हवन के मंत्र व उनके अर्थ

देव-यज्ञ के आरम्भ में आठ ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मंत्रों को पढ़ने का विधान है। इन मंत्रों के अर्थ नीचे दिए हैं।

ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मंत्रों के अर्थ

(यहाँ शीर्षक में स्तुति, प्रार्थना और उपासना का क्रम व्याकरण की दृष्टि से है- स्तुति शब्द में दो स्वर, प्रार्थना शब्द में तीन स्वर और उपासना शब्द में चार स्वर होते हैं। वास्तव में प्रार्थना उपासना के बाद ही फलीभूत हो सकती है। गायत्री मन्त्र में स्तुति, प्रार्थना और उपासना तीनों का समावेश है और यहाँ इस मन्त्र में प्रार्थना पद उपासना पद के बाद ही आता है।)

मंत्र

ओ३म। विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद भद्रं तन्न आ सुव।।

अर्थविश्वानि सम्पूर्ण, देव शुद्धस्वरूप, अनंत दिव्यताओं से युक्त परमेश्वर!, सवितः सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, दुरितानि दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुखों को, परासुव दूर कर दीजिये। यत् जो, भद्रम् कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, तत् वह सब, नः हमको,  सुव प्राप्त कीजिये।

मंत्र

हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत।

स दाधार पृथ्वीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

अर्थहिरण्यगर्भः जो प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थों का गर्भ है, अग्रे जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व समवर्त्त  वर्त्तमान था भूतस्य उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः प्रसिद्ध पति स्वामी एकः एक ही चेतनस्वरूप आसीत् था, सः सो (वह) दाधार धारण कर रहा है पृथिवीम् भूमि द्याम् सूर्यादि को उत हम लोग उस माम् इस  कस्मै सुखस्वरूप देवाय शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम विशेष भक्ति किया करें।

सूर्यचन्द्रमादि पदार्थों को उत्पन्न करके धारण करने के कारण ईश्वर को हिरण्यगर्भः कहा जाता है।

मंत्र

य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।

यस्य छायाsमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

अर्थयः जो आत्मदाः आत्मज्ञान का दाता, बलदाः शरीर, आत्मा और समाज के बल का देने हारा, यस्य जिसकी विश्वे सब देवाः विद्वान् लोग उपासते उपासना करते हैं, और यस्य जिसकी  प्रशिषम् न्यायकारिता इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले नियमों के रूप में हमारे सामने है, यस्य जिसका छाया आश्रय ही अमृतम् मोक्षसुखदायक है, यस्य जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्युः मृत्यु आदि दुख का हेतु है, हम लोग उस कस्मै सुखस्वरूप देवाय सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए हविषा आत्मा और अन्तःकरण से विधेम भक्ति अर्थात उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।

यह स्वामी दयानन्द का ऋषित्व ही है कि उन्होंने आत्मदाः शब्द का, जिसका साधरणतया आत्मा को उत्पन्न करने वाला ही अर्थ निकलता है, ‘आत्मज्ञान का दाता’ अर्थ किया है। ‘आत्मज्ञान का दाता’ के दो अर्थ सम्भव हैं। एक- ईश्वरीय व्यवस्था से ही, शरीर मिलने के बाद ही, आत्मा को अपने होने का आभास हो पाता है। दूसरा- ईश्वरीय व्यवस्था से ही, आत्मा अपने स्वरूप को जान सकता है। ये दोनों कार्य ईश्वर के बगैर सम्भव ही नहीं। इसलिए, ईश्वर को ‘आत्मज्ञान का दाता’ कहना अत्यन्त उचित है। हालाँकि ईश्वर आत्मा के अस्तित्व का कारण तो नहीं, परन्तु इन दो कार्यों के लिए ही ईश्वर को परम आत्मा अर्थात परमात्मा कहा जाता है।

मंत्र

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव।

य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

अर्थयः जो, प्राणतः प्राणवाले, और निमिषतः अप्राणिरूप जगत का महित्वा अपनी अनन्त महिमा से एक इत् एक ही राजा विराजमान राजा बभूव है, यः जो अस्य इस द्विपदः मनुष्यादि और, चतुष्पदः गौ आदि प्राणियों के शरीर की ईशे रचना करता है, हम लोग उस कस्मै सुखस्वरूप देवाय सकल ऐश्वर्य के देने हारे परमात्मा के लिए हविषा अपनी सकल उत्तम सामग्री से विधेम विशेष भक्ति करें।

मंत्र

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

अर्थयेन जिस परमात्मा ने उग्रा तीक्ष्ण स्वभाव वाले द्यौ सूर्य आदि,  और पृथिवी भूमि को दृढ़ा धारण किया है, येन जिस जगदीश्वर ने स्वः सुख को स्तभितम् धारण और, येन जिस  ईश्वर ने, नाकः दुखरहित मोक्ष को धारण किया है, यः जो अन्तरिक्षे आकाश में रजसः सब लोक लोकान्तरों को विमानः विशेष मानयुक्त, अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता है और भ्रमण कराता है, हम लोग उस कस्मै सुखदायक देवाय कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए हविषा सब सामर्थ्य से विधेम विशेष भक्ति करें।

मंत्र

प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम।।

अर्थ– हे प्रजापते सब प्रजा के स्वामी परमात्मा! त्वत् आप से अन्यः भिन्न दूसरा कोई ता उन एतानि इन विश्वा सब जातानि उत्पन्न हुए जड़ चेतानादिकों को  नहीं परिबभूव तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। यत्कामाः जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग ते आपका जुहुमः आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, तत् उस-उस की कामना नः हमारी अस्तु सिद्ध होवे, जिससे वयम् हम लोग रयीणाम् धनैश्वर्यों के पतयः स्वामी स्याम होवें।

मंत्र

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।

अर्थ– हे मनुष्यो! सः वह परमात्मा नः अपने लोगों का बन्धुः भ्राता के समान सुखदायक जनिता सकल जगत का उत्पादक, सः वह विधाता सब कामों का पूर्ण करने हारा, विश्वा सम्पूर्ण भुवनानि लोकमात्र और धामानि नाम, स्थान, जन्मों को वेद जानता है, और यत्र जिस तृतीये सांसारिक सुख दुख से रहित नित्यानन्द युक्त धामन् मोक्षस्वरूप  धारण करने हारे परमात्मा में अमृतम् मोक्ष को आनशानाः प्राप्त होके देवाः विद्वान लोग अध्यैरयन्त स्वेच्छा पूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिल के सदा उसकी भक्ति किया करें।

मंत्र

अग्ने नय सुपथा राये अस्मां विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते ते नम उक्तिं विधेम।

अर्थ– हे अग्ने स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करने हारे, देव सकल सुखदाता परमेश्वर! आप जिससे, विद्वान् सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके अस्मान् हम लोगों को, राये विज्ञान व राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए, सुपथा अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से विश्वानि सम्पूर्ण वयुनानि प्रज्ञान और उत्तम कर्म नय प्राप्त कराइये, और अस्मत् हमसे जुहुराणम् कुटिलतायुक्त एनः पापरूप  कर्म को युयोधि दूर कीजिए। इस कारण हम लोग ते आप की भूयिष्ठाम् बहुत प्रकार की स्तुतिरूप नम उक्तिम् नम्रतापूर्वक प्रशंसा विधेम सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।

आचमन-क्रिया

आचमन-विधि – जो व्यक्ति यज्ञ करने बैठे हों, वे सभी अपने-अपने जलपात्र से अपने दाहिने हाथ की हथेली में थोड़ा जल लेकर निम्नलिखित मंत्रों से तीन आचमन करें।

हथेली में इतना जल ग्रहण करें, जो कण्ठ से नीचे हृदय प्रदेश तक पहुंचे, इससे न अधिक और न कम। आचमन अंगूठे के मूलभाग तथा हथेली के मध्यभाग से मुंह लगाकर करना चाहिए। आचमन के पश्चात दाहिने हाथ को स्वच्छ जल से धो लेना चाहिए।

आचमन  की क्रिया से हम अपने मन, वाणी एवं कर्म की एकता के द्वारा यज्ञ-कर्म करने के उद्देश्य को पूरा करने का संकल्प करते हैं।

आचमन-मंत्र

ओम् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।। १ ।।

ओम् अमृतापिधानमसि स्वाहा ।। २ ।।

ओम् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ।। ३ ।।

 मन्त्रों के शब्दों के अर्थ-

ओम सर्वरक्षक अमृत मृत्यु से परे परमेश्वर उपस्तरण बिछौना, अर्थात सम्पूर्ण संसार के आधार और आश्रय असि हैं स्वाहा किसी सत्य को निष्ठापूर्वक सत्य स्वीकार कर कहना।

अपिधानम ऊपर का ओढ़ना, अर्थात सदैव सबके रक्षक।

सत्यं सत्य-ज्ञान, सत्यभाषण और सत्य व्यवहार यशः यश एवं प्रतिष्ठा श्रीः शोभा देने वाला व्यवहार व स्वास्थ्य श्रीः धन-ऐश्वर्य मयि मुझमें श्रयतां स्थित होवें, अर्थात मुझे प्राप्त होवें।

अर्थ– हे सर्वरक्षक, सुखस्वरूप, अविनाशी परमेश्वर! आप अमर अर्थात मृत्यु से परे हैं। आप बिछौने की तरह सम्पूर्ण संसार के आधार और आश्रय हैं ।। १ ।।

 -हे सुखस्वरूप, अविनाशी परमेश्वर! आप ओढ़ने की तरह सदैव सबके रक्षक हैं ।। २ ।।

-हे सर्वरक्षक, सुखस्वरूप, अविनाशी परमेश्वर! आपकी कृपा से सत्य-ज्ञान, सत्यभाषण, सत्य व्यवहार, यश एवं प्रतिष्ठा, धैर्य, बुद्धिमत्ता, शोभन-व्यवहार आदि आन्तरिक ऐश्वर्य और धन आदि बाह्य ऐश्वर्य मुझमें स्थित होवें ।। ३ ।।

अंगस्पर्श-क्रिया

अंगस्पर्श-विधि –  आचमन करने के पश्चात बाईं हथेली में थोड़ा जल लेकर दाएं हाथ की मध्यमा और अनामिका अँगुलियों से जल का स्पर्श कर निम्नलिखित मंत्रों से पहले दाएं और तत्पश्चात बाएं अंग का स्पर्श करें।

अंगस्पर्श-मंत्र

ओं वाङ्गमsआस्येsस्तु ।। १ ।। इस से मुख का (होंठों के मध्य में और होंठों के नीचे) स्पर्श करें,

ओं नसोर्मे प्राणोsस्तु ।। २ ।। इस मंत्र से नासिका के दोनों छिद्र,

ओं अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ।। ३ ।। इस मंत्र से दोनों ऑंखें,

ओं कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।। ४ ।। इस मंत्र से दोनों कान,

ओं बाह्वोर्मे बलमस्तु ।। ५ ।। इस मंत्र से दोनों भुजाएं,

ओं ऊर्वोर्म ओजोsस्तु ।। ६ ।। इस मंत्र से दोनों जंघाएँ,

ओं अरिष्टानि मेsङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु ।। ७ ।। इस मंत्र से सम्पूर्ण शरीर पर जल के छींटे देवें।  

मन्त्रों के शब्दों के अर्थ-

-मे मेरे आस्ये मुख में वाक बोलने की शक्ति अस्तु पूर्ण आयुपर्यन्त बनी रहे  

नसोः दोनों नासिका-छिद्रों में प्राणः प्राणशक्ति

अक्ष्णोः दोनों आँखों में चक्षुः दर्शन शक्ति

कर्णयोः दोनों कानों में श्रोत्रं श्रवण-शक्ति

बाह्वोः दोनों भुजाओं में बलम बल, शक्ति, सामर्थ्य

ऊर्वोः दोनों जंघाओं में ओजः बल, उत्साह-सहित चलने-दौड़ने आदि का सामर्थ्य

तनूः शरीर और मे तन्वा सह मेरे शरीर के साथ सम्यक प्रकार से संयुक्त हों  तन्वा शरीर के अङ्गानि सब अंग अरिष्टानि रोग-दोषरहित तथा शक्ति सम्पन्न सन्तु पूर्ण आयुपर्यन्त बने रहें 

मन्त्रार्थ– हे जीवनदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मेरे मुँह में वाक-शक्ति, दोनों नासिका-भागों में प्राणशक्ति, दोनों आँखों  में दर्शनशक्ति, दोनों कानों में श्रवणशक्ति, दोनों  भुजाओं में बल और मेरी दोनों जंघाओं में वेग व पराक्रम  पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे। मेरे शरीर के अन्य सभी अवयव भी पूर्ण आयुपर्यन्त रोग-दोषरहित तथा शक्ति-सम्पन्न रहें ।। १, २, ३, ४, ५, ६, ७ ।।  

दीपक जलाने का मंत्र

ओ३म भूर्भुवः स्वः।

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

भूः जैसे प्राण हमारे शरीर का आधार हैं, वैसे ही वह परमेश्वर इन प्राणों का भी आधार है। भुवः हमारे दुखों को दूर करने का सामर्थ्य होने से ईश्वर को भुवः नाम से कहा जाता है। स्वः सब जगत में व्यापक होके सब को नियम में रखने के कारण तथा सुखस्वरूप व सुखप्रदाता होने के कारण ईश्वर को स्वः भी कहा जाता है। भूः, भुवः और स्वः शब्द क्रमशः पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यौ लोकों के भी द्योतक हैं।
मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, सब दुख दूर करने वाले तथा सब सुख देने वाले हैं। आपकी कृपा से मेरा यह यज्ञानुष्ठान सफल होवे।

विशेष विवरण- जैसे ईश्वर अपने अनन्त सामर्थ्य से पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यौ लोकों की पालना करता है, वैसे ही हम आत्माएं भी अपने अल्प सामर्थ्य के अनुसार इन लोकों की पालना में सहयोगी इस हवन के कृत्य को करते हैं। 

यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र

विधि– स्रुवा में कपूर धरकर इस जले हुए दीपक से उसे जलाएं व निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के पश्चात  जले हुए कपूर को हवन-कुण्ड में धर दें। उसके पश्चात दीपक को ईशान-कोण पर रख दें। 

ओं भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा।

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेsग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

भूः, पृथ्वी लोक भुवः अन्तरिक्ष लोक स्वः द्यौ लोक द्यौः इव पृथिवीव सूर्य के प्रकाश से युक्त आकाश व पृथिवी के समान भूम्ना व्यापक (जैसे यह द्यौलोक अनगिनत नक्षत्रों से व्याप्त है, वैसे ही मेरे में भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आपेक्षित अनगिनत गुण व्याप्त हों और जैसे पृथ्वी अत्यन्त विशाल है, वैसे ही मेरा हृदय भी अच्छे अच्छे गुणों को समाविष्ट करता हुआ अत्यन्त विशाल हो जाए।) वरिम्णा उत्तम-उत्तम गुणों से देवयजनि विद्वान लोग जहाँ यज्ञ करते हैं ते आपकी तस्याः उस पृथिवी भूमि की पृष्ठे पीठ पर अन्नादम हव्य-अन्नों का भक्षण करने वाली अग्निम यज्ञीय अग्नि अन्नाद्याय भक्षण करने योग्य अन्न एवं धर्मानुकूल सुख-भोगों की प्राप्ति के लिए आदधे स्थापित करता हूँ।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सबके प्राणाधार, सब दुख-विनाशक, सुखस्वरूप एवं सर्वसुखप्रदाता हैं। आपकी कृपा से मैं सूर्य के प्रकाश से युक्त आकाश के समान ज्ञान और ऐश्वर्य से सुशोभित हो जाऊँ तथा पृथ्वी के समान विशालता व व्यापकता से सुशोभित हो जाऊँ।  विद्वान लोग जहां यज्ञ करते हैं, मैं भी उसी पृथ्वी पर यज्ञीय अग्नि को, जो पृथ्वी, अन्तरिक्ष, और द्यौ लोकों में विद्यमान है और जो यव आदि अन्न का भक्षण करने वाली है, को भक्षण करने योग्य अन्नादि एवं धर्मानुकूल सुख-भोगों की प्राप्ति के लिए, यज्ञ-कुण्ड में स्थापित करता हूँ।

यदि हम यज्ञ-कुण्ड में अग्नि को स्थापित करते हुए ये भाव रखें, तो हवन के कर्म को करते हुए श्रद्धा का अभाव होना असम्भव है।

अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र

ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहि त्वमिष्टापूर्ते सँ सृजेथामयं च।

अस्मिन्त्सधस्थे अधुत्तरस्मिन विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

अग्ने हे परमेश्वर! उद्बुध्यस्व हमारे हृदय में प्रकाशित हूजिए प्रतिजागृहि अविद्या के अन्धकाररूप से हम सब जीवों को अलग करके, विद्यारूप सूर्य के समान प्रकाश से प्रकाशमान कीजिए, कि जिससे त्वमिष्टापूर्ते हे भगवान! मनुष्य देह धारण करने वाले जो जीव हैं, जैसे वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सामग्री की पूर्ति कर सकें, वैसे आप इन इष्टों की सिद्धि कीजिए अस्मिन् सधस्थे इस लोक और इस शरीर तथा अध्युत्तरस्मिन अगले लोक और अगले जन्म में विश्वे देवाः यजमानश्च सीदत आपकी कृपा से सब विद्वान् और यजमान अर्थात विद्या के उपदेश को ग्रहण और सेवा करने वाले मनुष्य लोग सदा बने रहें, कि जिससे हम लोग विद्यायुक्त होते रहें।

मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! हमारे हृदय में प्रकाशित हूजिए। अविद्या के अन्धकाररूप से हम सब जीवों को अलग करके, विद्यारूप सूर्य के समान प्रकाश से प्रकाशमान कीजिए, कि जिससे हे भगवान! मनुष्य देह धारण करने वाले जो जीव हैं, जैसे वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सामग्री की पूर्ति कर सकें, वैसे आप इन इष्टों की सिद्धि कीजिए। इस लोक और इस शरीर तथा अगले लोक और अगले जन्म में आपकी कृपा से सब विद्वान् और यजमान अर्थात विद्या के उपदेश को ग्रहण और सेवा करने वाले मनुष्य लोग सदा बने रहें, कि जिससे हम लोग विद्यायुक्त होते रहें।

घृत में डूबी हुईं तीन समिधाएं रखने के मंत्र

ओम् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे- इदन्न मम ।। १ ।। 

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

हे जातवेदः सर्वत्र स्थूल, सूक्ष्म रूप में विद्यमान अग्नि! अयं इध्मः यह घृत संयुक्त समिधा ते तेरा आत्मा  आधार है तेन इध्यस्व उससे (घृत संयुक्त समिधा से) प्रदीप्त हो वर्धस्व  और वृद्धि को प्राप्त हो अर्थात उत्तम रूप से प्रज्जवलित हो अस्मान् हम याज्ञिक गण को प्रजया उत्तम सन्तानों से पशुभिः पशुओं से ब्रह्मवर्चसेन ज्ञान, तेज से अन्नाद्येन अन्नादि साधन से और सम् एधय पूर्णरूप से समिधा के समान हमें बनाओ  स्वाहा जैसा यह मैं कहता हूँ, वैसा मैं हृदय से स्वीकार भी करता हूँ  इदं अग्नये जातवेदसे ये हव्य पदार्थ और कामनाएँ उत्पन्न पदार्थों को जानने वाले परमेश्वर के लिए अर्पित हैं इदं  मम यह आहुति मेरे अहं भाव से नहीं है।

भावार्थ- हे सर्वरक्षक, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमेश्वर! यह जीवात्मा जीवनरूपी यज्ञ की समिधा बने। तुझमें जब मैं अपनी आहुति डालूं, तब तू मुझे अनुभूत हो और तेरी अनुभूति को प्राप्त तेरी प्रजा तेरे वास्तविक रूप को संसार में बढ़ाने वाली हो। हे परमात्मा! आप हमें उत्तम सन्तानों से, उत्तम पशु-पक्षियों से, विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अपनी भक्ति के तेज से और खाने-योग्य अन्न तथा अन्य भोग्य पदार्थों से समृद्ध करें और हमारी आत्मा को पूर्णरूप से समिधा के समान बनाएं। मैं अपने इन शब्दों के अनुरूप आचरण भी करूँगा। यह कर्म सर्वव्यापक परमात्मा की प्राप्ति के लिए है। इस कर्म को करने का सामर्थ्य परमात्मा का ही दिया हुआ है। इसमें मेरा कुछ नहीं है ।। १ ।। 

इससे पहली समिधा रखें।

ओम् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम। अस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा।। इदमग्नये- इदन्न मम ।। २ ।।

                                            यजुर्वेद ३//१

ओम् सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे- इदन्न मम ।। ३ ।।

-यजुर्वेद ३//२

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

हे विद्वानों! तुम समिधा अच्छे प्रकार अग्नि को प्रदीप्त करने वाली समिधा से घृतैः शुद्ध, सुगन्धि से युक्त घृत आदि से एवं यानों में जल वाष्प आदि से अग्निम् इस अग्नि को बोधयत प्रदीप्त करो तथा उसकी अतिथिम् अतिथि के समान दुवस्यत सेवा करो तथा अस्मिन् इस अग्नि में हव्या होम करने योग्य द्रव्य, एवं देने, खाने और ग्रहण करने योग्य वस्तुओं का आजुहोतन उत्तम रीति से होम करो।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आपकी कृपा से हम लोग लकड़ी, घृत आदि से अतिथि के समान सत्कारपूर्वक इस यज्ञाग्नि को प्रज्ज्वलित करें। घृत और अन्य हवन-योग्य पदार्थों से आहुतियाँ दें। यह आहुति आपको समर्पित है। यह मेरी नहीं है ।। २ ।।

विशेष विवरण– क्योंकि हर उत्तम कर्म को यज्ञ कह जाता है, इसलिए महर्षि स्वामी दयानन्द जी शिल्प कला आदि को भी यज्ञ मानते हुए देवयज्ञ का अर्थ बताते हुए इस मंत्र के अर्थ में ‘घृत आदि से एवं यानों में जल वाष्प आदि से’ लिखते हैं।

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

हे मनुष्यो! तुम सु-सम-इद्धाय बहुत अच्छी प्रकार प्रदीप्त करने के लिए शोचिषे शुद्ध एवं दोषनिवारक जातवेदसे उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान अग्नये रूप, दाह, प्रकाश छेदनादि गुण स्वभाव वाले अग्नि में तीव्रम् सब दोषों के निवारण में तीक्ष्ण स्वभाव वाले घृतम् घी आदि पदार्थों को जुहोतन होम करो।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आपकी कृपा  से हम लोग बहुत अच्छी प्रकार प्रदीप्त करने के लिए शुद्ध ज्वालाओं से युक्त सब पदार्थों में विद्यमान अग्नि में सब दोषों के निवारण में तीव्र प्रभाव करने वाले घृत, मिष्ट आदि उत्तम पदार्थों की आहुतियाँ देवें। यह आहुति दुर्गुण-विनाशक प्रकाशस्वरूप सर्वज्ञ और सर्वव्यापी आपको समर्पित है। यह मेरी नहीं है ।। ३ ।।

 

इन दो मंत्रों से दूसरी समिधा रखें।

तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा।। इदमग्नयेsङ्गिरसे- इदन्न मम ।। ४ ।।

-यजुर्वेद ३//३

मंत्र के शब्दों के अर्थ-

अङ्गिरः सब पदार्थों में व्याप्त, यविष्ठय अति बलवान बृहत बड़े तेज से युक्त शोच प्रकाश करनेवाली तन्त्वा उस अग्नि को समिद्भिः काष्ठ की समिधा आदि से एवं घृतेन घृत आदि से वर्द्धयामसि बढ़ाते हैं। इदं यह आहुति अग्नये अङ्गिरसे दुर्गुण-विनाशक, प्रकाशस्वरूप सर्वव्यापक परमात्मा को समर्पित है।

मन्त्रार्थ–हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आपकी कृपा से हम लोग सब पदार्थों में व्याप्त, अति बलवान, अत्यन्त तेज से युक्त और प्रकाश करने वाली उस अग्नि को काष्ठ की समिधा और घृत से बढ़ाते हैं। यह आहुति दुर्गुण-विनाशक, प्रकाशस्वरूप, सर्वव्यापक परमात्मा! आपके लिए समर्पित है। यह मेरी नहीं है ।। ४ ।।

इस मंत्र से तीसरी समिधा रखें।  

पांच घृत की आहुतियां

पांच बार निम्नलिखित मंत्र-पाठ के पश्चात घृत की आहुतियां दें।

मंत्र

ओं अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा।। इदमग्नये जातवेदसे- इदन्न मम ।

मंत्र में प्रयुक्त सभी शब्दों के अर्थ पहले बताए जा चुके हैं।

मन्त्रार्थ– हे सर्वरक्षक, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमेश्वर! यह जीवात्मा जीवनरूपी यज्ञ की समिधा है। इसके द्वारा हमारे जीवनरूपी यज्ञ में दिव्य ज्ञानाग्नि प्रज्ज्वलित होवे और अच्छी प्रकार बढ़े। हे परमात्मा! आप हमें उत्तम सन्तानों से, उत्तम पशु-पक्षियों से, विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अपनी भक्ति के तेज से और खाने-योग्य अन्न तथा अन्य भोग्य पदार्थों से अच्छी प्रकार समृद्ध कीजिए। हे ईश्वर! यह आहुति आपकी ही दी हुई है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है।

जल-प्रसेचन के मन्त्र

ओं अदितेsनुमन्यस्व ।। १ ।। 

ओं अनुमतेsनुमन्यस्व ।। २ ।। 

ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व ।। ३ ।। 

ओम् देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।

दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।। ४ ।।

  

पहले मंत्र का भौतिक अर्थ– हे संयोग गुणवाले जल! तुम अग्नि के अनुकूल हो जाओ अर्थात मुझे मेरे लक्ष्य के साथ जोड़कर रखो।

इस मंत्र को बोलकर पानी को पूर्व दिशा में छिड़कने का विधान है। पूर्व दिशा में पानी को दाईं ओर से बाईं ओर नहीं, बल्कि बाईं से दाईं ओर छिड़का जाता है। यह इसलिए, क्योंकि हमने दीपक को ईशान-कोण में रखा होता है और जल को प्रतीकात्मक रूप से अन्धकार से प्रकाश की ओर छिड़का जाता है।

दूसरे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे पानी! जैसे तुम हर वस्तु के अनुकूल होते हो, वैसे ही मेरी बुद्धि भी मेरे लक्ष्य, अग्निहोत्र के प्रति अनुकूल हो।

इस मंत्र को बोलकर पानी को पश्चिम दिशा में दाईं से बाईं ओर (दीपक की तरफ) छिड़कने का विधान है।

तीसरे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे उत्त्कृष्ट विज्ञान वाले व गमन करने वाले स्वभाव वाले पानी! तुम अग्नि के अनुकूल होवो।

इस मंत्र को बोलकर पानी को उत्तर दिशा में दाईं से बाईं ओर (दीपक की तरफ) छिड़का जाता है।

चौथे मंत्र का भौतिक अर्थ– हे सर्वोच्च प्रेरक पानी! हम यजमानों को समर्थ बनाओ, ताकि हम यज्ञ को उत्तम रीति से सिद्ध कर सकें। जिस लक्ष्य की पूर्ति के लिए हम यह यज्ञ कर रहे हैं, उसके लिए आवश्यक सभी ऐश्वर्य हमें प्रदान करो। हे उत्त्कृष्ट, सौम्य, पृथिवी को धारण करने वाले, शरीर को पवित्र करने वाले, वाणी के स्वामी पानी! हमारे शरीर को पवित्र करते हुए हमारी वाणी को भी मधुर, कल्याणकारी व प्रिय लगने वाली बनाओ।

चौथे मंत्र के उच्चारण के पश्चात यज्ञ-वेदी के चारों ओर- पहले पूर्व में, फिर दक्षिण में, फिर पश्चिम में और अन्त में उत्तर में (दीपक से आरम्भ करके दीपक पर समाप्त) जल छिड़कने का विधान है।

इन मंत्रों के आध्यात्मिक भाव नीचे दिए जा रहे हैं-

१. ओम् -हे सर्वरक्षक, अदिते अखण्ड परमेश्वर! अनु मन्यस्व आप, मेरा यह यज्ञ कर्म पूर्ण सफल हो- ऐसा सहयोग प्रदान कीजिये।

२. हे सर्वरक्षक, अनुमते अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमेश्वर! अनु मन्यस्व मेरे यज्ञ कर्म की सफलता आपकी कृपा से सम्पन्न हों।

३. हे सर्वरक्षक सरस्वते श्रेष्ठ ज्ञानदाता परमेश्वर! अनु मन्यस्व आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्धि से मेरा यज्ञ कार्य पूर्ण सफल हो।

४. ओम् हे सब ओर से रक्षा करने वाले देव दिव्य गुणों से सम्पन्न सवितः सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर (जैसे ईश्वर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रचता, जो हम प्राणियों के लिए हितकर न हो, वैसे ही मैं भी ईश्वर द्वारा रची मौलिक वस्तुओं से दूसरों के लिए हितकर पदार्थों को ही बनाऊँ।) यज्ञ प्रसुव मेरे इस यज्ञ कर्म को सफल बनाइए।  भगाय हमारे अंतिम लक्ष्य की सिद्धि के लिए आवश्यक सभी भौतिक ऐश्वर्यों के लिए व मुक्ति के लिए आवश्यक सभी आध्यात्मिक ऐश्वर्यों के लिए यज्ञपतिं प्रसुव यज्ञकर्त्ता को उत्तम प्रकार से यज्ञ कर्म सम्पन्न करने का सामर्थ्य प्रदान कीजिए। आप दिव्यः विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं, गन्धर्वः पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, केतपूः ज्ञान विज्ञान से मन बुद्धि को पवित्र करने वाले हैं अतः नः हमारे केतं पुनातु मन बुद्धि को पवित्र कीजिए, आप वाचस्पतिः सत्य विद्या के प्रचार के माध्यम से रक्षा करने वाले व वाणी के स्वामी हैं अतः मेरी वाणी में माधुर्य प्रदान करें। जैसे चारों दिशाओं में मैं जल सिंचन कर रहा हूँ, उसी प्रकार अग्नि- परमेश्वर की कृपा से तेजस्विता धारण कर मैं सर्वत्र शाश्वत ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जीवन भर लगा रहूँ। इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर व प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइए। 

घी की चार आहुतियाँ

ओम् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये- इदन्न मम ।। १ ।।

मन्त्रार्थ– हे ईश्वर! यह आहुति आपके प्रकाशस्वरूप होने को समर्पित है। यह आहुति मेरे लिए नहीं है ।। १ ।।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! हम अग्नये ज्ञान प्राप्त कर आगे बढ़ने के लिए स्वाहा यह आहुति प्रदान करते हैं। यह ज्ञान स्वरूप परमात्मा के लिए है, इदन्न मम यह मेरी नहीं।

इस मंत्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर पश्चिम से पूर्व की ओर लगातार धार बांधकर आहुति देवें।

ओम् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय- इदन्न मम ।। २ ।।

मन्त्रार्थ– हे ईश्वर! यह आहुति आपके सोमाय सुख-शान्ति के भण्डार होने को समर्पित है। यह आहुति मेरे लिए नहीं है ।। २ ।।

औषधियों में स्थित रस को ‘सोम’ कहा जाता है। इसलिए, सोम के लिए दी जाने वाली आहुति का तात्पर्य औषधियों के रस की पुष्टता को बढ़ाना है।

इस मन्त्र की समाप्ति पर प्रज्जवलित अग्नि की दक्षिण दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर लगातार धार बांधकर आहुति देने का विधान है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! शान्ति की प्राप्ति के लिये अथवा स्वभाव में सौम्यभाव के विकास के लिए यह आहुति प्रदान करते हैं। यह सोमस्वरूप परमात्मा की कृपा से है, यह मेरी नहीं।

इन दोनों मंत्रों में आहुति देते समय धार की निरंतरता प्रतीकात्मक रूप से हमें चेताने के लिए है कि हमारे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ की निरंतरता टूटे नहीं।

ओम् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये- इदन्न मम ।। ३ ।।

मन्त्रार्थ– हे ईश्वर! यह आहुति आपके प्रजापतये इस जड़ और चेतन जगत के नियन्ता होने को समर्पित है। यह आहुति मेरे लिए नहीं है ।। ३ ।।

इस मंत्र से ‘प्रजापति’ देवता को घी की आहुति दी जाती है। ब्राह्मण- ग्रंथों के अनुसार अव्यक्त देवता को ‘प्रजापति’ नाम से कहा जाता है। इस कारण जब भी ‘प्रजापति’ के लिए कोई आहुति दी जाती है, तो उसका उच्चारण न कर मौन रहा जाता है। ऐसा ‘प्रजापति’ देवता की अव्यक्तता का बोध कराने के लिए ही है, परन्तु आजकल की प्रथा के अनुसार इस मंत्र का उच्चारण करके ही आहुति दी जाती है।

इस मंत्र के उच्चारण के पश्चात जलती हुई अग्नि के मध्य में आहुति दी जाती है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! प्रजापति बनने के लिए आहुति प्रदान करते हैं। प्रजापालक परमात्मा के लिए यह आहुति है। यह मेरी नहीं है।

ओम् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय- इदन्न मम ।। ४ ।।

मन्त्रार्थ– हे ईश्वर! यह आहुति आपके परमैश्वर्यवान होने को समर्पित है। यह आहुति मेरे लिए नहीं है ।। ४ ।।

इस मंत्र के उच्चारण के पश्चात अन्तरिक्षस्थ अग्नि अर्थात विद्युत को घी की आहुति दी जाती है। आहुति जलती हुई अग्नि के मध्य में दी जाती है।

आध्यात्मिक अर्थ- हे सर्वरक्षक प्रभो! ऐश्वर्य के लिए अर्थात् वास्तविक जीवन में इन्द्र बनने के लिए यह आहुति है। यह इन्द्र के लिए परमैश्वर्य सम्पन्न परमात्मा के लिए है। यह मेरी नहीं है अर्थात् यह परमेश्वर की कृपा से सम्भव हो सका है।

आत्म उन्नति की साधना में इन आहुतियों का विशेष महत्त्व है।

प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र

(घृत-सामग्री की आहुतियां)

ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा ।। १ ।।

ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।। २ ।।

ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ।। ३ ।।

ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सुर्योवेतु स्वाहा ।। ४ ।।

प्रातःकालीन होम के मंत्र व सायंकालीन के होम के मंत्र कुछेक शब्दों को छोड़कर एक जैसे ही हैं। वे शब्द हैं- सूर्य, अग्नि, वर्चः, ज्योतिः, रात्रि और उषसा । सूर्य का अर्थ भौतिक सूर्य भी होता है और ईश्वर भी। भौतिक सूर्य अपने प्रकाश से सबको प्रेरणा देता है। ईश्वर को सूर्य इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह सभी जड़ और चेतन पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानता है। अग्नि शब्द का अर्थ भी भौतिक अग्नि के साथ-साथ प्रसंगानुसार ईश्वर भी होता है। वर्चः – ज्ञान का आधार। भौतिक अग्नि अपने प्रकाश से हमें वस्तुओं को जनाती है और परमेश्वर हम को सब विद्याओं को देने वाला है। ज्योतिः – क्योंकि भौतिक सूर्य पृथिवी आदि सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, इसलिए इसे ज्योतिः शब्द से कहा गया है। यह शब्द ईश्वर का भी विशेषण है। ईश्वर सभी आत्माओं को शरीर, इन्द्रियां आदि देके प्रकट अर्थात प्रकाशित करता है और वेद-ज्ञान के माध्यम से सभी जड़ और चेतन पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जनाता है। दूसरे शब्दों में सूर्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाशक होने से ईश्वर को ज्योति कहा जाता है। सायंकालीन के होम के मंत्रों में ‘रात्रि’ शब्द आया है और प्रातःकालीन होम के मंत्रों में उषसा शब्द आया है। रात्रि शब्द का अर्थ तो सामान्य ही है और उषसा शब्द का अर्थ है- भोर समय की उज्ज्वलता व लालिमा। इन मंत्रों का आध्यात्मिक अर्थ करते समय ‘सूर्य’ व ‘अग्नि’ शब्दों का अर्थ परमात्मा कर लिया जाता है। महाभारत-काल के उपरान्त डिण्डिम घोष के साथ अकेले महर्षि ने ही वेद मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थ को महत्त्व प्रदान किया। उनसे पूर्व तो भौतिक, मात्र भौतिक अर्थ की ही प्रधानता रही। सूर्य शब्द का अर्थ भी भौतिक दृष्टि से रहा। भौतिक अर्थ से सूर्य को इतना अधिक महत्त्व दिया गया कि परमेश्वर के स्थान पर सूर्योपासनादि का प्रचलन अधिक हुआ।
इन मंत्रों में आए कुछेक शब्दों का अर्थ नीचे दिया जा रहा है-
वेतु प्राप्त कराना सजूः समान रूप से  जुषाणः  सब से प्रीति करने वाला इन्द्रवत्या विद्युत् स्वाहा जो मैं आहुति दे रहा हूँ, वह मेरी नहीं है। मैं ऐसा अपने मन से कह रहा हूँ।

मन्त्रार्थ– हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप चराचर जगत के आत्मा और प्रकाशस्वरूप सूर्य आदि प्रकाशित लोकों के भी प्रकाशक हैं। हम लोग आप की प्रसन्नता, अर्थात आपकी आज्ञा पालन के उद्देश्य से व समस्त जगत के कल्याण के लिए होम करते ।। १ ।।

-हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप चराचर जगत के आत्मा, सूर्यादि प्रकाशक लोकों के भी प्रकाशक, सब सद्विद्यायों को देने वाले प्रकाशस्वरूप और हम लोगों से उनका प्रचार कराने वाले हैं। उसी निमित्त हम लोग अग्निहोत्र करते हैं ।। २ ।।

-हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप जो सब जगत के आधार व सकल संसार के स्वामी हैं। आपकी प्रसन्नता के लिए हम होम करते हैं ।। ३ ।।

-हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सर्वव्यापी, सर्वोत्पादक, सब जगत के प्रकाशक, सबसे प्रीति रखनेवाले, प्राणदायी उषाकाल के साथ स्तुति करने योग्य चराचर जगत के आत्मा हैं। आप हमें प्राप्त होइए अर्थात हम आपके वरण करने योग्य बन पाएं ।। ४ ।।

सायंकालीन आहुति के मन्त्र

(घृत-सामग्री की आहुतियां)

ओं अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।। १ ।।

ओं अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।। २ ।।

निम्नलिखित तीसरे मंत्र को मन में उच्चारण करके आहुति देवें-

ओं अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।। ३ ।।

ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजूरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा ।। ४ ।।

मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब जगत के आत्मा और सबके स्वामी हैं। आपकी आज्ञा से हम परोपकार के लिए होम करते हैं। आपका रचा हुआ जो भौतिक अग्नि है, उसमें द्रव्य इसलिए डाले जाते हैं कि वे द्रव्य सूक्ष्म होके वायु और वृष्टि को शुद्ध कर दें ।। १ ।।

-जो सर्वरक्षक परमेश्वर सब का आधार व सब विद्याओं को देने वाला है, उस परमेश्वर की हम लोग होम करके प्रार्थना करते हैं ।। २ ।।

-प्रातःकालीन व सायंकालीन के मंत्रों की संख्या में एकरूपता लाने की दृष्टि से महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने यह मंत्र, जो कि पहले मंत्र की ही पुनःवृति है, अपनी तरफ से जोड़ा है। इसलिए, उन्होंने इस मंत्र को उच्चारित न करने का विधान बनाया है। अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए ।। ३ ।।

-हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सर्वव्यापी, सर्वोत्पादक, सब जगत के प्रकाशक, सबसे प्रीति करने वाले, चन्द्रमा-तारों के प्रकाशवाली रात्रि के साथ सर्वव्यापी, स्तुति करने योग्य चराचर जगत के आत्मा हैं। आप हमें प्राप्त होइए ।। ४ ।।

विशेष विवरण– पहले इस मंत्र में ‘अग्नि’ शब्द भी दो बार आया है और ‘ज्योति’ शब्द भी दो बार आया है। प्रथम बार जो ‘अग्नि’ शब्द आया है, उसका अर्थ है ईश्वर। प्रथम बार जो ‘ज्योति’ शब्द आया है, वह प्रथम बार आने वाले ‘अग्नि’ शब्द का विशेषण है। जो दूसरी बार ‘अग्नि’ शब्द आया है, उसका अर्थ है भौतिक अग्नि। इसी प्रकार, दूसरी बार आने वाला ‘ज्योति’ शब्द दूसरी बार आने वाले ‘अग्नि’ शब्द का विशेषण है। ‘ज्योति’ शब्द ईश्वर का विशेषण इसलिए है, क्योंकि ईश्वर सब वस्तुओं को प्रकट करता है अर्थात सब पदार्थ ईश्वर द्वारा उत्पन्न होने के पश्चात ही हमारे द्वारा जानने के योग्य बनते हैं। ‘ज्योति’ शब्द भौतिक अग्नि का विशेषण इसलिए है, क्योंकि अग्नि की सहायता से ही हम सब भौतिक वस्तुओं को जान पाते हैं। जो वाणी सत्य बोलने वाली है, उसको भी ‘स्वाहा’ शब्द से कहा जाता है।

२. अग्नि नामक ईश्वर विद्या का आधार है। इसी भांति भौतिक अग्नि का प्रकाश भी ज्ञान का आधार है। यदि हमारे चक्षुओं में भौतिक अग्नि का प्रकाश न हो, तो विद्या प्राप्ति के मार्ग में हमें बहुत अधिक क्षति पहुँचेगी। इसी सत्य को अपनी वाणी से कहने के लिए दूसरा मंत्र है।

३. देव रूपी ईश्वर द्वारा उत्पन्न की गई भौतिक अग्नि, जो समान रूप से सभी पदार्थों का सेवन करती है और जो रात्रि से युक्त होके विद्युत् के रूप में रहती हुई सभी को प्राप्त होती है, उस अग्नि में मैं आहुति दे रहा हूँ। यह आहुति मेरी नहीं है। इस मंत्र में आया ‘जुषाणः’ शब्द भी ‘सुजू’ शब्द की भांति अग्नि का विशेषण है, जिसका अर्थ है- प्रीति से व समान रूप से सेवन करना। सेवन करने के लिए प्रीति का होना आवश्यक होता है। प्रीति वाले को ही ‘जुषाणः’ शब्द से कहा जाता है। ईश्वर भी सबसे प्रीति करता हुआ सबके साथ न्याय का व्यवहार करता है।

प्रातःकालीन और सायंकालीन आहुति के मंत्रों से सम्बन्धित विधि-

यदि सायं एवं प्रातः काल की आहुतियां एक ही समय देनी हों तो प्रातःकाल देवें, तब यह क्रम रखें- जल-प्रसेचन के मंत्रों के पश्चात घी की चार आहुतियां, चार प्रातःकालीन मंत्रों के साथ आहुतियां, चार सायंकालीन मंत्रों के साथ आहुतियां, आठ प्रातः-सायं दोनों समय की आहुतियां और तीन बार पूर्णाहुति देवें।

प्रातः व सायंकालीन आहुति के मन्त्र

(घृत-सामग्री की आहुतियां)

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय- इदन्न मम ।। १ ।।

ओं भुवर्वायवेsपानाय स्वाहा। इदं वायवेsपानाय- इदन्न मम ।। २ ।।

ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय- इदन्न मम ।। ३ ।।

ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्यवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।

इदमग्निवाय्यवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदन्न मम ।। ४ ।।

उपरोक्त मंत्रों के शब्दों के अर्थ-

१.    भूः अर्थात् भूमि स्थित अग्नि के लिए तथा प्राण के लिए यह आहुति समर्पित है। यह मेरा समर्पण अहंभाव से युक्त न हो।

२.    भुवः अर्थात् अन्तरिक्ष स्थित वायु की शुद्धि के लिए, जिससे शरीर स्थित मल बाहर हो जाये, उस अपान के लिए यह आहुति समर्पित है। यह मेरा समर्पण अहंभाव से युक्त न हो।

३.    स्वः अर्थात् द्युलोक स्थित आदित्य के लिए जिसकी कृपा से सर्वत्र गतिशीलता है, उस शुद्ध गतिशीलता के लिए यह आहुति समर्पित है। यह समर्पण अहंभाव से रहित हो।

४.    भूलोक, अन्तरिक्षलोक तथा द्युलोक में स्थित क्रमशः अग्नि, वायु तथा आदित्य के लिए, जिससे इनका सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर, इनसे विविध प्रकार के लाभ लेकर मानव शरीर में स्थित प्राण- अपान- व्यान सबल हो सके, उसके लिए यह आहुति समर्पित है। यह समग्र समर्पण अहं भाव के विनाश के लिए है।

अर्थ –हे सर्वरक्षक, प्राणों के प्राण, सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाले, ज्ञानस्वरूप, दोष-निवारक,  दुखों को दूर करने वाले, सुखस्वरूप, सब सुखों के दाता, प्रकाशस्वरूप, सर्वव्यापक, अखण्ड, अविनाशी, मोक्षस्वरूप, सर्वोत्तम और सम्पूर्ण संसार के स्वामी परमेश्वर! यह आहुति आपको समर्पित है ।। १, २, ३, ४, ।।

ओम् आपो ज्योती रसोsमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा ।। ५ ।।

ओं यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।

तया मामद्य मेधयाsग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा ।। ६ ।।

ओं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।

यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा ।। ७ ।।

ओम् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ।। ८ ।।

अर्थ – ओम हे सर्वरक्षक, आपः सर्वव्यापक, ज्योतिः प्रकाशस्वरूप, रसः आनन्दस्वरूप अमृतं अविनाशी, मोक्षस्वरूप ब्रह्म सबसे महान भूः प्राणों के प्राण, भुवः सब दुखों को दूर करने वाले और स्वः सुखस्वरूप, सब सुखों के दाता ईश्वर! स्वाहा यह आहुति आपको समर्पित है ।। ५ ।।

– ओम हे सर्वरक्षक अग्ने ज्ञान-प्रकाशस्वरूप तथा विज्ञान के प्रकाशक परमेश्वर! यां जिस मेधां सत्यविद्या-सहित शुभगुणों को धारण करने योग्य बुद्धि को देवगणाः विद्वत् समूह और पितरः हमारे माता-पिता आदि तथा अन्य ज्ञानवृद्ध पूर्वज गण उपासते प्राप्त करके सेवन करते हैं तया उस मेधया सर्वोत्तम बुद्धि से माम मुझको अद्य आज अर्थात् शीघ्र मेधाविनं कुरु प्रशस्त बुद्धिवाला कीजिये। स्वाहा मैं यह आहुति पूर्ण समर्पण भाव से  प्रदान करता हूँ। हे परमात्मन् मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार कर मुझे सर्वोत्तम बुद्धिवाला बनाईये ।। ६ ।।

– इन मंत्रों का अर्थ ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मंत्रों के अन्तर्गत दे दिया गया है ।। ७, ८ ।।

पूर्णाहुति मन्त्र

ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।। इससे पहली

ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।। इससे दूसरी

ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।। इससे तीसरी आहुति देवें।

अर्थ– हे जगदीश्वर! हम परोपकार के लिए जिस कर्म को करते हैं, वह कर्म आपकी कृपा से परोपकार के लिए समर्थ हो। इसलिए, यह कर्म आपको समर्पित है।

कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि सर्वं ईश्वर को कहते हैं, जो सब तरह से पूर्ण है। न ईश्वर में कोई कमी है, न संसार रूपी उसकी कृति में। पूर्ण होने के कारण वह हर बार संसार को एक जैसा ही बनाता है। बदलाव की आवश्यकता ही वहाँ होती है, जहाँ अपूर्णता हो। हे ईश्वर! मैं भी अपने ज्ञान में व अपने कर्मों में आपकी तरह पूर्ण बन जाऊँ। समाधि में आपका आनंद लेते हुए तो मैं पूर्ण ही होता हूँ, समाधि से बाहर आने पर भी मैं ईश्वर-प्रणिधान के माध्यम से पूर्ण ही रहूँ। इन शब्दों को बोलते हुए इसी तरह का भाव मन में आना चाहिए।