ईश्वर

-सत्य की राह पर चलने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण पग है कि जो चीज जैसी है, उसको वैसी ही स्वीकार करें और उस चीज का, अपने जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, अधिक से अधिक लाभ लें। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण विषय है- ईश्वर

यदि, ईश्वर नाम की सत्ता यथार्थ में नहीं है, तो उसके बारे में सोचना हमारा अपने कीमती समय को व्यर्थ गँवाना है, परन्तु यदि, ईश्वर नाम की सत्ता यथार्थ में है, तो हम ऐसी सत्ता के अस्तित्व को न मानकर उससे लाभ नहीं प्राप्त कर सकते। यह ठीक वैसे ही है, जैसे इलेक्ट्रॉन आदि की सत्ता को न मानकर हम बहुत से भौतिक लाभों से वञ्चित रह जाते।   

ईश्वर-विषय कोरी कल्पना न होकर एक वास्तविकता है और वैदिक जीवन पद्धति में ईश्वर मनुष्य-जीवन का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बिन्दु माना गया है।

-ईश्वर की सत्ता कोई कल्पना नहीं, बल्कि वास्तविक है। कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्यों को ठीक से नियंत्रित करने के लिए एक काल्पनिक सत्ता- ‘ईश्वर’ का सहारा ले लिया गया है। ईश्वर को सिद्ध करने के लिए, एक तो इतने बड़े ब्रह्मांड की रचना का उदाहरण दिया जा सकता है और दूसरे, विकलांगों को देख कर हमें प्राणियों से बड़ी सत्ता माननी ही पड़ती है, जो हम आत्मायों का संयोग, हमारे न चाहते हुए भी विकलांग शरीरों से कर देती है। सृष्टि का निर्माण कार्य बिना बुद्धि के सम्भव नहीं, तो हमें मानना पड़ता है कि यह सत्ता वास्तविक होने के साथ -साथ बहुत बुद्धि वाली भी है। बुद्धि वाली चीजों को चेतन कहा जाता है। क्योंकि, हम किसी भी प्राणधारी में इतना सामर्थ्य नहीं देखते कि वह इस सृष्टि का निर्माण कर सके और यह भी साइंस द्वारा स्वीकार्य है कि कोई भी व्यवस्थित बनी हुई चीज (चाहे वह साधारण सा पैन ही क्यों न हो) बिना उसके निर्माता के नहीं हो सकती, तो हमें मनुष्य से इतर किसी सत्ता को इस सृष्टि (जिसमें लाखों आकाश गंगाएँ हैं) का बनाने वाला मानना पड़ता है।

हमने अपने जीवन में बहुत से ईश्वर-विश्वासी लोगों को देखा होगा। आइए, विचार करें कि आखिर क्या है, जो इन ईश्वर-विश्वासी लोगों ने प्राप्त कर लिया है व हमें भी प्राप्त करना चाहिए? ऐसे लोग ईश्वर को मानने के लिए क्या तर्क देते हैं? हमारी बुद्धि का उन तर्कों के बारे में क्या विचार है? इससे पहले कि हम इस सत्ता के बारे में विचार करें, हमें इस संबंध में प्रत्येक ईश्वर-विश्वासी वर्ग के तर्कों को जानना होगा।

-संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जिसका कोई गुण (property) न हो। चाहे वह वस्तु पानी, बिजली आदि ही क्यों ना हो। ऐसे में ये आस्तिक लोग ईश्वर नामी सत्ता में कौन से गुणों को मानते हैं व क्यों? उनके द्वारा बताए ईश्वर के गुणों के बारे में हमारी विश्लेषणात्मक बुद्धि क्या कहती है? क्या उनके द्वारा दिए उत्तरों से हमारे प्रश्न का समाधान होता है कि आखिर क्यों हमें ऐसी सत्ता के आगे नतमस्तक होना चाहिए?, अर्थात ईश्वर को मानने से लाभ क्या होता है और इसको न मानने में हमारी क्या हानि है?

– ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम उसका सत्कार करते हैं कि नहीं। जो भी पॉजिटिव गुण हम अपने आस-पास की चीजों में देखते हैं, ईश्वर उन सभी गुणों का सर्वोत्तम भण्डार है या यूँ कहें कि सांसारिक चीजों में दिखाई देने वाले सभी गुण, ईश्वर के गुणों के ही अंश मात्र हैं। इन गुणों को सत्कार देने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम ईश्वर का सत्कार करें, ताकि हमें भी ये गुण प्राप्त हो सकें।

-इस संसार में बहुत से लोग हैं, जो ईश्वर-विषय को अनावश्यक मानते हैं। यह सच भी है कि पिछली कुछ शताब्दियों में जितना रक्तपात ईश्वर के नाम पर हुआ है, उतना ओर किसी कारण से नहीं हुआ। यदि कोई किसी को बालू खाता देख ले और यह प्रसारित करने लगे कि खाना खाना गलत है, तो उसको कोई बुद्धिमान नहीं कहेगा। उसका कर्त्तव्य बन जाता है कि वह जाने कि क्या खाना उचित है और क्या खाना अनुचित। यही बात हम ईश्वर विषय पर भी घटा सकते हैं। लोगों को ईश्वर के नाम पर किसी अयथार्थ वस्तु को मानता देख कर हमें ईश्वर नाम की सत्ता को ही नकारना नहीं चाहिए, बल्कि हमें पता लगाना  चाहिए कि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप आखिर है क्या? इससे हमें कोई गलत दिशा में प्रेरित नहीं कर पाएगा।

-प्रत्यक्ष को किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जिस व्यक्ति ने दिन के समय का प्रत्यक्ष कर लिया है, उसे आवश्यकता नहीं होती कि वह दूसरे व्यक्तियों से पता करे कि अमुक समय दिन का है या रात का। हमारे बहुत सारे पूर्वजों ने ईश्वर का प्रत्यक्ष करके वेद में वर्णित ईश्वर के गुणों, कर्मों और स्वभावों पर सत्यता की मोहर लगा दी है। केवल उन्हीं का उपदेश स्वीकार्य होना चाहिए, जिन्होंने उस चीज का स्वयं प्रत्यक्ष किया है, या जो, प्रत्यक्ष करने वालों की बातों को आगे बता रहे हैं। ऋषि उन्हीं को कहा जाता है, जिन्होंने स्वयं ईश्वर का प्रत्यक्ष किया होता है व वेदों के ज्ञान को ईश्वर से स्वयं समझा होता है। हम बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमने ऋषियों की भूमि, आर्यावर्त्त में जन्म लिया है। हमें केवल इस सौभाग्य को महसूस करना है।

-एक मनोविज्ञानिक नियम है कि व्यक्ति की रुचि उसी वस्तु में होती है, जिसको जानने व मानने के लाभ उसे विदित हों। इसी नियम के अनुरूप हम नीचे ईश्वर को जानने के लाभों का वर्णन कर रहें हैं, ताकि हमारी रुचि अधिकतम ईश्वर को जानने व मानने में हो सके:

  1. हमारा जीवन पूर्णतया ईश्वर पर आधारित है। हमारा शरीर, बुद्धि, इन्द्रियाँ, नदियाँ, पहाड़, सूर्य, अन्न, वनस्पतियां आदि, जिनसे हम सब तरह के सुख उठाते हैं और भिन्न भिन्न वैज्ञानिक खोजें आदि करते हैं, ईश्वर की ही देन हैं। यदि, ईश्वर अपने योगदान को वापिस ले ले, तो हम सब आत्माएँ मूर्छित अवस्था में आ जाएँ। ईश्वर के इस योगदान को स्वीकार करना ईश्वर नाम की सत्ता का प्रथम लाभ है। इससे हमारे अन्दर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव उत्पन्न होते हैं और हम ईश्वर के अन्य लाभों को समझ पाने के समर्थ हो जाते हैं।
  2. ईश्वर को सही सही जानना हमें प्रसन्न रखता है।

         इसे हम एक उदाहरण से समझते हैं।

        जैसे हमारा देखना तभी सार्थक होता है, जब हमारे मन में स्वस्थ आंख और प्रकाश देने वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव हो। उसी तरह प्रसन्नतारूपी संतोष को प्राप्त करने के लिए            आवश्यक है कि हममें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव हो। क्योंकि, यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति आस्तिक तो हो, परन्तु ईश्वर के प्रति कृतज्ञ न हो। इसका अर्थ यहीं निकलता है              कि वास्तविक प्रसन्नता के लिए आस्तिकता आवश्यक है।

  1. ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को न समझने के कारण ही आज हमारा नैतिक जीवन स्तर अत्यन्त गिर गया है। आज हम जीवन भर ईश्वर के अवास्तविक स्वरूप में अपना विश्वास बढ़ाने में लगे रहते हैं। अपने इर्द-गिर्द अनैतिकता का बोल-बाला प्रत्यक्ष करने के बावजूद हम हठ आदि के कारण यह मानने को तैयार नहीं होते कि ईश्वर के स्वरूप को जानने में हमसे कोई भूल हो रही है।
  2. ईश्वर के सच्चे स्वरूप में श्रद्धा और विश्वास बढ़ाने से मनुष्य की दुख, पीड़ा, बन्धन, भय, शोक, चिन्ताओं आदि का स्वयमेव नाश हो जाता है। ऋषि लोगों के अनुसार भगवत्प्रेम में हमारी बुराइयों को नाश करने की शक्ति है। हमारी बुरी आदतें कितनी भी क्यों न पक गईं हों, उपासना में बैठकर प्रेमपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना करने पर उनको आसानी से बदला जा सकता है। मुश्किल यह है कि उपासना में बैठने पर हम पूरी ईमानदारी से भगवत्प्रेम को जगाने का प्रयत्न ही नहीं करते।
  3. जो मनुष्य अपने आप को शरीर से भिन्न आत्मा नहीं मानता है, ऐसे व्यक्ति के विचार शरीर से परे जा ही नहीं सकते। वह तो बस इस शरीर को ही खिलाने, पिलाने, सजाने, संवारने और इसकी रक्षा करने में लगा रहेगा। ऐसा व्यक्ति जीवन भर झूठ, छल, कपट, धोखा, विश्वासघात, अन्याय, शोषण आदि के माध्यम से भोग के साधनों का संग्रह करता रहेगा। ऐसे व्यक्ति के लिए सदाचार, अहिंसा, परोपकार, त्याग आदि बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं। ऐसा व्यक्ति समय, शक्ति, धन आदि से दूसरे की सहायता बिना किसी अपेक्षा के क्यों करेगा? परन्तु, शरीर से अलग नित्य आत्मा की सत्ता को मानने वाले और ईश्वर पर विश्वास करने वाले कहते हैं कि मृत्यु मेरा अन्त नहीं है। मेरे त्याग, बलिदान आदि के बदले ईश्वर मुझे आन्तरिक सुख-शान्ति प्रदान करेगा और मेरा अगला जन्म उच्च स्तर का होगा।
  4. ईश्वर पॉजिटिव गुणों का भण्डार है। इन पॉजिटिव गुणों को प्राप्त करके ही हम अपने दायित्वों का भलि-भांति निर्वाह कर सकते हैं। इसलिए, अपने कर्त्तव्यों को अच्छी तरह से निभाने के लिए हमें ईश्वर नाम की सत्ता की पूजा करना अनिवार्य है। जैसे-जैसे हम अपने कर्त्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते जाते हैं, वैसे-वैसे हम मुक्ति की ओर अर्थात अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं। ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को आत्मसात किए बिना हम मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते।
  5. ईश्वर स्वभाव से शुद्ध, आनन्दमयी और अविद्या से दूर है। उसके इस स्वरूप को आत्मसात किए बिना हमारा ज्ञान, कर्म और उपासना शुद्ध नहीं हो सकते व इन तीनों की शुद्धता के बिना हम अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते।

उपरोक्त लाभ हम तभी ले सकते हैं, जब हम ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जान लें और जानने के पश्चात उसे मान लें। अब परम्परा कुछ ऐसी चल पड़ी है, कि हम धर्म से सम्बन्धित किसी वस्तु को बगैर जाने मान लेते हैं। ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए नीचे दिए गए लेखों का ज्ञान आवश्यक है। यह सभी विचार आर्य विद्वानों के लेखों व प्रवचनों से लिए गए हैं। इन सभी आर्य विद्वानों का उद्देश्य वेदों व ऋषियों की शिक्षाओं को प्रचारित करना है।

-अनन्त होने के कारण, ईश्वर के सभी गुणों की चर्चा करना सम्भव ही नहीं। मुख्यतः ईश्वर के 10-15 गुणों की ही चर्चा की जाती है। पर हर सम्प्रदाय द्वारा इन गुणों के भिन्न-भिन्न अर्थ किए जाते हैं। इन गुणों के सही अर्थ जानने के लिए हमें अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनाना होता है। गुणों की भांति, उसके बोधक नाम भी अनन्त हैं। ब्रह्म, ब्रह्मा, शिव, विष्णु आदि शब्द उसके विभिन्न गुणों के परिचायक हैं। ईश्वर के मुख्य गुण निम्नलिखित हैं:

  1. ईश्वर एक है।
  2. ईश्वर चेतन अथवा ज्ञानवाला है।
  3. ईश्वर आनन्दस्वरूप है।
  4. ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात सब कुछ जानने वाला है।
  5. ईश्वर निराकार है।
  6. ईश्वर सर्वशक्तिमान है।
  7. ईश्वर न्यायकारी है।
  8. ईश्वर दयालु है।
  9. ईश्वर सर्वव्यापक है।
  10. ईश्वर अन्तर्यामी है।
  11. ईश्वर यथार्थ में एक अनादि, अनन्त सत्ता है।
  12. ईश्वर निर्विकार है।
  13. ईश्वर अजन्मा, अजर, अमर है।
  14. ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है।
  15. ईश्वर नित्य, अभय है।

-कुछ लोग ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते, परन्तु उनके व्यवहार में भी शुद्धता देखी जाती है, यह उनके पूर्व के संस्कारों के कारण होती है। जब कोई व्यक्ति कहता है कि वह ईश्वर को नहीं मानता, तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि वह ईश्वर के गुणों, जैसे कि परोपकारिता, निर्भयता आदि को भी नहीं मानता। हर पदार्थ के आश्रित कुछ गुण होते हैं। पदार्थ और उसके गुणों को अलग नहीं किया जा सकता। गुणों को मानना सम्बन्धित पदार्थ को मानना माना जा सकता है, परन्तु अपनी जिद  के कारण वे गुणों को तो मानते हैं, पर गुणी को मानने से इंकार करते हैं।

-हम ईश्वर को उसको खुश करने के लिए नहीं मानते, बल्कि हम ईश्वर को स्वयं प्रसन्न रहने के लिए मानते हैं। ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम उसे जाने या ना, हम उसे गॉड कहें, अल्लाह कहें या कुछ ओर। जब हम उसके गुणों को ठीक वैसा ही समझते हैं, जैसे वो हैं, तो ही हम उसका लाभ ले सकते हैं। जब हम उसे गॉड, अल्लाह आदि कह कर, उसके ठीक ठीक गुणों को मानने से इन्कार कर देते हैं, तो हम लाभ के बजाए हानि को निमंत्रण देते हैं।

-आत्मा व परमात्मा अर्थात ईश्वर दो भिन्न और स्वतन्त्र सत्ताएं हैं। हमारी संस्कृति से जुड़े सभी आत्मा को नित्य अर्थात अनश्वर मानते हैं, परन्तु बहुत लोग यह भी मानते हैं कि एक उच्च अवस्था को प्राप्त होकर आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। वास्तविकता यह है कि आत्मा कितनी भी उच्च अवस्था को प्राप्त क्यों न कर ले, उसकी सत्ता नित्य और परमात्मा से भिन्न ही रहती है। कुछ लोग आत्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं। ऐसे लोग एक भी ऐसा उदाहरण देने में असमर्थ पाए जाते हैं, जहां जिस पदार्थ को वे मुख्य पदार्थ का अंश मानते हैं, उसमें मुख्य पदार्थ के गुण विद्यमान न हों। जबकि, आत्मा में परमात्मा के सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता आदि गुणों का नितान्त अभाव है।

-आइए, आगे बढ़ने से पहले ईश्वर की महानता के बारे में विचार कर लें। यह तो सभी मानते हैं कि ईश्वर हमारे विचारों को जानता है। यदि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि पिछ्ले एक मिनट में उसके मन में कितने और कौन कौन से विचार आए, तो शायद लाखों में कोई एक व्यक्ति ही इसका उत्तर दे पाए। अब यदि, यह समय एक मिनट से बढ़ाकर एक घन्टा कर दिया जाए, तो कोई भी मनुष्य इसका उत्तर देने में सक्षम नहीं होगा। ऐसे ही मनुष्य के सम्पूर्ण जीवनकाल, जो कि 70-90 वर्ष होता है, के हर पल के विचारों को ईश्वर जानता है। इस पृथ्वी पर वर्त्तमान में लगभग 800 करोड़ लोग जीवित हैं। सिर्फ इस एक पहलू से ही ईश्वर की महानता का अनुमान लगाया जा सकता है। जिन लोगों ने इतने महान ईश्वर के बारे में इतनी तर्क सम्मत बातें हमारे सामने रखीं, उनको शत शत नमन।

-हमारी मानसिकता कुछ ऐसी है कि अपने से उच्च सत्ता अर्थात ईश्वर को हम अपने जैसा ही मानते हैं। कुछ भिन्नता के लिए, हम उसको एक आँख वाला या  चार हाथों वाला आदि मान लेते हैं। यह तो सभी मानते हैं कि ईश्वर प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है, तो जब आत्मा आकार रहित है तो ईश्वर का आकारवाला होना कैसे संगत है। एक और भ्रान्ति जो समाज में फैली हुई है, वो है भगवान और ईश्वर को एक मानना। बलवान, धनवान आदि शब्दों की तरह भगवान का अर्थ होता हैभग वाला अर्थात जिसने भग को प्राप्त कर रखा है। भग धातु का मुख्य अर्थ होता है- ऐश्वर्य। तो, भगवान शब्द का अर्थ हुआ ऐश्वर्यशाली। ईश्वर तो ऐश्वर्यशाली है, परन्तु हर ऐश्वर्यशाली ईश्वर नहीं। भगवान कईं हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर एक ही है।

-कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है। वह अन्याय भी कर सकता है, परन्तु करता नहीं। आइए, इस कथन की विवेचना करते हैं। कुछ करने के लिए दो चीजों का होना आवश्यक होता है। एक- उस काम को करने का ज्ञान, दो- उस काम को करने के लिए आवश्यक शक्ति। उचित ज्ञान और शक्ति के होने की सार्थकता तभी है, जब उस काम को किया जाये। जो मनुष्य घड़ी बनाता ही नहीं, उसके पास घड़ी बनाने के ज्ञान और शक्ति के होने का कोई अर्थ नहीं होता। यहीं बात ईश्वर पर भी घटाई जा सकती है। ईश्वर का सृष्टि बनाना उसका अपने ज्ञान को अभिव्यक्ति देना है। इस अभिव्यक्ति के बगैर उसके ज्ञानवान होने के कोई मायने नहीं। कुछ लोग ईश्वर को एक शक्ति के रूप में मानते हैं। हालाँकि ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसको माना जाए अथवा न माना जाए, परन्तु वास्तविकता यह है कि ईश्वर कोई शक्ति नहीं, बल्कि शक्तिमान है। यह दुराग्रह ही कहा जाएगा कि हम गुण को तो मानें, परन्तु गुणी को मानने से इन्कार कर दें। आजकल की साइंस का भी यही हाल है की वो सृष्टि को तो मानती है, परन्तु सृष्टि को बनाने वाले को नहीं मानती। 

-वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार किसी भी चीज के निर्माण के लिए तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है। एक-  वस्तु को बनाने  वाला, दो-  वह चीज़, जिससे उसको बनाना है और तीन- बनाने के ज्ञान आदि साधन। उदाहरणार्थ- कपड़ा बनाने के लिए पहली चीज़, जो चाहिए वह है- ‘कपड़ा बनाने वाला’, दूसरी आवश्यक वस्तु है- सूत व तीसरी आवश्यक वस्तु है- कला-कौशल अर्थात् ज्ञान, खड़डी आदि। सृष्टि की रचना का पहला कारण है- ईश्वर। दूसरा कारण है- मूल प्रकृति व तीसरा कारण है- ईश्वर के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुण, काल, दिशा और आकाश। मूल प्रकृति नित्य है। बस, वह सृष्टि के समय, अव्यक्त से व्यक्त हो जाती है।

-एक भ्रम लोगों में बहुत व्याप्त है कि ईश्वर के घर देर है, अंधेर नहीं। जब हम मानते है कि न्याय में विलम्ब होना अन्याय के बराबर ही होता है और ईश्वर न्यायकारी है, तो यह मानना कि ‘ईश्वर के घर देर है, अंधेर नहीं’ गलत है। । ऐसे भ्रम का कारण यह है कि हमारे अनुसार कुछ कर्मों का फल जल्दी मिलना चाहिए, जबकि, उन कर्मों का फल मिलने का उचित समय कुछ देर बाद ही होता है। इसलिए, ईश्वर के घर न देर है, न अंधेर। 

-हमारी संस्कृति में ईश्वर को कण-कण में विद्यमान माना जाता है। जितनी किसी वस्तु की व्यापकता बढ़ती है, उतनी वह सूक्ष्म होती जाती है। इस तथ्य को हम संसारिक वस्तुओं, जैसे भाप आदि में देख सकते हैं। व्यापक वस्तु का साकार रहना असम्भव है। कुछ सम्प्रदाय ईश्वर को चौथे या सातवें या क्षीर सागर में मानते हैं। सत्य के निर्धारण के मायने तभी हैं, जब किसी चीज के असत्य सिद्ध हो जाने पर, हमारे मन में उस के प्रति अप्रीति का भाव उत्पन्न हो जाए।

-आखिर हमारे पूर्वजों के इस विश्वास का कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है, क्या कारण है? सभी ईश्वर को इस सृष्टि का नियामक अर्थात नियम में रखने वाला मानते हैं।  प्रिंसिपल, जो स्कूल का नियामक माना जाता है, स्कूल में एक जगह पर रहता है। उसकी पीठ पर स्कूल में कितनी अनियमितताएं व अनुशासनहीनताएँ होती हैं, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे यह सिद्धांत उभर कर आता है कि किसी चीज को नियम में बांधने के लिए यह आवश्यक है कि उसका नियंता उस चीज में विद्यमान रहे।  

-यदि ईश्वर कण-कण में विद्यमान है, तो ईश्वर मंदिर व मूर्ति में भी मौजूद है, फिर मंदिरों में जाना गलत कैसे हुआ? जब हम मंदिरों आदि में जाते हैं, तो हमारे अंदर यह भावना तो ठीक होती है कि वह मंदिरों आदि में भी विद्यमान है, परन्तु हमारा मन परोक्ष रूप से यह भी स्वीकार कर लेता है कि वह मंदिरों आदि के बाहर विद्यमान नहीं है और यह मान कर हम मंदिर से बाहर आकर अनैतिक कार्यों में प्रवृत हो जाते हैं। परोक्ष रूप से, हमारा मंदिरों में जाना यह दर्शाता है कि हम इस तथ्य को कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है, स्वीकार नहीं करते।  यदि हम यह मानते हैं कि ईश्वर मंदिर के अन्दर भी विद्यमान है और बाहर भी, तो भी हमारा  मंदिरों आदि में जाना इसलिए गलत है, क्योंकि इससे हम दूसरों के लिए गलत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। समाज में रहते हुए हमें बहुत सी बातों को  व्यक्तिगत मनःस्थिति के अनुरूप होते हुए भी इसलिए नहीं करना होता कि हम दूसरों के लिए गलत मर्यादा न स्थापित कर दें।

-गुणों की भांति, आत्मा और परमात्मा के कर्मों में भी बहुत भिन्नता होती है। कुछ काम ऐसे होते हैं, जो ईश्वर ही कर सकता है, आत्मा नहीं और कुछ काम ऐसे हैं, जो आत्मा ही कर सकता है, ईश्वर नहीं। ईश्वर के कर्म निम्नलिखित हैं: 

  1. सृष्टि को बनाना, धारण करना व उसका विनाश करना। 
  2. सृष्टि के आरम्भ में अपना ज्ञान वेद के माध्यम से मनुष्यों को देना। 
  3. सभी प्राणियों को उनके कर्मों का फल देना। 

शेष सभी कार्यों को करने के लिए आत्मा ही उत्तरदायी होता है। ईश्वर का किसी के लिए पानी भरना, रोटी बनाना आदि क्रियाएं करना सम्भव ही नहीं। 

– ईश्वर के सृष्टि को धारण करने के अर्थ को एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। एक घड़ी के पुर्जे बनाने वाला उस लोहे का, जिससे कि पुर्जे बनाए गए होते हैं, का नियामक नहीं होता। वह लोहे के कणों में होने वाली बदलाव आदि प्रक्रियाओं के लिए उत्तरदायी नहीं होता। इसी संरक्षण (maintenance) को धारण करना कहा जाता है। क्योंकि, बिना वस्तु में व्याप्त हुए उसका धारण असम्भव है, इसलिए धारण का अर्थ व्याप्त होना भी लिया जाता है। 

-ईश्वर की पूजा को तीन विभागों में बाँट दिया जाता है। वे विभाग हैं- स्तुति, प्रार्थना और उपासना। ‘स्तुति’ शब्द का उपयोग ईश्वर के गुण कीर्तन के लिए किया जाता है, परन्तु एक व्यक्ति जो भांड की तरह ईश्वर के गुणों का गान करता है और उन गुणों को अपने चरित्र में नहीं उतारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है। किसी पदार्थ के गुणों को गुण व अवगुणों को अवगुण कहना स्तुति कहाती है। अवगुणों को अवगुण कहने से अन्यों को दुख हो सकता है, परन्तु विश्व-हित के लिए ऐसा करना सही है। वैसे तो अप्रिय सत्य बोलना भी गलत माना जाता है, परन्तु विश्व-हित के लिए ऐसा करना उचित है। स्तुति के विपरीत निन्दा है, जिसमें किसी पदार्थ के गुणों को अवगुण व अवगुणों को गुण बताया जाता है। हम कह सकते हैं कि स्तुति में सत्य भाषण पिरोया हुआ है। स्तुति से, जिस पदार्थ का गुणगान किया जाता है, उससे प्रीति बढ़ती है। प्रार्थना से हममें निरभिमानिता आती है व इससे हमें ईश्वर का सहाय प्राप्त होता है। प्रार्थना के विषय पर अन्यत्र विस्तार से बताया जाएगा। उपासना के विषय में इस साईट में बहुत कुछ कहा गया है। फिर भी एक प्रश्न बार-बार किया जाता है कि यदि उपासना से हमारे बुरे कर्मों के फल माफ नहीं होते, तो फिर उपासना की ही क्यों जाए? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि भले ही उपासना से हमारे बुरे कर्मों के फल माफ नहीं होते और उन फलों की तीव्रता में भी कोई कमी नहीं आती, तो भी हमें उपासना इसलिए करनी चाहिए, क्योंकि इससे हमें अपने बुरे कर्मों के फ़लस्वरुप होने वाले दुखों की अनुभूति बहुत कम होती है।   

-संसार के सारे सम्प्रदाय या तो किसी शरीरधारी के इर्द-गिर्द घूमते हैं या किसी मनुष्य द्वारा स्थापित किए गए हैं। हम अपनी बुद्धि द्वारा परीक्षण कर चुके हैं कि इस ब्रह्माण्ड का बनाना व आत्मायों का शरीरों से संयोग करना किसी शरीरधारी के बस की बात नहीं। ओर तो ओर ईश्वर  के गुणों को समझते हुए हम यह भी जान चुके हैं कि पूरे ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने के लिए ईश्वर का सृष्टि के कण-कण में विद्यमान होना अतिआवश्यक है और कोई भी शरीरधारी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त नहीं हो सकता।  आइए, हम सत्य को स्वीकार करें। सत्य को स्वीकार धीरे-धीरे नहीं, एक दम से किया जाता है।

-आइए, ईश्वर के मोटे-मोटे गुणों को दोहरा लेते हैं। ईश्वर सदा था, है और सदा रहेगा। उसकी सत्ता है, वह कोई कल्पना नहीं। वह चेतन व अत्यंत बुद्धिमान है। वह आनंदमयी है। वह शरीर धारण नहीं करता। वह आकार-रहित है। उस जैसा कोई नहीं। वह अपने किसी भी कार्य में किसी अन्य की सहायता नहीं लेता। उसका कोई अंत नहीं। वह दयालु व न्यायकारी है। वह सब कुछ जानने वाला है। वह अपना हर कार्य जीवों के हितार्थ ही करता है। वह सबका आधार है। वह सबके दुखों को दूर करने वाला है। वह सृष्टि की रचना करके उसके कण-कण में विद्यमान रहता है। उसकी शक्ति का कोई पार नहीं। वह नितान्त पवित्र है। वह पूर्ण है। 

-साधारणतया, जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है, उसे आस्तिक कहा जाता है। परन्तु वास्तव में आस्तिक वहीं है, जो ईश्वर में जो जो गुण होते हैं, उनको स्वीकार करता है और जो जो गुण उसमें नहीं हैं, उनका ईश्वर में अभाव स्वीकार करता है यानि कि ईश्वर जैसा है, उसको वैसा ही जानना आस्तिकता कहाती है। इसी परिभाषा के अनुसार ईश्वर के ज्ञान- वेद को न मानने वाले को भी नास्तिक कहा गया है।  

– अब दो बहुत प्रचलित धारणाओं की विवेचना की जाती है। पहली धारणा- सब कुछ करने वाला ईश्वर ही है। वस्तुतः सब क्रियाओं को करने वाला ईश्वर नहीं। उस को सब कुछ करने वाला, इस सृष्टि का नियन्ता  होने के कारण कह दिया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी देश के राष्ट्रपति को उस देश को चलाने वाला कह दिया जाता है। दूसरी धारणा- ईश्वर के सिवाय इस सृष्टि में ओर कुछ नहीं है। वह बिना किसी ओर वस्तु के ही इस सृष्टि का निर्माण कर देता है। वस्तुतः इस सृष्टि में, ईश्वर के अतिरिक्त मूल प्रकृति व आत्माएं भी हैं, जो नित्य हैं। ये तीनों कभी उत्पन्न नहीं होते। सृष्टि को उत्पन्न करने का अर्थ ईश्वर द्वारा मूल प्रकृति को कार्य प्रकृति में परिवर्तित करना ही है।