खण्ड ३ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

अघमर्षण (१)

पिण्ड के पश्चात् हम ईश्वर की महिमा को ब्रह्माण्ड में देखना चाहते हैं। हमारा पिण्ड अर्थात् शरीर तो बहुत छोटी वस्तु है। इसका सम्बन्ध केवल हमारे व्यक्तित्व से है। ईश्वर की सृष्टि इतनी छोटी नहीं है। चींटी का शरीर कितना छोटा है! चींटी के लिए तो यही दुनिया है। परन्तु, वास्तविक सृष्टि अर्थात् ईश्वर की रचना तो बड़ी विशाल है। जब हम ईश्वर का ध्यान करते हैं तो पिण्ड के संकुचित घेरे से बाहर निकलकर विस्तृत जगत् में आना पड़ेगा।

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वस्तुतः इन तीन मन्त्रों में यह बताया गया है कि जिस परमात्मा के प्रकाश को तुम अपने पिण्ड में देखते हो, उसी प्रभु के उसी प्रकाश को उदार दृष्टि से समस्त ब्रह्माण्ड में देखने का प्रयास करो। इसीलिए ये तीन मन्त्र संध्या में रक्खे गये हैं, क्योंकि हमारा ध्यान ‘ब्रह्माण्ड’ के माध्यम से परमात्मा तक पहुँचता है। जिस परमात्मा को हम केवल अपनी आँखों का दाता और प्रमाता समझते थे, वह हमारी आँखों से चलकर दुनिया भर की आँखें अर्थात् सूर्य-चन्द्र का दाता और प्रमाता (धाता) है।

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हम ‘पिण्ड’ से निकलकर ‘ब्रह्माण्ड’ की ओर क्यों आकर्षित हों? इसका सीधा उत्तर यह है कि हम ब्रह्माण्ड के एक छोटे-से अवयव हैं। ‘अवयव’ ‘अवयवी’ का एक भाग है, और अवयव का अस्तित्व अवयवी के अस्तित्व के आश्रित है। हमारी आँख सूर्य के प्रकाश की अपेक्षा रखती है, हमारे प्राण वायु के ऋणी है, इसी प्रकार शरीर के अन्य अंग हैं। ब्रह्माण्ड का चिन्तन करके हम अपना सम्बन्ध संसार की सभी बड़ी-बड़ी चीजों से जोड़ लेते हैं। हमारा शरीर आश्रित है भूमि के। भूमि आश्रित है सौर मण्डल के। सौर मण्डल आश्रित है ब्रह्माण्ड के और ब्रह्माण्ड आश्रित है ब्रह्म अर्थात् ईश्वर के। इसीलिए ईश्वर को ‘विधाता’ कहा। क्रमशः हमारे सम्बन्धों में विशालता आ गई। हमारा सम्बन्ध केवल आँख से नहीं, अपितु सूर्य से भी हो गया। सम्बन्धों के आधिक्य से स्वरूप में भी आधिक्य हो जाता है।

दूसरे प्राणियों से सम्बन्ध जोड़ने के लिए भी ब्रह्माण्ड की आवश्यकता हो गई। आपकी आँख से केवल आप देख सकते हैं। कुत्ते की आँख से केवल कुत्ता देखता है। दूसरे लोग अपनी-अपनी आँख से देखते हैं। परन्तु सूर्य तो मेरा भी, कुत्ते का भी, बिल्ली का भी, सब मनुष्यों का तथा सब प्राणियों का एक सांझे का उपकरण है। इसमें हम सब सांझेदार हैं, इसलिए हमको केवल अपने पिण्ड तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये। अन्यथा हम कूपमण्डूक हो जायेंगे और ईश्वर हमको बहुत छोटा प्रतीत होगा। छोटे ‘उपास्य’ के उपासक में भी छुटपन आ जायगा। हम लघु-दर्शी हो जायेंगे। ऐसा ध्यान दूषित ध्यान होगा। अत एव संध्या के दूसरे भाग में बताया गया कि ईश्वर की ज्योति को पिण्ड से बाहर ब्रह्माण्ड में भी देखना चाहिये।

यहाँ, यह बात याद रखनी चाहिये कि आरम्भ ब्रह्माण्ड से नहीं कर सकते थे। ध्यान का आरम्भ निकट से होना चाहिये। हमारा पिण्ड ही हमारा निकटतम साधन है। यदि हमारे आँख न होती, तो हम यह नहीं जान सकते थे कि अन्य मनुष्य भी उसी भाँति आँख से देखते हैं और उनके शरीर में भी उसी प्रकार के अंग हैं। जब, एक डाक्टर किसी रोगी की टाँग को देखता है, तो वह अपनी टाँग का भी अनुभव करता है और सोचता है कि जैसे मेरी टाँग में पीड़ा हो सकती है, इसी प्रकार दूसरे की टाँग में भी होती होगी। हम दूसरे की टाँग को तो अपनी आँख से देख सकते हैं, दूसरे की पीड़ा को कैसे जानें, जब तक कि अपने शरीर की पीड़ा की अनुभूति न हो? इसलिए ब्रह्माण्ड को समझने के लिए हम आरम्भ करते हैं अपने पिण्ड या शरीर से। न तो बिना पिण्ड के ब्रह्माण्ड को समझा जा सकता है, न बिना ब्रह्माण्ड के ज्ञान के हमारे पिण्ड का ज्ञान पूर्णता को प्राप्त कर सकता है।

हमारे पिण्ड में और ब्रह्माण्ड में एक प्रकार का सादृश्य है। शरीर में रुधिर की नालियाँ हैं। ब्रह्माण्ड में पानी की नदियाँ हैं। जो काम ब्रह्माण्ड की नदियाँ ब्रह्माण्ड में करती हैं वही काम रुधिर की नालियाँ हमारे शरीर में करती हैं। हमारा शरीर भी एक छोटा-मोटा जगत् है। यह भी एक संविधान है। हमारे शरीर में हड्डियाँ हैं। इन हड्डियों के द्वारा ही हम अपने शरीर को खड़ा रख सकते हैं। ब्रह्माण्ड में जो पहाड़ हैं वे हमारी हड्डियों के समान हैं। इनसे दुनिया स्थित रहती हैं। हमारे शरीर के भीतर प्राणों का संचार होता है, जगत् में हमारे प्राणों के ही समान वायु-मण्डल है। जिस प्रकार जगत् में आक्सीजन और हाईड्रोजन के कण मिलकर पानी बनाया करते हैं, इसी प्रकार हमारे शरीर में भी किसी चीज से आक्सीजन और किसी चीज से हाईड्रोजन निकलकर पानी बना देते हैं। यदि हमारे शरीर में पानी बनाने का यह काम जारी न रहता तो हम खुश्की के मारे मर जाते, जैसे यदि वर्षा न हो तो सूखा के मारे सारा संसार नष्ट हो जाय।

ब्रह्माण्ड को देखने से हमको आह्लाद होता है। यदि आपको एक कोठरी में बन्द कर दिया जाय और आपकी जीविका के समग्र साधन सम्पादित किये जावें तो थोड़े ही दिनों में आप थक जावेंगे। यदि इस कोठरी से बाहर आपको निकाला जाय तो आपको बहुत आनन्द होगा। यह आनन्द जीविका के साधनों के आधिक्य के कारण नहीं है, अपितु स्थान की विशालता के कारण है। चिड़िया का छोटा सा बच्चा भी घोंसले से बाहर आकाश में विचरना चाहता है, ताकि वह जगत् की विशालता में सांझीदार हो सके। हमको समुद्र की ओर देखकर क्यों हर्ष होता है? हमारा काम तो थोड़े से जल से भी चल सकता था। परन्तु समुद्र प्रभु की विशालता का एक चित्र हमारे सामने खींच देता है। समुद्र की विशालता हमारी दृष्टि को भी विशालता प्रदान कर देती है। तंगदिल न रहकर हम उदारचित्त और महाशय बन जाते हैं। हमारे आनन्द में वृद्धि हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि संध्या के दूसरे भाग में हम ईश्वर का ध्यान ब्रह्माण्ड के माध्यम से करें।