हमारे पूर्वजों व हमारी संस्कृति की पश्चिमी संस्कृति से श्रेष्ठता

पूर्वज-आजकल की परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गई हैं कि हम सत्य न जानने के कारण अपने पूर्वजों पर किए जाने वाले आक्षेपों का यथोचित उत्तर नहीं दे पाते। यह तब तक नहीं हो सकता, जब तक हमें अपने पूर्वजों के कर्मों पर गौरव की अनुभूति नहीं होती। आइए, हम सत्य को जानें। केवल उसी से हमारी नजरों में अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान बढ़ेगा। दूसरों से अपेक्षा करने से पहले कि वे हमारे पूर्वजों का सम्मान करें, हमारा अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान अंध-श्रद्धा से प्रेरित न होकर वास्तविक श्रद्धा से प्रेरित होना चाहिए। अपने पूर्वजों के कर्मों को जानकर ही हम मानसिक तौर पर इस काबिल बन सकते है कि दूसरे उन पर गलत आक्षेप न कर सकें। जो अपने पूर्वजों का सम्मान न करने का एक रिवाज सा बन गया है, उसका हमें विरोध करना होगा। हनुमान जी को बंदर कहने से, यह मानने से कि शिव जी भांग पीते थे आदि द्वारा हमें लगता है कि हम अपने मन के खुलेपन को व्यक्त कर रहे हैं, परन्तु वस्तुतः ऐसा कह कर या मान कर हम खुद की बेज्जती कर रहे होते हैं। 

 अधिकतर पढ़े लिखे लोग अपने को पश्चिमी विद्वानों से कमतर समझते हैं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि जिन विषयों को उन्होंने पढ़ा होता है, उन विषयों में पश्चिमी विद्वानों का अपना एक अधिपत्य है। यह मॉर्डन विषय हैं और पिछले 2000 वर्षों से हम लोगों द्वारा वेद की मान्यताओं के अनुरूप पश्चिमी विचारधाराओं से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास न के बराबर किया गया है। परन्तु, जब दो वस्तुओं में से एक को श्रेष्ठ कहा जाता है, तो इसका अभिप्राय यह होता है कि हमने दोनों वस्तुओं को जांच लिया है और उन दोनों वस्तुओं में से बेहतर को श्रेष्ठ कह दिया जाता है। जबकि, वास्तविकता यह है कि पश्चिमी विद्वानों को श्रेष्ठ मानने से पहले हमने अपने पूर्वजों को तो जानने का प्रयत्न ही नहीं किया होता। आज के मॉर्डन विषयों के मूल के बारे में हमारे पूर्वजों ने अत्याधिक कार्य किया हुआ है। मूल को जाने बगैर मॉर्डन विषयों का कोई लाभ नहीं।

-सभी उद्धरण (quotes) पश्चिमी विद्वानों के ही मिलते हैं। उनसे पता चलता है कि उनके विचार कितने ऊंचे हैं। अगर वो इतने महान हैं, तो हमारे पूर्वजों ने ऐसा क्या किया है कि हम उनको पश्चिमी विद्वानों से भी महान मानें?

हमारे पूर्वजों ने न केवल उस स्रोत को खोज निकाला, जिससे ऊंचे विचार जन्म लेते हैं, बल्कि, उस स्रोत को प्राप्त भी किया और उस स्रोत को पाने का मार्ग भी हमें बता दिया। 

हमारे पूर्वजों की महानता की एक झलक –

आजकल ‘ध्यान’ का विषय बहुत प्रचलित है। ध्यान मुख्यतः दो कारणों से किया जाता है। मन की एकाग्रता और मन की शांति। सभी पश्चिमी विद्वान इन्हीं दो कारणों को जानते हैं। लेकिन, हमारे ऋषियों के ग्रन्थों में ध्यान के तीसरे लाभ का भी वर्णन मिलता है। यह लाभ हमें मन की एकाग्रता व मन की शांति मिलने के बाद ही प्राप्त होता है।

-जो आजकल के महापुरुषों ने ग्रन्थों को लिखा है और जो ऋषियों ने ग्रन्थों की रचना की है, उनमें विषयों की सूक्ष्मता के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा भेद है। ऋषियों ने (ऋषि आजकल की भाषा में अध्यात्म विज्ञान के साइंसदान कहे जा सकते हैं) अपने ग्रन्थों को रचने में उन विषयों को चुना है, जिन विषयों का वेद में केवल बीजरूप में ही उल्लेख है। उन ऋषियों ने उन विषयों को केवल विस्तार दिया है। यह ओर बात है कि यह विस्तार अपने आप में अनूठे हैं। वो मानते हैं कि मूलतः तो विषय वेद के ही हैं, उन्होंने तो केवल उन्हें खोल कर समझाने का प्रयत्न किया है और ध्यान रखा गया है कि उनका कोई भी शब्द वेद के विरुद्ध न हो। इस के विपरीत आजकल के वक्ता व लेखक अपनी कृति का सारा श्रेय स्वयं को देते हैं।

-हमारी संस्कृति की एक बहुत ही विशेष बात है, जो किसी भी अन्य संस्कृति में नहीं मिलती। यह तो सभी संस्कृतियां कहती हैं कि कोई भी व्यक्ति कितना भी महान बन सकता है, पर परोक्ष रूप से ये सब संस्कृतियां  मानती हैं कि कोई भी उनके संस्थापक जितना महान नहीं बन सकता। परन्तु, हमारी संस्कृति के अनुसार सभी प्राणी, जो आज पेड़, पौधे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि किसी भी योनि में हों, वो अनन्त बार मानवता की उच्चतम सीमा को प्राप्त कर चुके हैं। जो संस्कृति इस तरह के विचार देती हो, क्या उसे सर्वश्रेष्ठ नहीं कहना चाहिए?