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कर्मफल विवरण

 

 -आचार्य ज्ञानेश्वर

कर्मों का फल कब, कैसा, कितना मिलता है, यह जिज्ञासा सभी धार्मिक व्यक्तियों के मन में होती है। कर्मफल देने का कार्य मुख्य रूप से ईश्वर द्वारा संचालित और नियन्त्रित है। वही इसके पूरे विधान को जानता है। मनुष्य इस विधान को कम अंशों में और मोटे तौर पर ही जान पाया है, क्योंकि उसका सामर्थ्य ही इतना है। ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में कर्मफल की कुछ मुख्य-मुख्य महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया है। उन्हें इस लेख में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

कर्मफल सदा कर्मों के अनुसार मिलते हैं। फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के होते हैं। १. सकाम कर्म, २, निष्काम कर्म। सकाम कर्म उन कर्मों को कहते हैं जो लौकिक फल अर्थात धन, पुत्र, यश आदि को प्राप्त करने की इच्छा से किए जाते हैं। तथा निष्काम कर्म वे होते हैं जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किए जाएँ, अपितु ईश्वर अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किए जाएँ।

सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं- अच्छे, बुरे व मिश्रित कर्म। अच्छे कर्म- जैसा सेवा, दान, परोपकार करना आदि। बुरे कर्म- जैसे झूठ बोलना, चोरी करना आदि। मिश्रित कर्म- जैसे खेती करना आदि। इसमें पाप व पुण्य अर्थात कुछ अच्छा कुछ बुरा दोनों मिले जुले रहते हैं।

निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते हैं, बुरे कभी नहीं होते। सकाम कर्मों का फल अच्छा या बुरा होता है। जिसे इस जीवन में या मरने के बाद मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवित अवस्था में ही भोगा जाता है। निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है, जिसे जीवित रहते हुए समाधि अवस्था में व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिए मोक्षावस्था में भोगा जाता है।

जो कर्म इसी जन्म में फल देनेवाले होते हैं उन्हें  ‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कहते हैं। और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते हैं उन्हें ‘अदृष्टजन्मवेदनीय’  कहते हैं। इन सकाम कर्मों से मिलनेवाले फल तीन प्रकार के होते हैं। १.जाति, २. आयु ३. भोग। समस्त कर्मों का समावेश इन तीनों भागों में हो जाता है। जाति अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, वनस्पति आदि विभिन्न योनियाँ। आयु अर्थात् जन्म से लेके मृत्यु तक के बीच का समय। भोग अर्थात् विभिन्न प्रकार के भोजन, वस्त्र, मकान, यान आदि साधनों की प्राप्ति। जाति, आयु व भोग इन तीनों से जो सुख-दुख की प्राप्ति होती है, कर्मों का वास्तविक फल वही तो है, किन्तु सुख-दुख रूपी फल का साधन होने के कारण जाति, आयु, भोग को फल नाम दे दिया है।

‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कर्म किसी एक फल- आयु या भोग को देने वाला होता है अथवा आयु व भोग दो फल भी देने वाला होता है। जैसे उचित आहार-विहार, व्यायाम, ब्रह्मचर्य, निद्रा आदि के सेवन से शरीर की रोगों से रक्षा की जाती है तथा बल, वीर्य, पुष्टि, भोग सामर्थ्य वा आयु को बढ़ाया जा सकता है, जबकि अनुचित आहार-विहार आदि से बल, आयु आदि घट भी जाते हैं।

‘दृष्टजन्मवेदनीय’ कर्म ‘जाति रूप फल’ को देनेवाले नहीं होते हैं क्योंकि जाति अर्थात् योनि तो इस जन्म में मिल ही चुकी है, उसे जीते जी बदला नहीं जा सकता। जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु शरीर बदल लेना। हाँ, मरने के  बाद तो शरीर बदल सकता है, पर मरने के बाद नई योनि को देनेवाला कर्म अदृष्टजन्मवेदनीयः  कहा जायेगा न कि दृष्टजन्मवेदनीयः।

अदृष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते हैं- १.नियत विपाक, २. अनियत विपाक। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल निश्चित हो चुका हो और अगले जन्म में फल देने वाला हो, उसे ‘नियत विपाक’ कहते हैं। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में कब मिलेगा यह निश्चित न हुआ हो उसे ‘अनियत विपाक’ कहते हैं।

कर्मफल को शास्त्र में कमार्शय नाम से कहा गया है। ‘नियत विपाक कमार्शय’ के सभी कर्म परस्पर मिलकर ‘सम्मिश्रित रूप में’ अगले जन्म में जाति, आयु, भोग प्रदान करते हैं। इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से जानने योग्य है।

१.     जाति- इस जन्म में किए गए कर्मों का सबसे महत्वपूर्ण फल अगले जन्म में जाति-शरीर के रूप में मिलता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, स्थावर अर्थात् वृक्ष के शरीरों को जाति के अन्तर्गत ग्रहण किया है। यह जाति भी अच्छे और निम्न स्तर की होती है। यथा मनुष्यों में पूर्णांग-विकलांग, सुन्दर-कुरूप, बुद्धिमान-मूर्खादि, पशुओं में गाय, गधा, सुअर आदि।

२.     आयु- नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु अर्थात् जीवन काल के रूप में मिलता है। जैसी जाति अर्थात् योनि होती है, उसी के अनुसार आयु भी होती है। यथा मनुष्य की आयु सामान्यतः सौ वर्ष, गाय घोड़ा आदि पशुओं की पच्चीस वर्ष, तोता चिड़िया आदि पक्षियों की दो चार वर्ष, मक्खी, मच्छर, भौंरा, तितली आदि कीट पतंगों की दो-चार-छै मास की होती है। मनुष्य अपनी आयु एक सीमा तक घटा बढ़ा सकता है।

३.     भोग- नियत विपाक कर्माशय का तीसरा फल भोग अर्थात सुख-दुख को प्राप्त करानेवाले साधन के रूप में मिलता है। जैसे जाति अर्थात् योनि होती है, उसी जाति के अनुसार भोग होते हैं। जैसे मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि, मन, इन्द्रिय आदि साधनों से मकान, कार, रेल, हवाई जहाज, मिठाई, पंखा, कूलर आदि साधनों को बनाकर उनके प्रयोग से विशेष सुख भोगता है। किन्तु गाय, भैंस, घोड़ा कुत्ता आदि पशु केवल घास, चारा, रोटी आदि ही खा सकते हैं, कार कोठी नहीं बना सकते। शेर, चीता, भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल मांस ही खा सकते हैं, वे मिठाई, गाड़ी, मकान, वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। जैसा कि पूर्व कहा गया है कि ‘नियत विपाक कर्माशय’ से मिली आयु व भोग पर ‘दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय’ का प्रभाव पड़ता है, जिससे आयु व भोग घट बढ़ सकते हैं, पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में) ही घट बढ़ सकते हैं।

अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय  के अन्तर्गत अनियत विपाक कर्मों का फल भी जाति, आयु, भोग के रूप में ही मिलता है। परन्तु यह फल कब व किस रूप में मिलता है इसके लिए शास्त्र में तीन स्थितियाँ अर्थात गतियाँ बताई गई हैं। १. कर्मों का नष्ट हो जाना, २. साथ मिलकर फल देना, ३. दबे रहना।

१.     प्रथम गति- कर्मों का नष्ट हो जाना-वास्तव में बिना फल को दिए कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत लम्बे काल पर्यन्त लुप्त हो जाना है। किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त नहीं होते। जीव के समान वे भी अनादि अनन्त हैं। चाहे जीव मुक्ति में भी क्यों न चला जावे कुछ न कुछ मात्रा, संख्या में तो रहते ही हैं। अविद्या अर्थात राग-द्वेष के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जितने कर्मों का फल उसने अब तक भोग लिया है, उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते हैं, वे मुक्ति के काल तक ईश्वर के ज्ञान में बने रहते हैं। इन्हीं बचे कर्मों के आधार पर मुक्तिकाल के पश्चात् जीव को सामान्य मनुष्य का शरीर मिलता है। तब तक ये कर्मफल नहीं देते, यही नष्ट होने का अभिप्राय है।

२.     दूसरी गति- साथ मिलकर फल देना-अनेक स्थितियों में ईश्वर अच्छे व बुरे कर्मों का फल साथ-साथ भी देता है। अर्थात् अच्छे कर्मों का फल अच्छी जाति, आयु और भोग मिलता है। किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल दुख भी भुगा देता है। इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति-आयु-भोग रूप फल देता है, किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है। उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला, किन्तु अन्य अशुभ कर्मों के कारण उस शरीर को अन्धा, लूला, कोढ़ी बना दिया। दूसरे पक्ष में प्रधानता से अशुभ कर्मों का फल गाय, कुत्ता आदि पशुयोनि रूप में मिला, किन्तु कुछ शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में, अच्छे घर में मिला, परिणाम स्वरूप सेवा, भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले।

३.     तीसरी गति- कर्मों का दबे रहना-मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है, उन सारे कर्मों का फल किसी एक ही योनि अर्थात शरीर में मिल जाए यह संभव नहीं है। अतः जिन कर्मों की प्रधानता होती है, उसके अनुसार अगला जन्म मिलता है। जिन कर्मों की अप्रधानता रहती है, वे कर्म पूर्व संचित कर्मों में जाकर जुड़ जाते हैं और तब तक फल नहीं देते जब तक कि उन्हीं के सदृष किसी मनुष्य शरीर में मुख्य कर्म न कर लिए जाएँ। इस तीसरी स्थिति को ‘कर्मों का दबे रहना’ नाम से कहा जाता है।

उदाहरण-किसी मनुष्य ने अपने जीवन में मनुष्य की जाति-आयु-भोग दिलानेवाले कर्मों के साथ कुछ कर्म सुअर की जाति-आयु-भोग दिलानेवाले भी कर दिए। प्रधानता-अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलेगा और सुअर की योनि देनेवाले कर्म तब तक दबे रहेंगे, जब तक कि सुअर की योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाए।

उपर्युक्त विवरण का सार यह निकला कि इस जन्म में दुखों से बचने तथा सुख की प्राप्त करने के लिए हमें सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए।

कर्म और कर्मफल के विषय में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को यहाँ पर प्रस्तुत करके उनका संक्षेप में उत्तर देने का प्रयास किया जा रहा है।

नीचे दिए प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए कृपया प्रश्नों के ऊपर क्लिक करें।

प्रश्न १.- कर्म की परिभाषा क्या है?

प्रश्न २.- कर्म, क्रिया, प्रवृत्ति, चेष्टा, व्यापार, प्रयत्न ये शब्द पयार्यवाची हैं या भिन्न-भिन्न अर्थ वालें हैं?

प्रश्न ३.- कर्म करने के साधन कितने हैं?

प्रश्न ४.- मनुष्य कितने प्रकार के कर्मों को करता हैं अर्थात् कर्मों के भेद कितने हैं?

प्रश्न ५. कर्मों का कर्त्ता कौन है?

प्रश्न ६. – कर्मों का फल कौन देता है?

प्रश्न ७. – कृत, कारित व अनुमोदित कर्मों का फल न्यूनाधिक होता है या समान?

प्रश्न ८. – मानसिक, वाचनिक, शारीरिक इन तीन प्रकार के पाप कर्मों में अधिक दण्ड किसको मिलता है?

प्रश्न ९. – मनुस्मृति में आठ प्रकार के घातक पापी बताये गये हैं-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी

-मनु-स्मृति ५//१२

अर्थात्- समर्थन करने वाला, काटनेवाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला तथा खानेवाला ये आठ प्रकार के घातक बताए हैं। इन में सभी लोग बराबर पापी होते हैं या कम अधिक होते हैं?

प्रश्न १0. – क्या कोई अपने कर्मों का फल दूसरे को दे सकता है?

प्रश्न ११. – कर्म करते समय फल की आशा क्यों न करें? इससे क्या हानि है?

प्रश्न १२- क्या ईश्वर मनुष्यों को अच्छे बुरे कर्म करने की प्रेरणा देता है?

प्रश्न १३. –क्या ईश्वर मनुष्यों को अपनी इच्छा से जैसा चाहता है वैसा फल देता है? किसी को अच्छा तो किसी को बुरा, किसी को धनिक तो किसी को गरीब, किसी को रूपवान तो किसी को कुरूप, किसी को बुद्धिमान तो किसी को मूर्ख बना देता है?

प्रश्न १४. – क्या कर्म बिना फल दिये भी नष्ट हो सकते हैं?

प्रश्न १५. – क्या वेदादि शास्त्रों में बताये कर्मों को न करने पर दण्ड मिलता है?

प्रश्न १६.- कर्म का फल, कर्म का परिणाम तथा कर्म का प्रभाव क्या है ? इन तीनों में क्या भेद है ?

प्रश्न १७. – फल की परिभाषा क्या है?

प्रश्न १८. – प्रायश्चित क्या है? क्या बुरे कर्मों के फल को नष्ट या कम किया जा सकता है ?

प्रश्न १९. – कर्म का फल कब मिलता है? कर्म करने के कितने समय पश्चात् फल मिलता है?

प्रश्न २0. – इसमें प्रमाण क्या है कि इस जन्म के कर्म इसी जन्म में फल देते हैं?

प्रश्न २१. – अच्छे कर्म करने वाले अर्थात् धार्मिक व्यक्ति पर बाधा कष्ट आते हैं? क्या यह उनके अच्छे कर्मों का फल है?

प्रश्न २२. – संसार में शुभ कर्म करने वाले दुखी और अशुभ कर्म करने वाले सुखी क्यों दिखाई देते हैं?

प्रश्न २३. – समाज में व देश में चोरी करने वाले, रिश्वत लेने वाले, मिलावट करने वाले, अधिक मुनाफा लेने वाले, झूठी गवाही, असत्य, छल-कपट आदि गलत कार्यों को करके धन, सम्पत्ति इक्ट्ठी करने व गलत कार्य करने वाले व्यक्ति सुखी दिखाई देते हैं। क्या ईश्वर उनको देखता नहीं है? दण्ड नहीं देता? जब ऐसे गलत कार्य करने वाले सुखी देखे जाते हैं तो धर्म, सदाचार, नैतिकता पर से लोगों का विश्वास ही हट जाता है और अन्य लोग भी ऐसे लोगों का अनुकरण करके उनकी तरह बुरे काम करने लग जाते है और इससे सारे समाज, राष्ट्र में भ्रष्टाचार फैल जाता है, जो आज हम स्पष्ट देखते है।

प्रश्न २४. –क्या कोई ऐसा भी कर्म हो सकता है, जिसके पीछे मनुष्य की कोई भी कामना अर्थात सांसारिक वा मोक्ष की न हो?

प्रश्न २५. – मनुष्य के द्वारा जिस स्वरूप वाला व जिस मात्रा अर्थात् स्तर वाला अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है, तो क्या उसे फल भी उसी स्वरूप व उसी मात्रा अर्थात् स्तर वाला मिलता है?

उदाहरण-किसी ने किसी को रोटी, कपड़ा, रुपये आदि दिये, तो क्या उसे उसी मात्रा में रोटी, कपड़ा, रुपये आदि मिलेंगे? किसी ने किसी को गाली निकाली, थप्पड़ मारा, हाथ तोड़े या हत्या कर दी, तो क्या उसे उसी रूप में गाली मिलेगी, वह भी थप्पड खाएगा, हाथ तुड़वाएगा?

प्रश्न २६. – मनुष्य को जो सुख-दुख मिलता है, क्या वह अपने ही कर्मों को फल है या किसी अन्य के भी कर्म के कारण सुख-दुख प्राप्त कर सकता है?

प्रश्न २७. –किन्हीं शास्त्रों में लिखा है कि ‘ज्ञानात् मुक्ति’ अर्थात् ज्ञान से ही मुक्ति होती है। तो फिर कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है?

प्रश्न २८. – क्या शुभ व अशुभ कर्म बराबर किये जाएँ, तो वे बिना ही फल दिए नष्ट हो सकते हैं?

प्रश्न २९. – क्या निष्काम कर्मों का भी फल मिलता है?

प्रश्न ३0. –उपासना एक प्रकार का मानसिक कर्म है, तो फिर उपासना को कर्म से भिन्न क्यों माना गया है? वह तो कर्म के क्षेत्र में ही आ जाएगी।

प्रश्न ३१. – जीवन-मुक्त व्यक्ति अपने बचे शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगता है या नहीं?

प्रश्न ३२. – नियत विपाक कर्मों, जिन कर्मों का फल मिलना निश्चित हो गया है, ऐसे कर्म का फल जन्म धारण के समय ही एक साथ पूरा का पूरा मिल जाता है या बाद में भी मिलता रहता है?

प्रश्न ३३. – जीव कर्म करने में तो स्वतंत्र है, परन्तु फल भोगने में परतंत्र क्यों?

प्रश्न ३४. – क्या कर्मों का फल जीव स्वयं भी ले सकता है?

प्रश्न ३५. – जब कर्मों का फल अवश्य ही मिलता है और उनसे कोई बच नहीं सकता, तो फिर ईश्वरोपासना करने की क्या आवश्यकता है?

प्रश्न ३६. – क्या मुक्ति में जीव कर्मों को करता है और क्या उनका फल मिलता है?

प्रश्न ३७. – क्या जीवनमुक्त व्यक्ति से मिश्रित अर्थात शुभाशुभ कर्म होते हैं?

प्रश्न ३८. – अपने पाप कर्मों का दुखरूप फल भोगने वाले व्यक्ति के दुख दूर करने का प्रयास करना क्या ईश्वर की न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं है?

प्रश्न ३९. – मनुष्य कितनी अवस्था का होकर कर्म करना प्रारम्भ करता है?

प्रश्न ४0. – क्या बिना ज्ञान के भी कर्म होते हैं?

प्रश्न ४१. – क्या ज्ञान के बिना या अल्प ज्ञान से किए जाने वाले कर्मों का भी फल मिलता है?

प्रश्न ४२.  क्या जीव कर्म करते हुवे थक जाता है?

प्रश्न ४३. – क्या जीवात्मा के सारे के सारे कर्म भोगे जा कर कभी नितान्त समाप्त अर्थात शून्य भी हो जाते हैं?

प्रश्न ४४. – मनुष्य शरीर से भिन्न पशु-पक्षी, कीट, पतंग आदि योनियों में भी जीव कर्म करता है या वे केवल भोग योनियां हैं?

प्रश्न ४५. – क्या वृक्ष, लता, गुल्म आदि योनियों में भी कर्म होते हैं?

प्रश्न ४६. – जब मनुष्य ने बुरे कर्म किये, परिणामस्वरूप फल भोगने के लिए पशु योनि में गया, वहाँ पर कुछ वर्षों तक कुछ योनियों में बुरे कर्मों का फल भोगा। अब बुरे कर्म समाप्त होने पर वह मनुष्य योनि में कैसे आयेगा? क्योंकि पशु योनि में उसने मनुष्य योनि की तरह अच्छे कर्म तो किये नहीं?

प्रश्न ४७. – क्या कुदिन व सुदिन भी होते हैं?

प्रश्न ४८. – घर का स्वामी केवल अपने लिए तो कमा नहीं रहा है, वह तो सभी के लिए कमाता है और सबको खिलाता है, तो फिर वह अकेला दोष का भागी क्यों होगा?

प्रश्न ४९. – क्या नये कर्मों का पुराने कर्मफल पर प्रभाव पड़ता है? अर्थात् किसी विधि से कर्म के फल को न्यून वा अधिक कर सकते हैं?

प्रश्न ५0. – क्या ईश्वर बिना ही कर्म के किसी को सुख-दुख देता है?

प्रश्न ५१. – संकटकाल में संकट से बचाने के लिए की गयी प्रार्थना से क्या ईश्वर विशेष ज्ञान-विज्ञान देता है?

प्रश्न ५२. – कर्मों को निष्काम बनाने के लिए क्या विधि अपनानी चाहिए?

प्रश्न ५३. – क्या नास्तिक व्यक्ति निष्काम कर्मों को कर सकता है? क्या अच्छे काम करने वाले को उपर्युक्त फल नहीं मिलते हैं? यदि मिलते हैं, तो फिर ऐसा विचार करने में क्या हानि है, बिना विचारे तो कोई अच्छे कार्यों में प्रवृत्त भी नहीं होता है।

प्रश्न ५४. – क्या कर्म स्वयं ही अर्थात ‘बिना ईश्वर के’ फल दे सकता है? कर्म जब क्षण में समाप्त होकर नष्ट हो जाता है, तो ईश्वर भी कैसे कर्मों का फल देगा?

प्रश्न ५५. – क्या उपयोगितावाद अर्थात Utilitarianism वर्त्तमान काल में उपयुक्त है?

प्रश्न ५६. – क्या हिंसा, झूठ, छल-कपट, चोरी आदि से कभी लाभ भी हो सकता है?

प्रश्न ५७. – परिवार, समाज, राष्ट्र में अनेक बार यह प्रतिदिन देखने में आता है कि लोग चोरी, मिलावट, दुराचार आदि अनैतिक पाप कर्मों को करके झूठ बोलकर बदनामी से बच जाते हैं, हानि, दण्ड से बच जाते हैं, मुकदमा जीत जाते हैं । फिर यह कैसे माना जाय कि झूठ बोलने से लाभ नहीं होता है। यदि झूठ बोलने से लाभ, बचाव नहीं होता, तो लोग क्यों झूठ बोलते?

प्रश्न ५८. – भाग्य और पुरुषार्थ में क्या भेद है, दोनों में कौन बड़ा है?

प्रश्न ५९. – क्या किसी विशेष परिस्थिति में झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना शुभ कर्म होता है?

प्रश्न ६0. – घर का स्वामी हिंसा, झूठ, चोरी, छलादि अनैतिक कर्मों से धन व साधनों को जुटाता है, भोग सभी परिवार के व्यक्ति करते हैं, क्या सभी को पाप लगेगा?

प्रश्न ६१. – कभी किसी का प्राण झूठ बोलने से बचता हो, तो भी नहीं बचाना चाहिए?

प्रश्न ६२. – वे कौन सी परिस्थितियाँ है, जिनमें झूठ बोलना पुण्य हो सकता है?

प्रश्न ६३. – लोक में तो देखते हैं कि स्वामी सेठ अपने सेवकों का जितना पारिश्रमिक होता है, उससे कम या अधिक दे देता है। इसी प्रकार ईश्वर भी किसी को अपनी ओर से बिना ही कर्म के सुख-दुख दे देगा।

प्रश्न ६४. – आजकल प्रतिदिन हजारों की संख्या में गर्भ में ही उत्पन्न होने वाले शिशुओं को मारा जा रहा है, तो क्या यह गर्भ में आने वाले जीव के कर्मों का फल है या माता-पिता का?

 प्रश्न ६५. – समाज में ऐसा सिद्धान्त प्रचलित है कि जो कुछ सृष्टि में हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से, ईश्वर की प्रेरणा से, ईश्वर के द्वारा ही हो रहा है। जीवात्मा तो एक साधन मात्र है क्या यह सिद्धान्त सत्य है?