खण्ड ३ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)

तृतीय मन्त्र

ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का तृतीय मन्त्र इस प्रकार है-

आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषम् यस्य देवाः।

यस्यच्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

-यजुर्वेद २५//१३

यः अर्थात्  जो, आत्मदा अर्थात् आत्मज्ञान का दाता, बलदाः अर्थात् शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने हारा, यस्य अर्थात् जिसकी, विश्वे देवाः अर्थात् सब विद्वान् लोग, उपासते अर्थात्  उपासना करते हैं, और यस्य अर्थात् जिसके, प्रशिषम् अर्थात्  प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, यस्य अर्थात् जिसका, छाया अर्थात् आश्रय ही, अमृतम् अर्थात् मोक्षसुखदायक है, यस्य अर्थात् जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही, मृत्युः अर्थात् मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस कस्मै अर्थात् सुख स्वरूप , देवाय अर्थात् सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए, हविषा अर्थात् आत्मा और अन्तःकरण से, विधेम अर्थात् भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।

महर्षि ने उक्त अर्थ के द्वारा प्रत्येक उपासक को यह उत्तम प्रेरणा दी है-

वह ईश्वर महान् दाता है। वह ईश्वर ही उपास्य है।

उस ईश्वर का न्याय मान्य है। उस ईश्वर की शिक्षा मान्य है।

उसका आश्रय ही अमृत है। उस का मानना दुःख है।

ऐसे उस महान् ईश्वर को समर्पण करने योग्य वस्तु हमारे पास अन्तःकरण है।

ग्रहण करने योग्य आत्मा है। आत्मोन्नति ही प्राप्तव्य है।

महर्षि ने उपासक के हृदय में परमात्मा के प्रति दृढ़ श्रद्धा भाव उत्पन्न करने के लिए इस मन्त्र में ईश्वर की महत्ता का वर्णन किया है। पूर्ण भक्ति भाव के साथ, तन्मयता के साथ, अर्थ सहित मन्त्र का पाठ करने से उत्तम लाभ प्राप्त होता है। निरुक्त का वचन है-

                                     स्थाणुरयं-से-ज्ञानविधूतपाप्मा।        

  -निरुक्त १//६//१८

जो मनुष्य मात्र वेद मन्त्र का पाठ करके उसके अर्थ को नहीं जानता है, वह मात्र भार को ढोने वाले स्थाणु=जड़ भाव के समान मूर्ख मनुष्य है। जो मन्त्रों के अर्थ को जानता है वह (तदनुकूल आचरण से) पवित्रात्मा होकर, संसार के सम्पूर्ण कल्याण एवं आनन्द को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि- ज्ञानं भारः क्रियां बिना

बिना क्रिया के या अर्थ-ज्ञान के ज्ञान मात्र भार है। क्रिया शून्य या वाक् शूर इसमें सफल नहीं होते हैं। इस प्रकार उक्त वचन का भाव यह है कि मन्त्रार्थ ज्ञान रस प्रदान करता है, आनन्द देने वाला होता है। अतः मन्त्र पाठ करते समय उसके अर्थ में तल्लीन होने का अभ्यास उपासक को अवश्य करना चाहिए। इससे मन इधर-उधर भटकता भी नहीं है, साथ ही आनन्द में लीन होता है। ऋषिकृत मन्त्रार्थ का वैशिष्टय तो विशेष आनन्ददायी होता है। महर्षि दयानन्दकृत इस मन्त्र के अर्थ का वैशिष्टय इस प्रकार है-

यः आत्मदाः अर्थात् जो आत्मज्ञान का दाता।

सामान्यतः व्यक्ति इसका अर्थ आत्मा को देने वाला करते हैं, किन्तु महर्षि ने इसका अर्थ आत्मज्ञान का दाता किया है। निश्चय से महर्षि दयानन्द की यह सर्वतोमुखी ऋषि बुद्धि का ही चमत्कार है।

यह सर्वविदित है कि इस आत्मा को, कल्याणार्थ शरीर की प्राप्ति, परमेश्वर की ही कृपा से है। शरीर, मानव-शरीर प्राप्त होने पर ही जीवात्मा को आत्म-बोध, आत्मज्ञान होता है। अतः महर्षि ने ‘आत्मदा’ का अर्थ जो आत्मज्ञान का दाता’ किया है वह युक्ति युक्त है।

बलदाः अर्थात् शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने हारा। निश्चय से बल के तीन रूप होते हैं-शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक। आर्यसमाज का छठा नियम है-‘संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

वैसे भी जीवन की वास्तविक उन्नति शारीरिक उन्नति नहीं है। शरीर में बल हो किन्तु आत्मा में बल न हो तो व्यक्ति संकल्पहीन हो जाता है। उसमें किसी कार्य को पूर्ण करने का दृढ़ निश्चय नहीं होता है।

आशा सर्वोत्तम प्रकाश है, यह प्रकाश आत्मबल से ही प्राप्त होता है। उपनिषद् का वचन है-

                               ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः।            

  -मुण्डकोपनिषद् १//२//४

यह आत्मा बलहीन (शारीरिक एवं आत्मिक) के द्वारा प्राप्तव्य नहीं है।

आर्यसमाज का नवम नियम है-‘प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट रहना चाहिये किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।

शरीर उन्नत हो, आत्मा उन्नत हो। इस व्यक्तिगत साधना की सफलता, पूर्णता सामाजिक उन्नति के बिना असम्भव है। जिस मार्ग पर, जिस विचारधारा को आप जीवन की उन्नति का साधन समझते हैं, उस विचारधारा वाले अन्य लोग न हो, समाज के लोग न हो तो हम चाहकर भी उस विचारधारा पर न चल पायेंगे। सभी आसुरी विचारधारा के लोग हों तो उसके मध्य में देवत्व विचारधारा वाले शान्ति से नहीं रह सकते हैं। वहां सत्य बोलना भी सह्य नहीं होता है।

सत्य ही कहा है कि मात्र शारीरिक, आत्मिक बल ही नहीं अपितु सामाजिक बल की प्राप्ति पर ही जीवन की सम्पूर्ण सफलता निहित रहती है। अतः महर्षि ने ‘बलदाः’ का अर्थ शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने हारा उचित ही किया है।

यस्य विश्वेदेवाः उपासते अर्थात् जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं।

यह संसार बड़ा विशाल है। इस विशाल विश्व में जितने महापुरुष हुए हैं, ऋषि-मुनि हुए हैं सभी ने उस परमात्मा की स्तुति किसी न किसी रूप में की है। उस परमेश्वर की उपासना से उन्हें आत्मिक बल का सम्बल प्राप्त हुआ है। मर्यादा पुरुषोंत्तम श्रीराम ने भी उस परमेश्वर की उपासना की है, योगीराज श्रीकृष्ण ने भी उसकी उपासना कर अपने को धन्य माना है।

वर्त्तमान समय में विज्ञान की प्रगति में अन्धे हुए मनुष्य उस परमात्मा की सत्ता को भूल जाते हैं। जबकि विज्ञान सृष्टि के उन अज्ञात नियमों की खोज करता है जिन नियमों से सृष्टि चल रही है। विज्ञान नियमों को स्वीकार करता है किन्तु नियामक को स्वीकार न करे यह तो आश्चर्य है। महान् वैज्ञानिकों ने सृष्टि के अद्भुत रहस्यों को खोज करके उसकी सत्ता को केवल स्वीकारा ही नहीं अपितु उसके आगे वे नतमस्तक हो, उसकी उपासना भी करते हैं। अकबर इलाहाबादी ने लिखा है-

भूलता जाता है यूरोप आसमानी बाप को,

बस खुदा समझा है उसने बर्क और भाप को।

बर्क गिर जायेगी इक दिन और उड़ जायेगी भाप,

देखना अकबर बचाये रखना अपने आप को।

विश्वेदेवाः अर्थात् विश्व के ये जड़ देवता सूर्य, चन्द्रादि भी सब उसके अनुशासन में उसी ईश्वर के सामर्थ्य से प्रकाशित हैं-

                               भयादस्याग्निस्तपति -से-मृत्युर्धावति पञ्चमः। 

          -कठोपनिषद् ६//३

इतना ही नहीं उस परमेश्वर के प्रकाश से ही ये जड़ देव तेज युक्त हैं-

                                     तत्र-से-सर्वमिदं विभाति।          

  -कठोपनिषद् ५//१५

यस्य प्रशिषम् अर्थात् जिसके प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं।

परमेश्वर के अनेक नामों में एक नाम यम भी है। ‘नियम्यते इति यमः’ जो परमेश्वर सब को नियम से रखता है, किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है, यही उसका सत्यस्वरूप शासन है, यही न्याय व्यवस्था है। यह उसकी महान् शिक्षा है, जिसे आस्तिक नास्तिक विज्ञ-अज्ञ सभी स्वीकार करते हैं। सत्य तो यह है कि परमात्मा के ऋत नियमों को बदलने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। जन्म-मृत्यु का चक्र सभी को स्वीकार करना ही पड़ता है। कर्म-स्वातन्त्रय तो जीवात्मा को प्राप्त है, किन्तु फल उस जगन्नियन्ता के हाथ में है। क्या हमारा प्रतिदिन का अनुभव हमें यह नहीं बताता है कि कुछ कार्य हमारे न चाहते हुए भी होते हैं, कौन चाहता है कि सिर के बाल सफेद हों, इन्द्रियों की शक्ति शिथिल हो, युवावस्था समाप्त हो, जीवन की चाल रुक जाये, न चाहकर भी यह सब होता रहता है। अगला शरीर कौन सा मिलेगा-हमें इसका बोध कहां है? क्या हम इस बोध को अनायास पा सकते हैं? आत्मा तो अजर अमर है। शरीर ही नश्वर है-शरीर एक चोला है, आत्मा तो वही रहता है केवल मात्र चोला बदला करता है।

जो कुछ जीवन पर्यन्त करते हैं, वह सब सूक्ष्म शरीर के साथ रहता है, उसी के आधार पर अगला शरीर ईश्वरीय व्यवस्था, न्याय अथवा शासन से प्राप्त होता है। वहाँ कर्मफल व्यवस्था में कोई त्रुटि नहीं होती है, वहाँ सिफारिश भी नहीं चलती है। कोई मित्र, बन्धु बान्धवादि भी सहयोग नहीं कर सकते हैं, जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल प्राप्त करता है। अथर्ववेद का वचन है-

                                        किल्विषमन्त्र-से-पुनराविशति।  

       – अथर्ववेद १२//३//४८

अतः महर्षि ने प्रशिषम् का जो-‘प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं’, यह अर्थ जो किया है, वह उस परमेश्वर की व्यवस्था में आस्था रखने वाला है, सर्वथा उचित है।

यस्य छाया अमृतम् अर्थात् जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है। इस संसार में एक परमेश्वर का आश्रय ही तो मोक्षसुखदायक -आनन्ददायक है। अन्य सभी भौतिक वस्तुयें क्षणिक सुख देने वाली हैं। यजुर्वेद का मन्त्र है-

                                       वेदाहमेतं पुरुषं -से-विद्यतेऽयनाय।              

यजुर्वेद ३१//१८

अज्ञान से पृथक् सूर्य के समान तेजस्वी उस सर्वव्यापक महान् पुरुष को जानकार ही मनुष्य मृत्यु से पार हो जाता है। उसके आश्रय के बिना अन्य कोई मोक्ष का मार्ग ही नहीं है।

जो ईश्वर का आश्रय प्राप्त कर लेता है उसे संसार में मृत्यु का दुःख भी नहीं व्यापता है। अनेक महान् आत्माओं ने मृत्यु का मुस्कारते हुए वरण किया है। क्योंकि उन्होंने उस परमेश्वर का आश्रय महान् सुखदायक अनुभव कर लिया है।

….

मृत्यु सामने खड़ी हो तब भी यह आनन्द, यह मस्ती, ईश्वर का आश्रय प्राप्त करने वाले को सुलभ है। ऐसे ईश्वर भक्त ही मोक्ष के अधिकारी बनते हैं, आवागमन के चक्र से छूटते हैं।

यस्य मृत्युः अर्थात् जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है।

बहुत से लोग केवल ईश्वर को मानते ही हैं, वाणी मात्र से उसकी सत्ता को स्वीकार करते हैं किन्तु भक्ति -उसके आदेशों का पालन नहीं करते हैं, अथवा उसकी उपासना करके अपने अन्तःकरण को पवित्र नहीं करते हैं, आत्मिक बल नहीं प्राप्त करते हैं, वे मृत्यु को, मृत्यु के दुःख को प्राप्त होते हैं। उनके लिए मृत्यु वह आनन्द नहीं है जो उसका आश्रय प्राप्त करने वाले को होती है। उसका आश्रय पाने वाला तो आपत्तियों को प्रणामपूर्वक मांगता है-

                                              नमोऽस्तु -से-नमो मृत्यवे।          

अथर्ववेद ६//६३//२

हे विपत्ति देने वाले प्रभो! मैं न मांगू तो भी मेरे जन्म जन्मान्तरों के कर्मों के अनुसार आप मुझे विपत्तियाँ दुःख देंगे। मैं आपके आश्रय को पाकर, आपकी भक्ति करके अच्छी प्रकार समझ गया हूँ कि ये समस्त विपत्तियाँ मेरे लोहे के समान मजबूत, कठोर बन्धन के पाश को ढीला करने वाली हैं। अतः मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। यह दृढ़ता ईश्वर भक्त में अनायास आ जाती है। अतः महर्षि ने ठीक ही लिखा है- उसको न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है।

कस्मै देवाय अर्थात् सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए।

हविषा विधेम अर्थात् आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।

महर्षि दयानन्द ने ‘हविषा’ के दो अर्थ किये हैं-‘आत्मा और अन्तःकरण’। उस महान् ईश्वर की ओर स्वयं को आत्मानुभूति की प्राप्ति अन्तःकरण अर्थात् शरीर की प्राप्ति से होती है। शरीर साधन है, इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए, पवित्र अन्तःकरण से ही आत्मा और परमात्मा का बोध होता है। अन्तःकरण की पवित्रता समर्पण भाव से अनायास उपलब्ध होती है। अतः समर्पण के योग्य हवि हमारे पास अन्तःकरण है। ग्रहण करने योग्य हविः हमारे पास आत्मा-तत्व है। शरीर तो मात्र नश्वर है। यजुर्वेद की वाणी है-

                                          तव शरीरं-से-जर्भुराणा चरन्ति।             

यजुर्वेद २९//२२

हे जीवात्मन्! मेरा शरीर पतनशील है व चित्त वायु के समान चञ्चल है, मेरी इन्द्रियाँ विशाल विषय वासनाओं के वन में स्वतन्त्रता के साथ विचरण कर रही है।

वेद के उक्त वचन से यही प्रेरणा प्राप्त होती है कि अन्तःकरण को, शरीर को समर्पित कर देना ही उत्तम है, तभी यह वासनाओं से विरत होकर आनन्द को प्राप्त करने का पात्र बनेगा। ग्रहण करने योग्य यह संसार नहीं हैं, विषयानन्द नहीं अपितु ग्रहण करने योग्य आत्मा है, आत्मानन्द है। अतः आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् आज्ञापालन। ‘भज् सेवायाम्’ धातु से भक्ति शब्द बनता है। सेवा का तात्पर्य आज्ञा पालन से है। वेद की, परमेश्वर की आज्ञा है-

                                   कुर्वन्नेवेहसे लिप्यते नरे।         

  – यजुर्वेद ०//

कर्म करते हुए ही समस्त आयु तक जीने की इच्छा रखनी चाहिये। यहां कर्म करने के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग भी नहीं है। इस प्रकार निष्काम कर्म करें कि ये कर्म बन्धन के कारण नहीं बनें। यह निष्काम कर्म तभी सम्भव है, जब जीवन ईश्वरार्पण हो जाता है। आत्म-बोध होने पर ही समर्पण का भाव आ जाता है। ईश्वर की भक्ति केवल ईश्वर का नाम रटने में नहीं, कीर्तन मात्र करने में नहीं है अपितु उसकी सच्ची भक्ति तो आज्ञा-पालन में ही है।

सामान्य जीवन में या लोक व्यवहार में यह देखते हैं कि एक पिता अपने उसी पुत्र से प्रसन्न रहता है जो पिता के आदेश का पालन करता है। उसी को पिता चाहता है, उसको ही अपनी सम्पत्ति देता है। इसी प्रकार ईश्वरीय आज्ञा का पालन करने वाला ही सच्चा भक्त होता है। भक्ति से तात्पर्य आज्ञा पालन है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि महर्षि ने उक्त मन्त्र का जो सारगर्भित अर्थ प्रस्तुत किया है वह पूर्ण समीचीन है।

यह मन्त्र हमें ‘दान’ के अहं (कि हम बड़े दानी हैं, हमसे बढ़कर दाता कोई नहीं है।) का विनाश करता है। वह प्रभु बड़ा दाता है, उसने हमें आत्म-ज्ञान के लिए सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त शरीर और संसार दिया है। शरीर ही नहीं वह ‘बलदाः’ है, उसने ही हमें वह शक्ति दी है, बल दिया है कि हम महान् कार्य करने में समर्थ हैं। हम आत्मचिन्तन करेंगे तो हमें बोध होगा कि देने का हमारा अहं मिथ्या है। उसके दान के आगे हमारा दान कुछ नहीं है।