सामान्य ज्ञान (बुनियादी)

– आइए, एक हैरान करने वाली बात जानते हैं। भौतिक विज्ञान से संबंधित विषय पर हर कोई भौतिक-विज्ञानी के दृष्टिकोण को सुनना पसंद करेगा, इसी प्रकार खगोल विज्ञान से संबंधित विषय पर, हर कोई एक खगोलशास्त्री के विचार को सुनना पसंद करेगा और उनके विचारों को ही वजन देगा। लेकिन, अगर विषय ईश्वर है, तो हर कोई खुद को उस विषय का जानकार मानता है और चाहता है कि दूसरे उसके विचारों को महत्व दें। लेकिन, इस विषय पर, केवल उन्हीं व्यक्तियों के विचारों को महत्व दिया जाना चाहिए, जो स्वयं इस पथ पर चले हों या इस पथ के पथिकों के विचारों को प्रचारित कर रहे हों।

– आज, हम किसी कार्य को करने में कुछ विशेष व्यक्तियों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। ऐसे व्यक्ति हमारे धार्मिक शिक्षक, हमारे रिश्तेदार या हमारे माता-पिता हो सकते हैं। हम तर्क का उपयोग किए बिना, आँख मूंद कर उनका अनुसरण करते हैं। ऐसा करने का कारण हमारा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होना होता है।

 – बहुत से विषयों को प्रत्यक्ष से जाँचने की हमारी योग्यता नहीं होती। ऐसे विषयों को जानने में शब्द प्रमाण अर्थात आप्त पुरुषों व ईश्वर द्वारा कहे व लिखे शब्द बहुत लाभदायक होते हैं। मुख्यतः शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत वेदों के शब्द ही आते हैं, परन्तु  शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत उन व्यक्तियों के वचनों को भी ले लिया जाता है, जिनका व्यवहार पूर्णतः वेदों के अनुरूप होता है। आज वेदों के बहुत कम विद्वान हैं। इससे हमें यह जानने में व्यावहारिक कठिनाई होती है कि आज के तथाकथित महापुरुषों के वचन वेदों के अनुरूप हैं या नहीं। इस कारण,  शब्द-प्रमाण के अत्याधिक लाभों के बावजूद, हमें कुछ समय के लिए इन्हें निलंबित कर देना चाहिए और केवल तर्क पर ही निर्भर रहना चाहिए।

– कुछ ऐसी बातें हो सकती हैं, जिनका उत्तर हम अपनी बुद्धि के वर्त्तमान स्तर से नहीं दे सकते। इसके लिए हमें अपनी बुद्धि के स्तर को ऊपर उठाना होगा। तब तक उन अनुत्तरित बातों को निलंबित रखा जाना चाहिए। एक उदाहरण से इसे समझते हैं। जब एक जादूगर अपना खेल दिखा रहा होता है, तो हम पूरी तरह से उसके सभी कृत्यों को सच मानते हैं, लेकिन, हमारे दिल में यह दृढ़ विश्वास व धारणा होती है कि जादूगर ने जो कुछ भी दिखाया है, वह असत्य है, हालांकि, हम उसके ट्रिक्स की व्याख्या नहीं कर सकते। ऐसे विश्वास व धारणा का आधार है, हमारा बिना किसी संदेह के सिद्धांतों को जानना कि अभाव से भाव का सृजन नहीं हो सकता, इंसानों या जानवरों के बढ़ने में समय लगता है, मृत प्राणी को जीवित नहीं किया जा सकता आदि आदि। इसी तरह, अगर हम आध्यात्मिक सिद्धांतों को जानें कि योग क्या है?, कर्म सिद्धांत क्या है?, प्रार्थना क्या है? आदि आदि, तो, हम आसानी से जान सकते हैं कि क्या सत्य है और क्या असत्य।

– क्या सही है और क्या गलत, यह जानने का एक आसान तरीका है। इस देश में रहने वाले अधिकांश लोगों के मन में श्री ‘राम’ के चरित्र के प्रति बहुत सम्मान है, जो लगभग दस लाख वर्ष पहले इस देश में हुए थे। हमें उनके विचारों और कर्मों को जानकर,  सब कुछ श्री राम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करना चाहिए। अपने आस-पास की सभी बातों को जांचने का यह एक वैज्ञानिक मापदंड है। लेकिन, श्री राम के चरित्र को महर्षि बाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण के माध्यम से ही जानना चाहिए,  क्योंकि केवल ऋषियों या महर्षियों के कार्य ही विश्वसनीय हैं। महर्षि बाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण को पढ़ते समय हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि आज मिलने वाली बाल्मीकि-रामायण में अनेक मिलावटें हैं। 

– चलना तभी संभव है, जब हम अपने पिछले पैर को उठाकर उसे अपने सामने मजबूती से रखें। इसी तरह, हम प्रगति तभी कर सकते हैं, जब हम अपने झूठे विश्वासों को छोड़कर सच्चाई को दृढ़ता से स्वीकार करें। सत्य के बारे में निर्णय लेने के लिए हमें अपने विवेक का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए। उसके लिए, हमें वेदों व ऋषियों (जिनका व्यवहार पूर्णतया वेदानुकूल था) के कार्यों के कुछ पन्नों का प्रतिदिन अध्ययन करना चाहिए, ताकि हम अपने विवेक के स्तर को बढ़ा सकें।

– अगर हमारे आसपास के लोग उनके कहे रास्ते पर न चलने पर हमें नुकसान पहुंचाने को उत्सुक हों, तो हमारे सही रास्ते पर चलने का क्या फायदा? यह प्रश्न सामान्यतः किया जाता है। इसका उत्तर दिया जाना आवश्यक है। हमारा जीवन केवल 90 -100 वर्षों का नहीं है, बल्कि यह एक चक्र की तरह अनंत है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे कर्म अर्थात् हमारा सही या गलत मार्ग पर चलना ही हमारे अगले जन्म के शरीर व मन को निर्धारित करते हैं।

– बेईमानी व छल से धन अर्जित करने का सामान्यतः यह तर्क दिया जाता है कि ‘यदि हम धन अर्जित करने के लिए गलत तरीके नहीं अपनाते हैं, तो व्यवस्था ऐसी है कि गलत काम तो होगा ही, उसे कोई दूसरा व्यक्ति करेगा। अगर हम धन अर्जित करने के गलत तरीकों को नहीं रोक सकते, तो क्यों न हम व्यवस्था की सच्चाई को स्वीकार कर लें?’ इसके उत्तर में, दो आध्यात्मिक नियमों का उल्लेख किया जा रहा है। प्रथम, सभी को अपने बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। दूसरा, इस शरीर को जीवित रखने के लिए संचित धन को उचित साधनों से ही अर्जित करना चाहिए, अन्यथा, हम अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहेंगे। इस कारण, हमें अपने मन के अधार्मिकता की ओर ढकेलने वाले तर्कों का शिकार नहीं होना चाहिए। इस बात को समझने के लिए भी हमारा विवेक बहुत ऊंचे स्तर का होना चाहिए।

– हमारे समाज में बड़ी संख्या में लोग कुछ व्यक्तियों द्वारा स्थापित सम्प्रदायों की आध्यात्मिक गतिविधियों का अनुसरण कर रहे हैं। लेकिन, इसके बावजूद हमारे देश में रहने वाले लोगों की खुशी का स्तर दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है। इसके पीछे प्रमुख कारण यह धारणा है कि आध्यात्मिकता का अन्य लोगों, जिनमें हमारे परिवार के सदस्य, हमारे दोस्त, हमारे सहयोगी, हमारे पड़ोसी आदि शामिल हैं, के साथ हमारे व्यवहार का कोई सरोकार नहीं है। ऐसे लोगों को यह महसूस करना चाहिए कि उनकी तथाकथित आध्यात्मिक खोज तब तक फल नहीं देगी, जब तक कि वे अपने अच्छे व्यवहार की सुगंध अपने समाज में नहीं फैलाते। इस तरह की सुगंध फैलाने के लिए उन्हें दो काम करने होते हैं:

(i) अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करना और उनका समर्थन करना।

(ii) दूसरों को समाज के लिए अहितकारी रास्ते पर जाने से रोकना और ऐसे लोगों के साथ यथायोग्य व्यवहार करना।

इसके अलावा, किसी भी आध्यात्मिक सिद्धान्त पर, विभिन्न धार्मिक संप्रदाय एक मत नहीं रखते। इसका कारण यह है कि किसी विशेष विषय पर उनकी एकमतता से संप्रदाय, जिसे किसी व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया है, के अस्तित्व को ही खतरा हो सकता है।

-सूर्य अपने काम से नहीं कतराता। हमें भी अपने काम से नहीं कतराना चाहिए। सूर्य से प्रेरणा लेकर हमें अपने सभी कार्य निरंतरता से करते रहना चाहिए और ज्ञान से अज्ञान के अंधकार को दूर कर देना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हम पहले स्वयं को ज्ञानवान बनाएं।

– ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ केवल ‘हवन’ नहीं है, बल्कि, यह पूर्ण ज्ञान के साथ दूसरों के कल्याण के लिए किए गए सभी कार्यों को संदर्भित करता है। ‘हवन’ का अर्थ ‘यज्ञ’ केवल प्रतीकात्मक रूप से ही है। एक अच्छी चीज जो हम हवन से सीखते हैं, वह है, जो कुछ भी हमारे पास है, उसे दूसरों के कल्याण के लिए देना और वह भी आनंद के साथ। अगर कोई डॉक्टर अपने मरीजों के स्वास्थ्य के लिए अपने पूर्ण ज्ञान के साथ कोशिश कर रहा है, तो वह ‘यज्ञ’ कर रहा है। इसी प्रकार यदि कोई शिक्षक अपने द्वारा अर्जित पूर्ण ज्ञान को अपने शिष्यों में बांट रहा है, तो ‘यज्ञ’ कर रहा है।   यहाँ अपने कर्मों को यज्ञ में बदलने के लिए हमें ‘दूसरों के कल्याण’ का अर्थ जानना होगा। यदि सभी लोग अपने कार्यों को यज्ञ की श्रेणी में लाने में सफल हो जाते हैं, तो दुख की कोई सम्भावना ही नहीं रहती।

 

– हमारे सभी दुखों का मूल कारण है- हमारा ईश्वर के वास्तविक स्वरूप और गुणों को न जानना। ईश्वर का ज्ञान होने पर व्यक्ति दुखों से प्रभावित हुए बिना, दुख से आगे बढ़ने में सक्षम हो जाता है। ईश्वर व उसके शाश्वत सिद्धांतों का ज्ञान होने के कारण, महान स्वतंत्रता सेनानी मृत्यु को बिना किसी दुख के गले लगाने में सक्षम हुए। मनुष्य को जितना अधिक ईश्वर का ज्ञान होगा, उतना ही वह अपने जीवन के दुखों को मुस्कुराते हुए स्वीकार कर पाएगा।

– एक धारणा है कि यदि कोई व्यक्ति किसी का बुरा नहीं करता, तो वह पुण्य अर्जित कर लेता है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। आइए, अब यह समझते हैं कि यह धारणा गलत कैसे है? पुण्य तभी अर्जित होता है, जब हम कोई बुरा कार्य करना बंद कर देते हैं और तुरंत एक अच्छा कार्य कर लेते हैं। केवल ‘बुरा कार्य न करने’ का अर्थ स्वतः ही एक अच्छा कार्य करना नहीं है। कुछ उदाहरण लें:

1 यदि हम चंडीगढ़ से दिल्ली जाना चाहते हैं, तो हमारा शिमला जाने वाली बस में न चढ़ना हमारे दिल्ली जाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं है। दिल्ली जाने के लिए एक तो हमें शिमला जाने वाली बस में नहीं चढ़ना चाहिए और दूसरे दिल्ली जाने वाली बस में चढ़ना भी चाहिए।

2 यदि कोई छात्र यह सोचकर खेलने नहीं जाता है कि उसे अपना गृहकार्य करना है, तो इसका स्वतः यह अर्थ नहीं है कि उसने अपना गृहकार्य करने के लिए पर्याप्त पुरुषार्थ कर लिया है। खेलने जाने से परहेज करने के साथ-साथ उसे अपना गृहकार्य भी करना चाहिए।

आइए, अब हम इस सिद्धांत का विस्तार करके किसी अन्य निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। यदि कोई व्यक्ति  ईश्वर, आत्मा और अपने आस-पास की प्रकृति के बारे में जानने के लिए प्रयत्न नहीं करता, तो उसके इस कार्य को पुण्य नहीं कहा जा सकता, भले ही वह दूसरों का बुरा न करता हो।

-ईश्वर में विश्वास करने का अर्थ है, वह करना जो ईश्वर ने करने का निर्देश दिया है और वह न करना जिसे करने से ईश्वर ने मना किया है। ईश्वर ने मनुष्य को अन्य प्राणियों से प्रेम करने, सत्य बोलने, न्याय करने वगैरह का निर्देश दिया है और घृणा करने, दूसरों को मूर्ख बनाने, अन्याय करने, मानवता की हानि आदि करने से मना किया है।

-यदि किसी वस्तु में अच्छी व बुरी बातें इस तरह मिली हुई हों कि हम उसकी अच्छी बातों को बुरी बातों से अलग नहीं कर सकते, तो हमें उस पूरी चीज को ही त्याग देना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि बहुत पौष्टिक भोजन में जहर मिला हुआ हो, तो हम उसके पोषक तत्वों के बारे में सोचे बिना पूरे भोजन को ही त्याग देते हैं।

– आज के समाज में, अधिकांश लोगों की मान्यताएं सत्य के विपरीत होने के कारण यदि कोई व्यक्ति सही दृष्टिकोण रखता है, तो वह अलग-थलग पड़ जाता है। क्योंकि, व्यक्ति को अपने दिन-प्रतिदिन के कार्य में समाज की सहायता की आवश्यकता होती है, इसलिए व्यक्ति के लिए समाज में सत्य का आग्रही होना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए, जब तक उसमें समाज की उदासीनता की परवाह किए बिना सच्चाई पर आरूढ़ रहने की आंतरिक शक्ति जमा नहीं हो जाती, तब तक उसे केवल शारीरिक रूप से ही समाज की मान्यताओं के साथ आगे बढ़ना होता है। उसे मानसिक रूप से समाज की गलत मान्यताओं का साथ नहीं देना होता है। उसे हर संभव अवसर पर अपनी क्षमता के अनुसार समाज के दबावों को झेलते हुए अपने मन के अनुसार चलना चाहिए। इस तरह धीरे-धीरे उसकी समाज की मान्यताओं के खिलाफ जाने की क्षमता बढ़ जाती है।

-यदि कोई व्यक्ति कोई भाषा सीखना चाहता है, तो वह उस भाषा के सभी वाक्य याद नहीं करता, बल्कि, वह उस प्रणाली को समझता है, जिसके द्वारा उस भाषा में वाक्य बनाए जाते हैं। इसी तरह, यदि कोई ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे सभी अच्छे कार्यों और सभी बुरे कार्यों को याद रखने की आवश्यकता नहीं, बल्कि उसे उस प्रणाली को समझना होता है, जिसके द्वारा किसी कार्य को अच्छे या बुरे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। तभी उसे ईश्वर प्राप्ति की दिशा में प्रगति करता हुआ कहा जा सकता है। उस प्रणाली का ज्ञान, जिसके द्वारा किसी कार्य को अच्छे या बुरे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, उसे अपने आप नहीं होता, बल्कि, उसे अर्जित करना होता है। जो व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति की बात तो करता है और अपनी पूरी ऊर्जा अच्छे कार्यों और बुरे कार्यों को याद करने में लगाता है, परन्तु उस प्रणाली को समझने की कोशिश नहीं करता, जिसके द्वारा किसी कार्य को अच्छे या बुरे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, वह बिल्कुल भी बुद्धिमान नहीं है। अन्यों के द्वारा भी ऐसे व्यक्ति के प्रति यथायोग्य व्यवहार ही करना चाहिए।

-लोगों में एक आम धारणा है कि दूसरों की आलोचना नहीं करनी चाहिए, बल्कि दूसरों की आलोचना किए बिना अपने विचारों को फैलाना चाहिए। लेकिन, कभी-कभी अपने सकारात्मक विचारों को फैलाने के लिए आलोचना आवश्यक होती है। शर्त यह है कि आलोचना दूसरों के कल्याण के लिए होनी चाहिए। इसे एक उदाहरण की मदद से समझते हैं। मान लीजिए, एक बच्चा पहाड़ा याद कर रहा है कि दो को चार से गुणा करना दस के बराबर है। हर एक व्यक्ति, जो इस तरह की सीख का साक्षी है, बच्चे को यह बताने के लिए बाध्य है कि दो को चार से गुणा करना दस के बराबर नहीं है (इसे बच्चे की आलोचना कहा जा सकता है), बल्कि, दो को चार से गुणा करने पर आठ आता है। इस सच्चाई को बच्चे को यह बताए बिना नहीं समझाया जा सकता कि दो को चार से गुणा करना दस के बराबर नहीं है। अगर, बच्चे को शुरु में इस सच को नहीं बताया जाता, तो उसे बाद में अपने जीवन में मूर्खतापूर्ण गलतियाँ करने से नहीं बचाया जा सकता। किसी व्यक्ति को यह बताना कि वह कहाँ गलत है, आलोचना नहीं होती। अगर आज हमारे समाज में असत्य का इतना बोल-बाला है, तो इसका कारण है- शुरु में व्यक्तियों की गलतियों को न बताना और सच्चाई को छुपाना। जो सत्य को जानता है, वह किसी भी तरह से उसके किसी भी पहलू पर उदार नहीं हो सकता। उपरोक्त उदाहरण में, जो जानता है कि दो को चार से गुणा करना आठ के बराबर है, किसी भी परिस्थिति में, इस बात पर सहमत नहीं हो सकता है कि दो को चार से गुणा करने पर 7.9, 8.1 आदि आते हैं। गणित की तरह आध्यात्मिक नियमों  में भी कोई लचीलापन नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्तियों को वर्त्तमान समाज द्वारा कटटर कहा जाता है।

-‘अभिमान’ खतरनाक है, क्योंकि वह व्यक्ति की सारी संपत्ति को खा जाता है। आइए, ‘अभिमान’ और ‘स्वाभिमान’ के अंतर को समझते हैं। जहाँ अभिमान को बुरा व अवांछित माना जाता है, वहीं स्वाभिमान को अच्छा और आवश्यक माना जाता है। किसी व्यक्ति का किसी वस्तु के बारे में बात करना, जो वास्तव में वह जानता है या जो वस्तु वास्तव में उसके पास  है, ‘स्वाभिमान’ की भावना से कही हुई मानी जाती है और उसका किसी ऐसी चीज के बारे में बात करना, जिसे वह नहीं जानता या जो उसके पास नहीं है, अभिमानवश कही हुई मानी जाती है। ‘अभिमान’ या ‘स्वाभिमान’ के निर्धारण में ज्ञान या अधिकार जताने का उद्देश्य भी एक महत्वपूर्ण कारक है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति का दो के पहाड़े को जानना बताना उस व्यक्ति का ‘अभिमान’ नहीं कहा जा सकता है यदि, उसका बताने का उद्देश्य दूसरे की मदद करना है।

-निर्माता को महान तभी कहा जा सकता है, जब उसकी रचना महान हो। अगर हम ईश्वर को महान कहना चाहते हैं, तो हमें उसकी रचना की महानता को महसूस करना होगा। लेकिन, हम उसकी रचना की महानता को कैसे महसूस कर सकते हैं? कबड्डी, फ़ुटबॉल, जिमनास्टिक आदि खेलों के खिलाड़ियों को देखें। उदाहरण के लिए, हम ‘फ़ुटबॉल’ के खिलाड़ियों को देखते हैं। हमें खिलाड़ियों की आँखों, टांगों आदि के बीच के महान समन्वय को महसूस करना चाहिए- अन्य खिलाड़ियों व गेंद की गति को जांचना, कब तेज़ दौड़ना है, कब धीमा दौड़ना है, कब गेंद को सिर से हिट करने के लिए कूदना है, कैसे आक्रमण व बचाव की रणनीति पर काम करना है आदि आदि। शरीर के विभिन्न अंगों के बीच इस अद्भुत समन्वय को महसूस करके हम आसानी से कह सकते हैं कि उसकी रचना वास्तव में महान है। ऐसी महान रचना के रचयिता की महानता का क्या कहना!

-शब्द प्रमाण ईश्वर द्वारा दिए गए वेद के वचनों को कहा जाता है। शब्द प्रमाण उन महापुरुषों के वचनों को भी कहते हैं, जिन महापुरुषों का जीवन वेदों के अनुरूप होता है।  लेकिन, आज हमारी निष्ठा वेदों से हट गई है। वेदों के नियमित अध्ययन की परिपाटी न होने के कारण, हमारे पास किसी व्यक्ति की महानता को मापने का पैमाना नहीं है। इसके परिणामस्वरूप, हमने गलती से ही कुछ लोगों को महान घोषित कर दिया है और ऐसे व्यक्तियों की बातों को  शब्द-प्रमाण माना जाने लगा है। इस कारण से, आइए पहले हम शब्द-प्रमाण पर अपने विश्वास को कुछ समय के लिए निलंबित कर दें। शब्द प्रमाणों का प्रयोग बंद करके, हमारे द्वारा किए जाने वाले सभी कार्यों में, विशेषकर धार्मिक कृत्यों में तर्क अथवा बुद्धि का प्रयोग आवश्यक कर दें। जब हम अपने सभी कार्यों में विवेक का उपयोग करना शुरु करेंगे, तभी हम वास्तविक शब्द-प्रमाण को जानने और उनसे लाभ प्राप्त करने के योग्य होंगे।

-हमें किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के प्रति वफादार न होकर, सिद्धांतों के प्रति ही वफादार होना चाहिए, भले ही सिद्धांतों पर टिके रहने से उस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को नुकसान पहुंचता हो। अब सवाल यह उठता है कि हमें किस तरह के सिद्धांतों के प्रति वफादार रहना चाहिए? हमें उन सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहने की आवश्यकता है, जिनकी सत्यता को हमारी आत्मा ने स्वीकार कर लिया है।

-जीवन के तीन पहलू हैं। ये हैं:

  • भौतिक पहलू
  • सामाजिक पहलू
  • आध्यात्मिक पहलू

आज, हमारे अधिकांश कृत्य हमारे ‘सामाजिक’ पहलू के इर्द-गिर्द घूमते हैं। दूसरी प्राथमिकता लोगों द्वारा जीवन के ‘भौतिक’ पहलू को दी जाती है। जीवन के ‘आध्यात्मिक’ पहलू को अंतिम प्राथमिकता दी जाती है। जीवन के ‘आध्यात्मिक’ पहलू को संवारने के प्रयास लगभग नगण्य हैं। अब, क्या कारण है कि महत्ता में ‘भौतिक पहलू’ और ‘सामाजिक पहलू’ जीवन के ‘आध्यात्मिक पहलू’ से पिछड़ जाते हैं, जबकि आज हमारे अधिकांश कृत्य जीवन के ‘भौतिक पहलू’ और ‘सामाजिक पहलू’ के लिए ही समर्पित होते हैं? जीवन के इन तीन पहलुओं के ‘महत्व’ को  एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं- एक शरीर होता है और दूसरी आत्मा होती है और इसमें कोई भ्रम नहीं है कि इनमें से कौन अधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि, आत्मा को शरीर से अधिक महत्वपूर्ण कहा गया है, लेकिन शरीर के बिना आत्मा का कोई अर्थ नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि शरीर महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन दोनों में से आत्मा अधिक महत्वपूर्ण है। इसी तरह, जीवन का ‘भौतिक पहलू’ और ‘सामाजिक पहलू’ महत्वपूर्ण हैं, लेकिन, जीवन का ‘आध्यात्मिक’ पहलू अत्यंत महत्वपूर्ण है। कैसे? एक और उदाहरण लें- 1000 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार वाली ट्रेन किसी काम की नहीं है, अगर उसका कोई गंतव्य स्थान नहीं है। ‘आध्यात्मिक पहलू’ जीवन की रेलगाड़ी को मंजिल प्रदान करता है। सबसे पहले हमें जीवन के ‘आध्यात्मिक पहलू’ के सिद्धांतों के प्रति वफादार रहना चाहिए। उसके पश्चात हमें जीवन के ‘सामाजिक’ पहलू के सिद्धांतों के प्रति वफादार रहना चाहिए व सबसे आखिर में हमें जीवन के ‘भौतिक’ पहलू के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहना चाहिए।

-यह एक गलत धारणा है कि ईश्वर के भक्त दुखी रहते हैं। ईश्वर की ‘भक्ति’ करना किसी के लिए अनिवार्य नहीं है। यदि कोई भक्त दुखी महसूस करता है, तो वह ईश्वर की ‘भक्ति’ को छोड़ दे। वास्तव में, जो व्यक्ति ईश्वर की ‘भक्ति’ में ‘आनन्द’ की अनुभूति करने लगता है, वह सभी सांसारिक वस्तुओं व सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त सुखों को ईश्वर की ‘भक्ति’ से कम आंकने लगता है। ईश्वर के आनंद को बनाए रखने के लिए  ऐसे व्यक्ति सभी सांसारिक चीजों को छोड़ देते हैं। सांसारिक लोग इसे ईश्वर के भक्तों की दुर्दशा कहते हैं। भक्त जानता है कि उसे अप्राप्त सभी सांसारिक सुख व जिन सांसारिक सुखों को वह त्याग आया है, वे सब खोखले हैं और सच्चा सुख उसे ईश्वर की भक्ति से ही प्राप्त हुआ है। उसके लिए यह कोई मायने नहीं रखता कि दुनिया उसे सुखी कहे या दुखी।

-कुछ लोगों में यह धारणा है कि ‘काम ही पूजा है’ और अपने कर्तव्यों को सही ढंग से करने वाले व्यक्तियों को ईश्वर की भक्ति करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, ईश्वर को जाने बिना हम अपने सांसारिक कर्तव्यों को सर्वोत्तम ढंग से नहीं कर सकते। वास्तव में, जब हमारे ‘मन’ की दिशा ईश्वर की ओर होती है, तभी हम अपने सांसारिक कार्यों को सर्वश्रेष्ठ तरीके से कर पाते हैं।  सांसारिक कार्य करते हुए हम बहुत सी गलतियां करते हैं, जिनका ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, जिनका मन ईश्वर की ओर उन्मुख होता है और समय बीतने के साथ, एक ईश्वर-भक्त अपने सांसारिक कर्त्तव्यों को श्रेष्ठतम तरीके से करने की क्षमता अर्जित कर लेता है।

-कोई भी अभिभावक यह जानने के लिए अपने बच्चे की परीक्षा नहीं लेता कि वह उससे प्यार करता है या नहीं। ऐसे में, यह कहना गलत है कि ईश्वर अपने भक्तों की परीक्षा लेता है। ईश्वर की भक्ति करने से साधक इतनी क्षमता अर्जित कर लेता है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद दूसरों और समाज के कल्याण के लिए कार्य करने से पीछे नहीं हटता। भक्त ऐसे कार्यों को अपना कर्तव्य कहते हैं, जबकि सांसारिक लोग इसे ईश्वर द्वारा परीक्षा लिया जाना समझते हैं।

-किसी ज्ञात या अज्ञात व्यक्ति की कठिनाई में मदद करना अतिथि-सेवा है, लेकिन अपने घर आने वालों की बेतुकी आवश्यकताओं को पूरा करने में लगातार व्यस्त रहना अपने समय और ऊर्जा की बर्बादी के अलावा और कुछ नहीं है। अतिथि-सेवा को एक अच्छा कार्य मानकर कई लोग अनजान लोगों को अपने पास रख लेते हैं। क्योंकि, कई बार अतिथि बन कर आए लोग घर का बहुत सारा सामान चुरा लेते हैं, इसलिए, वर्त्तमान परिपेक्ष में हमें अतिथि-सेवा के बारे में अपनी धारणा को परिष्कृत करना चाहिए और अज्ञात व्यक्तियों से सतर्क रहना चाहिए।

-आत्महत्या करना समस्याओं का समाधान नहीं है। प्रत्येक आत्मा को अपने पिछले कर्मों के कारण अर्जित फल स्वयं ही भोगने होते हैं। यदि वर्त्तमान जन्म में नहीं, तो भविष्य के जन्म या जन्मों में। उदाहरण के तौर पर, जो व्यक्ति ऋण की समस्या के कारण आत्महत्या करता है, वह अपना अगला जन्म नौकर के रूप में पाता है और उसे उसी पीड़ा का सामना करना पड़ता है। जो व्यक्ति शारीरिक पीड़ा से बचने के लिए आत्महत्या करता है, उसे अगले जन्म में विकृत या रोगी शरीर मिलता है। आत्महत्या करना सबसे बड़े पापों में से एक है और इसके बारे में कभी नहीं सोचना चाहिए। जैसे, जेल से भागने पर कैदी को ओर अधिक सजा दी जाती है, उसी प्रकार स्वयं शरीर छोड़ने वाली आत्मा ओर अधिक दण्ड की अधिकारी हो जाती है।

-समाज में यह मान्यता है कि पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं। इस विश्वास का वास्तविक कारण यह है कि पापी को भी स्वयं को बदलने का अधिकार है। यदि हम पापी से घृणा करने लगें, तो पापी अपनी स्वयं को बदलने की क्षमता का उपयोग करने का अवसर खो देता है। यह बात बहुत ऊंचे स्तर की है। उस स्तर तक पहुंचने के लिए, शुरुआत में पाप और पापी दोनों से घृणा नहीं, बल्कि उपेक्षा करनी होती है। तदानुसार, शुरुआत में पाप और पापी दोनों से बचना चाहिए।

-अर्जुन की इस दलील पर कि युद्ध में कौरवों की सेना के कई जवान मरेंगे, भगवान कृष्ण ने कहा कि युद्ध के मैदान में अन्याय करने वालों को मारना ‘धर्म’ है और ऐसे लोगों को बचाना बहुत बड़ा पाप है। दंड न मिलने के कारण अन्याय करने वालों का साहस  बढ़ जाता है और फिर वे बड़े पाप करने लगते हैं। क्षत्रियों का यह धर्म है कि वे अन्याय करने वालों को यथायोग्य दंड दें।

-कुछ लोगों का मानना है कि जिन लोगों को अहिंसा सिद्ध है, उनके साथ संसार के दूसरे प्राणी भी अहिंसापूर्ण व्यवहार ही करते हैं। यह धारणा गलत है। उदाहरण के लिए, मांसाहारी जानवरों का किसी व्यक्ति के अहिंसा के विचारों से कोई लेना-देना नहीं होता। इतिहास में, कई योगी जानवरों द्वारा मार दिए गए थे। संस्कृत भाषा के व्याकरण के प्रतिपादक महर्षि पाणिनी को एक सिंह ने खा लिया था, जबकि वह ‘तपस्या’ में थे। महर्षि जैमिनि को हाथी ने मार डाला। महर्षि पिंगल को मगरमच्छ ने खा लिया। ऐसे में, योगियों को दुष्टों और हिंसक पशुओं से सावधान रहना चाहिए।

-ऐसा माना जाता है कि श्रद्धा के बिना व्यक्ति ईश्वर को नहीं पा सकता। किसी विशेष कार्य के प्रति ‘श्रद्धा’ विकसित करने पर ही उस कार्य में ‘आनंद’ की अनुभूति होती है। ‘श्रद्धा’ व तर्क में किसी तरह का विरोध नहीं है। वस्तुत:, किसी वस्तु के तर्क से गुजरने के पश्चात, उस वस्तु पर जो विश्वास उत्पन्न होता है, उसे ‘श्रद्धा’ कहते हैं। विवेक का प्रयोग किये बिना किसी शास्त्र या गुरु द्वारा कही गई किसी बात पर विश्वास करना श्रद्धा नहीं, बल्कि अंध-विश्वास है। आम धारणा है कि “जैसे हम अपने रास्ते को सच्चा मानते हैं, वैसे ही दूसरों को भी उनके अपने रास्तों के प्रति उसी तरह की भावना होती है। हर कोई अपना रास्ता चुनने के लिए स्वतंत्र है। ऐसे में दूसरों की ‘श्रद्धा’ को ठेस पहुंचाना उचित नहीं है।” इसका समाधान पक्ष यह है कि यदि, अज्ञानता के कारण किसी व्यक्ति का असत्य पर विश्वास हो जाता है, तो उसकी अज्ञानता को दूर करना, जिससे कि वह सत्य पथ पर चल सके, अनुचित नहीं है। यदि किसी व्यक्ति का मार्ग असत्य है, तो भले ही वह लाखों वर्षों तक पूरी ‘श्रद्धा’ के साथ उस पथ का अनुसरण करता रहे, वह सत्य को नहीं पा सकता। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति लाखों करोड़ों वर्षों तक भी कोयले की खदानों में पूरी ‘श्रद्धा’ से स्वर्ण ढूंढ़ता रहे, तो उसे स्वर्ण कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता।

-अगर हमें किसी की मदद करने का मौका मिले तो हमें खुद को भाग्यशाली और सम्मानित महसूस करना चाहिए। किसी की मदद करने के बदले में समाज से सम्मान की उम्मीद करना या यह उम्मीद करना कि दूसरा व्यक्ति हमारा ऋणी रहे, स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं है।

-प्रत्येक व्यक्ति सुख या शांति पाने के उद्देश्य से ही कार्य करता है। आध्यात्मिक लोग शांति प्राप्त करने के लिए दूसरों की भलाई के कर्म करते हैं, जबकि बुरे लोग हत्या, चोरी, अन्याय, मूर्ख बनाना आदि गलत कार्य करके सुख या शांति प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ऐसे कर्मों से कुछ काल के लिए तो लोगों का ध्यान या प्रशंसा प्राप्त करने से खुशी प्राप्त हो जाती है, परन्तु, लंबे समय तक इन कर्मों से सुख या शांति प्राप्त करना संभव नहीं है। बल्कि, ऐसे कर्मों से हम अपने सुख के स्रोत पर ही कुलहाड़ी चला रहे होते हैं।

-सुख या शांति प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। जो लोग ईमानदारी से पैसा कमाते हैं और अपनी इच्छाओं को तदनुसार पूरा करते हैं और अपनी इच्छाओं को अपने साधनों से परे जाकर पूरा नहीं करना चाहते, वे सुखी जीवन जीते हैं।

-आजकल के खान-पान व अन्य स्थितियों को देखते हुए, जीवनभर ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत मुश्किल है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण एक खतरनाक शत्रु है। इस तरह का आकर्षण हमारे ब्रह्मचर्य को कभी भी नष्ट कर सकता है। इसलिए, आम तौर पर एक साधक को शादी कर लेनी चाहिए।

-यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहाँ यह आवश्यक नहीं है कि जिसके बारे में हम अच्छा सोचते हैं और जिसके पक्ष में हम अपना सब कुछ समर्पण करने को तैयार हैं, वह हमारे बारे में समान विचार रखता हो। जिन्हें हम अपना मित्र समझते हैं, वे हमें हानि पहुँचा सकते हैं और जिन्हें हम अपना शत्रु मानते हैं, वे हमारे शुभचिंतक हो सकते हैं। फिर हम किसको हर समय और हर जगह अपना शुभचिंतक मानें? ऐसी वस्तु कोई सांसारिक वस्तु या सांसारिक प्राणी नहीं हो सकती। केवल ईश्वर ही हमारे सभी समयों और स्थानों में सच्चा शुभचिंतक है।

-एक कहानी- एक बार तीन आदमी पत्थर तोड़ने का काम कर रहे थे। एक संत के पूछने पर पहले व्यक्ति ने कहा, “मेरी किस्मत बहुत खराब है। पत्थर तोड़ने का मेरा कार्य मेरे बुरे भाग्य के कारण है। ” दूसरे व्यक्ति ने कहा, “मुझे और कोई काम नहीं मिल रहा और मैं पत्थर तोड़ने के इस कार्य से अपनी आजीविका कमा रहा हूं।” तीसरे व्यक्ति ने कहा, “मैं परिश्रम से अपनी आजीविका कमा रहा हूं। पूरे दिन मैं काम करता हूं और रात में मैं बिना किसी तनाव के सो जाता हूं। इस तरह आनंद के साथ जिंदगी अच्छी गुजर रही है।” हालांकि, तीनों आदमी एक ही काम कर रहे थे। पहला व्यक्ति इसे आवश्यक बुराई मान रहा था। दूसरा व्यक्ति कोई अन्य विकल्प न होने के कारण ऐसा कर रहा था और तीसरा व्यक्ति इस कार्य को अपना कर्त्तव्य मानकर कर रहा था। यदि वर्त्तमान से बेहतर काम मिलने की संभावना है, तो उसे पाने की कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन, जब हम किसी कार्य को करने के लिए बाध्य हों, तो हमें उस कार्य को प्रसन्नता से करना चाहिए।

-अज्ञानपूर्वक किए गए कर्म भी हमारे जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधने का कारण होते हैं। किसी व्यक्ति की आकस्मिक मृत्यु में, संबंधित व्यक्ति पर गैर-इरादतन हत्या का आरोप लगाया जाता है और तदनुसार उसे दंडित किया जाता है। जानबूझकर या अनजाने में किए गए हमारे सभी कर्म हमारे बंधन का कारण हैं। तार्किक रूप से, जो व्यक्ति इस बंधन से मुक्ति का अधिकार अर्जित कर लेता है, उसका दंड व पुरस्कार मिलने योग्य कोई भी कर्म शेष नहीं होना चाहिए। लेकिन, यह संभव नहीं है। हमारे शरीर के रखरखाव के लिए आवश्यक सभी कर्म मिश्रित होते हैं अर्थात उन कर्मों के कुछ हिस्से का फल दंड ही होता है। जैसे, अन्न का उपजाना, जो हमारे शरीर के रखरखाव के लिए आवश्यक है, में कईं प्राणियों का मर जाना निश्चित होता है व हमारा अन्न को खाना एक ओर तो हमारे शरीर को सुरक्षित रखता है और दूसरी ओर हमें दंड का भागी बना देता है। वस्तुतः, जो व्यक्ति जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है, वह वास्तव में अपने कर्मों के फलों को बहुत लंबे समय के लिए स्थगित कर देता है। लेकिन, कुछ विद्वानों के अनुसार मुक्ति प्राप्त करने पर व्यक्ति का शेष कर्माशय दग्ध हो जाता है।

-ईश्वर हमारे अच्छे कर्मों और गलत कर्मों का फल अलग-अलग देता है। उदाहरण- एक व्यक्ति एक बच्चे को डूबने से बचाता है और अपने इस साहसी कार्य के लिए पुरस्कार प्राप्त करता है। यदि, वह कुछ समय बाद किसी बच्चे को मार दे, तो उसे उसके इस कृत्य के लिए दंडित किया जाएगा। अदालत में, वह यह दलील नहीं दे सकता कि बच्चे की हत्या के उसके कृत्य को दूसरे बच्चे को बचाने के कृत्य से एडजस्ट कर लिया जाए और उसे बच्चे की हत्या के कृत्य के लिए दंडित न किया जाए।

-इस दुनिया का हर रिश्ता कर्ज पर आधारित है- कोई कर्ज चुका रहा है और कोई कर्ज वसूल रहा है। कुछ लोगों का मानना ​​है कि अगर बिना मांगे प्यार से कुछ दिया जाए, तो उस चीज को लेने में कोई हर्ज नहीं है। ऐसे लोग जन्मदिन, विवाह आदि अवसरों पर बिना किसी हिचक के उपहार प्राप्त कर लेते हैं। तथ्य यह है कि मांग पर या बिना मांगे, बलपूर्वक या देने वाले को मूर्ख बनाकर प्राप्त की गई वस्तु एक ऋण है और इसे प्राप्तकर्ता द्वारा चुकाया जाना है। यदि दाता किसी अन्य को उसकी मांग पर या बिना उसके मांगे, बिना बदले में कुछ प्राप्त करने की इच्छा के कुछ देता है, तो उसे देने के कर्म से कोई बंधन नहीं होता, लेकिन प्राप्तकर्त्ता को तो उसे चुकाना ही पड़ता है।

-जो व्यक्ति धन, ज्ञान, सौंदर्य, शक्ति, पद, प्रतिष्ठा आदि के कारण अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है, वह रोगी है और उसके इस रोग को श्रेष्ठता-काम्प्लेक्स नाम दिया जा सकता है। ऐसा व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों वाले अन्य व्यक्तियों का अपमान करता है। आम लोगों की क्या बात करें, कुछ संत और विद्वान लोग भी श्रेष्ठता-काम्प्लेक्स के रोग से ग्रस्त हैं। ऐसे लोग अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। बहुत से लोग, जो इस रोग से पीड़ित होते हैं, उन्हें इस जीवन में ही दुख प्राप्त हो जाते हैं और शेष पीड़ित अपने भविष्य के जन्मों में दुख प्राप्त करते हैं। ईश्वर न्यायकर्त्ता है। सभी को अपने कर्मों का फल न्यायसंगत रूप से मिलता है। जो ईश्वर की इस व्यवस्था में विश्वास रखता है, वह कोई पाप नहीं कर सकता।

-आज समाज में यह मान्यता है कि ईश्वर आत्माओं के कर्मों का फल न्यायसंगत रूप से देते हैं, भले ही देरी से। कहावत भी है कि ‘ईश्वर के घर देर है, पर अंधेर नहीं’। सच तो यह है कि ईश्वर आत्माओं के कर्मों का फल न्यायोचित और बिना देर किए देता है, लेकिन किसी कर्म का फल कब मिलेगा, यह तो ईश्वर ही जान सकता है। भिन्न-भिन्न कर्मों का फल भिन्न-भिन्न अवधियों के पश्चात मिलता है। कुछ कर्म एक ही दिन में फल दे देते हैं, कुछ महीने में, कुछ साल में, कुछ अगले जीवन में आदि आदि। यह ठीक वैसे ही है, जैसे हमारे पानी पीने के कर्म के तुरंत बाद हमारी प्यास बुझ जाती है, कुछ सामान्य बीमारियाँ 2-3 दिनों में दूर हो जाती हैं, अन्य बीमारियों को जाने में महीनों या वर्षों का समय लग जाता है। कुछ कर्म, तीव्रता से किए जाने के कारण लगभग तुरंत फल दे देते हैं। मनुष्य के लिए यह अनुमान लगाना संभव नहीं है कि कोई कर्म कब फल देगा।

-पर्याप्त शक्ति या अधिकार प्राप्त किए बिना समाज से किसी भी बुराई को मिटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। पर्याप्त शक्ति या अधिकार के बिना व्यक्ति को समाज के बुरे तत्वों से संघर्ष नहीं करना चाहिए और अपने बहुमूल्य जीवन को खतरे में नहीं डालना चाहिए। लेकिन, पर्याप्त शक्ति या अधिकार प्राप्त करने के बाद, यदि कोई चुप रहता है या समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयास नहीं करता है, तो वह पाप करता है और ईश्वर से अपनी दूरी बढ़ा लेता है। शक्ति की पर्याप्तता व्यक्ति की बुद्धि से आंकी जाती है।

-स्वस्थ शरीर वाला मनुष्य अच्छा होता है, स्वस्थ तन और स्वस्थ मन वाला मनुष्य अधिक अच्छा होता है और स्वस्थ तन और स्वस्थ मन के अतिरिक्त आत्मा और परमात्मा की प्राप्ति का सच्चा मार्ग जान जाने वाला मनुष्य सबसे अच्छा होता है।

-शरीर के बिना आत्मा कुछ नहीं कर सकती। जो लोग अपने शरीर की उपेक्षा करते हैं, वे शारीरिक और आध्यात्मिक सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिए, शरीर की भलाई को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। शरीर का कल्याण केवल और केवल आत्मा के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही आवश्यक है। आत्मा के उद्देश्य की कीमत पर शरीर की भलाई की परवाह नहीं की जानी चाहिए, अर्थात, यदि आत्मा के उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में कोई कार्य करते समय हमारा शरीर खतरे में पड़ जाए, तो हमें उस कार्य की सफलता को प्राथमिकता देनी चाहिए, नाकि अपने शरीर की रक्षा को।

-विचार हमारे कार्यों व व्यवहार का आधार होते हैं। एक प्रकार के विचार हमारे चेहरे पर मुस्कान लाते हैं और दूसरे प्रकार के विचार दर्द, भय आदि ले आते हैं। जो व्यक्ति अपने मन में केवल अच्छे विचार रखते हैं, वे कभी भी कोई भी बुरा कार्य नहीं कर सकते। जब भी हम किसी बुरे विचार का सामना करें, तो हमें अपने ‘मन’ में प्रतिपक्ष की भावना लानी चाहिए। प्रतिपक्ष की भावना का अर्थ है- यह सोचना कि उस बुरे विचार से होने वाली हानियां कौन-कौन सी हैं। चूंकि, ‘मन’ की गति बहुत तेज है और यह एक सेकंड के एक अंश में अच्छे विचार के सभी पहलुओं को जांचकर बुरे विचार पर वापस जाने की क्षमता रखता है, उसके सामने रखा गया अच्छा विचार ऐसा होना चाहिए, जिसके पार  मन नहीं जा सकता। ऐसा काउंटर अच्छा विचार ईश्वर का ही हो सकता है। ईश्वर अनंत होने के कारण, जब ‘मन’ उसका पार नहीं पा पाता, तो वह ईश्वर को समर्पित होकर विश्राम करने लगता है। इसलिए, जब भी हमारे सामने कोई बुरा विचार आए, तो हमें मन में ओम् या गायत्री मंत्र आदि का पाठ करने की आदत डाल लेनी चाहिए। हमें ओम् या गायत्री मंत्र आदि का पाठ अर्थपूर्वक ही करना चाहिए। ऐसे समय में अपने मन को ‘श्वास’ पर केंद्रित करना या अपनी सांसों में गहराई और एकरूपता लाना अत्यंत सहायक होता है। कोई बुरा कार्य करना और फिर पछताना व्यर्थ है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे जान-बूझकर खुद को गंदा करना और फिर गंदगी को धोने की कोशिश करना। इसके बजाय हमें अपने ‘मन’ को इस तरह तैयार करना चाहिए कि वह कोई बुरा काम ही न करे। ‘मन’ को जीवन भर निरंतर निगरानी की आवश्यकता होती है।

-शक्ति, जो शरीर को कार्य करने में सक्षम बनाती है, उसे परोक्ष रूप से आत्मा कह दिया जाता है। आत्मा द्वारा छोड़ा गया शरीर धूल के कण से ज्यादा कुछ नहीं है। मृत शरीर को न तो कोई दर्द होता है और न ही सुख, चाहे उसे सिंहासन पर बैठाया जाए या टुकड़ों में काट दिया जाए। प्रत्येक आत्मा को उसके कर्मों के अनुसार शरीर मिलता है, अर्थात् कुछ आत्माओं को स्वस्थ शरीर प्राप्त होता है, दूसरों को रोगग्रस्त या विकृत शरीर प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर के अस्तित्व में आने से पहले भी आत्मा मौजूद थी।

  

-यह अत्याधिक अनुचित होगा, यदि बिना किसी कारण के, कुछ आत्माएं सुख का आनंद लें और अन्य आत्माएं पीड़ा का अनुभव करें। लेकिन, ईश्वर को न्यायकारी माना जाता है। इससे हम, इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्माओं को स्वस्थ, रोगग्रस्त, विकृत शरीर व सुख प्राप्त करने के साधन उनके पिछले जन्म या जन्मों के कर्मों के अनुसार प्राप्त होते हैं। यह भी देखा जाता है कि कुछ आत्माएं बुरे कर्म करते हुए सुखमय जीवन का आनंद लेती हैं। ऐसी आत्माओं का सुख प्राप्त करना, उनके पिछले जन्मों के कर्मों के फलों के कारण होता है और जो वे इस जन्म में बुरे कर्म कर रहे हैं, उससे उनका भविष्य दुखपूर्ण होगा। कोई भी व्यक्ति अपने बुरे कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता। यह, फिर से, हमें विश्वास दिलाता है कि अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए, आत्मा को ईश्वर के नियमों के अनुसार पुनः शरीर धारण करना पड़ता है। यह सब साबित करता है कि जन्म और मृत्यु एक सतत और अंतहीन प्रक्रिया है।

-कुछ लोग कहते हैं कि जैसे, आम के बीज से आम पैदा होता है और गेहूँ के बीज से गेहूँ ही पैदा होता है, वैसे ही, मनुष्य को अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही मिलता है; गधे को अगला जन्म गधे के रूप में ही मिलता है। एक स्वामी अगले जन्म में स्वामी के रूप में ही जन्म लेता है आदि आदि। निम्नलिखित तार्किक आधारों पर यह अन्यायपूर्ण व्यवस्था कतई संभव नहीं है। निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर इस मुद्दे को स्पष्ट करेंगे:

ईश्वर की न्यायपूर्ण व्यवस्था में यह कैसे संभव है कि-

  1. एक आत्मा को हर जन्म में बकरी को मारने का मौका मिले और दूसरे को हर जन्म में बकरी का ही शरीर प्राप्त हो?
  2. एक आत्मा हर बार उच्च वर्ग में जन्म लेकर निम्न वर्ग का अपमान करता रहे और दूसरा आत्मा हमेशा नीच वर्ग में ही जन्म ले?
  3. एक आत्मा हर बार स्वामी के रूप में जन्म लेकर अपने दास को आदेश देता रहे और दूसरा आत्मा हमेशा नौकर के रूप में ही जन्म ले?

-ईश्वर की व्यवस्था ऐसी है कि जो दूसरे को दर्द देता है, उसे देर-सबेर दुख जरूर मिलता है। कोई व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में किए गए पापों को नहीं जान सकता। यदि, कोई व्यक्ति अपने और अन्य व्यक्तियों द्वारा पूर्व जन्मों में किए गए पापों को जान सकता, तो वह किसी के प्रति करुणा का भाव नहीं रख सकता था और न ही किसी के प्रति कृतज्ञता महसूस कर सकता था।

-अनंत काल से आत्मा जन्म-मरण के चक्र में है। वह विभिन्न देशों, विभिन्न प्रजातियों, विभिन्न संप्रदायों, पुरुष, महिला, अमीर, गरीब, सुंदर, बदसूरत, स्वस्थ, रोगग्रस्त आदि के रूप में जन्म लेता रहता है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं जान सकता कि ईश्वर की यह प्रणाली कैसे काम करती है। यदि, दुनिया के सभी लोग ईश्वर की इस प्रणाली के अस्तित्व के बारे में जान जाएं तो, देशों, संप्रदायों आदि के बीच कोई युद्ध न हो।  प्राचीन काल के ऋषि इस ज्ञान के कारण पूरे ब्रह्मांड को एक परिवार के रूप में मानते थे।

-सभी संप्रदायों के सिद्धांत समान नहीं हैं। संप्रदायों के कुछ सिद्धांत तो एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत होते हैं। सभी संप्रदायों के शिक्षक अपने सिद्धांतों की सत्यता सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में, जो व्यक्ति सत्य जानना चाहता है, वह भ्रमित हो जाता है। सत्य जानने के इच्छुक को अपने विवेक पर निर्भर रहना चाहिए। विवेक के माध्यम से ही कोई सच्चे सिद्धांतों और असत्य सिद्धांतों के बीच अंतर कर सकता है। अपने विवेक को बढ़ाने का एकमात्र तरीका स्वाध्याय है, यानि वेदों व वेदों के अनुरूप ऋषियों द्वारा लिखी पुस्तकों का अध्ययन करना।

-ईश्वर के प्रति समर्पण का अर्थ विवेक का उपयोग न करना नहीं है, बल्कि, इसका अर्थ है ईश्वर की उपस्थिति को हर जगह महसूस करना और प्रत्येक कार्य करते समय ऐसी अनुभूति बनाए रखना। सोते समय अपने घर के दरवाजे खुले रखने को ईश्वर के प्रति समर्पण नहीं कहा जा सकता। जब हम अपनी बुद्धि, ज्ञान, धन, शारीरिक और मानसिक शक्ति को ईश्वर को समर्पित कर देते हैं, तब ईश्वर हमसे ये सब चीजें नहीं लेता। ये सभी चीजें रहती तो हमारे पास ही हैं, लेकिन इन चीजों का उपयोग करते हुए हमारे भीतर एक ट्रस्टी की भावना विकसित हो जाती है। हम अपनी इन सभी चीजों का उपयोग किसी विशेष व्यक्ति या समुदाय के कल्याण के लिए न करके वेदों में दिए गए निर्देशों के अनुसार सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए करते हैं। ईश्वर-समर्पण का अन्तिम चरण ईश्वर की कृतघ्ता स्वीकारना है।