योगेश्वर श्री कृष्ण

 

-कृष्ण चन्द्र गर्ग

श्री कृष्ण जी महात्मा, धर्मात्मा, धर्मरक्षक, दुष्टनाशक, परोपकारी, सदाचारी श्रेष्ठ पुरूष थे। आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कौरव पाण्डव के समय में वे हुए थे।

उस समय में महर्षि वेद व्यास रचित ‘ग्रन्थ ‘महाभारत’ में श्री कृष्ण जी का बड़ा ही पवित्र जीवन चरित्र मिलता है। बहुत बाद में किसी धूर्त, स्वार्थी, व्याभिचारी व्यक्ति ने ‘भागवत पुराण’ नाम से पुस्तक लिख दी, जिसमें उसने श्री कृष्ण जी के जीवन के साथ बहुत सी गलत बातें जोड़ दीं। सम्भवतः उसने अपने दोषों को ढांपने के लिए ऐसा किया।

महर्षि दयानन्द के शब्दों में ‘सत्यार्थप्रकाश’ से- ‘देखो! श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाए हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी और कुब्जा दासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल, क्रीड़ा आदि मिथ्या दोष श्री कृष्ण जी में लगाए हैं। इसको पढ़ पढ़ा, सुन सुना के अन्य मतवाले श्री कृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्री कृष्ण जी के सदृष महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होतीं।’

महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण जी की एक पत्नी थी-रुक्मिणी। वे बहुत उच्च कोटि के संयमी थे। उत्तम सन्तान की इच्छा से विवाह के पश्चात् वे तथा उनकी पत्नी रुक्मिणी बारह वर्ष तक ब्रह्मचारी रहे थे। उसके पश्चात् उन्हें जो पुत्र प्राप्त हुआ-प्रद्युम्न वह तेज और बल में श्री कृष्ण जी के समान था।

श्री कृष्ण जी ने प्रजा हित में दुष्ट, अन्यायकारी, स्वेच्छाचारी राजा कंस का वध कर उसके धर्मात्मा, प्रजापालक पिता उग्रसेन को मथुरा का शासक बनाया। जरासंध, जिसने एक सौ के करीब धर्मात्मा, सदाचारी, परोपकारी राजाओं को बन्दी बना रखा था, को पाण्डवों की सहायता से समाप्त कर उन राजाओं को मुक्त करवाया। श्री कृष्ण जी की नीतिमत्ता तथा सूझबूझ से ही कम शक्ति के होते हुए भी पाण्डवों को कौरवों पर विजय प्राप्त हुई थी। 

पाण्डव जुए में हारकर वन को चले गए थे। जब श्री कृष्ण जी को पता लगा और तब वे उन्हें वन में मिलने गए। उन्होंने कहा- ‘मैं द्वारिका में न था, यदि होता तो हस्तिनापुर अवश्य आता और जुआ कभी न होने देता। धृतराष्ट्र और दुर्योधन को अनेक दोष दिखा कर जुए से रोकता।’

प्रजा में सर्वप्रिय हो जाने पर युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने का विचार किया। उन्होंने अपने भाईयों से तथा व्यास आदि महात्माओं व सम्बन्धियों से सलाह मांगी। सभी ने सहमति प्रकट की। परन्तु युधिष्ठिर को तसल्ली न हुई उन्हें श्री कृष्ण जी पर ही भरोसा था। उन्हें ही वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने श्री कृष्ण जी को बुलवाकर कहा- ‘मेरे भाईयों और मित्रों ने राजसूय यज्ञ करने की सम्मति दी है, परन्तु मैंने आपसे पूछे बिना उसका निश्चय नहीं किया है। हे कृष्ण! कोई तो मित्रता के कारण मेरे दोष नहीं बताता, कोई स्वार्थवश मीठी मीठी बातें कहता है और कोई अपनी स्वार्थ सिद्धि को ही प्रिय समझता है। हे महात्मन्! इस पृथिवी पर ऐसे मनुष्य ही अधिक है। उनकी सम्मति लेकर कुछ काम नहीं किया जा सकता। आप उक्त दोषों से रहित हैं । इसलिए आप मुझे ठीक ठीक सलाह दें।’ यह थी भगवान् श्री कृष्ण की महत्ता। भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया- ‘महान् पराक्रमी राजा जरासंघ के जीते रहते आपका राजसूय यज्ञ सफल नहीं हो सकता।’

राजसूय यज्ञ आरम्भ होने पर भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि उपस्थित राजाओं में से जो सबसे श्रेष्ठ हो उसे ही पहले अर्घ्य दिया जाना चाहिए। युधिष्ठिर ने भीष्म से ही पूछा कि ऐसा व्यक्ति कौन है जो पहले अर्घ्य पाने का पात्र है। इस पर भीष्म ने कहा- ‘जैसे सब ज्योतिमालाओं में सूर्य सबसे अधिक प्रकाशमान है वैसे ही इन सब राजाओं में श्री कृष्ण ही तेज, बल, पराक्रम में अति प्रकाशित दीख पड़ते हैं । अतः वे ही अर्घ्य के उपयुक्त पात्र हैं।’ भीष्म की सम्मति के अनुसार युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर सहदेव ने श्री कृष्ण जी को अर्घ्य प्रदान किया। शिशुपाल से श्री कृष्ण जी का यह सम्मान सहन न हुआ। उसने इस कार्य को अनुचित बताते हुए भीष्म, युधिष्ठिर और श्री कृष्ण के विरोध में बहुत कुछ कहा। तब भीष्म पितामह ने उसे शान्त करने के लिए श्री कृष्ण जी के अधिकारी होने के कारण उनके गुणों का वर्णन इस प्रकार किया- ‘यहां मैं किसी ऐसे राजा को नहीं देखता, जिसे कृष्ण ने अपने अतुल तेज से न जीता हो। वेद-वेदांग का ज्ञान और बल पृथिवी के तल पर इनके समान किसी और में नहीं। इनका दान, कौशल, शिक्षा, ज्ञान, शक्ति, शालीनता, नम्रता, धैर्य और सन्तोष अतुलनीय है। अतः ये अर्घ्य के पात्र हैं।’

श्री कृष्ण जी सदा सत्य और न्याय पर चलने वाले थे। वे रूढ़ियों और गलत बातों को स्वीकार न करते थे। वे क्रान्ति के अग्रदूत थे। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने आत्मा की अमरता का, निष्काम कर्म करने का तथा कर्तव्य अकर्तव्य का उपदेश दिया जो गीता के रूप में हमारे सामने है। जैसे महाभारत में बहुत मिलावट हो गई है ऐसे ही गीता में भी है जिससे सावधान रहने की जरूरत है। गीता महाभारत का ही एक भाग है।