जानने योग्य सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है ?
इस सृष्टि में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण जानने योग्य विषय है – ईश्वर।
बड़े दुख की बात है कि ईश्वर को जानने के लिए अधिकतर व्यक्ति बुद्धि अथवा विवेक अथवा तर्क को उचित नहीं मानते। उनका मानना है कि ईश्वर को जानने के लिए तर्क के बजाए श्रद्धा की आवश्यकता होती है, मानो ईश्वर विषय तर्क से घबराता है।
ईश्वर विषय में तर्क का तिरस्कार शायद इस भय से है कि तर्क से ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता। तर्क के बजाए श्रद्धा को ईश्वर को जानने का उपाय मानने में शायद इस बात का भी भय निहित है कि लोगों की बुद्धियों के स्तर में अन्तर होने से सभी लोग ईश्वर को जान नहीं पाएगें। प्रथम भय के बारे में यह कहा जा सकता है कि तर्क से ईश्वर को अवश्य सिद्ध किया जा सकता है। दूसरे भय के बारे में यह कहा जा सकता है कि मनुष्यों की बुद्धियों के स्तर में अन्तर ईश्वर को जानने में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि ईश्वर को जानना अति सुगम है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसका ग्रहण हम इन्द्रियों आदि से करें और ईश्वर उस वस्तु में न हो। ठीक वैसे ही जैसे सत्य बोलना बेहद आसान होता है, परन्तु उसके मुकाबले झूठ बोलना अत्याधिक कठिन होता है।
ईश्वर सही अर्थों में हमारा मित्र है। मित्र उस को कहा जाता है, जो सदा हमारे साथ रहता है, हमें जीवन के हर मोड़ पर सावधान करता है, हमारे किसी मुसीबत में घिर जाने पर हमारी सहायतार्थ सदा उपलब्ध रहता है, हमारी समस्याओं को पवित्र भाव से स्वीकार करता है व कभी भी हमारी परिस्थिति का लाभ नहीं उठाता और हमारे व्यक्तिगत रहस्यों को कभी भी दूसरों पर उजागर नहीं करता। हमारी श्रद्धा व आत्मीयता, जिससे हम ईश्वर से बात करते हैं, निर्धारित करते हैं कि हम उसको अपना कितना अच्छा मित्र मानते हैं। हमारी बात का विषय संसारिक भी हो सकता है व आध्यात्मिक भी।
क्योंकि वह हमारी आत्मा में रहता है, इसलिए, हम उससे कुछ भी व किसी भी प्रकार की बात कर सकते हैं। जिस क्षण हमें अपने मित्र की यथार्थ शक्ति पर विश्वास हो जाएगा उसी क्षण हमें अपनी प्रतिकूल परिस्थितियां, जो जीवन मेंआती ही रहती हैं, बहुत कमज़ोर लगने लगेंगी व हमारा हर प्रकार का भय भाग जाएगा। हमारी निर्भयता का कारण यह विश्वास होगा कि सृष्टि की सबसे शक्तिशाली सत्ता हमारे साथ है। हम उस ईश्वर को भूल सकते हैं, परन्तु वह हमें कभी नहीं भूलता। वह हमारा परम आश्रय है। क्या हम ऐसे सामर्थ्यवान ईश्वर को अपना मित्र नहीं बनाना चाहेंगे? वह तो हमारा मित्र है, परन्तु उसकी कृपा का लाभ लेने के लिए हमें भी उसका मित्र बनना होगा। उसका मित्र बनना बहुत आसान है। उसका मित्र बनने के लिए हमें अपना हर कार्य उसके गुणों के अनुरूप करना होगा। उदाहरण के तौर पर जैसे वह किसी के साथ अन्याय नहीं करता, वैसे ही हमें भी किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए।