हमारी सनातन संस्कृति के पुनरुद्धार में दयानन्द का योगदान

 

– हमारी वैदिक संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द जी की भूमिका को जानने व समझने के लिए हमारा एकाग्र मन से  कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक है।

क्योंकि, हमारा देश पिछले लगभग एक हजार वर्षों तक बाहरी शक्तियों के आधीन रहा था, इसलिए इसकी प्राचीन ज्ञान राशि, जो इसकी वास्तविक सम्पदा थी, अंधकार में डूब चुकी थी। जिन-जिन शक्तियों ने हमारे देश पर शासन किया, उन्होंने संस्कृत, हिन्दी व भारतीय भाषाओं के स्थान पर उर्दू, अरबी व अंग्रेजी को शासकीय भाषा बना दिया। बिना अपनी भाषा के हम उस नाव की भांति हो गए, जिसकी गति व दिशा का निर्धारण वायु किया करती है। भारत-वासियों को उनकी वास्तविक पहचान लौटाने के लिए कईं क्षेत्रों पर कार्य करना आवश्यक था।

सबसे पहले, स्वामी जी ने आत्मिक बल के संवर्द्धन के लिए व जन-मानस में अपनी संस्कृति में उपलब्ध हीरे-मोतियों का दिग्दर्शन कराने के लिए ब्रह्म-यज्ञ, हवन आदि पांच नित्य कर्म करने सुझाए। इन कर्मों में बोले जाने वाले मंत्रों का चुनाव उन्होंने अपनी ऋषि-बुद्धि से वैदिक वाङ्गमय में से किया। इसके पश्चात संस्कार-विधि आदि साहित्य का सृजन किया। इस सृजन का मुख्य उद्देश्य हम आत्मायों के संस्कारों को पवित्र करना व हमारी आत्मिक उन्नति के कुछ उपाय सुझाना था।

स्वामी जी समझ चुके थे कि वेद ही हमारी वास्तविक सम्पत्ति हैं और वैदिक सिद्धांतों की पुनः स्थापना करने पर ही इस राष्ट्र की उन्नति सम्भव है, इसलिए वेदों के प्रचार व प्रसार के लिए उन्होंने आर्य समाज नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का कार्य था- ऐसे समाज की स्थापना करना, जिसके सभी सदस्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ चरित्र वाले हों। यह तो हम सभी मानते हैं कि हमारी संस्कृति का आधार वेद हैं। परन्तु, वस्तुतः अपने आपको सनातन-धर्मी कहलाने वाले हमारे भाई वेदों की शिक्षाओं से अवगत ही नहीं। लगभग पांच हजार वर्ष पहले हुए महाभारत के युद्ध में हमारी सभी वैदिक व्यवस्थाएं विलुप्त हो गईं और हम लोगों में अशिक्षा के कारण वेद-विरुद्ध धारणाएं फैल गईं। समाज के हर क्षेत्र में पाखण्ड और अन्ध-विश्वास का बोल-बाला हो गया और समाज में भ्रमयुक्त व गप्पयुक्त मान्यताओं वाले भिन्न-भिन्न मत-सम्प्रदाय पनप गए। इन सब बातों ने हमारी बुद्धि को कुण्ठित कर दिया व हम धार्मिक कृत्यों में बुद्धि का प्रयोग करना गलत मानने लगे। स्वामी जी ने धर्म को व्यवहार से जोड़ यह बताया कि अच्छे व बुरे व्यवहार में चुनाव करने के लिए तर्क का प्रयोग कितना आवश्यक होता है। 

स्वामी जी ने समझ लिया था कि समाज में फैले अनाचार का कारण ऋषियों के ग्रंथों का पठन-पाठन छूट जाना था। उनके वक्तव्यों में ऋषियों के विचारों का ही समावेश होता था। वेदोक्त मान्यताओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने  सत्यार्थ प्रकाश नामक कालजयी ग्रंथ की रचना की। स्वयं गुजराती होने के बावजूद स्वामी जी ने यह पुस्तक आर्य भाषा अर्थात हिन्दी में लिखी, ताकि उनके विचार अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकें। इस पुस्तक में लिखी हर बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्राचीन ऋषियों के ग्रंथों को आधार बनाया। इससे भारतीयों में अपने श्रेष्ठ पूर्वजों के प्रति गौरव की भावना विकसित हुई और हम हिन्दी व संस्कृत को सम्मान के साथ देखने लगे। यह पुस्तक स्वामी जी ने प्रश्न-उत्तर शैली में लिखी और हर असत्य मान्यता का तर्क से खण्डन किया। इसमें उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वैदिक धर्म ही वास्तव में मानव-धर्म है और यह पूर्णतया वैज्ञानिक है। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने इस देश में प्रचलित हो चुकीं असत्य मान्यताओं का तार्किक तरीके से खण्डन करने के साथ-साथ दूसरे देशों में जन्मे व इस देश में प्रचारित किए जाने वाले क्रिश्चियनिटी आदि सम्प्रदायों को अतार्किक सिद्ध किया। उस समय क्रिश्चियनिटी को मानने वाले अंग्रेजों का राज था, परन्तु वे सत्य को कहने व लिखने में बिल्कुल भी नहीं डरे। अपनी इस पुस्तक में, जहाँ स्वामी जी ने वास्तविक सनातन धर्म का स्वरूप हमें बताया, वहाँ उन्होंने हमें अपना प्रत्येक कर्म करने के लिए बुद्धि का प्रयोग अवश्यम्भावी बता दिया।

 इसके पश्चात स्वामी जी ने वेदों के सही भाष्य लिखने के विशाल कार्य करने का बीड़ा उठाया। वेदों के जो भाष्य उस समय उपलब्ध थे, उनके अनुसार वेद अत्यन्त अतार्किक व मूर्खों के अलाप से अधिक न थे, जिस कारण वेद पढ़े-लिखे लोगों के बीच अपना सम्मान खो चुके थे। इसी कारण वेद-विरुद्ध मान्यताएं हमारे समाज में छा सकीं। वेदों के भाष्य की भूमिका के रूप में उनके पास इतनी सामग्री थी कि उससे ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रंथ की रचना हो गई। सारे वेदों में मंत्रों की संख्या 20000 से अधिक है। इतने विशाल मंत्र-समूह के भाष्य की भूमिका का एक अलग से ग्रंथ का रूप ले लेना किसी भी तरह से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। इस ग्रंथ में स्वामी जी ने वेदों में वर्णित उन विद्याओं का उल्लेख किया है, जो उस समय सोची भी नहीं जा सकतीं थीं। यह ग्रंथ वेदों में उपलब्ध ज्ञान का सम्पूर्णता से बोध कराता है।  

यह कहा जा सकता है कि पिछले पांच हजार वर्षों में केवल और केवल स्वामी जी ही वेदों को जानते थे। सारे वेदों में एक ब्रह्म को ही व्याख्यायित किया गया है। वेद त्रैतवाद को मानते हैं, जबकि अन्य सम्मानित वेदों के विद्वानों ने इस तथ्य को सिरे से अस्वीकार कर दिया था।

क्योंकि, राजा के लिए अपना मत समाज में प्रचलित करना आसान होता है, इसलिए स्वामी जी ने समाज के उत्थान के लिए राजाओं को अपने विचारों से प्रभावित करने का रास्ता अपनाया। इसके साथ मिलती हुई एक समस्या यह भी थी कि हमारा देश परतन्त्र था और ऐसे में अपनी संस्कृति को पूरे तौर पर स्थापित करना असम्भव था। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की विफलता के पश्चात लोगों में स्वाधीनता की भूख शिथिल होनी प्रारम्भ हो गई थी। इसके लिए, उन्होंने अपने प्रवचनों व लेखों के माध्यम से लोगों को यह याद दिलाया कि यह देश उनका अपना है और यह भी बताया कि कोई कितना भी करे,  स्वराज सर्वोत्तम होता है। यदि, आज प्रमुख दस स्वतंत्रता-सैनानियों की बात की जाए, तो वह सभी स्वामी जी के इन्हीं विचारों से प्रभावित थे। इतिहास गवाह है कि लगभग 80 % स्वतंत्रता-सैनानी स्वामी जी के साहित्य आदि से प्रेरणा पाकर ही इस ओर आए थे।

59 वर्ष की आयु में स्वामी जी को मार दिया गया। परन्तु, देह त्याग से पहले उन्होंने लगभग 60 % वेदों का भाष्य कर दिया था, जो अभूतपूर्व है। इस भाष्य की विद्यमानता में ही यह विचार लोगों में घर कर पाया है कि वेदों को आत्मसात करने के पश्चात ही मनुष्य-ध्येय को प्राप्त किया जा सकता है।

इन सभी योगदानों के कारण ही स्वामी जी को महर्षि कहा जाता है। आज, महर्षि हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु यह हमारा दायित्व है कि हम अपनी क्षमता के अनुसार उनके विचारों को अपने आचरण में लाकर अधिक से अधिक प्रसारित करें, ताकि सभी मनुष्य सुखपूर्वक रह सकें।

उन्होंने अपने जीवन से यह स्पष्ट रूप में दिखा दिया कि सच्चे सन्यासी संसार के लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं। उन्होंने अपने जीवन से सन्यासाश्रम का गौरव बढ़ा दिया।

ऋषिवर! तू धन्य है! आधुनिक भारत को गर्व है कि उसने अपने पतन काल में भी तुझ जैसे ऋषि को जन्म देकर प्राचीन भारत के उत्कर्ष की झलक दिखा दी। ऋषि दयानन्द का देह इस संसार से विदा हो चुका है, परन्तु उनके ग्रंथ अब भी संसार को सत्य मार्ग दिखा रहे हैं।