खण्ड १ (हवन के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

अधिकांश वचन- अर्जुन देव 

आध्यात्मिक उन्नति का सोपानदेवयज्ञ

हवन-मंत्रों के छुपे हुए अर्थों को जानने से पहले हमें यह हृदयङ्गम करना आवश्यक है कि सब उत्तम कर्मों को यज्ञ कहा जाता है और हवन वा अग्निहोत्र सबसे निम्नस्तर का यज्ञ है। यज्ञ न करने का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसके न करने से हमारी प्रतिभा, बल, वर्चस्व वा तेज में कमी होना प्रारम्भ हो जाती है। यहॉँ, भिन्न-भिन्न तरह के यज्ञों में बोले जाने वाले मंत्रों की नहीं, बल्कि, सामान्य हवन वा अग्निहोत्र में बोले जाने वाले मंत्रों के अर्थों की चर्चा की जा रही है। हवन की महिमा व उसकी अपने जीवन में उपयोगिता को समझने के लिए ही हवन-मंत्रों के अर्थों को जनाने का प्रयत्न किया जा रहा है, क्योंकि बगैर हवन की महिमा को समझे हमारा हवन करना दिखावा मात्र ही होता है। 

प्रथम सोपानआचमन मन्त्र

आचमन मन्त्रों का महत्त्व

आचमन करने के साथ निम्न व्रतों को ग्रहण करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।

जल को ‘अमृत’ कहा गया है। अमृत से तात्पर्य- ‘न मृतम् अमृतम्’ अर्थात् जल जीवनदायक अमृत स्वरूप है। संस्कृत में जल को जीवन कहते हैं। प्रभु कृपा से मानव शरीर मिला है, इसे जीवन युक्त बनाना चाहिए। प्रभु कृपा से हमारा जीवन जीवनमय बने, अमृतमय, आनन्दमय बने। प्रथम आचमन के द्वारा यह व्रत लेना है।

द्वितीय आचमन के समय जल अमृतमय तब होता है जब वह गतिशील होता है। गति ही जीवन है। तदनुसार निरन्तर गतिशील रहकर, कर्म के द्वारा, सत्कर्म के द्वारा जीवन निर्माण का व्रत ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार गतिशील जल में जीवन तत्व रहते हैं, वैसे ही निरन्तर कर्म के द्वारा जीवन को गतिशील बनाने की प्रेरणा द्वितीय आचमन से ग्रहण करना है।

गतिशील जल निर्मल होता है। अतः तृतीय आचमन के साथ गति सदैव निर्मल, स्वच्छ, पवित्र हो, यह भावना ग्रहण करनी चाहिए। निर्मल अन्तःकरण में ही सत्य, यश एवं श्री शोभा, ऐश्वर्य का निवास होता है।

केवल मन्त्र पाठ से गृहीत आचमन से भौतिक दृष्टि से, बाह्य रूप से भले ही लाभ मिले किन्तु आत्मिक लाभ दृढ़ संकल्प एवं तदनुकूल आचरण से होता है। आचमन मन्त्रों के अर्थानुसार यह भाव भी स्मरण रखने योग्य है।

‘उपस्तरण’ का अर्थ बिछौना है। बिछौना आधार है, आश्रय है, माँ की गोद का आश्रय कितना आनन्दमय एवं शान्तिदायक होता है। उसी प्रकार ईश्वर भी सम्पूर्ण जगत् का आधार है। मैं इस तथ्य को अनुभूत कर सकूँ। ईश्वर के आश्रय में रहकर मैं सदैव निर्भीक एवं आनन्दमय स्थिति में रहूँ। ‘उपस्तरण’ पद से पहले पढ़े गए ‘अमृत’ पद से ईश्वर को मृत्यु से परे स्वीकारा गया है व यह याचना की गई है कि मैं भी मृत्यु से परे जाने वाला बन सकूँ।

द्वितीय मन्त्र में ‘अपिधानम्’ का अर्थ है ओढ़नी। जिस प्रकार माँ की गोद में लेटा हुआ शिशु वस्त्र से आच्छादित होकर निर्भीक होता है। कभी शिशु निद्रा में भयभीत होता है, तो माँ का हाथ उस पर आच्छादन का कार्य करता है। इस असार संसार में याजक को वह भाव ग्रहण करना चाहिए कि सर्वव्यापक परमेश्वर का हाथ सदैव याजक के ऊपर है। वह सर्वात्मना उसका रक्षक है, उसके रहते हुए संसार में किसका भय?

पूज्य स्वामी केवलानन्द जी का संस्मरण इस आशय को पुष्ट करने वाला है। पूज्य स्वामी केवलानन्द जी किसी पर्वतीय प्रदेश की शोभा देखने गये थे। विचार यह हुआ कि पर्वत पर प्रातः शीघ्र चढ़ेंगे। रात्रि में एक धर्मशाला में ठहरे। प्रातः शीघ्र उठकर स्नान, ध्यान से निवृत्त होकर धर्मशाला के सामने वाटिका में टहलकर, ओर लोगों के तैयार होने की प्रतीक्षा करने लगे। स्वामी जी की आकृति भव्य, उस पर लम्बी दाढ़ी और भी अधिक भव्य थी। सबके तैयार होने पर सब ऊपर चढ़ने लगे, अभी कुछ दूर चले होंगे कि स्वामी जी ने देखा कि एक भद्र महिला की गोद में बैठा बालक स्वामी जी को घूंसा दिखा रहा था। स्वामी जी ने आश्चर्य से दृष्टि दूसरी ओर की थोड़ी देर बाद पुनः उनकी दृष्टि उस पर पड़ी तो बालक ने फिर वही किया। चार-पांच बार घूंसा दिखाने की बात रही। पर्वत पर चढ़कर थोड़ी देर विश्राम करने पर स्वामी जी ने भद्र महिला से पूछ ही लिया-बेटी, मैं आपको जानता भी नहीं, फिर आपका यह बालक सारे रास्ते मुझे घूंसा क्यों दिखा रहा था? क्षमा याचना के साथ महिला ने उत्तर दिया कि बालक का कोई अपराध नहीं। प्रातः यह बालक नहा नहीं रहा था, तब मैंने उसे बाग में टहलते हुए आपको दिखाकर कहा-नहीं नहायेगा तो बाबाजी झोली में डालकर ले जायेंगे, तो शीघ्र स्नान कर लिया। यह मेरी गोद में था। अतः निर्भीक बनकर आपको घूंसा दिखाकर यह कह रहा था कि मुझे क्या ले जाओगे? मैं आपको मारूँगा।

परमेश्वर के आश्रय में रहकर हमारे अन्दर भी निर्भीकता का भाव आना ही चाहिए।

तृतीय आचमन में सत्य, यश एवं श्री की कामना है। निस्सन्देह सत्याचरण यश प्रदान करता है। यशस्वी व्यक्ति का ऐश्वर्य ही शोभा देनेवाला अर्थात् इहलोक एवं परलोक में सुखशान्ति देने वाला होता है।
यदि कोई व्यक्ति मोक्ष से दूर है, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह व्यक्ति अभी पूरी तरह से सत्य में प्रतिष्ठित नहीं हुआ है। इस मंत्र में यह याचना की गई है कि मेरे जीवन में सत्य प्रतिष्ठित हो। जब हम सत्य का पालन करते हैं, तो लोग हमारी प्रशंसा करते हैं व हमसे जुड़ते हैं। यश अथवा कीर्ति का अर्थ ही यह होता है कि कितने लोग हमारे विचारों के समर्थन में खड़े होते है। इस मंत्र में ‘श्री’ पद का दो बार पाठ किया गया है। ‘श्री’ पद के पहले पाठ का अर्थ ‘धन’ लिया जाता है व ‘श्री’ पद के दूसरे पाठ का अर्थ शोभा अर्थात सात्त्विकता अर्थात उत्साह लिया जाता है। परोपकार के लिए धन व सात्त्विकता दोनों की आवश्यकता होती है।
यजुर्वेद का वचन है-

दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापितः।

अश्रद्धामनृतेsदधाच्छ्रद्धां सत्येसेप्रजापितः।।

-यजुर्वेद १९//७७

प्रजापति परमेश्वर ने भी सत्य और अनृत-असत्य के रूप को देखकर यह शिक्षा दी कि मनुष्य अनृत में अश्रद्धा और सत्य में श्रद्धा करे। इस प्रकार सत्याचरण का जीवन में विशेष महत्त्व है। असत्याचरण से प्राप्त धन सुख के साधन दे सकता है, पर सुख शान्ति नहीं। असत्याचरण से प्राप्त धन इस जीवन में थोड़ा सुख भले ही दे किन्तु परलोक तो नष्ट हो जाता है। मनु महाराज ने अर्थ की, धन की पवित्रता पर विशेष बल दिया है-

          सर्वेषामेव-से-शुचिः।     

-मनु-स्मृति ५//१

सभी पवित्रताओं में धन की पवित्रता सर्वश्रेष्ठ है। जो धनार्जन में पवित्र है, वही पवित्र है। मिट्टी जल की पवित्रता नहीं। अतः जीवन में सत्याचरण का विशेष महत्त्व है।

स्वाहा शब्द के अर्थ

मंत्रों के अन्त में बोले जाने वाले ‘स्वाहा’ शब्द के चार अर्थ हैं। पहला अर्थ- हमारी द्वारा बोले जाने वाले शब्द सत्य, कठोर नहीं कोमल, कर्कश नहीं मधुर और दूसरों के कल्याणार्थ हों। दूसरा अर्थ- हम उसी वाणी का दूसरों के लिए प्रयोग करें, जैसी वाणी हम अपने ज्ञानानुसार अपने स्वयं के लिए शुभ व हितकर मानते हों। तीसरा अर्थ- केवल अपनी वस्तु को ही अपनी कहना, अर्थात किसी सत्य को निष्ठापूर्वक सत्य स्वीकार कर कहना। चौथा अर्थ- केवल शुद्ध अथवा अच्छी तरह से संस्कृत की चीजों को ही अग्नि में होम करना चाहिए। ‘स्वाहा’ शब्द के इन अर्थों को मन में रखते हुए ही हमें इसका उच्चारण करना चाहिए। जो चीज बार बार बोली जाती है, उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है।

आचमन क्यों?

 आचमन के मायने हैं- अपने मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा यज्ञ-कर्म करने के उद्देश्य को पूरा करने का संकल्प करना।

फिर तीन क्यों?

तीन की संख्या पूर्णता को इंगित करती है। जिस प्रकार जल शीतल होता है, शान्ति देता है, जीवन देता है, उसी प्रकार हमें आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो। सम्पूर्ण दुखों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है- आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक। तीन आचमनों के माध्यम से तीनों तरह के दुखों से मुक्ति का संकल्प किया जाता है।

अंगस्पर्श मन्त्र

अंग स्पर्श की विधि

बांई हथेली में थोड़ा जल लेकर, दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को मिलाकर मन्त्र निर्दिष्ट अंगों का पहले दक्षिण फिर वाम भाग के स्पर्श का विधान है। यहाँ पर ध्यान यह रखना है कि मध्यमा अंगुली से जीवन में मध्यम मार्ग, समन्वयात्मक मार्ग अर्थात् त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय का समन्वय करके चलने का भाव ग्रहण करना है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ के अनुसार अति त्याग, अति भोग दोनों ही उचित नहीं है। द्वितीय अंगुली ‘अनामिका’ है। संसार में प्रशंनीय कार्य करते हुए भी सम्मान, यश, नाम प्राप्ति की भावना से दूर रहना है। क्योंकि जिस स्वर्ग प्राप्ति के लिये, मोक्ष प्राप्ति के लिये यज्ञ क्रिया करते हैं, उसमें सम्मान, नाम आदि की प्राप्ति में ‘अहम्’ का समावेश होता है। ‘अहम्’ भी मोक्ष प्राप्ति में एक बाधक तत्व है। इसलिए-

         सम्मानाद्-से-सर्वदा।    

मनु-स्मृति २//१६२

अर्थात् विद्वान को, मोक्षमार्ग के पथिक को विष के समान सम्मान से डरना चाहिए तथा अपमान भाव को अमृत के समान स्वीकार करना चाहिए। मनु के इस वचन के अनुसार अनामिका अंगुली का व्रत, ‘नाम’ अर्थात् यश की भावना से रहित कर्म करने का व्रत ग्रहण करना है।

अंग-स्पर्श के मन्त्र एवं विधि की आवश्यकता को निम्न उदाहरण से समझना उत्तम रहेगा-

एक नवयुवक कार्लमार्क्स के पास जाकर बोला-‘कामरेड, आप साम्यवाद का ढिंढोरा पीटते हैं मैं अत्यन्त निर्धन हूँ। मुझे धन की आवश्यकता है, धन दें’। मार्क्स ने युवक को देखा और कहा-बड़े दुःख की बात है तुम्हारे पास धन नहीं है, अभी-अभी एक कम्पनी खुली है, उसे मनुष्य के अंगों का परीक्षण करना है, तुम अपने दोनों हाथ देकर आओ, तुम्हें दो लाख मिलेंगे। नवयुवक ने हाथों को देखकर कहा-यह सम्भव नहीं है। कामरेड ने पुनः कहा-वह कम्पनी दो पैर लेगी, दोनों पैरों के दो करोड़ देगी-जाओ, दो करोड़ ले आओ। नवयुवक ने फिर मना कर दिया। फिर माक्र्स बोले-‘वही कम्पनी तुम्हारी आंखें ले लेगी। दोनों आंखों के दो अरब रुपये मिल जायेंगे। नवयुवक ने फिर मना किया। मार्क्स गम्भीर होकर ‘तुम तो कह रहे थे- मैं अत्यन्त निर्धन हूँ, किन्तु अरबों की सम्पत्ति तो तुम्हारे पास है।’ नवयुवक एक बड़ा महान् बोध लेकर चला गया।

उक्त उदाहरण शरीर के अंग-प्रत्यंगों के महत्त्व को प्रकट करता है। इस अंग प्रत्यंग की पुष्टता के लिए इनकी वृत्ति सदैव सन्मार्ग पर रखने के लिए इन अंग-स्पर्श के मन्त्रों का विधान है। ईश्वर की कृपा प्राप्त हो, हम सत्पात्र बनें, एतदर्थ ही अंग स्पर्श करना आवश्यक है।

अंग स्पर्श मन्त्रों का भाव

१- ओं वाङ्मऽआस्येऽस्तु– हे परमेश्वर! मेरे मुख में वाक् शक्ति प्रशस्त हो।

२- ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तु– हे परमेश्वर! मेरे नासिका-छिद्रों में प्राण शक्ति हो।

३- ओम् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु– हे परमेश्वर! मेरे नेत्रों में दृष्टि सामर्थ्य बना रहे।

४- ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु– हे परमेश्वर! मेरे कानों में श्रवण शक्ति हो।

५- ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु– हे परमेश्वर! मेरी भुजाओं में बल हो।

६- ओम् ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु– हे परमेश्वर! मेरी जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति हो।

७- ओम् अरिष्टानि मेऽगांनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु– हे परमेश्वर! मेरे सूक्ष्म शरीर के साथ साथ मेरे स्थूल शरीर के सभी अवयव दोष रहित, दूसरों को दुख न पहुंचाने वाले व सात्त्विक प्रेरणाओं को ग्रहण करने वाले हों। 

अंग स्पर्श मन्त्रों का महत्त्व-

इन अंग-स्पर्श मंत्रों में भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की शक्ति के स्थायीत्व व शरीर के दूसरे अवयवों के स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है। यह इसलिए, क्योंकि हमारा लक्ष्य बहुत बड़ा है और उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन यह शरीर है। इस साधन का सुदृढ़ होना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु, एक सिद्धान्त के अनुसार हमारी प्रार्थना तभी सार्थक होती है, जब हम अपनी प्रार्थना में याचना की गई वस्तु को प्राप्त करने के लिए स्वयं भी अपने सामर्थ्य के अनुरूप प्रयत्नशील होते हैं। इसलिए, अपनी प्रार्थना को सार्थक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम जागरूक होकर अपने शरीर के विभिन्न अवयवों का उपयोग करें। इसके लिए हमें अपनी मनःस्थिति को ऐसा बनाना होगा कि हम उचित समय पर सही कदम उठा सकें। बुद्धिमान वही है, जो समय रहते व सामर्थ्य रहते उचित कर्म कर डाले। हमें अपने शरीर के विभिन्न अंगों का उपयोग इस तरह करना चाहिए कि वे थके नहीं और लम्बे समय तक हमारे लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक हों।

अथर्ववेद का वचन है-

                         इयं या-से-शान्तिरस्तु नः।       

अथर्ववेद १९//९//३

अर्थात् यदि वाणी कठोर हो तो बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं, परमेश्वर की कृपा से हमारी वाणी ज्ञान से प्रभाव-युक्त होकर हमें सुख शान्ति देने वाली हो।

महाराजा भर्तृहरि ने स्पष्ट लिखा है-

                              केयूरा न-से- भूषणम्     

      -नीति शतक १८

केयूर, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, स्नान, चन्दन का लेप, पुष्प तथा सिर के बालों आदि की सजावट आदि कोई भी वस्तु कभी भी शोभा नहीं देती है। केवल सुसंस्कृत वाणी ही मनुष्य की शोभा बढ़ाती है। अन्य सारे आभूषण व्यर्थ हैं, केवल वाणी का आभूषण ही श्रेष्ठ आभूषण है।

द्वितीय मन्त्र नासिका में प्राणों की शक्ति तथा घ्राणशक्ति, सूंघने का सामर्थ्य बना रहे, के लिए है। निस्सन्देह प्राण-अपान शक्ति उत्तम न हो, स्वस्थ न हो तो जीवन का चलना भी कठिन हो जाता है। नासिका के छिद्रों के स्वस्थ रहने पर ही घ्राण शक्ति, प्राण शक्ति उत्तम स्वस्थ रहती है। प्राणायाम क्रिया का आधार नासिका ही है। इन्द्रियों को दोषों से रहित करने में प्राणायाम (नासिका) का विशेष महत्व है। मनु महाराज का वचन है-

                       दह्यन्ते-से-निग्रहात्।   

        -मनु-स्मृति ६//७१

जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे ही प्राणायाम के द्वारा समस्त इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। खाद्य पदार्थ सड़ गया हो, बासी हो गया हो इसका भी सम्यक् ज्ञान स्वस्थ घ्राण शाक्ति द्वारा ही सम्भव है। योग दर्शनकार ने तो यहां तक लिखा है कि- ‘योगाङानुष्ठानादशुद्विक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’। २//२८

अर्थात् प्राणायाम के द्वारा क्रम-क्रम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता है।

इस प्रकार नासिका का स्वस्थ रहना, घ्राणशक्ति का सबल रहना जीवन के लिए आवश्यक है।

तृतीय मन्त्र में नेत्रों में दृष्टि-देखने की शक्ति बनी रहे, की प्रार्थना है। नेत्रों का महत्त्व नेत्र-हीन व्यक्ति से जान सकते हैं। संसार में विविध सुन्दर वस्तुयें आनन्ददायी हैं, उन्हें नेत्रों से देखकर ही आनन्द उठाया जा सकता है। यह आनन्द तभी उठाया जा सकता है जब दृष्टि भद्रभाव से युक्त हो- भद्रं परयेमआक्षभिर्यजत्राः (ऋग्वेद १//८९//८)

ऋग्वेद का वचन है-

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।।

ऋग्वेद १//२२//१९

विष्णु के कर्मों को देखो, जिससे नियम निकलते हैं। यह विष्णु ही जीवात्मा का योग्य सखा है, मित्र है। नेत्रों से परमात्मा के द्वारा निर्मित सृष्टि के नियमों को देखें, उससे अपने जीवन को नियमित, परोपकारमय या यज्ञीय बनायें। नेत्रवाले देखकर भी अनदेखा न करें इसलिये नेत्रों में उत्तमता से देखने की सामर्थ्य मांगी गयी है।

चतुर्थ मन्त्र में कानों में सुनने की सामर्थ्य की याचना है। सत्पात्र बनने के लिए इस निरीक्षण की आवश्यकता है-

                            ‘भ्रदं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवाः          

  –ऋग्वेद १//८९//

कानों से भद्र श्रेष्ठ बातें सुनें। आत्म निरीक्षण करें कि कहीं हममें निन्दित बातें सुनने का अभ्यास तो नहीं हो गया है। आज वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि ध्वनि का मन की तरंगों पर प्रभाव पड़ता है-शुभ वचनों का शुभ और अशुभ वचनों का अशुभ। अतः निन्दायुक्त, बातें, दूषित बातें न सुनें, न बोलें। दूसरों की निन्दा सुनने में यदि आनन्द आता है तो हमारी वृत्ति अच्छी नहीं है। उत्तम सुनें, उत्तम ही बोलें।

पांचवें मन्त्र में बाहुओं में बल की याचना है। बल भुजाओं में हो। परमेश्वर दत्त भुजाओं का बल सज्जनों, दीनों, अनाथों की सहायता में प्रयुक्त हो। संसार में बल तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञानबल, धनबल, और शारीरिक बल। इन तीनों बलों का सदुपयोग जो करता है, वही श्रेष्ठ मनुष्य होता है। किसी नीतिकार ने उचित ही लिखा है-

विद्या विवादाय-से-रक्षणाय।

दुष्ट की विद्या विवाद के लिए, धन अभिमान के लिए तथा शक्ति दूसरों को पीड़ा देने के लिए होती है, सज्जनों के ये बल इससे विपरीत कार्य के लिए होते हैं-विद्या ज्ञान के प्रसार के लिए, धन दान के लिए तथा शारीरिक बल सज्जनों, दीनों, अनाथों आदि पीड़ितों की रक्षा के लिए होता है। हमें सदैव यह ध्यान रखना है कि हमारी भुजाओं की शक्ति लोक कल्याणकारी कार्यों में लगे।

षष्ठ मन्त्र में जंघाओं में ओज-शरीर को धारण करने की शक्ति की कामना है। शरीर को गतिशील रखना ही शरीर को धारण करने का आधार है। गतिशीलता ही जीवन है। यह गति जब स्वार्थ की सीमित सीमा में रहती है, तब उससे किसी पुण्य कार्य का सम्पादन नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अपने बच्चों को पालने की वृत्ति तो पशु-पक्षियों में भी प्राप्त होती है। अपने बच्चों को योग्य बनाना, उनके लिए जमीन जायदाद, वैभव आदि को बनाना माता-पिता का नैतिक कर्तव्य तो हो सकता है, पर वह पुण्य का खाता नहीं होता। पुण्य का खाता, तो तब आरम्भ होता है, जब अपनों से ऊपर उठकर परायों का ध्यान करते हैं। उनकी गतिशीलता की सार्थकता दीन-दुखी, अनाथ, अबला आदि के सहयोग में पूर्ण होती है। यह सहयोग ही जंघाओं का ओज है। हमारे महान् आत्माओं की यह घोषणा कितनी उत्तम है-

त्वहं-से-प्राणिनामर्त्तिनाशनम्।

न राज्य, न स्वर्ग (इहलोक सुख), न मोक्ष की ही कामना है। उनकी कामना तो केवल एक ही है, वह है- संसार के समस्त प्राणियों के दुखों का नाश। यह कामना, ऐसी गतिशीलता ही ओज है। हमें यह ओज मिले, यह जीवन मिले, शरीर का सामर्थ्य मिले। इसकी सार्थकता ही इस मन्त्र का भाव है।

सप्तम मन्त्र में शरीर के समस्त अवयवों के दोष रहित होने की कामना की गई है। सम्पूर्ण धर्म अहिंसा पर आधारित है और दोष रहित शरीर ही पूर्ण अहिंसक हो सकता है।

                 ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्      

कालिदास

स्वस्थ शरीर से ही धर्म की साधना सम्पन्न हो सकती है। शरीर ही स्वस्थ न हो, पुष्ट न हो तो जीवन की साधारण आवश्यकताएँ भी पूर्ण करने में व्यक्ति असमर्थ हो जाता है। उसे सामान्य जीवन भी अच्छा नहीं लगता हैं, तब धर्म अधर्म का चिन्तन कैसे सम्भव हो सकता है। अतएव इस मन्त्र में सम्पूर्ण शरीर के स्वस्थ बने रहने की प्रार्थना की गयी है।

इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। एक सर्वविदित वचन है-

यन्मनसा ध्यायति-से-तदभिसम्पद्यते।

जो मन से ध्यान करेंगे, वह वाणी में आयेगा, जो वाणी में होगा तदनुसार कर्म होंगे, कर्मानुसार ही कार्य की सफलता होगी। शुभ फल के लिए शुभ कर्म की आवश्यकता है, शुभ कर्म शुभ विचारों से सम्भव है, शुभ विचार शुभ मन से सम्भव है और शुभ मन की प्राप्ति स्वस्थ शरीर एवं ईश्वर की भक्ति से होती है। इन्द्रियों के संयमित न होने से व्यक्ति अनेक दोषों को प्राप्त होता है। मनु का वचन है-

                     इन्द्रियाणां-से-यच्छति।      

    -मनु-स्मृति २//९३

इन इन्द्रियों का संचालक मन है। एक मात्र मन वह सोपान है, जिससे व्यक्ति ऊँचे पर चढ़ता है और इसके शुद्ध न होने से व्यक्ति अनेक मार्गों से पतन के गर्त में गिर जाता है-

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः

मन ही तो मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है। प्रसिद्ध वचन है-

आपदां कथितः -से-तेन गम्यताम्।

इन्द्रियों को संयमित करना आपत्ति का मार्ग है, उनको जीत लेना सम्पत्ति का मार्ग है, जो मार्ग अच्छा लगे उसी पर चलना चाहिए। इन्द्रियों का संयम मन पर है तथा मन शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ रहता हैं। मन का शुभत्व ईश्वर की कृपा से होता है, ईश्वर की कृपा सुपात्र को प्राप्त होती है। सुपात्रता समस्त शरीर के स्वस्थ एवं शुभ होने पर प्राप्त होती है। इसीलिये अंग स्पर्श का विधान मन्त्र सहित किया गया है।

जल से अंग स्पर्श क्यों?

अंग स्पर्श में जल का प्रयोग विशेष अभिप्राय से किया जाता है। जल की शीतलता का स्पर्श सम्पूर्ण अवयवों को शीतल, शान्त रहने की प्रेरणा देता है। यदि मन्त्र के साथ-साथ जल की स्पर्शानुभूति को मन से संयुक्त करके दृढ़ संकल्प हो, तो इन्द्रियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। बिना जल के यह अनुभूति पवित्र न हो सकेगी। अतः जल का प्रयोग इस विधि में आवश्यक समझा गया है। वैसे भी मनु के विचारानुसार भी-

                     ‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति’        

-मनु-स्मृति ५//

जल से शरीर शुद्ध होता है। जल शीतल, गतिशील एवं निर्मल होता है। हमारे शरीर की इन्द्रियां जल के समान शीतल-शान्त, गतिशील एवं निर्मल हों, इस संकल्प को बल प्राप्त होता है।

आचमन एवं अंग स्पर्श का सम्पूर्ण प्रभाव मन के संयोजन से सफल होता है। बिना मन से किया गया सम्पूर्ण कार्य लाभकारी नहीं होता है।