ईश्वर के कर्म कौन कौन से हैं?

 

हम ईश्वर के अनन्त कर्मों को चार भागों में बांट सकते हैं-सृष्टि रचना व विनाश अर्थात भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों, नक्षत्रों और ग्रहों का निमार्ण व विनाश, सृष्टि की पालना व स्थिति, न्यायोचित कर्मफल व्यवस्था व उसका सफल execution और मनुष्य को अपने अनन्त ज्ञान का प्रकाश देना।

 प्राणियों के शरीरों, नक्षत्रों और ग्रहों के निर्माण का ईश्वर मुख्य कारण है। भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों, नक्षत्रों और ग्रहों के निर्माण  के पश्चात, ईश्वर इन्हें असहाय अवस्था में नहीं छोड़ देता बल्कि, एक व्यवस्था भी देता है, जिसके अन्तर्गत प्रकृति के सभी परमाणु चल सकें। ग्रहों के निर्माण में जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश का निर्माण शामिल है, क्योंकि, इन पंच महाभूतों के बगैर शरीरों, नक्षत्रों और ग्रहों के निर्माण की कल्पना करना मूर्खतापूर्ण है। इस तरह, ईश्वर सृष्टि की पालना करता है। सृष्टि निर्माण व कर्मफल देने के अतिरिक्त ईश्वर अपने अनन्त ज्ञान में से मनुष्य के लिए, आवश्यक ज्ञान, वेद के रूप में  हमें देता है। वेद को सृष्टि का constitution भी कहा जाता है।

ऊपर ईश्वर के कर्मों का वर्णन किया गया है। परन्तु, योग दर्शन में ईश्वर को कर्मों से असम्बन्धित बताया गया है। आइए! इसका भाव समझते हैं। ऊपर बताए गई क्रियायों को ईश्वर के कर्म कह दिया जाता है, वस्तुतः ये ईश्वर के स्वाभाविक क्रियाएँ हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे नींद आना हमारे शरीर की स्वाभाविक क्रिया है। वैसे तो, अकर्मण्यता पाप है, परन्तु नींद के कारण व्यक्ति का अकर्मण्य हो जाना पाप नहीं कहलाता। इसी तरह इस सृष्टि आदि को ईश्वर अपनी आदत के कारण नहीं बनता, बल्कि सृष्टि को बनाना, उसका विनाश करना, उसको पालना, प्राणियों को उनके कर्मों का न्यायोचित ढंग से फल देना और वेदों का प्रकाश करना क्रियाएं ईश्वर अपने स्वभाव के कारण करता है।  

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