऊ भूमियाँ हैं तो कहीं पथरीली, ऊबड़ -खाबड़ जमीन है। यह सब मानवीय रचना नहीं है। वृक्षदूषित वायु से पलते हैं तो जीव पोषक वायु से विकसित होते हैं। जीव दूषित वायु छोड़ते हैं उनसे वृक्षादि पलते हैं, पुष्ट होते हैं तथा वृक्षादि द्वारा छोड़ी गई वायु से जीवन पुष्ट होते हैं। सूर्य किरणें पृथ्वी से जल ग्रहण करके बादल बनाती हैं, बादल बरसकर पृथ्वी को हरा भरा करता है। सूर्य द्वारा ग्रहीत जल खारा, दूषित होता है किन्तु उसी को बादल में परिवर्तित कर जब बरसाया जाता है तो वह जल पेय उपादेय हो जाता है। ऐसे जाने कितने अद्भुत नियम इस पृथ्वी में व्याप्त हैं।

पृथ्वी से विविध खनिज पदार्थ प्राप्त होते हैं-सोना, चांदी, पीतल, तांबा, रत्नादि तेल, पेट्रोल, कोयला आदि तो अद्भुत हैं। ऋग्वेद में सत्य ही लिखा है-

          यः पृथिवी -से- जनास इन्द्रः।            

-ऋग्वेद २//१२//२

जिसने व्यथमान-घूमती हुई पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने क्रुद्ध हुए से पर्वतों को रमणीय बनाया है, जिसने विशाल श्रेष्ठ अन्तरिक्ष का निर्माण किया है, जिसने द्युलोक को धारण किया है। वह परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा है।

येन स्वः स्तभितं येन नाकः अर्थात् जिस जगदीशवर ने सुख को धारण और जिस ईश्वर ने दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है।

अनुकूलवेदनीयं सुखम् जो बात हमारे मन के अनुकूल हो, वह सुख होता है। तथा -‘प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्  जो बात हमारे मन के प्रतिकूल हो, वह दुःख कहलाता है।  ईश्वर ने इस शरीर में शरीर के साथ विविध इन्द्रियां प्रदान की हैं। इन इन्द्रियों के साथ जहाँ संसार में इन्द्रियों की तृप्ति के लिए अनेक साधन भी प्राप्त हैं। नेत्र के लिए रूप , नासिका के लिए सुगन्ध, रसना के लिए विविध रस, श्रोत्र के लिए नाद सौन्दर्य आदि प्रत्येक इन्द्रिय की तृप्ति के लिए विविध साधन सुलभ हैं। ये साधन मन की अनुकूलता में सुखदायक तथा प्रतिकूलता में दुःखदायक होते हैं। इन इन्द्रियों का कार्य मन की वृत्ति के अनुसार होता है।

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इन्द्रियों को असंयम में रखना आपत्ति का मार्ग होता है उनको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है। अग्नि का धर्म जैसे ऊष्णता है वैसे ही मन का धर्म चञ्चलता है। अतः मन को वश में करने का तात्पर्य मन का उन्नयन है, मन को उत्तम संयत बनाना है। यह ज्ञान से संभव है। मन-बुद्धि जब ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न होती है। तब संसार मात्र साधन, शरीर मात्र साधन हो जाता है। जब इसका उपयोग साधन समझकर किया किया है तब ईश कृपा होती है, ईश कृपा ही सुखदात्री है। संसार में हमारा अपना है भी क्या? सब ईश्वर की कृपा से है। कर्म करने का उत्तरदायित्व हमारा है, फल देने वाला वह परमात्मा है। अतः महर्षि ने ‘जिस जगदीशवर ने सुख को धारण किया है’, यह उचित ही लिखा है।

दुखरहित मोक्ष के लिए यहां मन्त्र में ‘नाकः’ शब्द का प्रयोग है। निघण्टु के अनुसार-‘कम् सुखनाम कम् इति अकम् अर्थात् जहां सुख नहीं है, दुःख है उसे कहेंगे ‘अकः’ आगे ‘ अकम् इति नाकम्, नाकम् वै नाकःजहां दुःख का अत्यन्त अभाव है, सुख ही सुख है वह ‘नाकः’ है, मोक्ष है। यह दृष्य संसार तथा यह मानव शरीर उपेक्षणीय नहीं है। यह भौतिक जगत् साधन है, यह भौतिक शरीर भी साधन है।

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यहां एक प्रश्न का समाधान और आवश्यक है। प्रश्न है मोक्ष में शरीर के बिना आनन्द का भोग किस साधन से प्राप्त होता है?

इस प्रश्न का समाधान अत्यन्त सरल है, जब हम निद्रा में होते हैं, तब शरीर व शरीर की समस्त इन्द्रियां किसी कार्य में संलग्न नहीं होती हैं। किन्तु जागने पर आनन्दानुभूति अवश्य प्राप्ति होती है किन्तु ब्रह्मानन्द की अनुभूति उस अवस्था में भी सुलभ होती है। इसे सरल शब्दों में ऐसे कह सकते हैं शरीर सहित ज्ञान रहित आनन्दानुभूति निद्रा में होती है। शरीर सहित ज्ञान सहित आनन्दानुभूति समाधि की दशा है। शरीर रहित किन्तु ज्ञान सहित आनन्द की प्राप्ति मोक्ष अवस्था है।

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यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः अर्थात् जो आकाश में सब लोक लोकान्तरों को विशेष मान युक्त, अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है।

दृष्यमान जगत् में तीन लोक प्रसिद्ध हैं-भू लोक, अन्तरिक्षलोक एवं द्यु लोक। इनमें से द्यु लोक में अनेक लोक लोकान्तर हैं। नवीन वैज्ञानिक अन्वेषकों ने अब तक लगभग दो अरब सौर मण्डलों का पता लगा लिया है। प्रकाश की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सैकिण्ड है। वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्माण्ड में अनेक ग्रह अब भी ऐसे हैं, जिनका प्रकाश इस पृथ्वी को स्पर्श नहीं कर सका है। रात्रि में दिखाई देने वाले आकाश में ही अनेक ग्रह हैं जिनकी संख्या अभी तक ज्ञात नहीं हो सकी है। क्या यह सब अपने आप निर्मित हैं, गतिशील हैं, प्रकाश युक्त हैं। नहीं कदापि नहीं। कारण कि इसकी रचना मानयुक्त नहीं विशेष मानयुक्त –विशेष नियम के साथ ठीक-ठीक परिणाम में हैं।

यह सब नियम से व्यवस्थित रूप से निर्मित नहीं होता तो भूमि पर प्रकाश, सर्दी, गर्मी, वर्षा , हरियाली, फल, वनस्पतियां औषधियां तथा अन्य सामग्री आदि नहीं मिल पाती। सूर्य-चन्द्र नियत दूरी पर है, उनकी गति नियमित है, आकर्षण शक्ति व्यवस्थित है, इसीलिए इस भूमि पर जीवन है। आज तक नियमित गति होने के कारण ही खगोल शास्त्री सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण कब, कहां तक प्रभावशाली होगा, यह पूर्व से ही जान लेते हैं। प्रचण्ड तूफान, ज्वार-भाटा आदि प्राकृतिक कार्यों के विषय में भी जान लेते हैं। यह सब विशेष मानयुक्त हैं-नियम संयुक्त है, व्यवस्थित है।

आकाश में पक्षीगण गति करते हैं, इनकी गति में कभी कोई व्यवधान नहीं होता है, तीव्र गति से उड़ने में भी कोई बाधा नहीं होती है। ठीक ऐसे ही अनेक ग्रह उपग्रह आदि द्यु लोक में गतिशील हैं, इनकी गति में कोई बाधा नहीं होती है, कभी एक दूसरे से टकराते नहीं हैं, ये लोकलोकान्तर अपनी-अपनी धुरी पर गति करते हैं, भ्रमण करते रहते हैं इनकी गति इनका भ्रमण आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के समान व्यवधान रहित है। ये सब नियमाधीन हैं, व्यवस्थाधीन हैं। जहां नियम है वहां नियामक होना चाहिए, व्यवस्था है तो व्यवस्थापक भी होना चाहिए। उसी सत्ता को महर्षि ने  परमेश्वर आदि नामों से स्वीकार किया है। इतनी महान् इतनी अद्भुत रचना बिना  ईश्वर के हो नहीं सकती है। अतः वह मान्य है, पूज्य है।

कस्मै देवाय हविषा विधेम अर्थात् हम लोग उस सुखादयक कामना करने योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।

व्यक्ति का स्वभाव होता है- उपकृत होकर अर्थात् जिसने उपकार किया है उसके प्रति विनम्र होता है, शक्ति सम्पन्न हितकारी के आगे झुकता है, धनवान् दानी हो तो उसके सामने भी नत होता है। परमपिता परमात्मा जैसा उपकारी, महान् एवं दानी कोई नहीं है। यह संसार उसके दान का प्रतिफल है, यह शरीर व सृष्टि रच कर उसने अनन्त उपकार किये हैं। साथ ही विशाल ब्रह्माण्ड को धारण करना, उसकी शक्ति सम्पन्नता को स्पष्ट कर रहा है। ऐसा वह सुखदायक है- सुखप्रदाता है। अतः हमें सामान्य की कामना नहीं करनी चाहिए। कामना करने योग्य तो एक मात्र परब्रह्म ही है।

परब्रह्म की प्राप्ति कैसे सम्भव है? इसका निर्देषन भी महर्षि ने किया है। प्रथम तो विशेष भक्ति ही इसका मुख्य साधन है। ‘भज्सेवायाम्’ धातु से भक्ति शब्द बनता है। सेवा करनी है, कैसे करनी है? महर्षि ने सब सामर्थ्य से कहा है। हविषा शब्द दान-आदान-अर्थ में आता है-इसका वर्णन पूर्व मन्त्रों में कर चुके हैं।

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि संसार अनित्य है, शरीर अनित्य है। अनित्य साधनों से अर्थात् अनित्य साधनों की आसक्ति से वह नित्य परब्रह्म नहीं प्राप्त होता है।

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महर्षि का तात्पर्य संसार से हविषा अर्थात् आदान भौतिक सम्पदा करनी तो है, शरीर का संरक्षण भी करना है। न संसार उपेक्षणीय है न शरीर ही उपेक्षणीय है। अपितु ये साधन हैं। इन साधनों का समुचित प्रयोग करके अपनी शक्ति से भौतिक सम्पत्ति, भौतिक सामर्थ्य प्राप्त करना है। यह आदान -ग्रहण करना, प्राप्त करना हविषा का ही भाव है।

हविषा का द्वितीय अर्थ दान है-देना है। देना क्या? बस अर्जित सामर्थ्य ही तो देना है। अर्जित सामर्थ्य को परोपकार में लगाना, परहित में लगाना ईश्वर की सच्ची भक्ति है। जो इस सामर्थ्य को लगाता है, समर्पण भाव से, आसक्ति भाव का त्याग करके यज्ञीय भाव से अपने सामर्थ्य का त्याग करता है, वही परब्रह्म को प्राप्त करता है।

अर्जित सम्पत्ति पुत्र पौत्रादि के लिए व्यय करना, परिवार के लिए खर्च करना पुण्य के अन्तर्गत नहीं आता है। पुण्य तो तभी है जब अर्जित सम्पत्ति दूसरों के हितार्थ -लंगड़े, लूले, अन्धे, अनाथ, दीन-दुःखियों के हित में लगायी जाए।

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यह मन्त्र हमें प्रेरणा देता है कि उस महान् सामर्थ्यशाली परमात्मा के सामने हमें अपने सामर्थ्य का किसी भी दशा में ‘अहम्’ नहीं करना चाहिए।