हमारी सनातन संस्कृति का आधार वेद क्यों?
वेदों की सार्थकता– परमपिता परमेश्वर ने सभी प्राणियों को इन्द्रियां आदि अवयव देने से पहले उनके विषयों की रचना कर दी। जैसे ऑंखें देने से पहले उस दयालु ईश्वर ने आँखों की देखने की शक्ति को सार्थक करने के लिए प्रकाशपुंज सूर्य व रूप वाली वस्तुओं का निर्माण कर दिया। केवल रूप वाली वस्तुओं का निर्माण ही आँखों को सार्थक नहीं करता, आँखों को देखने के लिए पर्याप्त प्रकाश की भी आवश्यकता है। ठीक उसी तरह, ईश्वर ने हमारी सोचने की शक्ति बुद्धि को सार्थक करने के लिए ज्ञान के प्रकाश यानि वेदों को सृष्टि के आदि में प्रकट किया।
वैसे तो वेद एक ही होता है, परन्तु भिन्न-भिन्न विषयों को प्रकाशित करने के कारण वेदरूपी ज्ञान के चार विभाग प्रसिद्ध हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद को ज्ञान-काण्ड, यजुर्वेद को कर्म-काण्ड, सामवेद को उपासना-काण्ड व अथर्ववेद को विज्ञान-काण्ड कहा जाता है। विज्ञान का अर्थ होता है- विशेष ज्ञान अर्थात ज्ञान का व्यवहारिक पहलू।
किसी ज्ञान को ईश्वरीय ज्ञान मानने की कसौटियां –
पहली कसौटी – क्योंकि, वेद सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य को दिए गए, इसलिए इनमें मनुष्यों का इतिहास नहीं हो सकता। परन्तु, ऐसा ग्रंथ तो अब भी रचा जा सकता है, जिसमें कि अच्छी-अच्छी बातें वर्णित हों और किसी तरह का मनुष्यों का इतिहास न हो। इसका अर्थ हुआ कि किसी ग्रंथ को ईश्वरीय संविधान मानने के लिए इसके अतिरिक्त उस ग्रंथ में कोई ओर भी विशेषता होनी चाहिए। दूसरी कसौटी – वह ग्रंथ विश्व की प्रचीनतम भाषा में लिखा हुआ होना चाहिए और वह भाषा विश्व की अन्य भाषाओं की जननी होनी चाहिए। ईश्वरीय संविधान की तीसरी कसौटी – क्योंकि व्यक्ति को अपना जीवन चलाने के लिए यह पता होना चाहिए कि सृष्टि में पाई जाने वाली सम्पदा का प्रयोग क्या है?, अनाज कैसे उत्पन्न किया जाता है?, विज्ञान क्या होता है?, ललित कलाएं क्या होती हैं? आदि आदि, इसलिए इन सब बातों का समावेश ईश्वरीय संविधान कहे जा सकने वाले ग्रंथ में अवश्य होना चाहिए। इन सबके साथ उस ग्रंथ में मानव-जीवन का अंतिम लक्ष्य व उसे प्राप्त करने का तरीका भी उल्लेखित होना चाहिए। चौथी कसौटी – क्योंकि सृष्टि की निर्मात्री व वेद ज्ञान को देने वाली एक ही सत्ता है, इसलिए वेद में लिखी किसी भी बात का, चाहे वह सूर्य के बारे में हो या किसी अन्य वस्तु के बारे में, सृष्टि की वस्तुओं से विरोध नहीं हो सकता। पांचवीं कसौटी – वेद में लिखी हर बात तार्किक होनी चाहिए।
वेद क्या हैं? – मनुष्य के अल्पज्ञ, अर्थात थोड़ा जानने वाला होने के कारण किसी विषय पर उसके विचारों को अन्तिम नहीं माना जा सकता, इसलिए किसी विषय पर अगर, किसी के विचारों को अन्तिम माना जा सकता है, तो, वह केवल सर्वज्ञ अर्थात सब कुछ जानने वाला ही हो सकता है। हम कह आए हैं कि वेदों का ज्ञान हर विषय पर अन्तिम ज्ञान है, जिसमें कोई भी बदलाव सम्भव नहीं। आजकल के विज्ञान के अनुसार कोई भी बात निश्चित नहीं। शोध के आधार पर किसी भी विचार में कभी भी परिवर्तन हो सकता है, लेकिन वेद किसी विषय पर अंतिम सत्य बतलाता है।
हम क्यों मानें कि वेदों का रचयिता ईश्वर ही है? – वेदों में निहित ज्ञान, किन्हीं व्यक्तियों के विचार नहीं, बल्कि, ईश्वरीय ज्ञान है। इस बात को निम्नलिखित तर्कों से सिद्ध किया जा सकता है।
- अगर हम किसी टैक्निकल चीज़ को खरीदते हैं, तो निर्माता की तरफ से हमें एक booklet दी जाती है, जिसमें उस चीज़ के प्रयोग आदि की विधि लिखी होती है। यदि, कम्पयूटर जैसी साधारण वस्तु के खरीददार को निर्माता द्वारा उसके उचित प्रयोग के लिए आवश्यक ज्ञान अर्थात दिशा – निर्देश न देना असामान्य है, तो, यह आवश्यक है कि सृष्टि जैसी उत्कृष्ट कृति के निर्माता द्वारा सृष्टि के उचित उपयोग के लिए, सृष्टि के आरम्भ में आवश्यक ज्ञान अर्थात दिशा-निर्देश दिया गया। क्योंकि, वेद-ज्ञान का लाभ प्राणी को मानव योनि में ही हो सकता है, इसलिए सृष्टि के आरम्भ का अर्थ यहां, मानव का इस सृष्टि में आगमन लिया गया है। यह ज्ञान ईश्वर ने कुछ ऋषियों की आत्माओं में प्रकाशित किया। यह ज्ञान ही वेद है। ‘वेद’ शब्द का शाब्दिक अर्थ भी ज्ञान ही है। यह ज्ञान अब वेद नाम की पुस्तकों में संजो लिया गया है।
- मनुष्य अल्पज्ञ है, इसलिए, उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं में समय के साथ-साथ सुधार होता रहता है। व्यक्ति द्वारा निर्मित किसी भी वस्तु को उसकी अन्तिम अवस्था (final stage) नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ, हम मनुष्य द्वारा निर्मित computer, mobile आदि को देख सकते हैं। पिछले 10-15 वर्षों में ये दोनों लगातार परिष्कृत होकर भिन्न- भिन्न अवस्थाओं से गुज़रे हैं। इसके विपरीत, ईश्वर, जो सर्वज्ञ है, द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु पूर्णता को प्राप्त किए हुए होती है, अर्थात उनमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। उदाहरणार्थ, हम अपने शरीर को ही देखें। इसकी रचना में हम किसी भी तरह की अपूर्णता अथवा त्रुटि नहीं ढूंढ सकते। वेद में कही किसी भी बात को, आज तक, अन्यथा सिद्ध नहीं किया जा सका है।
- ज्ञान की परम्परा पुरानी है, और यह दूसरों से प्राप्त होता है। आजतक एक भी अनपढ़ व्यक्ति ने कोई भी वैज्ञानिक खोज नहीं की है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बिना शिक्षक के ज्ञान प्राप्त हो ही नहीं सकता। हम अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त करते हैं। गुरु ने अपने गुरु से, और उन्होंने भी अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त किया। पीछे चलते जाने पर अन्त में प्रश्न होता है कि, सृष्टि के प्रारम्भ में ज्ञान किससे प्राप्त होता है। तब, सभी शास्त्रों का एक ही उत्तर है, कि, वह परमात्मा ही गुरुओं का गुरु है। उसी ने सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए ज्ञान दिया है, जिससे व्यक्ति संसार को, अपने-आपको और परमात्मा को जान सके। संसार क्या है? संसार में परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ कैसे बर्तना है? मनुष्य के इन सबके प्रति कर्तव्य कर्म क्या हैं? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मैं क्या लेकर आया था? मुझे क्या लेकर जाना है? मेरा संसार में आने का उद्देश्य क्या है? यह संसार कहां से आ गया? संसार के इस सृष्टा का स्वरूप क्या है? इसकी उपासना क्यों करें? कहाँ करें? किसलिए करें? आदि प्रश्नों के उत्तर वेदों में हैं।
4. मनुष्य से निचले स्तर के जितने भी पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि प्राणी हैं, उनके लिए ऊपर दिए प्रश्नों के कोई मायने नहीं। उन्हें अपना जीवन जीने के लिए ज्ञान जन्म से ही प्राप्त हो जाता है, जैसे कि मधुमक्खी को शहद बनाने की प्रक्रिया सिखाने की जरूरत नहीं होती। यदि, पशु-पक्षी आदि को, जो बहुत कम ही नया सीख पाते हैं, अपना जीवन जीने के लिए ज्ञान ईश्वर उनके जन्म के साथ ही दे देता है, तो, मनुष्य को, जो केवल सिखाने पर ही सीखता है, को उसके सीखने योग्य ज्ञान को सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा देना मानना किसी भी तरह अनुचित नहीं है।
5. वेद की शिक्षाएं, केवल, किसी देश, काल, लिंग, जाति या समूह विशेष के लिए ही उपयोगी नहीं है। इनकी उपयोगिता प्राणी मात्र के लिए सार्वकालिक व सार्वदेशिक है। यदि कोई शंका करे, तो, वह वेद-मन्त्रों के अभिप्राय को देखें और समझें, जिनमें आस्तिक्ता, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, विश्व-मैत्री, परस्पर की सदभावना, व्रत पालन जैसे भावों का संकलन है।
6. रचना में रचयिता के गुण कर्म, और स्वभाव प्रतिबिम्बित होते हैं। वेदों में पाई जाने वाली कोई भी बात, ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के विपरीत नहीं है।
किसी विषय के समर्थन व विरोध में वेद में कही बातें व वेदों के अनुरूप ऋषियों के वचन शब्द-प्रमाण माने जाते हैं।
वेद-मन्त्रों के अर्थों को जानने, समझने व कार्यान्वित करने की महत्ता को बयान करना मुश्किल है। वेद मंत्रों के सही उच्चारण की भी विशेष सार्थकता है। परन्तु, अर्थों को छोड़, वेद-मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण से हमें इस ज्ञान के सही तात्पर्य का पता नहीं चल सकता।
वेदों को पढ़ने की क्या आवश्यकता है? – ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अन्धकार दूर होता है। अज्ञान ही दुखों का कारण है। जितना जितना, हम ज्ञान को अर्जित करते जाते हैं, उतना उतना, हमारे दुखों में कमी आती जाती है। जिन परिस्थितियों के कारण हमें दुख होता है‚ ज्ञान उन परिस्थितियों में कमी नहीं लाता बल्कि, हमारे अन्दर ऐसा प्रकाश भर देता है, कि, हमें हमारी इच्छा के विरुद्ध परिस्थितियों के रहने पर भी दुख की अनुभूति नहीं होती । ईश्वर प्रदत्त वेद सच्चे ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। यदि, हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमारे पास वेदों को पढ़ने के इलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।
आमतौर पर यह कहा जाता है कि माना कि वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है, लेकिन जिस किसी को शौक होगा अथवा जो कोई इस बात की आवश्यकता समझेगा कि वेदों को पढ़ना चाहिए, वो पढ़ लेगा, इसके पढ़ने पर हठ क्यों जताना? यह ठीक है कि सब कर्म करने में स्वतन्त्र हैं। जो वेदों को पढ़ना चाहे, वह पढ़े और जो न पढ़ना चाहे, वह न पढ़े। परन्तु, वेदों के पढ़ने पर आर्य समाज के बल देने का कारण वेदों को पढ़ने की आवश्यकता है। यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि महाभारत काल के बाद वेद-ज्ञान विस्मृत ही होता गया है। वेद पढ़ना-पढ़ाना तो दूर आज शिक्षित हिन्दुओं के घरों से भी वेद विलुप्त हो चुके हैं। न जाने कितने लोगों के लिए तुलसी कृत रामायण ही (बाल्मीकि कृत भी नहीं) सबसे बड़ा प्रमाणिक धर्म-ग्रंथ है। हिन्दुओं का बहुत बड़ा वर्ग यह भी नहीं जानता कि भगवद्गीता के सिवाय हिन्दुओं का कोई ओर भी प्रमाणिक ग्रंथ है। वेदों को भुलाने का ही यह परिणाम है कि आज वेदों के स्थान पर अनेक अनार्ष एवं मिथ्या ग्रंथों का पठन-पाठन एवम उन्हीं का प्रचार-प्रसार बड़े जोरों-शोरों से पूरे हिन्दू जगत में किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप नाना प्रकार के मिथ्या मत, पन्थ एवम सम्प्रदाय इस देश में फल-फूल रहे हैं। आज देश में पुराणों की कथाएं होती तो जगह-जगह देखी जा सकती हैं, परन्तु वेद-कथाएं केवल और केवल आर्य समाज के परिसरों में ही होती हैं।
-कुछ लोगों का मानना है कि सत्य बातों को जानने के लिए वेद पर ही क्यों आश्रित हुआ जाए? जो जो बातें, जिस जिस मनुष्य की अच्छी लगें, उन्हें अपनाते जाइए। इस बात पर सूक्ष्मता से विचार करना आवश्यक है। यह सभी मानते हैं कि कोई भी मनुष्य पूर्ण नहीं। जब सम्भावना है कि मनुष्य के ज्ञान में न्यूनता हो सकती है, तो ईश्वर, जो कि पूर्ण है के शब्दों को छोड़कर, किसी मनुष्य के शब्दों का आश्रय लेना कैसे ठीक है? उसके पश्चात, ग्रहणकर्ता भी अपनी अपूर्णता के कारण किसी ठीक चीज को छोड़ सकता है और किसी गलत चीज को अपना सकता है। यदि हमें सौ प्रतिशत सत्य ही स्वीकार्य है, तो हम सभी को वेद की शरण में आना ही पड़ेगा।
– एक और धारणा है कि व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है, तो एक ही बात सभी पर क्यों थोपी जाए। हर व्यक्ति का अपना अपना सत्य हो सकता है। सभी लोगों को लता मंगेशकर की आवाज ही क्यों पसंद आए? कोई आशा भोंसले की आवाज को भी पसंद कर सकता है। ठीक। लेकिन लता मंगेशकर और आशा भोंसले के संगीत के नियमों में कोई भिन्नता नहीं हो सकती। इस बात को एक ओर उदाहरण से समझने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए, एक व्यक्ति ने लाल रंग की कमीज पहनी हुई है। अब दूसरों को सत्य बोलने के लिए यह मानना पड़ेगा कि अमुक व्यक्ति ने लाल रंग की कमीज पहनी हुई है। ऐसा कहने से, उस की कर्म करने की स्वतंत्रता छिन्न नहीं गई। वह कमीज का रंग बताने से इंकार भी कर सकता है और वह कमीज का रंग लाल की बजाए कोई ओर भी बता सकता है, लेकिन हम तभी उसके कहे को सत्य कहेंगे, जब वह कमीज को लाल रंग की कहेगा, अन्यथा उसे झूठा आदि कहा जाएगा। सत्य सभी के लिए एक ही होता है। सत्य, असत्य, न्याय, अन्याय आदि का निर्धारण ईश्वर द्वारा होता है और वह उनका ज्ञान वेद के माध्यम से हमें सुलभ करा देता है। मनुष्य केवल उस निर्धारित सत्य को जानता है। उस सत्य को जानकर उस के अनुरूप आचरण करने से ही मनुष्य की उन्नति सम्भव है।
-हमारे पूर्वजों की वेद के प्रति अगाध श्रद्धा थी। तो क्या हममें भी वेद के प्रति अगाध श्रद्धा होनी चाहिए? यदि हाँ, तो यह अन्ध-श्रद्धा नहीं होगी? हमें संशय, तर्क और श्रद्धा में भेद समझ लेना चाहिए। जब हम समझते हैं कि कोई विचार ठीक भी हो सकता और नहीं भी, तो ऐसे ज्ञान को हम संशयात्मक कहते हैं। सत्य तक पहुँचने के लिए जिस प्रक्रिया (विचार तारतम्य) का प्रयोग किया जाता है, उसे तर्क कहते हैं। इस प्रक्रिया के प्रयोग से जो सत्य का निर्धारण होता है व जब उस विश्वास पर दृढ़ता आती है, उसे श्रद्धा कहा जाता है। जो विश्वास इस प्रक्रिया से न गुजरा हो, उसे अन्ध-विश्वास कहा जाता है। वेदों के प्रति श्रद्धा होने के लिए आवश्यक है कि उसे हम तर्क से गुजारें।
-किसी भी चीज पर, तब तक विश्वास नहीं करना चाहिए, जब तक कि उसे अपने विवेक से परख न लिया जाए। वेद के 20000 से ज्यादा मन्त्र हैं। उनको विवेक से परखने का क्या तरीका है? वेद के 10, 20, 100, 1000 आदि मन्त्रों का अवलोकन करें। परखने के लिए निर्धारित मन्त्रों की संख्या तब तक बढ़ाते जाएं, जब तक वेद की सत्यता पर आपके मन में किसी भी तरह का संशय है। यहॉँ, हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि जो व्यक्ति संशय ही करता रहता है व किसी बात पर निश्चित नहीं हो पाता, वह विनाश को प्राप्त हो जाता है। वेदों की भाषा संस्कृत नहीं, वैदिक संस्कृत है। हमारा दुर्भाग्य रहा है कि ऋषि दयानन्द से पहले जितने भी लोगों के वेदों के भाष्य उपलब्ध होते हैं, वो संस्कृत के विद्वान थे, वैदिक संस्कृत के नहीं। सारे विश्व में आर्य समाज ही एक ऐसी संस्था है, जो वेदों के प्रचार व प्रसार में प्रयासरत है। इसलिए केवल आर्य समाज के किसी विद्वान द्वारा किए गए वेद-मंत्रों के भाष्य को ही देखें।
क्या सारा ज्ञान वेदों में है?– वेदों का रचयिता ज्ञानस्वरूप ईश्वर है। उसने आत्माओं को उनके अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक सारा ज्ञान वेदों में दे रखा है। ज्ञान को आत्माएं भी उत्पन्न करती हैं। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि सारे का सारा ज्ञान वेदों में वर्णित है। कम्प्यूटर आदि का अविष्कार कर व्यक्ति भी ज्ञान को उत्पन्न करते हैं। परन्तु, व्यक्ति के हर तरह के ज्ञान का स्रोत तो उसकी इन्द्रियाँ और बुद्धि हैं और उनको देने वाला परमपिता परमेश्वर ही है। व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न सारा ज्ञान वेदों में बीजरूप में तो विद्यमान है, परन्तु ज्ञान के उस बीज को वृक्षाकार करना व्यक्तियों के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए यह तो वेदों में वर्णित है कि बिजली के बहुत से उपयोग हैं, परन्तु बिजली से चलने वाले पंखों आदि का निर्माण तो व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ का फल है।
वेदों को नित्य मानने में क्या औचित्य है?– आधुनिक विज्ञान का एक मूलभूत नियम है कि कोई भी पदार्थ मूलतः नष्ट नहीं होता, बल्कि केवल रूपांतरित होता है- जैसे जल नामक पदार्थ आग के सम्पर्क में आने पर भाप के रूप में केवल रूपांतरित हो जाता है और ‘जल’ कभी नष्ट नहीं होता आदि आदि। आधुनिक विज्ञान के इस मूलभूत नियम का विस्तार ज्ञान के क्षेत्र में भी होना चाहिए। जैसे पदार्थों के संदर्भ में कभी भी ऐसा नहीं होता कि कोई पदार्थ हो ही न और वो उत्पन्न हो जाए, वैसे ही ज्ञान के संदर्भ में भी कभी भी ऐसा नहीं होता कि कोई ज्ञान हो ही न और वो उत्पन्न हो जाए। ज्ञान कभी भी अभाव से उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य द्वारा किया गया हर अविष्कार, चाहे वह टेलीफोन हो या कम्पयूटर आदि पहले से विद्यमान सृष्टि नियमों पर ही आधारित है। हमें यह मानना ही पड़ता है कि ज्ञान का मूल स्रोत सर्वदा विद्यमान रहता है। ज्ञान के मूल स्रोत को ही वेद कहा जाता है।