खण्ड ३ (हवन के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

चतुर्थ सोपान-

समिदाधान मन्त्र प्रथम समिधा आहुति मन्त्र

शरीर रथ है अर्थात् शरीर साधन है। इसका उपयोग साधन के रूप में ही करना चाहिए। वर्त्तमान में शरीर को साध्य समझ लिया है। सारे क्रिया-कलाप मात्र शरीर को सुविधाएँ देने के लिए हैं।

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यमाचार्य नचिकेता को स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-

        उत्तिष्ठत जाग्रतसेकवयो वदन्ति।              

-कठोपनिषद् ३//१४

उठो जागो, प्रभु कृपा से समस्त साधनों से संयुक्त यह संसार प्राप्त हुआ है-निबोधत– ज्ञान प्राप्त करो, निश्चय से यह मार्ग छुरे की धारा के समान तेज है, कठिनाई से पार करने योग्य है। श्रेय मार्ग पर चलना सरल नहीं है, कठिन है पर है, तो कल्याणकारी। यदि कल्याणकारी मार्ग पर चलना चाहते हैं, तो पूर्व वर्णित मन्त्र के अनुसार दृढ़ संकल्प के साथ अपनी आत्मा को इध्म बनाईये। समिधा में घृत लगाइये-आत्मा में श्रद्धा का भाव जागृत कीजिए और यह मन्त्र उच्चारण कीजिए-

        ओम् अयं इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा।।

इदमग्नये जातेवेदसे इदं मम।    

– आश्व. गृह सूत्र १//१0//१२

श्रद्धाभाव से समन्वित होकर प्रथम समिधा प्रज्जवलित अग्नि में छोड़ देनी है। इस मन्त्र का अर्थ भौतिक दृष्टि से अनुष्ठान परक इस प्रकार होगा-

हे जातवेदः सर्वत्र स्थूल, सूक्ष्म रूप  में विद्यमान अग्नि! अयं इध्मः यह घृत अथवा समिधा, या घृत संयुक्त समिधा ते आत्मा तेरा आधार है, तेरी ज्वलनशीलता के लिए यह साधन रूप  है, तेन इध्यस्व उससे (घृत संयुक्त समिधा से) प्रदीप्त हो वर्धस्व और वृद्धि को प्राप्त हो (उत्तम रूप से प्रज्जवलित हो) इद्ध वर्धय अन्यों को भी प्रकाशित कर और उनकी वृद्धि कर अस्मान् हम याज्ञिक गण को प्रजया उत्तम सन्तानों से पशुभिः पशुओं से ब्रह्मवर्चसेन ज्ञान तेज से अन्नाद्येन अन्नादि साधन से सम् एधय समृद्ध कर, समुन्नत कर स्वाहा इन उदात्त कामनाओं के पूर्त्यर्थ यह आहुति है। यह सम्पूर्ण कामनाएँ इदं अग्नये जातवेदसे-‘अग्रं यज्ञेशु प्रणीयते’(निरुक्त ७//१४) इस यास्क वचनानुसार यज्ञ में प्रणीत (निर्मित) जातवेदस्-‘जातानि वेद’ (निरुक्त ७//१९) उत्पन्न पदार्थों को जानने वाले  परमेश्वर के लिए अर्पित है-इदं मम-यह आहुति मेरे अहं भाव से नहीं है।

भौतिक दृष्टि से इस मन्त्र का सरलार्थ तो पाठकों को समझ में आ गया होगा। अब इस पर आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन आवश्यक है। यज्ञ की सम्पूर्ण प्रक्रिया आत्मोन्नति के लिए, शरीर से ऊपर उठने के लिए है, यह समझना आवश्यक है। सांसारिक कार्य करते हुए आत्मोन्नति के लिए संकल्पाग्नि को दृढ़ करना है। वह कैसे?

अयं आत्मा इध्म इस आत्मा को इध्म-समिधा रूप बनाकर ईश को समर्पित करना है। सांसारिक उन्नति-अवनति, मान-अपमान, यश-अपयश, जय-पराजय से ऊपर उठना है, समत्व भाववाली योग स्थिति को प्राप्त करना है।

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आत्मा को ‘इध्म’ बनाने से जीवन में यह महान् उपलब्धि होती है। महाराज भर्तृहरि लिखित वचनानुसार नीति में चतुर लोग निन्दा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी आये अथवा इच्छानुसार चली जावे, आज ही मृत्यु हो अथवा वर्षों के बाद हो- आत्मा को इध्म बनाने वाले, दृढ़ संकल्प वाले लोग न्याय के मार्ग से, सत्याचरण से एक कदम भी विचलित नहीं होते हैं।

तेन इध्यस्व वर्धस्व अर्थात् उस संकल्पाग्नि से स्वयं प्रदीप्त हों, और निरन्तर उन्नति को प्राप्त हों।

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मन ही मनुष्यों का बन्धन और मोक्ष का कारण है। अतः मन को संकल्पयुक्त रखना आवश्यक है, वह संकल्प ऐसा होना चाहिये जो प्रगतिवाला हो, संसार के बन्धन से छुड़ाने वाला हो, संसार के बन्धन से छूटना, संकल्पाग्नि के प्रदीप्त होने से सम्भव है, वह संकल्पाग्नि शुभ होगी, शिवत्व से युक्त होगी, तभी निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर होगी। अतः आत्मा को इध्म बनाकर ही मन की संकल्पाग्नि को प्रदीप्त करने की कामना याजक को करनी है।

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इद्ध वर्धय अन्यों को प्रकाशित कर और उनकी वृद्धि कर। हमारा ही आत्मा ‘इध्म’ न बने केवल हम ही उन्नति न करें, निश्चय से अन्यों को प्रकाशित करना है, उनकी भी वृद्धि हो।

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प्रजया सर्वप्रथम तो, इस आत्मा के लिए उसका शरीर तथा शरीरस्थ इन्द्रियाँ ही प्रजा है। यह प्रजा स्वस्थ रहे, शुद्ध विचारों से युक्त हो, जीवनोन्नति की सही दिशा पकड़े। हमें प्रति समय अपनी इस प्रजा के प्रति सावधान रहना चाहिये।

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द्वितीय रूप में हमारी सन्तान भी हमारी प्रजा है-जैसे शरीर और शरीरस्थ इन्द्रियाँ यज्ञभाव से युक्त हों, वैसे ही हमें अपने सन्तानों को यज्ञीय भाव से युक्त बनाना है।

तृतीय हमारी प्रजा हमारे पड़ोसी, आस-पास रहने वाले लोग भी प्रजा के रूप में है। हमारी यह प्रजा उत्तम होगी, शुद्ध भाव से संयुक्त होगी, तभी हम जीवन में सुख शान्ति से संयुक्त होंगे। यह भी आवश्यक है कि हमारे विचार सभी के लिए कल्याणकारी हों।

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पशुभिः सृष्टि के सम्यक् सञ्चालन में इन पशुओं का भी बड़ा योगदान है। यदि ये पशु न हों तो जीवन के आवश्यक तत्व भी नष्ट हो जायें, जीवन का सही दशा में पोषण हो, इसलिये भी उपयोगी पशुओं की आवश्यकता है। अतः यहाँ उत्तम उपयोगी पशुओं के लिए कामना की गयी है।

ब्रह्मवर्चसेन ब्रह्म तेज से।  ब्रह्म नाम वेद का भी है- वेद अर्थात् ज्ञान। ज्ञान का तेज भी चाहिए। मानव जीवन की सार्थकता ज्ञान के विकास में ही है। हममें और पशुओं में सबसे बड़ा अन्तर तो यही हे कि हम ज्ञान-तेज के द्वारा मोक्ष मार्ग को प्रशस्त कर लेते हैं।

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अन्नाद्येन माननीय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के अनुसार इसका अर्थ है- भोग्य पदार्थ के भोग सामर्थ्य से- इस प्रकार दो बातें हैं- प्रथम कामना भोग्य पदार्थों की है, द्वितीय भोगने का सामर्थ्य भी चाहिए। तात्पर्य स्पष्ट है भोगने के सामर्थ्यानुसार ही भोग्य पदार्थ होने चाहिए। भोगने का  सामर्थ्य है नहीं-साधन अनेक एकत्रित कर लेना उत्तम जीवन नहीं, यज्ञीय जीवन नहीं भोग्य पदार्थ भोग सामर्थ्यानुसार प्राप्त करने की कामना होनी चाहिये। अन्नादि साधन शरीर के लिए हैं-वर्त्तमान  में यह सब उलट गया है- शरीर भोग के साधनों के लिए हो गया है, यह उचित नहीं है। अयज्ञिय है।

वेद के अनुसार-

        अयज्ञियो हतवर्चा भवति 

-अथर्ववेद १२//२//३७

यज्ञहीन व्यक्ति का तेज नष्ट हो जाता है। अतः बहुत आवश्यक है कि हम अपरिग्रह की वृत्ति अपनावें, अर्थात् अपनी आवश्यकताओं को न बढ़ाते हुए वस्तुओं को अर्जित करें।

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वर्त्तमान में सामर्थ्य के विपरीत संग्रह वृत्ति से ही सामाजिक विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं। परिग्रह वृत्ति पाप भावना का विकास करती है।

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होना तो यह चाहिये था कि भोग सामर्थ्य, तो बना रहे पर भोग्य पदार्थों की लालसा जीवन में न रहे, शक्ति हो, सामर्थ्य हो पर वासनाएँ न हों। यह सब संकल्पाग्नि को जागृत रखने से, तीव्र रखने से आत्मा को इध्म बनाने से सम्भव है।

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इहलोक की साधना भौतिक साधना से, भौतिक शरीर को समृद्ध रखने वाले साधनों से सम्भव है- वह साधन हैं- उत्तम शरीर, उत्तम सन्तान, उत्तम पड़ोसी। यह तो हुआ प्रजया। द्वितीय पशु उपयोगी चाहिये। सृष्टि को सन्तुलित रखने में पशुओं का बहुत योगदान है, कृत्रिम खाद से पृथिवी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो गयी है। अब वैज्ञानिक चिन्तक गाय, बैल, बकरी आदि के मल को पृथ्वी की उर्वरा शक्ति के लिए अन्न समृद्धि के लिए उत्तम खाद समझने लगे हैं। शरीर के लिए अन्नादि की भी आवश्यकता है। यह तो इहलोक साधन के आवश्यक तत्व है। मोक्ष की साधना तो ‘ब्रह्मवर्चसेन’ होगी। ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य है। ब्रह्मभाव, विशालता का भाव, ‘द्यौरिव भूम्ना’ का भाव तो आत्मा को इध्म बनाकर स्वाहा अर्थात् उदात्त कामनाओं के पूर्त्यर्थ अपने आप को समर्पित कर देने से सम्भव है। पूर्व मन्त्र वर्णित इष्ट- आपूर्त कर्म को समर्पण भाव से साधित करना है। मात्र शरीर का चिन्तन नहीं, आत्म-चिन्तन में प्रवृत्त होना है। आप समर्पण भाव नहीं रखेंगे, तो भी तो एक दिन सब छूटना है, बलात् छुड़ा लिया जायेगा। क्यों न अभी से स्वयं त्यागने का संकल्प ग्रहण करें।

इदं अग्नये जातवेदसे-इदं मम यह अग्रिम उन्नति को साधन वाले जातवेदसे अर्थात जो सम्पूर्ण उत्त्पन्न हुए पदार्थों को जानता है और उन्हें प्राप्त है अर्थात ज्ञानस्वरूप परमात्मा  इदं मम अर्थात् यहाँ, यह सब मेरा नहीं है।

यह सब सम्भव होता है, हो सकता है- ज्ञान के विकास से। अतः प्रथम समिधा मुख्य रूप से ज्ञान के विकासार्थ है। शुष्क समिधा के समान यह जीवन नीरस है- समिधा में घृत लगा है- जीवन में स्नेह हो, श्रद्धा हो। अग्नि में समर्पित समिधा प्रकाशित होती है- ज्ञानपूर्वक समर्पित यह जीवन भी प्रकाशित हो जाता है, आनन्द सागर में निमज्जित होता है।

ऋषि दयानन्द की आर्ष बुद्धि का चमत्कार द्रष्टव्य है-‘भूर्भूवः स्वः’ मन्त्र से अग्नि प्रज्वलित की, ‘उद्बुद्धस्वाग्ने’ के द्वारा प्रतिजागृहि- संकल्पाग्नि को तीव्र करने का उद्बोधन है-अब आहुति का क्रम आरम्भ है-वह भी आत्मा को ‘इध्म’ बनाकर प्रथम समिधा की आहुति है-यह आहुति ज्ञान के विकास के लिए है। बिना ज्ञान के आस्तिक भाव नहीं होता है।

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द्वितीय समिधा आहुति मन्त्र

….क्या केवल ज्ञान के विकासमात्र से सम्पूर्ण उन्नति सम्भव है? शरीर की सम्पूर्ण यात्रा मात्र ज्ञान की उन्नति से पूर्ण हो सकती? नहीं, व्यवहार में ऐसा दिखाई नहीं देता। क्योंकि-

        बुभुक्षितैः व्याकरणं भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसं पीयते।

अर्थात् भूखा व्यक्ति व्याकरण ज्ञान के आधार पर भूख नहीं मिटा सकता है तथा प्यासा व्यक्ति काव्य ज्ञान-सम्पन्न होकर मात्र काव्य ज्ञान-रस से अपनी प्यास नहीं बुझा सकता है। इसलिए याजक ज्ञानानुसार कर्म की कुशलता के लिए द्वितीय घृत संयुक्त समिधा हाथ में लेकर मन्त्र पाठ करता है-

       ओम समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम। अस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा।। इदमग्नये- इदन्न मम ।। १ ।।

– यजुर्वेद ३//१

इस मन्त्र से और

        ओम सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे- इदन्न मम ।। २ ।।  

– यजुर्वेद ३//२

दूसरी समिधा को दो मंत्रों को बोलकर यज्ञ-कुण्ड में स्थापित किया जाता है। ऐसा कोई विधान नहीं है कि केवल एक मंत्र को बोल कर ही आहुति दी जानी चाहिए। श्रोत सूत्रों के विधान के अनुसार प्रथम मंत्र को तो उच्चारित किया जाता है और दूसरे मंत्र को मन में बोला जाता है। दूसरी समिधा की आहुति दूसरे मंत्र के पूरे हो जाने पर दी जाती है। कईं लोग प्रश्न उठाते हैं कि जब पहला मंत्र बोलने के पश्चात कोई आहुति ही नहीं दी जाती, तो मंत्र के अंत में स्वाहा क्यों बोला जाता है? ‘स्वाहा’ शब्द के चार अर्थ होते हैं, जबकि एक ही अर्थ के अनुसार इसके उच्चारण के साथ आहुति देनी चाहिए। इस प्रश्न के उत्तर में ‘स्वाहा’ शब्द के अन्य अर्थों पर हमें विचार करना चाहिए।

पहले मंत्र का महर्षि कृत अर्थ इस प्रकार है- हे विद्वानों! तुम समिधा जिससे अग्नि प्रदीप्त किया जाता है, उस समिधा से तथा घृतैः शुद्ध किऐ हुए सुगन्ध से युक्त घृतादि से अथवा यानों में जल की भाप आदि से, अग्निम् इस अग्नि को बोधयत उदीप्त करो तथा उसकी अतिथिम् जिसके आने-जाने वा निवास का दिन निश्चित नहीं, उस अतिथि के समान दुवस्यत सेवन करो। अस्मिन् इस अग्नि में हव्या हवन में देने योग्य सुगन्ध-कस्तूरी केसरादि, खाने योग्य मिष्ट-गुड़ शक्करादि, पुष्ट-घी, दूधादि तथा ग्रहण करने योग्य रोगनाशक-सोमलतादि ओषधियां, इन चार प्रकार की सामग्री से आजुहोतन अच्छी प्रकार हवन करो।

                                            -यजुर्वेद ३//१

हे मनुष्य लोगो! सुसमिद्धाय तुम अच्छे प्रकार से प्रदीप्त शोचिषे शुद्ध एवं दोषनिवारक जातवेदसे उत्पन्न मात्र पदार्थ में विद्यमान अग्नये रूप, दाह, प्रकाश छेदनादि गुण स्वभाव वाले अग्नि में तीव्रम् सब दोषों के निवारण में तीक्ष्ण स्वभाववाले घृतम् घी आदि पदार्थों को जुहोतन अर्थात् होम करो। (यजुर्वेद ३//२)

महर्षि कृत अर्थ द्वारा भौतिक दृष्टि से इसका अर्थ समझ में आ गया होगा! भौतिक दृष्टि से यह अग्नि समिधा तथा घृत द्वारा उदीप्त हो, तेजस्वी हो, जल-वायु को शुद्ध कर हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक हो, आदि भाव सर्वसाधारण के द्वारा सुगमता से गृहीत होते हैं, किन्तु इसके आध्यात्मिक भाव को भी समझना ग्रहण करना आवश्यक है।

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समिधा अग्निं दुवस्यत इससे प्रथम मन्त्र में आत्मा को इध्म समिधा बनाकर आहुति दी गई थी-ज्ञान के विकासार्थ आत्मा को इध्म बनाने का ध्रुव संकल्प लिया था। इस ध्रुव संकल्प को कर्म के द्वारा पुष्ट करने की प्रेरणा ग्रहण करनी है। समिधा अर्थात् आत्मा द्वारा अग्नि अर्थात् आत्माग्नि को, स्वयं को दुवस्यत अर्थात् कार्य करने में सेवा भाव से- यज्ञ भाव से तत्पर रहना है।

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प्रथम समिधा ज्ञान के विकासार्थ सर्मिर्पत थी। ‘आत्मा वा इध्मः’ (तैतरीय आरण्यक २//३//१0//३) आत्मा ही समिधा है इसको अग्नि से, संकल्प की अग्नि से प्रदीप्त करना है, यह संकल्प उत्तम कर्म सम्पादन के लिए हो, उत्तम कर्म सेवा कार्य है। सेवा कार्य में शिथिलता न आये इस संकल्पाग्नि को बनाये रखने के लिए यह द्वितीय समिधा की आहुति है।

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समिधा का आधान करके स्वयं को ब्रह्मवर्चस से तेज से प्रदीप्त करें। यह ब्रह्मवर्चस, और तेज को लोक कल्याण में लगाना ही कर्म की सार्थकता है, ज्ञान की सार्थकता भी कर्म में है। बिना कर्म के तो ज्ञान मात्र भार है।

जिस प्रकार श्रद्धापूर्वक अतिथि का सम्मान किया जाता है व उसकी भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात उसका लाभ उठाया जाता है, उसी श्रद्धा भाव से ईश्वर की आज्ञाओं पालन करो व उसका लाभ उठायो। आध्यात्मिक पृष्ठ-भूमि में घृत का अर्थ होगा- विवेक से अर्थात विवेक से ईश्वर की आराधना करो। यहाँ, जुहोतन का अर्थ करेंगे- अपने कर्मों को हवि बनाना अर्थात ईश्वर को समर्पित करना। 

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अपनी संकल्पाग्नि को देवव्रतों से अर्थात् सदैव सत्कर्मों से, पवित्र आचार विचार-व्यवहार से विवेक के साथ पुष्ट करने का संकल्प ग्रहण करना चाहिए।

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विवेक ज्ञान से कर्म पवित्र हो जाते हैं। अन्तःकरण की पवित्रता गुणों को ग्रहण करती है, दोषों को दूर करती है। प्रज्वलित अग्नि की ज्वालायें जैसे ऊपर उठती हैं, वैसे ही याज्ञिक अपने अन्दर उदात्त गुणों को धारण कर आत्मा को उन्नत बनावे। उन्नत आत्मावाला यह शरीर पूर्ण समर्पण के भाव से जन कल्याण में प्रवृत्त हो-अर्जित सम्पत्ति, शक्ति और ज्ञान का सदुपयोग लोक कल्याण में लगाना ही मानव जीवन की सार्थकता है।

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मानव जीवन को सरलता से मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने के लिए आत्मयाजी बनना आवश्यक है। आत्मयाजी को निम्न चार बातें ध्यान में रखनी चाहिये- १. भीतर के (अन्तःकरण के) दोष समाप्त हों। २. अन्तःकरण में दोष (नये दोष) न आवें। ३. गुण न जावें। ४. अन्य नये गुण विकसित हों। याज्ञिक को प्रतिदिन यज्ञ करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि शोचिषे – दोषनिवारक बने दिव्य तेजस्वी ही दोषों को स्वदोषों को समाप्त करके अपने अन्दर गुणों को धारण करके लोक हिताय अपने को समर्पित करे। प्रतिदिन स्वाध्याय से ज्ञान बल व आत्मबल प्राप्त करके उत्तम, पुण्यदायक कर्मों को सञ्चित करें।

घृतं तीव्रं जुहोतन अर्थात् घृतं अर्थात् देवव्रतों को तीव्रम् अर्थात् तेजी से शीघ्रता से, जुहोतन अर्थात् जनहित में समर्पित करो।

यह जीवन क्षणभंगुर है। 

                                            अश्वत्थे वो-से- पुरुषम्।                    

    – यजुर्वेद ३५//४

आज है तो कल का भरोसा नहीं है, अतः शुभ कर्मों का सञ्चय करने का प्रयत्न करना है। जीवन को यज्ञमय बनाना है। महाराज भर्तृहरि का यह वचन अत्यन्त प्रेरणादायक है-

                                  यावत्स्वस्थमिदं-से- प्रत्युद्यमः कीदृषः             

अर्थात् जब तक यह शरीर स्वस्थ है, रोग रहित है और जब तक बुढ़ापा दूर है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई है तथा जब तक आयु क्षीण नहीं होती है, तब तक ही विद्वान् मनुष्य को आत्मकल्याण करने में महान् प्रयत्न करना चाहिये। भवन के जल जाने पर कुंआ खोदकर आग बुझाने का प्रयास तो व्यर्थ ही होगा।

स्वाहा अर्थात् ‘सु आह इति वा’ (निरुक्त ८//१0) के अनुसार उत्तम व सत्य वाणी के साथ देवव्रतों के पूर्त्यर्थ तथा संकल्पाग्नि को समर्पण भाव सहित परहित कर्म में लगाने हेतु यह आहुति है।

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इस प्रकार प्रथम समिधा ज्ञान के विकासार्थ है तो दूसरी समिधा कर्म के सम्यक् सम्पादन के लिए है।

तृतीय समिधा आहुति मन्त्र

       

तीसरी समिधा के आधान के लिए मंत्र है-

                                     तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।। इदमग्नयेsङ्गिरसे- इदन्न मम ।।                    

  – यजुर्वेद ३//३

अंगिरः हे सबको प्रकाशित करने वाली अग्नि! तम् त्वा तुझको समिभ्दिः समिधाओं से और घृतेन घृत से वर्धयामसि निरन्तर बढ़ाते हैं। यविष्ठय हे पदार्थों को मिलाने और पृथक् करने वाले अग्ने! बृहत् बहुत अधिक शोच प्रदीप्त हो स्वाहा यह याजक घृत युक्त समिधा की आहुति देता है। इदम् यह आहुति अंगिरसे अग्नये अंगिरा अग्नि के लिए है, इदं मम यह मेरी नहीं है। घृत और समिधा के माध्यम से अग्नि को बढ़ाने का तात्पर्य यह है कि अच्छी तरह प्रदीप्त हुई अग्नि उसमें डाले जाने वाले पदार्थों को अच्छी तरह सूक्ष्म करके इस वायुमण्डल में फैला दे। 

भौतिक दृष्टि से मन्त्र का सामान्य अर्थ सरल है। इसका आध्यात्मिक अर्थ इस प्रकार होगा-

अंगिरः प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु में रसवत् विद्यमान अग्नि ईश्वर (अंगिराः अंगेशु रसवद् वर्तमानः ऋग्वेद १//३१//७ ) तम् त्वा उस आपको समिभ्दिः अतिशय तीव्र संकल्पों से, विचारों से घृतेन देवव्रत से (देवव्रतं वै घृतम्) अथवा प्रदीप्त विज्ञान से, विशेष ज्ञान से (घृतस्य-प्रदीप्तस्य विज्ञानस्य-यजुर्वेद १७//९८ दयानन्द भाष्य) वर्धयामसि अपने को प्रदीप्त करते हैं,- तेजस्वी बनाते हैं। त्वम् बृहत् आप अधिक विशालरूप में शोचा तेजस्विता या पवित्रता प्रदान करने वाले हैं (शोचिः ज्वलतो नामधेयम्-निघन्टु १//१७) (शोचा-पवित्रकराय ऋग्वेद ५//५//१) यविष्ठय एवं ईश्वर हमारे दोषों को छिन्न-भिन्न करने में सदैव समर्थ हैं, ऐसे  सामर्थ्यशाली प्रभु के लिए स्वाहा पूर्ण रूप से समर्पण भाव है। इदमग्नये अंगिरसे यह समर्पण तेज स्वरूप  अंग-अंग में रस प्रदान करने वाले प्रभु के लिए है।

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आध्यात्मिक भाव को इस प्रकार ग्रहण करना उत्तम होगा-

अंगिरः तं त्वा अर्थात् वह परमात्मा ही अणु-अणु में व्याप्त होकर सबको प्रकाशित कर रहा है, सब में इस रूप में वही विद्यमान है। कठोपनिषत्कार के शब्दों में-

                                 तत्र सूर्यो-से-सर्वमिदं विभाति।        

     – कठोपनिषद् ५//१५

सूर्य, चन्द्र, तारे, विद्युत, अग्नि आदि में तेजस्विता उसके तेज से ही है, उसकी कृपा से ही सब प्रकाशित हैं।

उसकी कृपा प्राप्त करने के लिए हमें सत्पात्र बनना चाहिये। सत्पात्र बनने के लिए उसके प्रति श्रद्धा आवश्यक है, इस श्रद्धा को उत्पन्न करने एवं उसको दृढ़त्व प्रदान करने के लिए यहां ‘अंगिरः’ शब्द प्रयुक्त है।

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भौतिक सम्पदा में मनुष्य आत्मा को भूल जाता है, शरीर को ही सब कुछ समझने लगता है, थोड़ा-थोड़ा धन, बल, ज्ञान प्राप्त करके अहम्मन्य हो जाता है, वह उसे भी भूल जाता है जिसकी कृपा से यह सब प्राप्त है। अहंकार भाव के विकास से जीवन का रस, आनन्द ही समाप्त हो जाता है। रसस्वरूप तो वह परमात्मा ही है- ‘रसो वै सः रसं ह्मेवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति’।         

तैत्तिरीय उपनिषद् के इस वचन के अनुसार वही ईश्वर रसस्वरूप है, उसी को प्राप्त करके व्यक्ति आनन्द को प्राप्त होता है। अतः इस मन्त्र में भी परमात्मा को ‘अंगिर’ कहा है।

समिभ्दिः घृतेन वर्धयामसि अतिशय तीव्र संकल्पों से देवव्रत से स्वयं को प्रदीप्त करते हैं। विद्वान् लोग अपनी महिमा को स्वयं फैलाते हैं।

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त्वम् बृहत् शोचा हे परमेश्वर! आप महान् पवित्रता या तेजस्विता प्रदान करने वाले हैं।

इस विशाल संसार में हमारा सच्चा सखा, अच्छा हितैषी एवं प्रत्येक दशा में हमारा सहयोगी एकमात्र वह परमेश्वर ही है। यह भावना याजक को अपने अन्दर आत्मसात् कर लेनी चाहिये।

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यविष्ठच स्वाहा हमारे दोषों को छिन्न-भिन्न करने में सदैव समर्थ प्रभु के लिए यह समर्पण है। यजुर्वेद में स्पष्ट वर्णित है-

                                           दृष्ट्वा रूपे-से-प्रजापतिः।        

         – यजुर्वेद १९// ७७

अर्थात् सत्य-असत्य के स्वरूप को देखकर प्रजापति अर्थात् प्रजा पालक परमेश्वर दोनों के स्वरूप को पृथक्-पृथक् कर देता है। परमेश्वर असत्य में अश्रद्धा धारण कराता है और सत्य में श्रद्धा धारण कराता है।

श्रद्धा का अर्थ है श्रत् अर्थात् सत्य को धारण करना ही श्रद्धा है। अतः विचारपूर्वक सत्य में आस्था रखनी चाहिए। असत्य में श्रद्धा सम्भव ही नहीं है। परमात्मा की उपासना करने वाला ही सत्य में स्थिर रहता है।

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मनुष्य जीवन पाकर हम संसार में इतने अधिक उलझ जाते हैं तथा अपनी उपलब्ध्यिों पर ‘अहम्’ भाव में लिप्त हो जाते हैं कि उस नियन्ता को भूल जाते हैं, संसार में सुख भोगने के लिए नानाविध पदार्थ मिले हैं, रसना मिली है तो विविध रस युक्त पदार्थ मिले हैं नेत्र मिले हैं, तो विविध दृष्य भी हैं, आदि सब हम नहीं बनाते हैं। जिस जल और वायु से जीवन चल रहा है, उन सबका निर्माण उस जगन्नियन्ता की कृपा का फल है। कैसा आश्चर्य है-

                                 तं-से- बभूव।                        

-ऋग्वेद 0//८२//७

हम उसे ही नहीं जानते हैं, जिसने यह सब बनाया है, हमारे अन्दर कोई अन्य ही अन्तर आ गया है, हमने किसी और को बसा लिया है, संसार बसा लिया है, नाते-रिश्ते, जमीन-जायदाद, धन-वैभाव आदि में उलझ गये हैं। इस उलझन में उसे भूल गये हैं जो आनन्दस्वरूप  है, आनन्ददाता है। इसीलिए याज्ञिक अन्त में कहता है, यह आहुति मैं नहीं-मेरे अन्दर में अहं भाव से नहीं अपितु उसे आगे ले जाने वाले तेजस्वरूप अग्नि के लिए- परमेश्वर के लिए अंग-अंग में रस सञ्चार करने वाले अंगिरस प्रभु के लिए समर्पित यह आहुति सार्थक है।

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तीन ही समिधाएँ क्यों

वेदादिशास्त्रों में तीन संख्या का प्रयोग प्रायः दिखायी देता है।

यज्ञ के तीन कदम है-पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक। तात्पर्य यह है यज्ञ में डाले गये घृतादि पदार्थ सूक्ष्म होकर पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक तक को प्रभावित करते हैं तथा परमेश्वर भी तीनों लोकों का स्वामी है! यज्ञ का आरम्भ तीन आचमन मन्त्रों से होता है। धर्म के तीन ही आधार कहे गये हैं-

        त्रयो धर्मस्कन्धाः यज्ञस्तपोऽध्ययनम्

इसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति के तीन आधार हैं- धर्म-अर्थ-काम। मनुष्य, जन्म के साथ ही ‘त्रीभिः ऋणैः ऋणवान् जायते’  तीन ही पितृ (माता-पिता) आचार्य एवं देव इन ऋणों से आबद्ध होता है। यज्ञोपवीत में तीन तार होते हैं। तीन गुण-सत, रज एवं तम प्रसिद्ध हैं। ईश्वर, जीव एवं प्रकृति तीन अनादि तत्व होते हैं। श्रवण, मनन, तथा निदिध्यासन तीन उन्नति के सोपान हैं। नरक के तीन द्वार प्रसद्धि हैं-काम, क्रोध एवं लोभ। वेदारम्भ संस्कार में भी ब्रह्मचारी -‘अग्नये समिध.’ मन्त्र तीन बार बोलकर तीन समिधाएँ समर्पित करता है। मन, वाणी एवं कर्म ये तीन प्रसिद्ध हैं। अधम-मध्यम-उत्तम ये तीन प्रकार के मानव होते हैं तथा कर्मानुसार इनकी तीन ही गतियां होती हैं।

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वसु, रुद्र, आदित्य संज्ञक तीन ब्रह्मचारी होते हैं। उपनयन संस्कार में बोल के हाथ में तीन बार जलाञ्जलि छोड़ने का विधान है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक सूत्रस्थान अ. ११//३२ में वर्णित है-‘‘त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति’। आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य ये शरीर के तीन आधार हैं।

दुख तीन प्रकार के होते हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक। तीन कामनाएँ बन्धन का, दुख का कारण हैं-वित्तैषणा, पुत्रैषणा एवं लोकैषणा। माया सम्पदा, आत्मा सम्पदा एवं ब्रह्म सम्पदा-तीन सम्पदायें हैं। प्रथम समिधा ऋग्वेदस्थ ज्ञान-प्रधानता की दृष्टि से। द्वितीय समिधा यजुर्वेदस्थ कर्मप्रधानता की दृष्टि से तथा तृतीय समिधा सामवेदस्थ उपासना-प्रधानता की दृष्टि से आहुति प्रदान करनी है।