खण्ड ४ (हवन के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

पंच घृताहुति मन्त्र

‘अयन्त इध्म.’ मन्त्र की भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या क्रम प्राप्त समिदाधान के प्रथम समिधा समर्पित करते समय लिख चुके हैं। सुधी पाठकों को एक बार पुनः उसको वहां से पढ़ लेना चाहिये। इस मंत्र को बोलकर पाँच बार घृत की आहुतियाँ दी जाती हैं। अब प्रश्न उठता है कि इस मंत्र से पाँच ही बार आहुतियाँ क्यों दी जाती है? वैदिक वाङ्गमय में एक जगह कहा गया है कि जहाँ कोई समाधान ऋषि प्रणीत न मिले, वहाँ तर्क और ऊहा को ऋषि मान लेना चाहिए। तर्क और ऊहा से जाना गया समाधान गलत नहीं होता। यहाँ भी जो जो पाँच संख्या के प्रसिद्ध अर्थ हैं, उन्हें पाँच आहुतियाँ देते हुए लिया जा सकता है। उपरोक्त प्रश्न का प्रसिद्ध समाधान यह है कि इस मंत्र में निम्नलिखित पाँच प्रार्थनाएँ हैं और प्रत्येक प्रार्थना के अंत में आहुति दी जाती है। 

मन्त्रगत पांच प्रार्थनाएं-

प्रथम प्रार्थना‘अयन्त इध्म आत्मा’ यह आत्मा इध्म है। जैसे समिधा अग्नि में डालने से प्रज्जवलित होती है, प्रकाशित होती है, उसी प्रकार यह आत्मा भी परमात्मा की समीपता को पाकर, उसमें समर्पित होकर ‘इध्यस्व वर्धस्व च’ ज्ञान से प्रकाशित हो और निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करे। अग्नि का प्रकाश दूसरों के लिए है मेरे जीवन का विकास भी दूसरों के लिए हो, वृद्धि भी परहिताय हो।

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द्वितीय प्रार्थना- प्रजया अर्थात् प्रजा से हमें बढ़ा। अपनी सन्तान उत्तम हो, उन्नति की ओर अग्रसर हो। ब्रह्मचारी की प्रजा उसकी इन्द्रियाँ हैं, वानप्रस्थी की प्रजा उसके शिष्यगण हैं, ये सब पुष्ट हों, बलवान् हों तथा स्वहितसाधन के साथ परहितसाधना में संलग्न हो। ब्राह्मण के लिए यजमान प्रजा, क्षत्रियों के लिए पीड़ित जन प्रजा, वैश्य की प्रजा उत्पादन सामग्री और शूद्र के लिए सेवनीय जन प्रजा है।

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तृतीय प्रार्थना- पशुभिः अर्थात् हमें पशुओं से समृद्ध कर। मानव जीवन के कल्याण के लिए तथा सृष्टि का सम्यक् सन्तुलन रखने में इन पशुओं की उपयोगिता आज के वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे हैं।

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चतुर्थ प्रार्थना- ब्रह्मवर्चसेन अर्थात् ब्रह्म तेज से हमें बढ़ा और यह ब्रह्म तेज ऋषि दयानन्द के समान लोक कल्याण में लगे ब्रह्मवर्चस की कामना तो वेद में अनेक स्थानों में प्राप्त होती है।

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पञ्चम प्रार्थना- अन्नाद्येन अर्थात् हमें अन्नाद्य से समृद्ध कर।

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मन्त्र निहित पांच प्रार्थनाओं के अतिरिक्त पाँच घृताहुति देने का अन्य भाव इस प्रकार भी गृहीत करना समीचीन होगा-यह शरीर है-पञ्च ज्ञानेन्द्रियों से तथा पञ्च कर्मेन्द्रियों से संयुक्त है, पांच बार आहुति देकर इनको सद्विचारों एवं सत्कर्मों में संलग्न रखना है। यह जीवन अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश इन पञ्च क्लेशों से संत्रस्त है, इन पांचों के निवारणार्थ पांच यम, पांच नियम अर्थात्-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रहृचर्यापरिग्रहाःयमाः’ तथा ‘शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः’ इनको आत्मसात् करने के लिए प्रयोगात्मक जीवन की सार्थकता के लिए पांच बार घृताहुति दी जाती है।

यह शरीर पांच कोषों का समुदाय है। इन पञ्च कोषों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने पर आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति सुगम होती है। अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं आनन्दमय कोष। ‘आर्यसंस्कृति के मूल तत्व’ नामक पुस्तक में भी सत्यव्रत सिद्धान्तालकार इस विषय को इन शब्दों में स्पष्ट करते है-

‘इस सारे विवेचन का अभिप्राय यह है कि अन्नमय कोष प्राणमय के लिये है, प्राणमय अन्नमय के लिये नहीं, प्राणमय मनोमय के लिये है, मनोमय प्राणमय के लिये नहीं, मनोमय विज्ञानमय के लिये है, विज्ञानमय मनोमय के लिये नहीं, विज्ञानमय आनन्दमय के लिये है, आनन्दमय विज्ञानमय के लिये नहीं। आध्यात्मिक विकास की यही दिशा है। जब हम आध्यात्मिक आनन्द की अपेक्षा विज्ञान को, विज्ञान की अपेक्षा मन को, मन की अपेक्षा प्राण को, प्राण की अपेक्षा अन्नमय स्थूल शरीर को अधिक महत्त्व देने लगते हैं तब हम आत्म तत्व के विकास के मार्ग पर न चलकर उल्टे मार्ग पर चलने लगते हैं।’

आज हम शरीर के लिए जीवित हैं, शरीर की साधना में संलग्न हैं। जीवन मात्र बाह्य उन्नति में लगाना ही जीवन का लक्ष्य बन गया है। आज की उन्नति के विषय में किसी ने क्या ही सत्य लिखा है-

इस दौर ए तरक्की के अन्दाज निराले हैं।

जेहनों में तो अन्धेरे हैं सड़कों पर उजियाले हैं।।

याज्ञिक तो हृदय को विशाल बनाता है, प्रकाशित करता है। आत्म- उन्नति की इस साधना को सही दिशा में ले जाने का साधन यज्ञ है, यज्ञ में पञ्चाहुति देते समय ‘आत्मा को ‘इध्म’ बनाना है, प्रकाशित करना है, आत्मोन्नति की साधना में संलग्न रहना है। यह व्रत से, दृढ़ निश्चय से सम्भव है। अतः पांच बार घृताहुति देकर अपने व्रत को दृढ़ करना है। पञ्च कोषों को सही विकास क्रम की ओर ले चलता है।

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पुरुष शब्द का अर्थ निरुक्त के १//१३//१ के ‘पुरुषम् पुरिषय इत्याचक्षीरन्’। पुर-संसार या शरीर में रहने वाले की संज्ञा पुरुष है।

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पुरुष का अर्थ शरीर में निवास करने वाला जीवात्मा ग्रहण करें तो भी याजक को पांच रूपों में अपने कर्तव्य को उद्बुद्ध करना चाहिए। इन पांचों के लिए पुरुष को अर्पित करना चाहिये-

व्यक्तिगत उन्नति के लिए-

प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह सदैव अपने को सन्मार्ग पर चलावे। आत्म-निरीक्षण करता रहे कि-‘दुरितानि परासुव’ अपने दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुख सदैव दूर रहें।

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प्रतिदिन एकान्त में अकेले ही आत्महित का चिन्तन करना चाहिए क्या तो हमारे अन्दर के समान है और क्या सज्जन पुरुषों के समान है।

पारिवारिक उन्नति के लिए-

परिवारिक उन्नति के लिए व्यक्तिगत उन्नति आवश्यक है। व्यक्ति स्वयं सद्गुणों से सम्पन्न हों तब परिवार को सही दिशा में गति प्राप्त होती है। परिवार की शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति, की ओर अग्रसर करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। परिवार के सभी सदस्य पारस्परिक स्नेह, सहृदयता, एवं त्याग भाव से युक्त हों।

सामाजिक उन्नति के लिए-

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज की सब प्रकार की उन्नति हो इस बात के लिए हमें समर्पित होना है। वैर-द्वेष के स्थान पर स्नेह सौजन्यता का प्रसार हो, स्वार्थ के स्थान पर परार्थ चिन्तन की अधिकता हो आदि सामाजिक उन्नति में सदैव संलग्न रहना प्रत्येक का कर्तव्य हो।

राष्ट्र उन्नति के लिए-

                       वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।       

– यजुर्वेद  ९//२३

हम राष्ट्र उन्नति के लिए सदैव जागरूक रहें। प्रत्येक मानव को राष्ट्र उन्नति में अपना योगदान देना चाहिये।

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हमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समान इस उद्घोष को आत्मसात् करना चाहिये-

नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम लक्ष्मण।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है। मातृ-भूमि की महत्ता के आगे सोने की लंका भी तुच्छ है।

विश्व की उन्नति के लिए-

व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र की उन्नति के अतिरिक्त विश्व -उन्नति में प्रत्येक को अपना योगदान देना चाहिये। विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाना, उनके प्रति आत्मीय भाव जागृत करना भी हमारा कर्तव्य है।

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अतः आत्मा को इध्म बनाकर उक्त भावों के विकास के लिए यह घृत की पांच आहुतियां दी जाती है।

पंचम सोपानजल सिंचन मन्त्र

अब क्रम-प्राप्त जल-प्रोक्षण (जल-सिञ्चन) मन्त्रों पर विचार करते हैं। ये मन्त्र इस प्रकार हैं-

जल-प्रोक्षण-मन्त्राः

ओम् अदितेऽनुमन्यस्व।।१।। (इस मन्त्र से पूर्व दिशा में)

ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व।।२।। (इस मन्त्र से पश्चिम दिशा में)

ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व।।३।। (इस मन्त्र से उत्तर दिशा मे)

(गोभिल गृह्य सूत्र प्र १// ३// १-३)

ओम् देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु।। ४।।

-यजुर्वेद ३०//१

(इससे चारों ओर)

पहले मंत्र का भौतिक अर्थ– हे पानी! तुम अग्नि के अनुकूल हो जाओ अर्थात मुझे मेरे लक्ष्य के साथ जोड़कर रखो।
इस मंत्र को बोलकर पानी को पूर्व दिशा में छिड़कने का विधान है। पूर्व दिशा में पानी को दाईं ओर से बाईं ओर नहीं, बल्कि बाईं से दाईं ओर छिड़का जाता है। यह इसलिए, क्योंकि हमने दीपक को ईशान-कोण में रखा होता है और जल को प्रतीकात्मक रूप से अन्धकार से प्रकाश की ओर छिड़का जाता है।
दूसरे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे पानी! जैसे तुम हर वस्तु के अनुकूल होते हो, वैसे ही मेरी बुद्धि भी मेरे लक्ष्य, अग्निहोत्र के प्रति अनुकूल हो।
इस मंत्र को बोलकर पानी को पश्चिम दिशा में दाईं से बाईं ओर (दीपक की तरफ) छिड़कने का विधान है।
तीसरे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे उत्त्कृष्ट विज्ञान वाले व गमन करने वाले स्वभाव वाले पानी! तुम अग्नि के अनुकूल होवो।
इस मंत्र को बोलकर पानी को उत्तर दिशा में दाईं से बाईं ओर (दीपक की तरफ) छिड़का जाता है।
चौथे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे सर्वोच्च प्रेरक पानी! हम यजमानों को समर्थ बनाओ, ताकि हम यज्ञ को उत्तम रीति से सिद्ध कर सकें। जिस लक्ष्य की पूर्ती के लिए हम यह यज्ञ कर रहे हैं, उसके लिए आवश्यक सभी ऐश्वर्य हमें प्रदान करो। हे उत्त्कृष्ट, सौम्य, पृथिवी को धारण करने वाले, शरीर को पवित्र करने वाले, वाणी के स्वामी पानी! हमारे शरीर को पवित्र करते हुए हमारी वाणी को भी मधुर, कल्याणकारी व प्रिय लगने वाली बनाओ।

चौथे मंत्र के उच्चारण के पश्चात यज्ञ-वेदी के चारों ओर- पहले पूर्व में, फिर दक्षिण में, फिर पश्चिम में और अन्त में उत्तर में (दीपक से आरम्भ करके दीपक पर समाप्त) जल छिड़कने का विधान है।

इन मंत्रों के आध्यात्मिक भाव नीचे दिए जा रहे हैं-

१. ओम् -हे सर्वरक्षक, अदिते अखण्ड परमेश्वर! अनुमन्यस्व आप, मेरा यह यज्ञ कर्म पूर्ण सफल हो- ऐसा अनुमति सहयोग प्रदान कीजिये।

२. हे सर्वरक्षक, अनुमते अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमेश्वर! अनुमन्यस्व मेरे यज्ञ कर्म की सफलता आपकी कृपा से सम्पन्न हों।

३. हे सर्वरक्षक सरस्वते अर्थात् श्रेष्ठ ज्ञानदाता परमेश्वर! अनुमन्यस्व आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्धि से मेरा यज्ञ कार्य पूर्ण सफल हो।

४. ओम् हे सब ओर से रक्षा करने वाले देव दिव्य गुणों से सम्पन्न सवितः सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर यज्ञ प्रसुव मेरे इस यज्ञ कर्म को सफल बनाइए।  भगाय हमारे अंतिम लक्ष्य की सिद्धि के लिए आवश्यक सभी भौतिक ऐश्वर्यों के लिए व मुक्ति के लिए आवश्यक सभी आध्यात्मिक ऐश्वर्यों के लिए यज्ञपतिं प्रसुव यज्ञ सम्पादनकर्त्ता को उत्तम प्रकार से यज्ञ कर्म सम्पन्न करने का सामर्थ्य प्रदान कीजिए।

सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की सिद्धि के लिए जो-जो ज्ञान चाहिए वह मुझे प्राप्त हो। मुझे ऐसा ज्ञान चाहिए, जिससे मैं संसार में रहता हुआ व संसार के भोगों का सुख लेता हुआ बिना किसी तनाव के अपनी लक्ष्य की ओर बढ़ता जाऊँ। हे ईश्वर! आप धन, शरीर, इन्द्रियों आदि सभी तरह की सिद्धियां देने वाले हैं। ये सभी सिद्धियां मुझे सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। हे ईश्वर! इन सभी सिद्धियों की प्राप्ति के लिए मेरे यज्ञ को उत्तम रीति से सम्पन्न करो अर्थात मेरे को आप इतना सामर्थ्यशाली बना दो कि मैं यज्ञ को सफल बना सकूँ।

इस प्रकार विचार करने से पूर्व स्तुति, प्रार्थना, उपासना का तात्पर्य समझना आवश्यक है। ‘गुणकीर्तनं नाम स्तुतिः’ परमेश्वर या अन्य किसी महान् व्यक्ति के गुणों का गान करना स्तुति है। पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त सहायता की याचना परमेश्वर या किसी सामर्थ्यशाली से करना प्रार्थना है। ईश्वर के आनन्द स्वरूप में अपने को मग्न करना उपासना है।

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इन वचनों में परमात्मा के तीन सम्बोधन हैं -अदिते, अनुमते, सरस्वति।

अदिते-अखण्ड परमेश्वर।

अनुमते-अनुकूल आचरण युक्त बुद्धिदाता परमेश्वर।

सरस्वति-श्रेष्ठ ज्ञानदाता परमेश्वर।

अदिते अर्थात् परमेश्वर के नियम, कार्य व व्रत अखण्ड हैं। मैं परमेश्वर के अखण्डित नियमों, कार्यों व व्रतों का चिन्तन करूं। मानव जीवन की श्रेष्ठता नियमों के पालन करने में है। विचार करें कि क्या हमारे जीवन में सोने, उठने, बैठने आदि के कोई नियम हैं। भोजन करने में आयुर्वेद के आचार्यों ने, जो नियम बताये हैं उन पर हम चलते हैं? भोजन बैठकर व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये, आज इस नियम का पालन कहाँ है- खाने का कोई समय नहीं, सोने का, उठने का कोई नियम नहीं।

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भारतीय-संस्कृति का आधारभूत तत्व नियमों की, व्रतों की अखण्डता आज कहाँ है? खड़े-खड़े (दावतों में) भोजन करने वाले नियम चल पड़े हैं। बैठकर जो स्नेह भाव से भोजन किया जाता था, वह आज समाप्त हो गया है। भोजन का अधिकांश भाग पैरों से कुचल जाता है- इस व्यवस्था में यह अन्न का अपमान है। यह भूल गये है- ‘अन्नं वै ब्रह्म तदुपासीत’ अन्न पूजनीय है, उसका सत्कार करना चाहिए, उसको पैरों से कुचलना नहीं चाहिये, ये सब छोटी-छोटी बातें जीवन को उन्नत बनाती हैं, आत्मा को उन्नति के सोपान पर अग्रसर करती हैं।

नियमित जीवन ही आध्यात्मिक उन्नति का साधक होता है। मात्र अदिते के उच्चारण से जीवन सफल नहीं होगा- हमें अपने जीवन को अखण्ड व्रतों, नियमों पर चलाना चाहिए।

अनुमते अर्थात् आत्मानुकूल कार्य करने वाली बुद्धि के दाता परमेश्वर, परमात्मा सर्वार्न्तयामी है, अतः मन में उठने वाली पाप भावना में भय, शंका, लज्जा आदि उत्पन्न कर वह प्रत्येक व्यक्ति को सावधान करता है, बोध देता है कि इन पाप भावनाओं से अपने को दूर रखे। ईश्वर की कृपा से आत्मा में वह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि पाप भावना के उदय होते ही वह तार- स्वर में कह उठता है-

                        परोऽपेहि मनस्पापसे गोशु में मनः।    

– अथर्ववेद ६//४५//१

हे मेरे मन के पाप! तू दूर हो । तू मुझे दूषित कर्म करने की ओर क्यों बढ़ाता है। दूर भाग। मैं तुझे नहीं चाहता। तू वृक्षों और वनों में जाकर विचर। मेरा मन तो अपने अन्तःकरण रूपी गृह और इन्द्रियों के संयम में लगा हुआ है।

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सरस्वति अर्थात् श्रेष्ठ ज्ञानदाता परमेश्वर।

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मानव जीवन की श्रेष्ठता ज्ञान के विकास में है। जो मानव जीवन को पाकर भी सरस्वती का उपासक नहीं है, ज्ञानार्जन का प्रयास नहीं करता है, वह तो-

साक्षात्पषुः पुच्छविशाणहीनः

सींग और पूंछ से रहित पशु है। यहाँ ‘सरस्वति’ शब्द विशेष अभिप्राय से रखा है। श्रेष्ठ ज्ञान से समन्वित व्यक्ति ही अपने जीवन में प्रत्येक कार्य को सावधानी से करता है। वह धन अर्जित करता है पुरुषार्थ से। आत्मा को गिराकर नहीं।

इस प्रकार आत्मोन्नति के तीन साधन है-अखण्डित व्रत का पालन, आत्मानुकूल आचरण तथा उत्तम ज्ञान प्राप्ति की साधना, इस त्रिवेणी में स्नान करने से आत्मिक उन्नति होकर मोक्ष प्रशस्त होता है।

चौथे मन्त्र में देव, सवितः, दिव्य, गन्धर्वः केतपूः, वाचस्पतिः ये शब्द प्रेरणादायक हैं – परमेश्वर देव दिव्य स्वरूप वाले दाता हैं, मैं भी उत्त्कृष्ट व श्रेष्ठ बनूं। सवितः ईश्वर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रचता, जो हम प्राणियों के लिए हितकर न हो, मैं भी ईश्वर द्वारा रची मौलिक वस्तुओं से दूसरों के लिए हितकर पदार्थों को ही बनाऊँ। आप दिव्यः शुद्ध स्वरूप हैं, गन्धर्वः सारे ब्रह्माण्ड को धारण व नियन्त्रित करने वाले हैं, केतपूः विशेष ज्ञान से पवित्र करने वाले हैं, वाचस्पतिः सत्य विद्या के प्रचार के माध्यम से रक्षा करने वाले व वाणी के स्वामी हैं, मैं याजक आपके इन गुणों को जीवन में धारण कर आत्म -कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करूँ। मेरे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सद्-ज्ञान, उत्तम आचरण एवं मेरी वाणी में माधुर्य प्रदान करें। जैसे चारों दिशाओं में मैं जल सिंचन कर रहा हूँ, उसी प्रकार अग्नि- परमेश्वर की कृपा से तेजस्विता धारण कर मैं सर्वत्र शाश्वत ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जीवन भर लगा रहूँ। यही जीवन की सार्थकता है।

यज्ञ में कलश और दीपक रखने का मुख्य स्थान उत्तर -पूर्व कोण ईशान दिशा है। जलसिञ्चन दीपक रखे हुए दिशा की ओर होना चाहिये।

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भाव लेना है कि हम सदैव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अन्धकार की ओर नहीं प्रकाश की ओर बढ़ें ।

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जलसिञ्चन क्यों?

जलसिञ्चन से पूर्व पंच घृताहुतियां दी गई, जिनसे अग्नि में घृत संयुक्त तेजस्विता हुई। अब जलसिंचन करना है-अर्थात् अञ्जलि में जल लेकर थोड़ा ऊँचा हाथ करके जलसिंचन करना है, जिससे घृत संयुक्त अग्नि की ज्वाला से जल का वाष्पीकरण होता है, यह घृत संयुक्त वाष्पीकरण जहाँ पृथिवीस्थ दूषित वायु का शमन करता है वहां श्वास-प्रश्वास के माध्यम से फेफड़ों को शुद्ध करके शक्तिशाली बनाता है। इस वाष्पीकरण से मस्तिष्क में भी तेजस्विता का समावेश होता है। नाली बनाकर यज्ञकुण्ड के चारों ओर नीचे से जल डालने में यह लाभ नहीं होता है। अतः ऋषियों ने इन मन्त्रों से अंजलि में जल लेकर जलसिंचन का विधान किया है। नाली बनाकर जल डालना हमारी सम्मति में अवैदिक क्रिया है।

प्रतिदिन प्रत्येक घर में यज्ञ हो तो उक्त वाष्पीकरण की क्रिया से सूर्य किरणों के माध्यम से उत्तम बादल बनते हैं तथा उत्तम वर्षा होती है इसका प्रभाव अन्न, फलादि पर पड़ता है, उनमें गुणत्व का विकास होता है, औषधियां प्रभावशाली हो जाती है।

ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ-वेदी को प्रतीकात्मक रूप से पृथ्वी माना गया है और यज्ञ-वेदी के चारों ओर जल छिड़कने का तात्पर्य पृथ्वी के चारों ओर जल की विद्यमानता का बोध कराना मात्र है।

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‘सबसे बड़ा सांकेतिक लाभ यह है कि यजमान यज्ञ करता हुआ अपने आपको संसार के मोहमाया के जाल से अलग कटा हुआ अनुभव करे। जैसे दो देशों के मध्य में नदी आकर उन्हें पृथक् कर देती है, ऐसे ही यह जल संसार और परमार्थ के मध्य में वियोजक बनता है। ममता और अहंकार को दूर रखकर, आसुरी वृत्तियों को दबाकर, कर्तव्य बुद्धि से युक्त होकर, प्रभु-चरणों में पहुँचने के भाव से प्रेरित होकर यज्ञ करना, इस संकेत का आध्यात्मिक और सर्वोत्कृष्ट फल हो सकता है।’(वैदिक कर्मकाण्ड पद्धतिः- स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती)

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भरा हुआ जल का पात्र सत्पात्र बनने का सन्देश देता है।

एक बार बाहर वर्षा हो रही थी। अन्धकार से सन्ध्या काल में वर्षा तीव्रता से हो रही थी गुरु ने शिष्य से कहा वर्षा का जल बड़ा उपयोगी होता है। जाओ एक घट बाहर रख आओ। शिष्य उठा अन्धेरे में रखे हुए एक घट को सावधानी से ज्यों का त्यों रख आया! थोड़ी देर में घट भर गया होगा तीव्र वर्षा में इस आशा से गुरु ने घड़ा लाने को कहा-यह क्या घट उलटा रखा था-भला विपरीत रखे पात्र में जल कैसे भरता। गुरु जी ने घट को सीधा रखने को कहा। शिष्य वर्षा से संत्रस्त शीघ्र आवेश में घट रखकर आया। थोड़ी देर में गुरु के आदेश से घट लाने पर देखा कि घट में एक बूँद भी जल नहीं था। आवेश में घट रखने के कारण उसमें छिद्र हो गया था। भला छिद्र युक्त पात्र में जल कैसे रहता। गुरु ने अन्य घट रखकर आने को कहा। अबकी बार शिष्य सावधानी से सीधा घट रखकर आया। वर्षा का जल बहुत तीव्रता से गिर रहा था। गुरु जी ने घट लाने का आदेश दिया एवं स्वयं एक दीपक जलाकर प्रकाश कर दिया। शिष्य सावधानी से घट लाया। गुरु जी ने प्रकाश में देखा कि शिष्य वह घट रखकर आया था जो कूडे से भरा हुआ था-भला गन्दगी से युक्त जल कैसे उपयोग में लिया जाये।

इस प्रकार सत्पात्रता के लिए सावधानी रखनी है, विपरीत मार्ग में नहीं चलना, सही दिशा में चलना है, छिद्र युक्त पात्र में जल नहीं रहता है, दोशयुक्त अन्तःकरण में सद्गुण प्रवेश नहीं करते हैं और कभी तो अन्तःकरण इतना अधिक दोषयुक्त होता है कि सद्गुण प्रविष्ट होकर भी उपयोगी नहीं बनते हैं। जल का भरा पात्र हमें शिक्षा देता है कि हम सावधानी से सत्पात्र बने, जीवन को सार्थक बनायें, मानव जीवन की सफलता ही सत्पात्र बनकर आनन्द प्राप्त करने में है।

जल को जीवन कहते हैं, पवित्र, स्वच्छ, निर्मल जल ही सिंचन के योग्य होता है, उपयोगी होता है। विचार करें, तो पता चलेगा कि गतिशील जल ही निर्मल होता है। इसी प्रकार क्रियाशील, कर्मसंयुक्त जीवन ही सार्थक जीवन होता है।