अथ सप्तमसमुल्लासारम्भः

विषय : ईश्वर और वेद

जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्यायुक्त और जिसमें पृथिवी सूर्य्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते, न मानते और न उसका ध्यान करते, वे नास्तिक और दुखी होते हैं। इसलिये उसी को जानकर मनुष्य सुखी होते हैं।

-ऋग्वेद 1//164//39 

प्रश्न- वेद में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?

उत्तर – नहीं मानते। क्योंकि चारों वेदों में कहीं यह नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है।

प्रश्न – वेद में जो अनेक देवता लिखें हैं, उसका क्या अभिप्राय है?

उत्तर – ‘देवता’ दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं जैसी कि पृथिवी, परन्तु कहीं इसको ईश्वर वा उपासनीय नहीं माना है। देखो! इसी मन्त्र में कि ‘जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है।’ यह उनकी भूल है, जो देवता शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हैं। परमेश्वर देवों का देव होने से ‘महादेव’ इसीलिये कहाता है कि वही सब जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलयकर्त्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है।

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प्रश्न – आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो?

उत्तर – सब प्रत्यक्षादि प्रमाणें से। 

जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का, शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख-दुख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो।  

अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि, ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है।

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प्रश्न – ईश्वर व्यापक है, वा किसी देश विशेष में रहता है?

उत्तर – व्यापक है। क्योंकि जो एकदेश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता सब का स्रष्टा, सब का धर्त्ता और प्रलयकर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का [होना] असम्भव है।

प्रश्न – परमेश्वर दयालु और न्यायकारी है, वा नहीं?

उत्तर – है।

प्रश्न – ये दोनों गुण परस्पर विरुद्ध हैं। जो न्याय करे तो दया और दया करे तो न्याय छूट जाय। क्योंकि ‘न्याय’ उसको कहते हैं कि जो कर्त्ता के कर्मों के अनुसार न अधिक, न न्यून सुख-दुख पहुंचाना। और ‘दया’ उसको कहते हैं जो अपराधी को बिना दण्ड दिये छोड़ देना। 

उत्तर – न्याय और दया का नाममात्र ही भेद है। क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है, वहीं दया से। दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बन्ध होकर दुखों को प्राप्त न हों। वही दया कहाती है जो पराये दुखों का छुड़ाना। और जैसा अर्थ दया और न्याय का तुमने किया, वह ठीक नहीं। क्योंकि जिसने जैसा, जितना बुरा कर्म किया हो, उसको उतना वैसा ही दण्ड देना ‘न्याय’, और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाय तो दया का नाश हो जाय। क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार हो सकती है? ‘दया’ वही है कि उस डाकू को कैद कर पाप करने से बचाना डाकू पर दया और उस डाकू को मार सकने से अन्य सहस्त्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित होती है।

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ईश्वर की दया पूरी यह है कि जिसने सब जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के सब पदार्थ जगत् में उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं, इससे बड़ी दया दूसरी कौन सी है? न्याय का फल जगत् में सुख-दुख की व्यवस्था अधिक-न्यूनता से दिखला रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है, जो मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है, [वह ‘दया’] और बाह्य चेष्टा अर्थात् बन्धन-छेदनादि यथायोग्य दण्ड देना ‘न्याय’ कहाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सब को पाप और दुखों से पृथक् करना।

प्रश्न – ईश्वर साकार है, वा निराकार?

उत्तर – निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक न हो सकता। जब व्यापक न होता, तो सर्वज्ञादि गुण भी न हो सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृषा और रोग, दोष, छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यह निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। और जो साकार होता, तो उसके आकार बनाने वाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य चाहिये। जो कोई कहै कि ईश्वर ने अपना शरीर बना लिया, तो वहीं सिद्ध हुआ कि शरीर के बनने के पूर्व निराकार था। इसलिये वह परमात्मा न शरीर धारण करता, निराकार होकर सब जगत् को सूक्ष्म आकार से स्थूलाकार बनाता है।

प्रश्न – ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, वा नहीं?

उत्तर- है। परन्तु ‘सर्वशक्तिमान्’ शब्द का अर्थ इतना ही है कि ईश्वर को अपने पालन [आदि] काम करने में दूसरे के सामर्थ्य का सहाय नहीं लेना पड़ता, किन्तु स्वसामर्थ्य ही से सब अपना काम पूरा कर लेता है।

प्रश्न – हम तो ऐसा जानते हैं कि ईश्वर जो चाहै सो करे।

उत्तर- वह क्या और कैसा चाहता है? जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है तो हम तुम से पूछते हैं कि परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान, चोरी आदि पाप कर और दुखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण-कर्म्म-स्वभाव से विरुद्ध हैं, तो जो तुम्हारा कहना ‘वह सब कुछ कर सकता है’ यह कभी नहीं घट सकता। इसलिए सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ जो हमने कहा, वही ठीक है।

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प्रश्न – परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये, वा नहीं?

उत्तर- करनी चाहिये।

प्रश्न – क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़ स्तुति, प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर- नहीं।

प्रश्न – तो फिर स्तुति, प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर- उनके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न – क्या है?

उत्तर- स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण-कर्म- स्वभाव का सुधरना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।

ईश्वर की स्तुति

…जैसे वह न्यायकारी है, तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भाँड के समान परमेश्वर के गुणकीर्त्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

प्रार्थना

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जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है, उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हो सके, उतना किया करे। अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उसका स्वीकार करता है जैसे- ‘हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझको सब से बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जाएँ’ इत्यादि।

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….जैसे पुरुषार्थ करते हुए पुरुष का सहाय दूसरा भी करता है, वैसे धर्म से पुरुषार्थी का सहाय परमेश्वर भी करता है। जैसे काम करने वाले को भृत्य रखते हैं, अन्य को नहीं। देखने की इच्छा करने और नेत्रवालें को दिखलाते है, अन्धे को नहीं। इसी प्रकार परमेश्वर भी सबके उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है, हानिकारक कर्म में नहीं। जो कोई ‘गुड़ मीठा है’ कहता रहै, उसको गुड़ प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता, और जो यत्न करता है,उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है।

    

उपासना

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….जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है, वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी ‘सगुण’ और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर-बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना ‘निर्गुणोपासना’ कहाती है।

इसका फल – जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है, वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष, दुख छूट कर परमेश्वर के गुण कर्म-स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे इसका फल पृथक होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा [कि] यह पर्वत के समान दुख प्राप्त होने पर भी न घबरावेगा और सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है, क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे है, उसका गुण-भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना ‘कृतघ्नता’ और ‘मूर्खता’ से कम नहीं है।

परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सब का रचन, ग्रहण करता; पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान; चक्षु का गोलक नहीं, परन्तु सब को यथावत देखता; श्रोत्र नहीं, तथापि सब की बातें सुनता; अन्तःकरण नहीं, परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधिसहित जानने वाला कोई भी नहीं; उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से ‘पुरुष’ कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।

-श्वेताश्वतर उपनिषद 3//19

परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य्य और उसको करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। सर्वोत्तमशक्ति अर्थात् जिसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है, वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता, इसलिये वह ‘विभू’ तथापि ‘चेतन’ होने से उसमें क्रिया भी है।

-श्वेताश्वतर उपनिषद 6//8

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जो जन्मरहित सत्त्व, रज, तमोगुणरूप प्रकृति है वही स्वरूपाकर से बहुत प्रजारूप हो जाती है। अर्थात् प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थान्तर होकर दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त होता, सदा कूटस्थ निर्विकार रहता है। और प्रकृति सृष्टि में सविकार और प्रलय में निर्विकार रहती है।

-श्वेताश्वतर उपनिषद 4//5

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प्रश्न – श्रीकृष्ण जी कहते है  कि जब-जब धर्म का लोप होता है तब-तब मैं शरीर धारण करता हूँ।

उत्तर – यह बात वेदविरुद्ध होने से प्रमाण नहीं। और ऐसा हो सकता है कि श्री कृष्ण धर्मात्मा और धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग-युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ, तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता हैं, तथापि इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते।

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प्रश्न – जो ईश्वर अवतार ने लेवे तो कंस-रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो सके? 

उत्तर – प्रथम तो जो जन्मा है, वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर शरीर धारण किये बिना जगत् की उत्पति, स्थिति, प्रलय करता है, उसके सामने कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावणादि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है, जब चाहै उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। इस अनन्त-गुण-कर्म-स्वभावयुक्त परमात्मा को एक क्षुद्र जीव को मारने के लिये जन्म-मरणयुक्त कहना महामूर्खता का काम है।      

और जो कोई कहे कि भक्तों के उद्धार के लिये जन्म लेता है, तो भी सत्य नहीं, क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं, उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि जगत का बनाने, धारण और प्रलय करने रूप कर्मों से पुत्रोत्पति, कंस-रावणादि का वध और गोवर्धनादि उठाना बड़े कर्म हैं? जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ईश्वर के सदृश न कोई हुआ न है और न होगा।

और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहै कि गर्भ में आया व मूठी में धर लिया, यह सच कभी नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश सब में व्यापक है। न वह बाहर आता, न भीतर जाता, वैसे परमेश्वर के सर्वव्यापक होने से उसका आना-जाना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जाना व आना वहां हो सकता हैं, जब वहां वह न हो। और आना भी वहां हो सकता है, जहाँ परमेश्वर न हो। क्या वह गर्भ में व्यापक नहीं था, जो कहीं से आया? और बाहर नहीं है, जो भीतर से बाहर निकले? इसलिये परमेश्वर का जन्म कभी नहीं हो सकता। —-

प्रश्न – ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है, वा नहीं?

उत्तर – नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य महापापी हो जाये, क्योंकि उनको पाप करने में उत्साह और निर्भयता हो। जैसे कोई राजा अपराधियों के पाप की क्षमा करे, तो वे अधिक-अधिक अपराध पाप करने लगें। और जो अपराध नहीं करता है, वह भी अपराध करने से न डरेगा। इसलिये सब कर्मों का यथावत् फल देना ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।

प्रश्न – जीव स्वतन्त्र है, वा परतन्त्र?    

उत्तर – अपने कर्त्तव्य कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है।

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जैसे भृत्य स्वामी; और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा से अथवा प्ररेणा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मारके अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और आधीनता से काम सिद्ध हों, तो जीव को पाप व पुण्य न लगे। उस फल का भागी प्रेरक परमेश्वर होवे। स्वर्ग-नरक अर्थात् सख-दुख की प्राप्ति भी परमेश्वर को होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्रविशेष से किसी को मार डाला, तो वही मारनेवाला पकड़ा जाता है, दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिये अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र, परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप भोगता है। इसलिये कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।

प्रश्न – जो परमेश्वर जीव को न बनाता, सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ न कर सकता। इसलिये परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है। 

उत्तर – जीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है। और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाये हुए हैं, परन्तु वे सब जीव के आधीन हैं। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वहीं भोक्ता है, ईश्वर नहीं। जैसे किसी कारीगर ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को किसी व्यापारी ने लिया, उसकी दुकान से लोहार ने ले तलवार बनाई, उससे किसी सिपाही ने तलवार ली, उससे किसी को मार डाला। अब यहां जैसे वह लोहे को उत्पन्न करने, उससे लेने, तलवार बनानेवाले और तलवार को पकड़ कर राजा दण्ड नहीं देता, किन्तु जिसने तलवार से मारा, वही दण्ड पाता है। इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करनेवाला परमेश्वर उसके कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव भोक्ता होता है। और जो परमेश्वर कर्म कराता होता, तो कोई जीव पाप नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्ररेणा नहीं करता। इसलिये जीव अपने काम करने में स्वतन्त्र है। जैसे जीव अपने कार्मों में स्वतन्त्र है, वैसे ही परमेश्वर भी अपने कार्मों में स्वतन्त्र है।

प्रश्न- जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर- दोनों चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों  का पाप-पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं। और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्पविद्या आदि अच्छे और बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्य ज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं। और जीव के-

पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, दुखादि की अनिच्छा, वैर, पुरुषार्थ बल, आनन्द, विलाप, अप्रसन्नता, विवेक, पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैशेषिक में प्राण को बाहर निकालना, प्राण को बाहर से भीतर को लेना, आंख मीचना, आंख का खोलना, प्राण का धारण करना, निश्चय, स्मरण और अहङ्कार करना, चलना,  इन्द्रियों को चलाना, भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृषा, हर्ष शोकादि का होना। ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

-न्याय  दर्शन 1//1//10, वैशेषिक दर्शन 3//2//4

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ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है, क्योंकि जो होके न रहै, वह ‘भूतकाल’ और [जो] न होके होवे, वह ‘भविष्यत्काल’ कहाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान होके नहीं रहता तथा न होके होता है? इसलिए परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्त्तमान रहता है। भूत, भविष्यत जीवों के लिए है। हाँ, जीवों के कर्म करने की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है, स्वतः नहीं।    

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 (‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाक्य का अर्थ)– मैं ब्रह्मस्थ हूँ। जैसे मचान पुकारते हैं [में] मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने  का सामर्थ्य नहीं, इसलिये मञ्चस्थ मनुष्य पुकारते हैं। इसी प्रकार यहां भी जानना।….जो जीव परमेश्वर के गुण कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्म-स्वभाव करता है, वहीं साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है।

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महार्षि याज्ञवल्क्य उद्दालक से कहते हैं कि ‘हे उद्दालक! जो परमेश्वर आत्मा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है, जिसको मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में व्यापक है। जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है, वैसे जीव में परमेश्वर व्यापक है। जीवात्मा से भिन्न रहकर जीव के पाप-पुण्यों का साक्षी होकर उनके फल जीव को देकर नियम में रखता है, वही अविनाशीस्वरूप तेरा भी अन्तर्य्यामी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है, उसको तू जान’। इत्यादि वचनों का क्या कोई अन्यथा अर्थ कर सकता है?

‘अयामात्मा ब्रह्म’ अर्थात् समाधिदशा में जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि ‘यह जो मेरे में व्यापक है, वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है’। इसलिये जो आजकल के वेदान्ती जीव-ब्रह्म की एकता करते हैं, वे वेदान्तशास्त्र को नहीं जानते।

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….जैसे- किसी ने किसी से कहा कि ‘इस नगर में अद्वितीय धनाढ्य देवदत्त और इस सेना में अद्वितीय शूरवीर विक्रमसिंह है।’, इससे क्या सिद्ध हुआ कि देवदत्त के सदृश इस नगर में दूसरा धनाढ्य और इस सेना में विक्रमसिंह के समान दूसरा शूरवीर नहीं। न्यून तो हैं। और पृथिवी आदि जड़ पदार्थ, पश्वादि और वृक्षादि भी हैं, उनका निषेध नहीं हो सकता। वैसे ही ब्रह्म के सदृश जीव व प्रकृति नहीं है, किन्तु न्यून तो हैं।

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किञ्चित साधर्म्य मिलने से एकता नहीं हो सकती। जैसे पृथिवी जड़, दृश्य है, वैसे जल और अग्नि आदि भी जड़ और दृश्य हैं, इतने से एकता नहीं होती।….परमेश्वर के अनन्त ज्ञान, आनन्द, बल, क्रिया, निर्भ्रान्तित्व और व्यापकता जीव से और जीव के अल्पज्ञान, अल्पबल, अल्पस्वरूप, सभ्रान्तित्व और परिच्छिन्नतादि गुण ब्रह्म से भिन्न होने से जीव और परमेश्वर एक नहीं, क्योंकि इनका स्वरूप भी, परमेश्वर अतिसूक्ष्म और जीव उससे कुछ स्थूल होने से, भिन्न है।

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….जैसे घर के बनाने के पूर्व भिन्न-भिन्न देश की मट्टी, लकड़ी, लोहा आकाश ही में रहते हैं, जब घर बन गया तब भी आकाश में हैं और जब वह नष्ट हो गया अर्थात् उसके सब अवयव भिन्न-भिन्न देश में प्राप्त हो गये, तब भी आकाश में हैं। अर्थात् तीन काल में आकाश से भिन्न नहीं हो सकते और स्वरूप से भिन्न होने से न कभी एक थे, [न] हैं और [न] होंगे। इसी प्रकार जीव तथा सब संसार के पदार्थ परमेश्वर में व्याप्य होने से परमात्मा से तीनों कालों में न भिन्न और स्वरूप से भिन्न होने से एक भी कभी नहीं होते। … कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है कि जिसमें सगुणनिर्गुणता, अन्वय-व्यतिरेक, साधर्म्य-वैधर्म्य और विशेष-विशेषण भाव न हो।

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… अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो, किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनन्तज्ञान, बलादि गुणों से सहित होने से ‘सगुण’ और रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक, होने से परमेश्वर ‘निर्गुण’ कहाता है।

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प्रश्न – परमेश्वर रागी है, व विरक्त?

उत्तर – दोनों नहीं। क्योंकि राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ पृथक वा उत्तम नहीं है, इसलिये उसमें ‘राग’ का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवे, उसको ‘विरक्त’ कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ नहीं सकता, इसलिये विरक्त भी नहीं है।

प्रश्न – ईश्वर में इच्छा है, वा नहीं?

उत्तर – वैसी इच्छा नहीं। क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे, तो ईश्वर में इच्छा हो सके। न उससे कोई अप्राप्त पदार्थ, न कोई उससे उत्तम, और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं है। इसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं, किन्तु ‘ईक्षण’ अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है, वह ईक्षण है। इत्यादि संक्षिप्त विषय ही से सज्जन लोग बहुत विस्तरण कर लेंगे।

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जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है, व सनातन जीवरूप् प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।

-यजुर्वेद 40//8

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परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी विद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख-जिह्वा से उच्चारण दूसरे भिन्न मनुष्य के लिये किया जाता है, अपने लिये नहीं । बिना मुख और जिह्वा के मन में अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अंगुलियों से मूंद देखों, सुनो कि बिना मुख-जिह्वा-ताल्वादि स्थानों के कैसे-कैसे शब्द हो रहे, हैं, वैसे जीवों को अन्तर्यामीरूप से उपदेश किया है। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिये उच्चारण किया जाता है। जब परमेश्वर निराकार सर्वव्यापक है, तो अपनी विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है, इसलिये यहां दोष नहीं आता।

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प्रश्न – वेद ईश्वरकृत हैं, अन्यकृत नहीं, इसमें क्या प्रमाण?     

उत्तर- (१) जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित्, शुद्धगुणकर्म-स्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुणवाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं।

(२) और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त।

(३) जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त।

(४) जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य, कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।

(५) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण-विषयों से अविरुद्ध, शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो।

इस प्रकार के वेद ही हैं, अन्य बायबिल, कुरान आदि नहीं। इसकी स्पष्ट व्याख्या बायबिल और कुरान के तेरहवें और चौदहवें, समुल्लास में की जाएगी।

प्रश्न – वेद की ईश्वर से होने की आवश्यकता कुछ भी नहीं, क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढ़ाते जाकर पश्चात् पुस्तक भी बना लेंगे।

उत्तर- कभी नहीं बना सकते। क्योंकि बिना कारण के कार्योत्पत्ति का होना असम्भव है। जैसे जङ्गली मनुष्य सृष्टि को देखकर भी विद्वान नहीं होते और जब उनको कोई शिक्षक मिल जाये तो विद्वान हो जाते हैं और अब भी किसी से पढ़े बिना कोई भी विद्वान् नहीं होता। इस प्रकार जो परमात्मा उन ऋषियों को वेदविद्या न पढ़ाता और वे अन्य को न पढ़ाते तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। जैसे किसी के बालक को जन्म से एकान्त, अविद्वानों वा पशुओं में रख देंवें तो वह जैसा संग है, वैसा ही हो जाएगा। इसका दृष्टान्त जङ्गली भील आदि हैं।

जबतक आर्यावर्त्त से शिक्षा नहीं गई थी तब तक मिश्र, यवन (यूनान) और यूरोप देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी। और इंग्लैण्ड के कुलुम्बस आदि पुरुष अमेरिका में जब तक नहीं गये थे, तब तक वे भी सहस्त्रों, लाखों, क्रोड़ों वर्षों से मूर्ख थे। अब शिक्षा पाने से विद्वान हो गये हैं। वैसे ही परमात्मा से सृष्टि की आदि में विद्या-शिक्षा की प्राप्ति से उत्तरोत्तर काल में विद्वान होते आये।

जैसे वर्त्तमान समय में हम लोग अध्यापकों से पढ़ के ही विद्वान होते हैं, वैसे परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ऋषियों का ‘गुरु’ अर्थात् पढ़ानेहारा है। क्योंकि जैसे जीव सुषुप्ति और प्रलय में ज्ञानरहित हो जाते हैं, वैसा परमेश्वर नहीं होता। उसका ज्ञान नित्य है। इसलिये यह निश्चित जानना चाहिये कि बिना निमित्त से नैमित्तिक अर्थ सिद्ध कभी नहीं होता।

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…धर्मात्मा योगी महर्षि लोग जब-जब जिस-जिस के अर्थ की जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए, तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ जनाये। जब बहुतों के आत्माओं में वेदार्थप्रकाश हुआ, तब ऋषि-मुनियों ने वह अर्थ और ऋषि मुनियों के इतिहासपूर्वक ग्रन्थ बनाये। उनका नाम ब्राह्मण अर्थात् ‘ब्रह्म’ जो वेद उसका व्याख्यानग्रन्थ होने से ‘ब्राह्मण’ नाम हुआ।

जिस-जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिसके पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था, किया और दूसरों को पढ़ाया भी, इसलिये अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा लिखाया आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावे, उनको मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं।

प्रश्न- वेद किन ग्रन्थों का नाम है?     

उत्तर- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व मन्त्रसंहिताओं का, अन्य का नहीं।

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…ब्राह्मण-पुस्तकों में बहुत से ऋषि, महर्षि और राजादि के इतिहास लिखे हैं और इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात् लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उनके जन्मे पश्चात् होता है ऐसा सिद्ध हो जावे। वेदों में किसी का इतिहास नहीं; किन्तु जिस-जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस-उस शब्द का प्रयोग किया है। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा वा विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं।

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…जैसे माता-पिता अपने सन्तानों पर कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है। जिससे मनुष्य अविधान्धकार भ्रमजाल से छूटकर विद्या विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहैं और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जायें।

प्रश्न- वेद नित्य हैं, वा अनित्य?

उत्तर- ‘नित्य’ हैं। क्योंकि परमेश्वर के नित्य होने से उसके ज्ञानादि गुण भी नित्य हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण, कर्म, स्वभाव नित्य और अनित्य द्रव्य के ‘अनित्य होते हैं।

प्रश्न- क्या यह पुस्तक भी नित्य है?

उत्तर- नहीं। क्योंकि पुस्तक तो कागज और स्याही का बना है, वह नित्य कैसे हो सकता है? किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, वे नित्य हैं।

प्रश्न- ईश्वर ने उन ऋषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से उन लोगों ने वेद बना लियें होंगे?

उत्तर- …वेद को पढ़ने के पश्चात् व्याकरण, निरुक्त और छन्द आदि ग्रन्थ ऋषि-मुनियों ने विद्याओं के प्रकाश के लिये किये हैं। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करें, तो कोई कुछ भी न बना सके। इसलिये वेद परमेश्वरोक्त हैं।…