योग का छठा अङ्ग – धारणा
परिभाषा-अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।
शरीर में मन को टिकाने के स्थान
वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।
बहुत से साधक धारणा का अभ्यास लम्बे काल तक करते हुए धारणा को ही ध्यान मान लेते हैं, ऐसा न करें। क्योंकि धारणा बनाकर आगे (अगले अङ्ग में) ध्यान का विधान किया है। अतः धारणा का अर्थ केवल मन को टिकाए रखना ही लेना है। धारणा से मन को टिका कर अगली प्रक्रिया में ध्यान प्रारम्भ किया जाता है।
प्रारम्भ काल में शरीर से बाहर ओ३म् गायत्री मन्त्र आदि में धारणा कुछ ही अवधि तक करनी चाहिए। लम्बे काल तक शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान है। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
अभ्यास के लिए प्रारम्भ में आँखें खोल कर मात्र कुछ समय के लिए ही बाहर धारणा का अभ्यास करें।
धारणा के लाभ
1. मन एकाग्र होता है।
2. मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है।
3. मन की मलिनता का बोध अर्थात् परिज्ञान होता है।
4. मन के विकारों को दूर करने में सफलता मिलती है।
5. ध्यान की पूर्व तैयारी होती है।
6. ध्यान अच्छा लगता है।
निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते –
1. मन जड़ है को भूले रहना
2. भोजन में सात्विकता की कमी
3. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
4. ‘ईश्वर कण – कण में व्याप्त है’ को भूले रहना
5. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना
6. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना
इस प्रकार अनेकों कारण हैं, जिन से मन धारणा स्थल पर टिका हुआ नहीं रह पाता। इन कारणों को प्रथम अच्छी तरह जान लेना चाहिए, फिर उनको दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन एक स्थान पर लम्बी अवधि तक टिक सकता है।
बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
फिर अनेक बार उस भटकाव को रोकने में ही सारा समय व्यतीत होता है। अतः अच्छा तो यही है कि ध्यान करने वाले योग-साधक योग-विधि के अनुसार धारणा बना कर ही ध्यान करें।
प्रारम्भिक योग साधक को चाहिए कि वह ध्यान के काल में बीच-बीच में धारणा स्थल का बोध बनाए रखे। जिससे भटकना न हो पाये। योग-साधक को यह भी चाहिए कि जितने धारणा स्थल हैं उनमें धारणा करने का अभ्यास बना लेवे, जिससे यदि कभी एक धारणा स्थल पर सफलता न मिले तो अन्य धारणा स्थल पर सफलता पूर्वक धारणा लगा सके।
योग-साधक को अपनी बुद्धि में यह बात भी अवश्य बिठा लेनी चाहिए कि बिना धारणा बनाये ध्यान समुचित रूप में नहीं हो सकता।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह ईश्वर पर निशाना लगाने (ईश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है|
अष्टांग योग: यम | नियम | आसन | प्राणायाम | प्रत्याहार | धारणा | ध्यान | समाधि