खण्ड २ (हवन के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

द्वितीय सोपान- ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र

(संकलन कर्त्ता – ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों का श्री अर्जुन देव स्नातक जी द्वारा किया गया अर्थ अलग से दिया गया है। वहां देखें।)

तृतीय सोपान- अग्न्याधान मन्त्र

ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्रों के पश्चात् अग्न्याधान मन्त्र पर विचार करना है। अग्न्याधान मन्त्र इस प्रकार है- ‘ओ३म् भूर्भुवः स्वः’।

इस मन्त्र से दीपक जलाने का विधान है। हमारी संस्कृति में हवन के लिए अग्नि को दूसरे के घर से अर्थात किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर से अंगारों के रूप में लेके आया जाता था। परन्तु, वैदिक परम्पराओं के लुप्त हो जाने के कारण, महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ के लिए इस मंत्र का उच्चारण करके दीपक जलाने का विधान किया है, ताकि यज्ञ करने का कर्म हमारे जीवन का अंग बन सके। जले हुए दीपक से अग्नि लेके उस अग्नि को यज्ञ-कुण्ड में स्थापित करने के बारे में तो उन्होंने लिखा है, परन्तु उसके पश्चात दीपक कहाँ रखा जाए, इसके बारे में उनके ग्रंथों में कुछ नहीं लिखा मिलता। विद्वान लोगों ने वैज्ञानिक आधारों पर जलते हुए दीपक को प्रतीकात्मक रूप से ईशान-कोण में रखना निश्चित किया है। 

जले हुए दीपक से कपूर आदि जलाकर निम्न मन्त्र से यज्ञ-कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का विधान है-

ओं भूर्भुवः स्वद्यौंरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तत्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे।।

-यजुर्वेद ३//५

भावार्थ– हे ईश्वर! आप ही की व्यवस्था से हमें जीवन देने वाले प्राण मिले हैं, जिस कारण आप हमें अपने प्राणों से भी प्रिय हैं। आप हमारे जीवन के सभी दुखों को दूर करने का सामर्थ्य रखते हो। आप हमें उच्चतम सुख देने का भी सामर्थ्य रखते हो। जैसे यह द्यौलोक अनगिनत नक्षत्रों से व्याप्त है, वैसे ही मेरे में भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आपेक्षित अनगिनत गुण व्याप्त हों और जैसे पृथ्वी अत्यन्त विशाल है, वैसे ही मेरा हृदय भी अच्छे अच्छे गुणों को समाविष्ट करता हुआ अत्यन्त विशाल हो जाए। इस कामना के साथ जिस पृथ्वी पर श्रद्धा के योग्य देव लोग यज्ञ करते हैं, उसी पृथ्वी पर मैं भी यज्ञ करने हेतु अग्नि का आधान करता हूँ। यह यज्ञ मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार सकाम अथवा निष्काम भाव से करूँ। इससे मुझे मेरे अन्तिम ध्येय के लिए उचित साधन भी प्राप्त हों। हृदय, ज्ञान व गुणों की विशालता प्राप्त होने पर ही मैं पृथ्वी की भांति दूसरों का उपकार कर सकूंगा।

यदि उपरोक्त मंत्र की भावना को मन में रखते हुए अग्नि का आधान किया जाए, तो यह सम्भव ही नहीं कि अग्निहोत्र के नित्य-कर्म को करते हुए हम श्रद्धा से युक्त न हों।

 यजुर्वेद के ४0 वें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-

                     कुर्वन्नेवेहसेलिप्यते नरे।     

-यजुर्वेद 0//

हमें इस संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त जीने की इच्छा करनी चाहिए। अन्यथा इतः अस्ति अर्थात् यहां कर्म करने के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं है। एवं त्ययि नरे कर्म लिप्यते अर्थात् इस प्रकार निष्काम कर्म करें कि ये कर्म हमारे बन्धन के कारण न बनें। प्रस्तुत अग्न्याधान का मन्त्र इस रहस्य को सरल शब्दों में प्रशस्त करता है। कैसे? इसको इस रूप में समझने का प्रयत्न करें-

इस मन्त्र में अग्न्याधान करने से पूर्व हम ‘ओं भूर्भुवः स्वः’ कहकर प्रथम दीपक जलाते हैं, फिर इस ‘भूर्भुवः स्वद्यौरिव0’ मन्त्र द्वारा यज्ञवेदी (यज्ञकुण्ड) में अग्न्याधान करते हैं। ‘ओं भूर्भुवः स्वः’ दो बार क्यों बोलते हैं? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में उठना चाहिए। उठा भी हो, तो हमने ध्यान नहीं दिया।

इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार समझना चाहिए। प्रथम बार ‘ओं भुर्भुवः स्वः0’ कहकर हमें यह बोध प्राप्त होता है कि ईश्वरीय अनुकम्पा से मानव मात्र के कल्याणार्थ तीन लोकों में तीन अग्नियाँ हमें प्राप्त है-भूः- नाम पृथिवी का है, पृथिवी में अग्नि है। भुवः-नाम है अन्तरिक्ष का, अन्तरिक्ष में विद्युत की अग्नि है। स्वः नाम है द्युलोक का, द्युलोक में भी आदित्य की अग्नि है। ये तीनों ही अग्नियाँ अत्यन्त उपयोगी अग्नियां हैं, इनमें क्रम से एक की अपेक्षा अर्थात् भूलोक की अग्नि की अपेक्षा अन्तरिक्ष स्थित विद्युदग्नि अधिक तेजस्वी, विशाल एवं उपयोगी है। विद्युद् की अपेक्षा द्युलोक स्थित आदित्य की अग्नि अति तेजस्वी अति उपकारक एवं विशाल है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भूः, भुवः और स्वः बोलते हुए हमें यह बात मन में लानी चाहिए कि हमें पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक के बारे उचित ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए, ताकि हम इनका सर्वोत्तम उपयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर सकें। 

पुनः ‘भूर्भुवः स्व’ का उच्चारण हमें यह बोध देता है- भूः अर्थात् नाम है शरीर का भुवः अर्थात् नाम है ‘भुवो अवकल्कने, अवकल्कनं चिन्तनम्’ चित्स्वरूप चेतन का, आत्मा का, स्वः-नाम है द्युलोक का ब्रह्मरन्ध्र का। अब बोध प्राप्त कीजिये कि हमें भूः-शरीर के भरण पोषण में ही संलग्न नहीं रहना है, शरीर को, भौतिक संसार को ही सब कुछ नहीं समझना है। भुवः अर्थात् आत्म चिन्तन की ओर बढ़ना है। शरीर नश्वर है। नश्वर में ही लगे रहना अज्ञानता है, शरीर से ऊपर उठना है, भुवः अर्थात् चेतन आत्म तत्व का बोध प्राप्त करना है, मात्र शरीर का कल्याण नहीं, आत्म कल्याण में प्रवृत्त होना है। शरीर साधन है आत्म बोध के लिए, आत्म कल्याण के लिए। इस आत्म कल्याण के भाव को इतना समृद्ध करना है कि वह स्वः अर्थात्  ब्रह्मरन्ध्र अर्थात् ब्रह्म ज्योति प्राप्त कर, आनन्द प्राप्ति के, मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बनें।

इस प्रकार हम भूः-शरीर से ऊपर उठें, भुवः– आत्म बोध प्राप्त करें, स्वः-आत्म बोध के द्वारा आनन्द, ब्रह्मानन्द प्राप्ति की ओर अग्रसर हों, यह भाव हमें द्वितीय बार ‘भूर्भुवः स्वः’ के उच्चारण से प्राप्त करना है।

अब पुनः प्रश्न कर लें कि यह आत्म कल्याण क्या संसार में रहकर प्राप्त किया जा सकता है, क्या हम मोक्षमार्ग के पथिक बन सकते हैं? यदि हाँ तो कैसे?

इसका समाधान भी मन्त्रार्थ में ही निहित है। मन्त्र में दो शब्द महत्त्वपूर्ण है-‘पृथिवी इव वरिम्णा’ अर्थात् पृथ्वी के समान श्रेष्ठ गुणों से, द्यौरिव भूम्नाअर्थात् द्युलोक के समान विशाल। इन दोनों का चिन्तन करें, तो जीवन उन्नति का, आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

मानव मात्र में पृथ्वी के समान धैर्य, सहिष्णुता एवं सर्व कल्याण का भाव आ जावे, तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त या सुगम हो जाता है। विवाह संस्कार में शिलारोहण की एक मुख्य विधि सम्पन्न की जाती है। कन्या का पग शिला पर रखकर वर कन्या की ओर देखकर निम्न मन्त्र पाठ करता है-

                                   आरोहेमश्मानं-से-पृतनायतः।      

     -पारस्कर गृह सूत्र १//७//१

जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए तू इस शिला पर पैर रख, विपत्तियों पर विजय प्राप्त कर। तात्पर्य यह है कि यह शिला पृथ्वी का रूप है। जैसे पृथ्वी पर पैर पटकते हैं, मैला करते हैं, इसका खनन करते हैं, वह इस सब को सहन करती है। बदले में उत्तम जल, अन्न, फूल-फल, औषधि, रत्न आदि प्रदान करती है। आज तुम मेरे परिवार में प्रवेश करोगी पता नहीं परिवार का कोई सदस्य अपने स्वभाव से तुम्हें कटुवचन आदि से पीड़ित करे, या अन्य कोई कष्ट दे, तो उनको सहन कर धैर्य के साथ दृढ़ता पूर्वक पृथ्वी के समान सबका कल्याण ही करना। दुर्भावना मन में मत लाना।

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दूसरा है- द्यौरिव भूम्ना अर्थात् द्युलोक के समान विशालता, तेजस्विता हमें ग्रहण करनी है। कर्म तो हमें करने हैं, बिना कर्म किये हमारी गति नहीं है, किन्तु कर्म तो बन्धन के कारण बन जाते हैं। नहीं, ऐसा नहीं वेद ने स्पष्ट शब्दों में कहात्वयि नरे कर्म लिप्यते निष्काम कर्म करने से कर्म तुझ में लिप्त नहीं होते हैं, कर्म बन्धन के कारण नहीं बनते हैं। यदि द्योरिव भूम्नाका भाव जीवन में आ जाये, तो कर्म लिप्यते कर्म बन्धन के कारण नहीं बनेंगे।

हम पृथ्वी पर चलते हैं चाहे जिस साधन से चलें, चिन्ह बन जाते हैं, लकीर बन जाती है। पानी में तैंरें या नाव आदि साधन से गति करें तो पानी में भी गति का निशान बन जाता है-चाहे वह थोड़े समय के लिए हो, बनता अवश्य है।

किन्तु द्युलोक में, अन्तरिक्ष में जब पक्षी उड़ते हैं, बड़े-बड़े वायुयान चलते हैं। तब उनके निशान वहाँ नहीं बनते हैं, कोई लकीर वहाँ नहीं बनती है। बस यही-‘द्यौरिव भूम्ना’ वाला गुण हमारे जीवन में आना चाहिए। हम कर्म तो करें किन्तु कोई चिन्ह, निशान न बनें तब तो जीवन की सार्थकता है।

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गीता अध्याय १५ श्लोक संख्या ५ इस तथ्य को इन शब्दों में वर्णित करता है-

                             निर्मानमोहा-से-पदमव्ययं तत्।  

        – गीता १५//५

मान-मोह से रहित, आसक्ति से रहित कामनाओं से पृथक् नित्य आत्म कल्याण में रत, सुख-दुख नामक द्वन्दों से रहित, मूढ़ता से हीन मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त होते हैं। हम विचार करें कि क्या हमने मान-मोह से अपने को विरत कर लिया है, अभी हमने कामनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है, क्या हमारा चित्त अध्यात्म ज्ञान में संलग्न है, क्या सुख-दुख का द्वन्द हमें पीड़ित करता है? यदि ये सब बातें हैं तो अभी हम ‘‘द्यौरिव भूम्ना’ कहाँ बन पाये हैं, जब नहीं बन पाये हैं तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे सुलभ होगी?

हमें यह भी चिन्तन करना है कि यह पृथ्वी-‘देवयजनि’ है। देवतागण इसमें निरन्तर यज्ञ कर रहें है। सूर्य, चन्द्र, तारे, वृक्ष, वनस्पतियाँ, मेघ आदि सभी देव यजन-परोपकार करते हैं, पराये हित में संलग्न रहते हैं, ये सब हमें प्रेरणा देते हैं कि जीवन की सार्थकता परोपकार में है, यज्ञीय जीवन में है। इस ‘‘देवयजनि’ भूमि के पृष्ठ पर अन्नादम् अग्निम्- हव्य पदार्थ का भक्षण करने वाले-हव्य पदार्थ को सूक्ष्म बना कर प्राणी मात्र का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जड़ चेतनमय जगत् का कल्याण करने वाले अग्नि का अन्नाद्याय अर्थात् भक्षणीय अन्न की प्राप्ति के लिए या भक्षण का सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए आधान करता हूँ।

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घर में जैसे बालक को सारे साधन प्राप्त हों, किन्तु वह यदि उनका दुरुपयोग करे तो बुद्धिमान, पिता उसके वे साधन उस बालक से छीन लेता है। ठीक ऐसे ही परम-पिता परमात्मा ने मानव को ये सारे साधन दिये हैं, यदि मानव इन साधनों का सदपुयोग न करे, आत्म कल्याण के मार्ग पर न चले, तो परमात्मा इन साधनों को छीन लेगा। अतः अग्न्याधान का यह मन्त्र प्रेरणा देता है कि हे मानव! भूः– भौतिक शरीर में ही जीवन का लक्ष्य न रहे, भुवः– अन्तरिक्ष में आ। अन्तःकरण को निर्मल बना, स्वच्छ बना, आत्मा को पहचान, आत्मोन्नति पर ध्यान दे, बस यही नहीं और आगे बढ़, स्वः– द्युलोक को अपना लक्ष्य बना, ब्रह्मरन्ध्र, ब्रह्मानन्द प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य बना।

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अन्नाद्याय- जिस प्रकार शुद्ध अन्न शरीर को पुष्ट करके आत्मोन्नति का साधक बन जाता है, उसी प्रकार उपलब्ध साधनों को मैं सर्वकल्याणाय प्रयुक्त करके, समाज को पुष्ट करके आत्मोन्नति की साधना में सफल हो जाऊँ। यह अग्नि, अन्नादम् अर्थात् अन्न को, भक्षण करने वाली है-अग्नि में सामर्थ्य है कि वह वस्तु का विनाश नहीं करती है, अपितु उस को सूक्ष्म करके उसकी शक्ति को बढ़ाती है- मेरा जीवन भी गृहीत साधनों को और पुष्ट कर लोक कल्याण में उसको समर्पित करे।

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अन्न ब्रह्म है, उसकी उपासना करनी चाहिए। अन्नादम् – वह ब्रह्म है, उसके सामर्थ्य से, अन्न से शक्ति सम्पन्नता प्राप्त होती है, इसको जानकर ही मैं- अग्निमादधे– अग्नि का आधान करता हूं।

कतिपय अपज्ञों को इस मन्त्र में अग्नि-पूजा की गन्ध प्राप्त होती है। उनके विचारानुसार प्राचीन आर्य लोग जड़ अग्नि की पूजा करते थे।

समाधान – वेद तथा वेदानुकूल ग्रन्थों में कहीं जड़ पूजा का विधान प्राप्त नहीं होता है। अग्नि में निहित गुण धर्मों को अपने जीवन में लाकर उन्नति प्राप्त करना, यही लक्ष्य है।

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वेदमन्त्र स्वयं आत्मोन्नति के लिए मार्गदर्शन करता है। यज्ञाग्नि के आधान के साथ-साथ आत्माग्नि को प्रज्वलित करना है। हम बाहर अग्नि जलाते हैं, दीपक जलाते हैं, किन्तु भीतर की अग्नि बुझी हुई है, भीतर का दीपक बुझा हुआ है, तो प्रकाश का मार्ग, ईश्वर प्राप्ति का मार्ग, आनन्द उपलब्धि का मार्ग सुलभ नहीं हो सकता है।

अग्नि प्रदीपन मन्त्र

मन्त्र इस प्रकार है-

ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।।

– यजुर्वेद १५//५४

अग्ने अर्थात् हे अग्नि!, उद्बुध्यस्व अर्थात् उद्बुद्ध हो, प्रज्जवलित हो, जाग जाओ, प्रतिजागृहि अर्थात् यजमान के अन्तःकरण को जगाओ, यजमान की संकल्पाग्नि को दृढ़ करो, त्वम् अर्थात् तू (यह अग्नि), अयं अर्थात् और यह यजमान, इष्टापूर्ते अर्थात् इष्ट और आपूर्त कर्मों को, संसृजेथाम् अर्थात् रचाओ, अस्मिन् अर्थात् इस, उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि अर्थात् उत्कृष्ट यज्ञमण्डल में, विश्वे देवाः अर्थात् विश्व के सब विद्वान्, यजमानः अर्थात् और यह यजमान, सीदत अर्थात् बैठो।

प्रस्तुत मन्त्र यज्ञकर्त्ता की संकल्पाग्नि को जहां दृढ बनने के लिए प्रेरक है, वहाँ ही दिन प्रतिदिन संकल्पाग्नि उत्कृष्ट हो, श्रेष्ठ हो, मंगलमय हो की भावना को भी यह मन्त्र पुष्ट करता है। वह कौन सा कार्य है, जो हमें उत्कृष्ट मार्ग पर ले जाने वाला है, इसका निर्देश भी प्रस्तुत मन्त्र उत्तमता के साथ करता है। बस आवश्यकता है यज्ञकर्त्ता को इसे आत्मसात् करने की, अपनाने की संकल्पाग्नि को श्रेष्ठ बनाने के लिए पुरुषार्थ करने की।

यहाँ यह समझना चाहिए कि अग्न्याधान के मन्त्र में ‘पृथिवी इव वरिम्णा’ अर्थात् पृथिवी के समान श्रेष्ठ गुणों को धारण करना है तथा द्यौरिव भूम्ना अर्थात् द्युलोक के समान बनना है, वर्णित किया था। यह मन्त्र हमें इसका मार्ग बताता है। हम कैसे यह सब प्राप्त कर सकतें हैं, संसार में रहकर सफलता प्राप्त हो सकती है, इस तथ्य को यह मन्त्र स्पष्ट करता है। हमारी मान्यता यह है कि दैनिक यज्ञ के मन्त्रों का क्रम महर्षि के महर्षित्व को प्रकट करता है, महर्षि की आर्षबुद्धि को सिद्ध करता है। इस मन्त्रगत भाव की व्याख्या से यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा।

अग्ने उद्बुध्यस्व अर्थात् हे अग्ने! उद्बुद्ध हो अर्थात् अच्छी तरह प्रज्जवलित हो।

यहां पाठकों के मन में शंका उठनी चाहिए कि यह अग्नि को सम्बोधन करके कहा है- स्पष्ट ही जड़ पूजा, मूर्ति पूजा का विधान है।

इसका समाधान महर्षियों के ग्रन्थों में प्राप्त होता है। जो इस प्रकार है-

क- मीमासां दर्शन प्रथम अध्याय द्वितीय पाद छियालीसवें सूत्र की व्याख्या में प्रसिद्ध व्याख्याकार शबर स्वामी लिखते है- ‘यज्ञसमृद्धये साधनानां चेतनसादृश्यसुपपादयितुकाम आमन्त्रण शब्देन लक्षयति

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अर्थात् यज्ञ की सफलता के लिए यज्ञ के साधनों के चेतन सदृश प्रयोग की कामना वाला आमन्त्रण अर्थात् सम्बोधन प्राप्त होता है।

ख- महाभाष्यकार पतञ्जलि के शब्दों में-‘अचेतनेश्वपि चेतनवद् उपचारो दृश्यते’।

अचेतन पदार्थों में भी चेतन के समान प्रयोग लोक व्यवहार में देखा जाता है। व्यवहार में हम देखते हैं कि अनेक बार हम जड़ वस्तुओं से बातें करते हैं, वास्तव में हम ऐसा करके अपनी भावनाओं को जड़ वस्तुओं पर नियोजित कर रहे होते हैं।

ग- निरुक्तकार ने ऋचाओं के तीन भेद माने हैं-परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत और आध्यात्मिक। वेद का यह नियम है कि जिस पदार्थ की प्रत्यक्षरूप में स्तुति करता है (चाहे पदार्थ चेतन हो या अचेतन) उसका वर्णन मध्यम पुरुष में होता है। अर्थ करते समय व्यत्यय के नियम से प्रथम पुरुष में (यह, वह आदि रूप में) करते हैं।

घ- महर्षि दयानन्द ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ में लिखते हैं कि- ‘ईश्वर ने सांसारिक जड़ पदार्थों को प्रत्यक्ष करा के केवल उनसे अनेक उपकार लेना जनाया है।’

अतः यहां हे अग्ने! इस सम्बोधन को या वेदमन्त्रों में जड़ पदार्थों के लिए प्रयुक्त सम्बोधन या मध्यम पुरुष (तू, तुम) के प्रयोग को प्रथम पुरुष में ही प्रयुक्त कर अर्थ स्पष्ट करना चाहिए। इस प्रकार हे अग्नि! का तात्पर्य यह अग्नि जल उठे, होगा। जली हुई अग्नि को देखकर अपने चित्त को देखकर चित्त में प्रथम यह भाव ग्रहण करना चाहिए कि जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाएँ निरन्तर ऊपर उठती हैं, घृत डालने से और तेजस्विता के साथ उठती है, ठीक उसी प्रकार मेरे चित्त के भाव ऊपर उठने वाले, उन्नत दशा को प्राप्त कराने वाले हों, जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला को प्रयत्न करने पर भी नीचे नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार संसार का बड़े से बड़ा प्रलोभन, बड़ी से बड़ी बाधाएं मुझे अवनति के गर्त में न गिरा सकें।

जलती हुई अग्नि से दूसरी शिक्षा यह ग्रहण करनी चाहिए कि मैं अग्नि के समान प्रकाशवान् बनूं, ज्ञानवान् बनूँ। जैसे अग्नि का प्रकाश अपने लिए प्रकाशित नहीं होता है, ठीक वैसे ही मेरा ज्ञान, मेरा कर्म केवल अपने लिए न हो अपितु- ‘सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझने की’ भावना का विकास होना चाहिए। यहाँ, अपने अन्दर ज्ञानवान होने की भावना को जगाते समय हमें यह बोध होना आवश्यक है कि जहाँ ज्ञान होगा, वहाँ सुख अवश्य होगा। यदि कोई व्यक्ति किसी विषय में दुखी है, तो यह निश्चित जानिए कि उसे सम्बन्धित विषय का ज्ञान नहीं है। यह हो ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति किसी विषय में ज्ञान भी रखता हो और वह उस विषय में दुखी भी हो। 

तीसरा भाव यह ग्रहण करना चाहिए कि जैसे अग्नि में डाला घृत, सामग्री आदि पदार्थ रूपान्तरित होकर हजारों, लाखों लोगों के लिए लाभकारी होता है, उसी प्रकार मैं अर्जित ज्ञान, बल धन को विकसित कर उन्हें अधिक शक्ति सम्पन्न कर सूक्ष्म रूप में भी छोटे से छोटे व्यक्ति के हित में अपने आपको, अपनी सम्पन्नता, अपने बल, अपने ज्ञान को वितरित करूँ।

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प्रति जागृहि अर्थात् उक्त सारे भाव मात्र चिन्तन से जीवन में नहीं उतरते हैं, अपितु प्रति जागरण- दृढ़ संकल्प भाव को अपने अन्दर आत्मसात् करना है। जगने का भाव दृढ़ हो, किसी भी दशा में शिथिल नहीं होना चाहिए, यह परिपक्वता का भाव- ‘प्रतिजागृहि’ के द्वारा ग्रहण करना है। दृढ़ संकल्प ही आत्म-संस्कार का आत्मोन्नति का सोपान है।

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मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ- संसार प्राप्त हुआ। संसार को बन्धन का कारण समझकर संसार छोड़ना, संसार को मिथ्या समझने का चिन्तन अपूर्ण चिन्तन है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ कहकर सब कुछ छोड़कर भाग जाने का उपदेश वैदिक संस्कृति का, वैदिक विचारधारा का नहीं है। शरीर मिला है, तो शरीर को भी समर्थ बनाना है, शरीर साधन है अतः परलोकसाधक या मोक्षसाधक कर्मों को भी करना है। शरीर को समर्थ बनाने के लिए इष्ट कर्म प्रति जागरण- दृढ़ संकल्प से करने हैं और आपूर्त कर्म भी करने हैं। जीवन की सार्थकता इष्ट और आपूर्तकर्मों का यज्ञ भाव से करने में है।

इष्ट कर्म शास्त्रों के अनुसार श्रौतकर्म अर्थात् श्रुति प्रतिपादित यागादि कर्म इष्टकर्म कहलाते हैं। पूर्तकर्म- स्मृति ग्रन्थ प्रतिपादित बावड़ी, कूप, तालाबादि परहित सम्पादनार्थ कर्म पूर्तकर्म के अन्तर्गत आते हैं। महर्षि स्वामी दयानन्द जी इष्ट’ का अर्थ करते हैं- विद्वानों का सत्कार, ईश्वर-आराधना सत्संग, सत्य-विद्या का दान आदि और ‘आपूर्त’ का अर्थ करते हैं- ब्रह्मचर्य आदि से पूरी तरह सब बलों और साधनों व उपसाधनों को प्राप्त करके उनका ईश्वर-आज्ञा में प्रयोग। महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने एक जगह लिखा है कि जब तक धर्म का आचरण करते हुए ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को न जान लिया जाए, तब तक इष्ट और आपूर्त कर्म सिद्ध नहीं होते और न ही तब तक हम मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। 

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अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि अर्थात् इस (तथा) इससे अधिक उत्कृष्ट यज्ञ मण्डप में।

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गीता में वर्णित है-

                         ‘अनेक जन्म संसिद्धौ ततो याति परां गतिम्   

      गीता ६//४५

अनेक जन्मों के कार्यों से जब सिद्धि प्राप्त होती है तब ही परमगति, परममोक्ष की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपने उत्तम कार्यों के द्वारा इससे अधिक उत्कृष्टता प्राप्त करनी है। इसके लिए आवश्यक है कि जीवन को सतत् सावधानी के साथ यज्ञीय बनाना है, उत्कृष्ट बनाना है। मार्ग में बाधाएं आती हैं, नाना प्रलोभन आते हैं, संसार का आकर्षण भी हमें उलझन में डालता है- दुख यदि लोहे की बेड़ी का बन्धन है तो सुख सोने की बेड़ी का बन्धन है। इन सारे बन्धनों को तोड़ना है, बाधाओं को पार कर के जीवन को उत्तम बनाना है और उत्तम पुरुष वे होते हैं-

                                   प्रारभ्यते न-से-न परित्यजन्ति।    

      – भर्तृहरि नीति २६

अर्थात् नीच मनुष्य विघ्नों के, आपत्तियों के भय से किसी कार्य को आरम्भ ही नहीं करते हैं, मध्यम कोटि के मनुष्य विघ्नों के आने पर प्रारम्भ किये हुये कार्य को विघ्नों के भय से रोक देते हैं। किन्तु उत्तम कोटि के मनुष्य बार-बार आने वाले विघ्नों को नष्ट करते हुए प्रारम्भ किये हुए कार्य को कभी नहीं छोड़ते हैं। हमें इस यज्ञ कार्य को सम्पन्न करते हुए उत्कृष्टता, उत्तमता का व्रत लेना है, दृढ़ संकल्प ग्रहण करना है।

यज्ञ सम्पादन की क्रिया एक महान् एवं पवित्र क्रिया है। यज् शब्द का अर्थ धातु कोष के ही अनुसार देवपूजा, संगतिकरण एवं दान है। केवल यजमान अकेला इस कार्य को, यज्ञ के विधि विधान को जानने में असमर्थ है, इस कार्य की पूर्ति के लिए विद्वानों का संग, विद्वानों का आशीर्वाद अपेक्षित है। विद्वानों, देवों के आशीर्वाद से ही यज्ञ की पूर्णता है।  संगतिकरण के इस भाव से पारस्परिक स्नेह भाव की, सेवाभाव की एवं समर्पण भाव की वृद्धि होती है। विश्वे देवाः यजमानश्च सीदत अर्थात यज्ञ के लिए एकत्रित सभी देवजन व यजमान सभ्य शैली से उचित आसनों पर विराजमान हों।

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आज के संत्रस्त मानव को शान्ति, समृद्धि चाहिए तो उसे दैनिक यज्ञ को सम्पन्न करते हुए अपने अन्दर, परिवार के अन्दर, समाज के अन्दर दिव्य भावों को जगाना चाहिए। यजमान ‘विश्वे देवाः’- सम्पूर्ण विश्व के देवों का सान्निध्य प्राप्त करे। देवों का सगंतिकरण हमें अशुभ मार्ग की ओर जाने से रोकता है।

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अग्न्याधान मन्त्र में वर्णित इन भावनाओं का व्रत ग्रहण किया कि हम शरीर से ऊपर उठकर अन्तःकरण या आत्मा में प्रविष्ट हों, इससे भी ऊपर द्युलोक में आदित्य लोक में, ब्रह्मानन्द में लीन हों। प्रस्तुत मन्त्र उसी क्रम को आगे बढ़ाता हुआ पूर्ण सफलता के लिए यजमान की संकल्पाग्नि के जागरण का व्रत लेता है-जिसकी पुष्टि व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति इष्ट-पूर्त कर्म द्वारा होगी और उसके लिए वर्त्तमान जीवन को ओर उन्नत बनाने के लिए देवों का सान्निध्य आवश्यक है, यह भाव, इस मन्त्र द्वारा हमें ग्रहण करना है