यज्ञ का महत्त्व
-अर्जुन देव स्नातक
क्या आप नित्य दैनिक यज्ञ करते हैं? अजी कहाँ समय मिलता है, फिर इस मँहगाई के जमाने में आप घी फूँकने की बात करते हैं, घी खाने को मिल जाये यही बहुत है आदि उत्तर आजकल प्रायः सभी अनपढ़ नहीं, अपितु पढ़े लिखे लोग भी यही देते हैं। आश्चर्य तो तब होता है, जब विज्ञान के ज्ञाता भी यही बातें दोहराते हैं।
हमारा एक पुराना शिष्य एम.एस.सी. उत्तीर्ण करने के बाद हमारे पास आकर बोला- गुरु जी, आप विद्यालय में दैनिक यज्ञ के बाद प्रायः यज्ञ के महत्त्व पर व ईश्वर की स्तुति पर कुछ बातें बताते थे। तब हम नादान थे, आपकी बात बलात् स्वीकार कर लेते थे, किन्तु अब मैंने एम.एस.सी. पास कर लिया है, अब आपकी प्रत्येक बात का उत्तर देने में समर्थ हूँ। मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ, विज्ञान के नित-नये आविष्कारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानव-बुद्धि ही सर्वोपरि है, ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है।
यह सुनकर हम तो आश्चर्य में पड़ गये कि विज्ञान की प्रगति व्यक्ति को नास्तिक बना रही है जबकि सृष्टि में छिपे हुए नित्य नये अज्ञात नियमों की खोज विज्ञान कर रहा है।
….
फिर भी हमने छात्र पर स्नेहभरी दृष्टि डालकर कहा-हमारे एक प्रश्न का उत्तर आप देंगे- जरा बतायें हम जो रोटी खाते हैं, उसका शरीर में क्या बनता है? छात्र का उत्तर था-जी, शरीर के पोषक तत्व बनते हैं, रक्त, माँस, मज्जा आदि। हमने सरलता से कहा कि सौ रोटियाँ यहाँ अभी मँगवाते हैं, आप वैज्ञानिकों से कहें कि जिस प्रक्रिया से ये शरीर में रक्तादि बनाते हैं, वैसे ही ये यहाँ बना दें। शिष्य शान्त था। हमने उससे कहा परमात्मा की क्या उत्तम रचना है कि शरीर निर्माण के साथ सभी के शरीर में एक जैसे यन्त्र बना दिये, जो खाये हुए पदार्थों को शरीर के पुष्ट बनाने में लग जाते हैं, यह सब के शरीर में एक जैसा है। यही तो उसका नियम है, अद्भुत नियम है।
मैंने कहा-पुत्रा! वैज्ञानिकों के सम्मेलन में ही एक महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि वैज्ञानिकों को अपने सफल नूतन आविष्कार के लिए उस जगत् पिता के आगे नतमस्तक होना चाहिए, अन्यथा क्या हम सिर का एक बाल भी बना सकते हैं? नहीं बना सकते।
शिष्य, वह भी आधुनिक शिष्य जल्दी हार माननेवाला नहीं था, बोला चलिये ईश्वर पर फिर कभी बात कर लेंगे, किन्तु मैं आज तक अच्छी तरह यह नहीं समझ पाया कि हमें प्रतिदिन यज्ञ क्यों करना चाहिये, व्यर्थ घी फूंकने से क्या लाभ, फिर यज्ञ में मन्त्र बोलने से क्या लाभ है, साथ ही यज्ञ में समिधा आदि प्रयोग का विधान क्यों है? आदि-आदि बातें कभी समझ में नहीं आयी। कृपया यज्ञ नित्य क्यों करना चाहिये, इसको आज समझा दें। आप तो जानते ही है कि मनुष्य स्वभावतः महत्त्व जानने पर ही, लाभ जानने पर ही श्रद्धा भाव से किसी कर्म को सम्पन्न करने में प्रवृत्त होता है।
हमें अपने शिष्य का विचार अच्छा लगा। सोचा क्यों न यह विचार सब तक पहुँचे। तो आइये, पहले यह विचार करें कि प्रतिदिन यज्ञ क्यों करें? यज्ञ बहुत व्यापक शब्द है। हवन या अग्निहोत्र यज्ञ का केवल प्रतीकात्मक रूप है। हवन या अग्निहोत्र यज्ञ का प्रतीकात्मक रूप कैसे है?, इसकी चर्चा न करके यहां, यज्ञ को ही हवन वा अग्निहोत्र के नाम से कहा जा रहा है।
वर्त्तमान में अनेक समस्याओं से घिरा हुआ मनुष्य पीड़ित है। धन है तो शान्ति नहीं है। पुत्र है तो शान्ति नहीं, समस्त सुख के साधन हैं, फिर भी जीवन अधूरा अधूरा है। लगता है- कुछ कमी है, कुछ खो गया है, सब कुछ पाने पर भी कुछ पाना शेष है, क्या है वह यह समझ में नहीं आता है। सत्य तो यह है कि भौतिकता, केवल भौतिक सम्पत्ति की दौड़ ने हमें यह टीस, यह व्याकुलता, यह अशान्ति दे दी है। भौतिक सम्पत्ति ने हमें क्या दिया है, यह एक शायर के शब्दों में इस प्रकार है-
इस दौर–ए तरक्की के अन्दाज निराले हैं।
जेहनों में तो अन्धेरे हैं सड़कों पर उजियाले हैं।।
सत्य ही बाहरी दृष्टि से हम उन्नत हैं, किन्तु मनों में अन्धेरे हैं।
क्या आप इस अन्धेरे से बचना चाहते हैं, क्या शान्ति चाहते हैं, मानसिक शान्ति, वह शान्ति जो प्रत्येक दशा में हमें आनन्दित रखे, तो हम आप से कहेंगे- बिना अधिक सोचे समझे आप घर में प्रतिदिन यज्ञ करना आरम्भ कर दें। यज्ञ में वर्णित मन्त्रों के भाव, जिनका वर्णन हम आगे करेंगे, से आपके चित्त का पर्यावरण शुद्ध होगा, अन्तःकरण में पवित्रता का संचार होगा, अशान्ति दूर होगी-और आप शान्ति पा सकेंगे।
हम संसार में रहते हैं, स्वाभावकि रूप से इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें वायु, जल व अन्न की आवश्यकता है। प्रकाश देनेवाला सूर्य न हो, शीतलता, अन्न व औषधि आदि में जीवन-शक्ति डालनेवाला, रस डालने वाला चन्द्र न हो, बादल न हों, वर्षा न हो, ऋतुओं की अनुकूलता न हो, वृक्ष न हों, फल-फूल न हों आदि सृष्टि की प्राकृतिक सम्पदायें न हों तो हमारा जीवन कैसे चलेगा, कभी आपने इस पर विचार किया है? ये शुद्ध होंगे तो हमारा जीवन शुद्ध होगा, स्वस्थ होगा और ये दूषित रहेंगे तो शरीर स्वस्थ न रहेगा। अस्वस्थ शरीर मात्र सुख के साधनों को एकत्रित कर लेने मात्र से सुखी शान्त नहीं होगा।
कभी आपने सोचा ये दूषित क्यों होते हैं? जबकि प्रकृति तो शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध प्रकाश आदि की सम्पत्ति देती है। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य अपने लिए सुख के साधन चाहता है, इसके लिए उसने बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ, कारें, स्कूटर आदि बना लिये हैं। इन साधनों का धुंआ, गैस आदि अन्तरिक्ष को दूषित कर रहा है। दूसरे हम प्रकृति से प्रत्येक तत्व शरीर में शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु जब इन्हें शरीर से निकालते हैं तो पूर्ण दूषित रूप में निकालते हैं।
वायु हम शुद्ध, सुगन्धित ग्रहण करते हैं किन्तु हमारी सांस दुर्गन्धमय होती है, हम जलीय तत्व शुद्ध रूप में ग्रहण करते हैं किन्तु पसीने, मूत्रादि रूप में दूषित निकालते हैं, हम अन्न तो शुद्ध पवित्र ही ग्रहण करते हैं किन्तु मल के रूप में अत्यन्त दुर्गन्ध शरीर से निकालते हैं। इस प्रकार हम स्वयं प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित कर देते हैं।
प्रश्न यह है कि जब यह दूषित पर्यावरण हमारे लिए हानिप्रद है, यह दूषित अन्तरिक्ष हम को अशुद्ध वायु, अशुद्ध जल एवं अशुद्ध अन्नादि प्रदान करेगा तो हम कैसे स्वस्थ रह सकेंगे, कैसे सुखी रह सकेंगे। प्रकृति के ये देव-वायु देवता, जल देवता, अन्न देवता आदि तथा इनका प्रमुख स्थान अन्तरिक्ष देवता ही दोषमय होगा और उनको दूषित करने के भी हम ही कारण हैं तो इन्हें शुद्ध कैसे करें। व्यास जी ने इस रहस्य को इन शब्दों में प्रकट किया है-
देवान्-से-श्रेयोऽवाप्स्यथ।।
–गीता ३//११
अर्थात् इस यज्ञ के द्वारा इन जड़ देवों को शुद्ध करो ये देव तुम्हें स्वस्थ सुखी रखेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से परम कल्याण की प्राप्ति होगी।
वैसे भी ब्राह्मणग्रन्थों के भी वचन है-
1 ‘स्वर्गकामो यजेत।’
2 ‘नौर्ह वा एषा स्वर्गया यदग्निहोत्रम्।’
3 ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’।
अर्थात् स्वर्ग की कामना है तो यज्ञ करना चाहिए। निश्चय से यह अग्निहोत्र ही स्वर्ग की नौका है। यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है।
ऐसे अनेक वचन यह सन्देश देते हैं कि हमें सुख के लिए, शान्ति के लिए, पर्यावरण शुद्धि के लिए प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए।
पर्यावरण भौतिक भी है, मानसिक भी! भौतिक पर्यावरण के दूषित होने के कारण हम ही हैं। अपनी सुविधा के लिए कल-कारखाने, रेलगाड़ी आदि अनेक साधन अन्तरिक्ष को अपने धुएं से, गैसीय तत्व से दूषित कर रहे हैं। इस भौतिक उन्नति ने हमें क्या दिया है?
आज परिवार टूट रहे हैं, विघटन बढ़ गया है। एक पुत्र धन के लिए, जायदाद के लिए, एकाधिपत्य के लिए पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। भारत का वह आदर्श-
‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’
–तैत्तिरीयोपनिषत्–१//११//२
अर्थात् – माता के भक्त, पिता के भक्त बनो।
अनुव्रतःपितुः पुत्रो, मात्रा भवतु संमनाः।
– अथर्ववेद ३//३०//२
अर्थात् -पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाला बने, माता का आदर करे।
मा भ्राता-से-भद्रया ।
– अथर्ववेद ३//३०//३
अर्थात् -भाई भाई से, बहन-बहन से तथा भाई-बहन से, बहन-भाई से द्वेश न करे, साथ रहते हुए समान व्रतवाले (स्नेह, तप, त्यागवाले) होकर परस्पर कल्याणकारी वाणी वाले अर्थात् पारस्परिक व्यवहार इतना शुद्ध, पवित्र तथा मधुर हो जिससे कि भद्र-इहलोक कल्याण तथा परलोक कल्याण हो।
यह आदर्श, यह पुनीत भाव आज स्वप्न हो गया है, कारण स्पष्ट है मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि। इस मानसिक पर्यावरण की अशुद्धि ‘यज्ञ’ द्वारा दूर होती है। यज्ञ ही वह साधन है, जो फिर से उस मानव का, जिसमें त्याग, तपस्या, स्नेह, समर्पण के गुण हों, का निर्माण कर सकता है।
यज्ञ में बोले जाने वाले मन्त्र अन्तरिक्ष में दूषित ध्वनि तरंगों में परिवर्तन का सामर्थ्य रखते हैं, चित्त पर पड़े जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों को, अशुद्ध संस्कारों को शुद्ध करते हैं, मन्त्रों में निहित भावों के द्वारा आचरण में पवित्रता का संचार होता है, यज्ञ में की जाने वाली विधि जीवन निर्माण की दिशा को प्रबुद्ध बनाती है। प्रतिदिन किये जाने वाले यज्ञ के द्वारा, दैनिक यज्ञ के द्वारा भौतिक मानसिक एवं सामाजिक पर्यावरण का शुद्धिकरण होता है। भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक रोगों के विनाश का साधन, सर्वोतम साधन दैनिक यज्ञ है।
वैसे भी मनुष्य लोकव्यवहार में उपकार करने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, उसके गुणों का यत्र तत्र सर्वत्र वर्णन कर आत्मसंतोष पाता है। किसी सुन्दर कलाकृति को देखकर प्रसन्न होता है, प्रशंसा करता है, वाह-वाह करता है, जो इस कार्य को नहीं करता उसे अज्ञानी मूढ़ समझा जाता है। कृतज्ञता का भाव, किये हुए उपकार को मानने का भाव जिसमें नहीं होता है, समाज उसे कृतघ्न कह कर हेय दृष्टि से देखता है।
हमारे विचार से जो दैनिक यज्ञ नहीं करता है, वह ईश्वर के कृत उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता। सृष्टि में उसकी सुन्दर उपादेय कलाकृति को देखकर उसकी प्रशंसा, उसकी स्तुति नहीं करता है, वह समाज में ज्ञानवान् है? यह कैसे कहा जा सकता है? उस कलाकार की कृति ने सूर्य, चन्द्र, आकाश, अन्तरिक्ष, वायु, अग्नि आदि अनेक उपादेय तत्व बनाये हैं, जिनके अभाव में हमारा जीवन ही कठिन नहीं असम्भव हो जाता। उसने नेत्र दिये हैं, प्रकाश दिया है, जिससे हम विविध सौन्दर्य को देखकर आनन्दित होते हैं, रसना दी है, विविध वस्तुओं का रसास्वादन कर आनन्दित होते हैं, कान दिये है जो विविध नाद सौन्दर्य से चित्त को आह्लादित करते हैं। हमारे पाठक इनमें से एक के अभाव की कल्पना करें फिर चिन्तन करें, तो उस कलाकार के कला कौशल का अपने ऊपर हुए उपकारों का भाव जागृत हो जायेगा। इन उपकारों का गुणगान करना, परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य हो जाता है। इस कर्तव्य पूर्ति का साधन ‘दैनिक यज्ञ’ है।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्वितीय मन्त्र है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।
–यजुर्वेद ४०//२
अर्थात् इस संसार में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक अर्थात आयु पर्यन्त जीने की इच्छा रखनी चाहिए। यहाँ कर्म करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। किन्तु कर्म इस प्रकार निष्काम भाव से करने चाहिये, जिससे कर्म बन्धन के कारण न बनें।
क्या आप चाहते है कि वह गुर सीख लें कि हम कर्म भी करें, किन्तु कर्म बन्धन के कारण न बनें। इस प्रकार फलेच्छा रहित, आसक्ति रहित कर्म करने का अभ्यास होना चाहिए। दैनिक यज्ञ ही वह अभ्यास है, जिसके करने से, जीवन को यज्ञमय बनाने से, प्रत्येक कर्म को समर्पण भाव से करने की प्रवृत्ति का विकास होता है। श्रीमद् भगवद्गीता ने इस भाव को इन सरल शब्दों में व्यक्त किया है-
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र-से-समाचार।
–गीता १३//९
यज्ञ के अतिरिक्त यज्ञीय भाव से रहित किये गये कर्म बन्धन में, दुःख में, प्रपञ्च में फंसाने वाले होते हैं, अतः समर्पण भाव से कर्म करना चाहिये, आसक्ति के, लगाव के तृष्णा के त्याग से ही समर्पण भाव का जीवन में समावेश हो सकता है।
अन्त में हम तो यही कहेंगे कि यदि आप समस्याओं से भरे हुए जीवन से छुटकारा चाहते है, यदि आप चाहते हैं कि प्रतिदिन नवीन से नवीन रोगों के शिकार होकर स्वस्थ रहने के आनन्द को न खोवें, यदि आप भौतिक पर्यावरण की अशुद्धि से बचना चाहते हैं, यदि मानसिक चिन्ताओं की सुरसा राक्षसी से बचना चाहते हैं, यदि आप में यह अभिलाषा हो कि हम उस अनन्त वैभव सम्पन्न, आनन्द-निधान के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट कर अपने को उदात्त बनावें, निश्चय से हम यदि संसार के बन्धनों से छूटना चाहते हैं, वासनाओं के जाल से मुक्त होकर अहर्निश आनन्द में रहना चाहते हैं, तो संकल्प लें कि हम दैनिक यज्ञ करेंगे, अवश्य ही करेंगे।
यज्ञ ही देवपूजा है
कुछ वर्षों पूर्व बम्बई में श्री रामचन्द्र आर्य ने ‘अन्धेरी’ में ‘सामवेद पारायण यज्ञ’ रखा। इस यज्ञ के अवसर पर लेखक ने यज्ञ विषयक अनेक शंकाओं का सरल समाधान किया था। उस अवसर पर एक यज्ञ-श्रद्धालु ने कहा-
‘ब्रह्मा जी, एक प्रश्न हमारा है, उसका समाधान करने की कृपा करें। प्रश्न पूछने पर उन्होंने कहा आर्यसमाजी नास्तिक होते हैं। यह कैसे? वे उत्तर में बोले- कभी किसी भी अवसर पर मन्दिर में जाते नहीं हैं, सिर झुकाते नहीं हैं, पूजा पाठ करते नहीं हैं। हाँ यज्ञ अवश्य कर लेते हैं। नामकरण, चूड़ाकर्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि कोई कार्य हो, तो बस यज्ञ कर लेते हैं। न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं, न सत्यनारायण की कथा करते हैं। भला जो पूजा न करता हो, वह आस्तिक कैसा? भला हवन कर लेना, यज्ञ कर लेना क्या कोई देव पूजा हुई?
हमारी दृष्टि में प्रश्न बहुत अच्छा था, पूछने वाले बहुपठ या शास्त्रज्ञ नहीं थे, किन्तु श्रद्धालु अवश्य थे। वे इसका सरल समाधान चाहते थे। सरल से तात्पर्य सामान्य व्यक्ति के गले में उतर जाये, उसकी समझ में आ जाये, ऐसा समाधान। आइये! विचार करें कि यज्ञ देव पूजा है या नहीं। प्रश्न कर्त्ता का उचित समाधान हो, प्रतिदिन मन्दिर में जाकर सिर झुकाने, नमन करने मात्र को पूजा समझने वाले व्यक्ति की दृष्टि से समाधान।
पूजा किसे कहते हैं?
इसको समझने के लिए पहले जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं, वह क्यों करते हैं, इसे समझ लें, तो उत्तम रहेगा।
जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेश्वर की पूजा है। हमारे एक अध्यापक साथी अंग्रेजी प्रवक्ता हैं, पढ़े लिखे हैं, एक दिन हमसे बोले-शास्त्री जी, आप प्रतिदिन यज्ञ करते हैं, तो मैं भी प्रतिदिन बिना ईश्वर की पूजा किये कुछ खाता-पीता नहीं हूँ। मैंने कहा-यह आपका नियम है, वर्त्तमान समय को देखते हुए अच्छा नियम है।
एक दिन हमें उनके घर जाने का अवसर मिला। हम प्रातः 8 बजे उनके यहाँ पहुंचे, उनके साथ अन्य साथी के यहाँ कथा में जाने का विचार बना था। देखा तो एक केटली में चाय थी, वे चाय पी रहे थे, बोले- दो तीन कप चाय पीने के बाद ही मैं शौचादि नित्य कर्म करता हूँ। मैंने कहा- जल्दी करो, वहाँ मित्र के यहाँ कथा में समय पर पहुँचना है। बोले- बस, 15-20 मिनट लगेगें, तब तक आप आज के समाचार पढ़ लीजिये। सचमुच वे तैयार होकर बीस मिनट में आ गये, बोले- बस अभी आया, बिना ‘पूजा’ किये बाहर नहीं निकलता हूँ, बस ज़रा पूजा कर आऊँ। हमने सोचा- अब इतनी देर से बैठे हैं तो और सही, जाना तो इनके साथ ही है । बस जी, आ गये बोले- ‘शास्त्री जी, चलिये।’ मैंने आश्चर्य से पूछा- ‘पूजा?’ बोले – ‘कर आया।’ हमने पूछा- ‘इतनी जल्दी’, बोले- ‘देर क्या लगती है? घर के बड़े से आले में विष्णु, कृष्ण, हनुमान व देवी के चित्र रखे हैं, बस धूप बत्ती जलाकर सब पर घुमा दी, मन में कल्याण करो, अपराध क्षमा करो कहा- बस पूजा हो गयी।’
यह सब हमने इस भाव को दर्शाने के लिए लिखा कि जब एक पढ़ा लिखा एम.ए. पास व्यक्ति उक्त कार्य को पूजा सझता है तो सामान्य जन की तो बात ही क्या? आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दीखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी। एक आदरणीय बहन ने अपना अनुभव बताया- “एकान्त रास्ते में मेरा स्कूटर खराब हो गया। इतने में क्या देखती हूँ कि एक मोटर साईकिल पर एक युवक-युवती थे। पीछे बैठी युवती ने बड़ी जोर से एक ओर देखकर हाथ उठाकर -‘हाय हनु’ कहा। उनकी गाड़ी जाने पर बहन जी ने सोचा- उधर कोई है नहीं, फिर इसने ‘हाय’ कहकर किसको wish किया। अर्थात् सम्मान दिया। वे बोली- ‘‘ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि दूसरी ओर एक छोटी सी हनुमान की मूर्ति थी। उस हनुमान भक्त ने ‘हाय हनु’ कहकर उसकी भावनानुसार हनुमान की पूजा की।’’ वर्त्तमान समय में इसे ही ‘हाय हनु’ वाली पूजा को देव पूजा समझा जाता है, यही उनकी दृष्टि में ईश्वर की पूजा है।
आईये, विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या है? शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’ अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। भूखा बालक जब भूख-भूख चिल्लाता है, तो माँ कहती है दो मिनट में तेरी पेट पूजा करूँगी। यहाँ पूजा से तात्पर्य हाथ जोड़ना या पेट की आरती करना नहीं, अपितु यथोचित व्यवहार- भोजन खिलाना है। दुष्ट के लिए कहते हैं, पीठ पूजा कर दो। मनु ने लिखा है-
यत्र नार्यस्तु -से- भूषणाच्छादनाशनैः।
– मनु-स्मृति ३//५९
अर्थात् नारियों की सदैव भूषण, वस्त्र तथा भोजनादि से पूजा-सत्कार, सम्मान करना चाहिए। इस प्रकार पूजा का अर्थ यथोचित व्यवहार, सत्कार, सम्मान करना होता है।
पूजा क्यों– पूजा का अर्थ मात्र देवालयों में स्थित देव पूजा स्वीकार कर लिया जाये तो भी वह पूजा क्यों की जाती है? यह जानना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है।
संसार में सुख किस से प्राप्त होता है, यदि इसका चिन्तन करें तो अनेक वस्तुएँ सुखदायक है, यही कहा जायेगा। किन्तु सत्य पूछें तो सब से अधिक सुख, जिसके बिना जीवन, जीवन ही न रहे, वह प्राप्त होता है-हवा, पानी एवं अन्न से। क्या हम यह अनुभव नहीं करते है कि हवा के बिना जीवन तो क्या संसार भी अत्यल्प समय के लिए भी नहीं टिक सकता है। जल के बिना कुछ दिनों चल सकते हैं किन्तु अधिक दिनों तक नहीं। आप कल्पना करें कि अनेक देशों का राजा यदि प्यासा मरुस्थल में भटक रहा हो, प्यास से तड़प रहा हो, व्याकुल हो रहा हो, उस समय उससे एक गिलास पानी का मूल्य मांगे तो वह अपना सारा राज्य देने को तैयार होता है। निश्चय से प्यासे के लिये एक गिलास पानी के सामने सारा संसार ही तुच्छ हो जाता है, सारे संसार का वैभव व्यर्थ है। इसी प्रकार अन्न का महत्त्व भी जीवन में सर्व विदित है।
अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरुद्धारा, मस्जिद तथा चर्च में की जानेवाली तथाकथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्त्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विश्व ही चिन्तित है। तो इन तथाकथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है। फिर प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?
देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है। निरुक्त (७//१५) में वर्णित -‘देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वा’देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते हैं तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेश्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, किन्तु जड़ की पूजा कैसे की जाये?
इस प्रश्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवश्यक है। सृष्टि निर्माता परमेश्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल-कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।
निश्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्ध न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ’ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।
यज्ञ देवपूजा कैसे?
ऊपर हमने जड़ चेतन देव बताये। इनमें से चेतन देवों की पूजा यथोचित सत्कार या व्यवहार से सम्भव है तथा वे हमारी पूजा से, सम्मान से तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। प्रश्न तो जड़ देवों का है, इनकी पूजा कैसे हो? यह तो स्वीकार है कि इन जड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ्य एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।
थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
इस आधार पर जड़देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म करकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’
इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं, अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं। तभी-‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’(यजुर्वेद 23//62) इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः-से- प्रजाः।
-मनु-स्मृति ३// ७६
अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता में वर्णित है-
अन्नाद् भवन्ति-से-कर्मसमुद्भवः।
–गीता ३//१४
अर्थात् अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रूप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-
देवान्भावयतानेन -से-परमवाप्स्यथ।
–गीता ३//११
इस यज्ञ अर्थात अग्निहोत्र के द्वारा तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ, तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता, क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।