आस्तिकता क्या है?
प्रथम तो यह जानना कि ईश्वर है भी कि नहीं। अगर है तो कैसा है? उसके गुण, कर्म और स्वभाव क्या हैं? वह कहां उपलब्ध होता है? उसको जानने की आवश्यकता क्या है? उसको कैसे जाना जा सकता है? आदि प्रश्नों का उत्तर जानना व अपने इस ज्ञान के अनुसार आचरण करना आस्तिकता कहलाता है। जानना व मानना आस्तिकता के प्रथम दो चरण हैं। इसका तीसरा व अन्तिम चरण है, ईश्वरीय गुणों को अपनी आत्मा में उतारना। ईश्वरीय गुणों को अपनी आत्मा में उतारने का तरीका है-उपासना। जो व्यक्ति परमात्मा को मानता है, परमात्मा को ठीक ठीक जानता भी है, परन्तु उपासना नहीं करता, उसे आस्तिक नहीं कहा जा सकता। आस्तिकता उत्साह का स्रोत है। यह प्रसन्न रहने का भी सबसे बड़ा नुस्खा है।
प्र0-यदि कर्मों का फल अवश्य ही मिलता है और उनसे कोई बच नहीं सकता तो फिर ईश्वरोपासनाकरने की आवश्यकता क्या है ?
उ0-यह बात सत्य है कि किये गये कर्मों का फल अवश्य मिलता है। चाहे कितना ही जप-तप करो, कितने ही यज्ञ-दान करो, फिर भी उपासना की आवश्यकता इसलिए है कि उपासना करने से ईश्वर की ओर से विशेष ज्ञान, बल, आनन्द, धैर्य, सहनशक्ति, निष्कामता, उत्साह, पराक्रम, दयालुता, न्यायकारिता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। उपासक की बुद्धि कुषाग्र होती है, स्मृति तीव्र होती है, एकाग्रता बढ़ती है, इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है, मन पर अधिकार होता है, अज्ञान जनित कुसंस्कारों को जानने, उनको दबाने, निर्बल बनाने तथा उन्हें नष्ट करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है और जब साधक यम-नियम का सूक्ष्मता से पालन करता है, तब जीवन शान्त, प्रसन्न, सन्तुष्ट, निर्भीक बनता है। आगे चलकर आत्मा का परिज्ञान होता है, समाधि लगती है, पुन: आगे ईश्वर का साक्षात्कार होता है और व्यक्ति समस्त दुखों से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होकर मोक्ष में चला जाता है। इसलिए शुभ कर्मों को करते हुए साथ-साथ ईश्वर की उपासना भी अवश्य करनी चाहिए।
-आचार्यज्ञानेश्वर
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