सत्यार्थ प्रकाशका अध्ययन क्यों किया जाना चाहिए?

लेखक: पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय

‘सत्यार्थ प्रकाश’ महर्षि स्वामी दयानंद, जिन्होंने ‘आर्य समाज’ नामक संस्था की स्थापना की थी, के लेखन की उत्कृष्ट कृति है । स्वामी दयानंद आधुनिक युग के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने किसी चीज़ को जानने के लिए प्रश्न करने की भावना की वकालत की। उन्होंने किसी चीज़ की भावना को आत्मसात करने में तर्क के महत्व को महसूस किया।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के अध्ययन की आवश्यकता को समझने के लिए, हमें इन प्रश्नों के तार्किक उत्तर खोजने होंगे- स्वामीजी ने यह पुस्तक क्यों लिखी? इस किताब को लिखने की क्या जरूरत थी? इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें इस महान कृति के निर्माण की पृष्ठभूमि को देखना होगा। ईसाई वर्ष 1850 के आसपास, जब स्वामीजी अपना घर छोड़कर ‘सत्य’ की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर गए, तो अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में दो प्रमुख घटनाएँ हुईं। पहली घटना- इंग्लैंड में कार्लमारक्स द्वारा प्रतिपादित ‘समाजवाद’ के सिद्धांत की तत्काल सफलता थी। दूसरी घटना- भारत में ईसाई धर्म के प्रसार की सुविधा के लिए ऋग्वेद के अंग्रेजी में अनुवाद के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा प्रोफेसर मैक्समूलर को निमंत्रण था। भारतीयों को अपनी पवित्र पुस्तकों-वेदों के प्रति बहुत सम्मान था। अंग्रेज चाहते थे कि कोई वेद नामक शास्त्रों की कमियों का पता लगाए, ताकि कमियों को बताकर भारतीयों का उनके पवित्र वेदों पर से विश्वास उठ सके और ईसाई धर्म की शिक्षाओं को उस रिक्त हुए स्थान में स्थापित किया जा सके।

कार्लमारक्स चाहते थे कि इस दुनिया में, एक ऐसी संस्था का प्रादुर्भाव हो, जिसमें किसी भी तरह का पक्षपात न हो। वह चाहते थे कि ऐसी संस्था का ईश्वर और धर्म से कोई संबंध न हो। कार्लमारक्स का विचार था कि ईश्वर और धर्म के कारण ही समाज में समानता नहीं है।  कार्लमारक्स और उनके अनुयायी एक ऐसा समाज बनाना चाहते थे, जहां कोई भगवान या उनका प्रतिनिधि न हो, कोई धर्म न हो, कोई पवित्र पुस्तक न हो। यह, पहली विचारधारा थी।

कार्लमारक्स के विपरीत, मैक्समूलर एक कम्युनिस्ट नहीं, बल्कि एक कट्टर ईसाई थे। हालाँकि, उन्हें संस्कृत पसंद थी, लेकिन उन्हें वैदिक संस्कृति से प्यार नहीं था। उन्हें पूरे वैदिक साहित्य में ऐसा कुछ भी नहीं मिला, जिसे ईसाई धर्म की शिक्षाओं से बेहतर कहा जा सके। उन्होंने भारत में ईसाई धर्म के प्रसार के अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद किया। वह वेदों की कमियों को सामने लाना चाहते थे, ताकि भारतीयों को पता चल सके कि वैदिक संस्कृति में कुछ भी सार्थक नहीं है। ऋग्वेद का अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रोफेसर मैक्समूलर को आमंत्रित करने का कारण भारत में अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाना और इस तरह भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें स्थापित करना था। यह, उस समय की दूसरी विचारधारा थी।

विचारों की इन दो धाराओं के अलावा, भारत के कुछ लोग, हिन्दू धर्म की आलोचना करके इस्लाम के प्रसार के लिए कोशिश कर रहे थे। हालाँकि, कुछ हिंदुओं ने इन आलोचनाओं का जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उनके पास अपने दर्शन की रक्षा के लिए कोई ठोस आधार नहीं था। साथ ही उस समय पाश्चात्य संस्कृति भारतीय समाज में अच्छी गति से प्रवेश करने लगी थी। भाप के इंजन, रेल, तार आदि के आविष्कारों ने भारतीय जीवन-शैली को बहुत प्रभावित किया।

 

 

ऐसी पृष्ठभूमि में स्वामी दयानंद ने मैदान में प्रवेश किया। स्वामी दयानंद ने यूरोप में जन्म नहीं लिया, वे अंग्रेजी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं को नहीं जानते थे। उनकी सारी शिक्षा संस्कृत भाषा में हुई। उस समय, संस्कृत को एक मृत भाषा माना जाता था और इसका अध्ययन उन लोगों द्वारा किया जाता था, जिनका इस भाषा के प्रति कुछ लगाव  था। इस अध्ययन के पीछे, उनका किसी तरह की प्रगतिशीलता का विचार नहीं होता था। इस्लामी बादशाहों के आने के बाद भारत के लोगों ने ‘अरबी’ और ‘फारसी’ का अध्ययन शुरू किया, क्योंकि सभी सरकारी काम इन्हीं भाषाओं में होते थे। संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन बहुत सीमित केंद्रों तक ही सीमित था। भारत की आम जनता का संस्कृत भाषा से नाता टूट गया था। विवाह, श्मशान आदि जैसे कुछ धार्मिक अनुष्ठानों को करते समय ही इस भाषा का सहारा लिया जाता था। लगभग बीस वर्षों की कड़ी तपस्या के बाद, स्वामी दयानंद ने महसूस किया कि यह ‘वैदिक धर्म’ ही है, जो भारतीय समाज के सामने वेदों की सच्चाई को लाकर ‘साम्यवाद’, ‘ईसाई धर्म’ और ‘इस्लाम’ के हमलों पर विजय प्राप्त कर सकता है।

हालाँकि, मैक्समूलर द्वारा किए गए ऋग्वेद के गलत अनुवाद के कारण भारत में ईसाई धर्म का विकास हुआ, लेकिन वेदों की सच्चाई से इसका प्रसार बहुत बाधित हुआ। वेदों की शिक्षाओं के प्रसार के उद्देश्य से स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज ने लोगों को बताया कि ‘ईश्वर’ से दूर रहना संभव है, लेकिन, ईश्वर को छोड़ना और उसी  समय नैतिक भी रहना असंभव है।

सत्यार्थ प्रकाशका लिखा जाना

‘सत्यार्थ प्रकाश’ स्वामी दयानंद द्वारा अपने विचारों को कलमबद्ध करने के लिए हिंदी में लिखी गई एक महान पुस्तक है। जब स्वामी दयानन्द की मातृभाषा गुजराती थी, तब इस पुस्तक को हिन्दी में लिखने का भी एक उद्देश्य था। स्वामी दयानंद भारत के एक छोटे से राज्य गुजरात के मूल निवासी थे। कई क्षेत्रीय भाषाओं के होने के बावजूद भारत के तीन चौथाई लोग हिंदी समझ सकते हैं। यदि यह पुस्तक किसी क्षेत्रीय भाषा में लिखी जाती, तो इसके विचारों से अधिक लोगों को लाभ नहीं होता। हिन्दी भाषा के लिए स्वामी दयानन्द ने ‘आर्य भाषा’ शब्द का प्रयोग किया। हिन्दी भाषा के कद को बढ़ाने में इस शब्द ने बहुत मदद की। पहले स्वामी दयानन्द को हिन्दी नहीं आती थी। जब ब्रह्म समाज के श्री केशव जी ने स्वामी दयानन्द से लोगों तक पहुँचने के लिए लोगों की भाषा का उपयोग करने का अनुरोध किया, तो स्वामी दयानन्द ने इस सुझाव की उपयुक्तता पर विचार करते हुए अपने विचारों को हिंदी में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया।

हालाँकि, इस पुस्तक में कई दार्शनिक तथ्यों की व्याख्या है, लेकिन यह आम लोगों के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इस पुस्तक में दो भाग हैं। प्रथम भाग में हिन्दुओं की अनेक सामान्य मान्यताओं की तार्किक व्याख्या करने के साथ-साथ मनुष्य के जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक के व्यवहार के बारे में अनेक दार्शनिक सत्य दिए गए हैं। दूसरे भाग में दिखाया गया है कि इस देश में जितने धर्म या पंथ या मान्यताएँ हैं, चाहे वे इस देश में उत्पन्न हुए हों या विदेश में, तर्क से दूर हैं। अंत में स्वामीजी ने अपने विश्वासों और अविश्वासों का उल्लेख किया है। इस पुस्तक के परिचय में स्वामीजी ने लिखा है, “इस पुस्तक को लिखने का मेरा उद्देश्य सत्य और असत्य का वास्तविक अर्थ सामने लाना है। सत्य का अर्थ है- सभी वस्तुओं के सही स्वरूप को बोलना, लिखना और उन पर विश्वास करना, अर्थात् सत्य को ‘सत्य’ और असत्य को ‘असत्य’ के रूप में स्थापित करना। एक पक्षपाती व्यक्ति अपने ही धर्म या संप्रदाय या विश्वास की झूठी बातों को सच और दूसरे धर्म या संप्रदाय या विश्वास की सत्य बातों को झूठा साबित करने में खुद को केंद्रित रखता है। एक पक्षपाती व्यक्ति कभी भी सत्य को नहीं जान सकता। विद्वानों का यह कर्तव्य है कि वे अपने भाषणों और लेखन के माध्यम से सच्चाई को जनता के सामने लाएं। उसके बाद यह आम जनता पर निर्भर है कि वह अपनी बुद्धि के अनुसार, उसमें से सत्य को समझ लें। प्रत्येक आत्मा सत्य और असत्य को जानने में सक्षम है, लेकिन अपनी जिद्द, अज्ञानता और अपने विशेष विश्वासों के प्रति पूर्वाग्रह के कारण, वह सत्य को स्वीकार करने में विफल रहता है और झूठ की ओर झुक जाता है। असत्य बातें इस पुस्तक में अनुपस्थित हैं। चूँकि सच्ची शिक्षा ही मानव जाति के विकास का एकमात्र स्रोत है, इसलिए, इस पुस्तक में केवल वही बातें हैं, जिन्हें जानकर व्यक्ति सत्य को स्वीकार करने और असत्य को छोड़ने में सक्षम हो सकता है। इस कृति का मकसद किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है।”

 

 

इस पुस्तक के प्रथम भाग अर्थात प्रथम दस अध्यायों में स्वामीजी ने विभिन्न वैदिक सिद्धांतों की व्याख्या की है। दूसरे से पांचवें अध्याय तक, स्वामीजी ने समझाया है कि कैसे वैदिक सिद्धांत मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के विकास से संबंधित हैं। इस पुस्तक के दूसरे भाग में, जिसमें चार अध्याय हैं, स्वामीजी ने अन्य धर्मों या संप्रदायों या मान्यताओं के सिद्धांतों का संक्षिप्त वर्णन किया है, जो वैदिक धर्म से भिन्न हैं, लेकिन भारत में मौजूद हैं। हिंदू धर्म विपरीत चीजों का मिश्रण है। जब हम हिंदू धर्म की बात करते हैं, तो हमारा मतलब विशिष्ट सिद्धांतों से नहीं होता है। हिंदू धर्म को तार्किक रूप से परिभाषित करना बहुत कठिन है, बल्कि असंभव है। इसमें एक पूज्य, पूजा की एक विधि, समान रीति-रिवाज और समान सिद्धांत नहीं हैं। पशु हत्यारा और पशु-रक्षक दोनों हिंदू धर्म के दायरे में आते हैं। निस्संदेह, ऐसी दुर्दशा वेदों में निहित सिद्धांतों के अज्ञान के कारण है। अब, किन्हीं कारणों से, इस देश के मूल निवासियों को ‘हिंदू’ कहा जाने लगा है। इस पुस्तक का उद्देश्य वेदों के अनुसार मानव जाति के सच्चे धर्म को बताना है। हालांकि, वेदों का सत्य किसी विशेष जाति या पंथ के लिए नहीं है, लेकिन इस देश के लोग, जो वेदों के शब्दों को लाखों वर्षों से अपना धर्म मानते थे, उन्हें इस सत्य को जनाने की आवश्यकता थी। जनता के बीच वेदों की अप्रसिद्धि के कारण, हिंदू धर्म में कई संप्रदाय विकसित हुए, जिनकी मान्यता वेदों के विपरीत थी। इस पुस्तक के ग्यारहवें अध्याय में स्वामी जी ने दिखाया है कि कैसे ये संप्रदाय सत्य से दूर हैं। इस पुस्तक के बारहवें अध्याय में स्वामीजी ने चार्वाक, जैन सम्प्रदाय और बौद्ध सम्प्रदाय जैसे सम्प्रदायों को लिया, जो, हालांकि, इस देश में उत्पन्न हुए, लेकिन वैदिक सिद्धांतों के विपरीत थे। इस पुस्तक के तेरहवें और चौदहवें अध्यायों में, स्वामीजी ने संक्षेप में, क्रमशः ईसाई सम्प्रदाय और इस्लाम का विश्लेषण किया। ये दोनों सम्प्रदाय भारत में मौजूद हैं। इन सम्प्रदायों की आलोचना करने का उद्देश्य, यह दिखाना था कि कैसे ये सम्प्रदाय सत्य से दूर हैं। स्वामीजी का मानना ​​था कि ये सम्प्रदाय, धर्म के वास्तविक स्वरूप की अनभिज्ञता के कारण ही फल-फूल सकते हैं।

पहला अध्याय

संस्कृत व्याकरण का अधिक समावेश होने के कारण प्रथम अध्याय थोड़ा उबाऊ प्रतीत होता है। वस्तुतः यह अध्याय आगे के अध्यायों के सही स्वरूप को समझने का आधार बनता है। उस समय, आज की तरह, हिंदुओं द्वारा कई देवताओं की पूजा की जाती थी। इन देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई जाती है, जबकि, कहीं भी, इन देवताओं के नामों का उल्लेख नहीं मिलता। वेदों में भी शिव, विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवताओं के नाम मिलते हैं। इस आधार पर, इन देवताओं के उपासक अपने अनुष्ठानों को वेदों के अनुरूप मानते हैं। स्वामी दयानंद ने पहली बार देवताओं के इन नामों की तार्किक व्याख्या, संस्कृत व्याकरण के अनुसार की। उन्होंने अनेकों सवालों के जवाब दिए, जैसे कि देवता कौन हैं, क्या वे पृथ्वी पर रहते हैं या पृथ्वी से कहीं बाहर, यानि स्वर्ग में और क्या ये देवता ईश्वर के पर्याय हैं या ईश्वर देवताओं से भिन्न कोई सत्ता है? उन्होंने स्थापित किया कि वेदों में शिव, विष्णु, ब्रह्मा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि शब्दों का उपयोग एक ही ईश्वर के विभिन्न गुणों या विशेषताओं का उल्लेख करता है और इन नामों का अर्थ अलग-अलग देवता नहीं है। इसके अलावा, उन्होंने साबित किया कि एक ही चीज़ को भिन्न-भिन्न शब्दों से समझाया जाना एक आम प्रक्रिया है। भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही चीज़ के विभिन्न गुणों को बताया जाता है। इस तथ्य की अज्ञानता के कारण, हिंदुओं ने कई देवताओं की रचना की और यही उनकी मूर्ति पूजा का आधार बना।

स्वामी जी के शब्द

-जैसे ईश्वर के कईं गुण हैं, वैसे ही उसके नाम भी कईं हैं।

-ईश्वर का व्यक्तिगत नाम ओम है।

– शब्द का अर्थ, संदर्भ के आधार पर लिया जाना चाहिए।

-वह व्यक्ति महान कहलाता है, जो अपने गुणों, कार्यों और स्वभाव में महान होता है। ऐसे सभी महान व्यक्तियों में ईश्वर सबसे महान है। ईश्वर के समान कोई नहीं है और न होगा।

 

 

दूसरा अध्याय

इस अध्याय में स्वामी जी ने बच्चों की शिक्षा पर वैदिक विचार दिए हैं। स्वामी जी का मत था कि बालक की शिक्षा उसके संसार में आने के, महीनों पहले से ही प्रारंभ हो जाती है। एक बच्चे का व्यक्तित्व, उसके माता-पिता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से बहुत अधिक प्रभावित होता है। ऐसे में, स्वामीजी ने लिखा है कि माता-पिता को किस तरह की चीजें खानी चाहिए और माता-पिता की सोच और व्यवहार का तरीका कैसा होना चाहिए।

भारतीय समाज में बच्चे के जन्म को लेकर कई गलत धारणाएं प्रचलित हैं, जिन्हें बदलने की जरूरत है। ऐसी ही एक धारणा है- ‘जन्मपत्री’ यानी ‘भविष्य बताने वालों’ द्वारा बच्चे की कुंडली बनाना और ऐसी ‘जन्मपत्री’ के आधार पर बच्चे के भविष्य का अनुमान लगाना। माता-पिता की इस प्रकार की सोच ने भविष्य बताने वालों के महत्व को बढ़ा दिया है, जो नवजात शिशुओं की रंग-बिरंगी ‘जन्मपत्री’ बनाकर माता-पिता की भावनाओं से खेलकर पैसा कमाते हैं।

इनके अलावा, भारतीय समाज में ‘भूत’ और ‘प्रेत’ के बारे में भी बहुत सी गलत धारणाएँ हैं, जिनके कारण, कई मामलों में, जब बच्चे कुछ बीमारियों से पीड़ित होते हैं, तो उचित दवा के बजाय उन्हें ‘भूतों’ से इलाज का दावा करने वाले व्यक्तियों को सौंप दिया जाता है। माता-पिता की इस प्रकार की धारणाओं के कारण कई बच्चे मर जाते हैं। स्वामीजी ने माता-पिता को ऐसे स्वार्थी लोगों से सावधान रहने की सलाह दी है।

इस प्रकार की सभी बुराईयां शिक्षा की कमी के कारण उत्पन्न होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य, समाज से अज्ञान अर्थात ज्ञान की कमी को दूर करना है। स्वामीजी ने लिखा है कि बच्चों की उचित शिक्षा की व्यवस्था करना शासक का कर्तव्य है और जो माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा के लिए आवश्यक कार्यवाही नहीं करते हैं, उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।

स्वामी जी की दृष्टि में पुत्र-पुत्रियों की शिक्षा एक समान होनी चाहिए।

स्वामी जी के शब्द

-जिस बच्चे के माता-पिता धार्मिक होते हैं, वह बहुत भाग्यशाली होता है।

-सूर्य आदि सभी खगोलीय पिंड इस पृथ्वी की तरह निर्जीव हैं। ये प्रकाश वगैरह देने के अलावा कुछ नहीं कर सकते।

-‘जन्म -पत्र ‘ का नाम ‘शोक -पत्र’ रखना चाहिए। क्योंकि जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो हर कोई खुश हो जाता है, लेकिन यह खुशी उसके जन्मपत्र यानि जन्मपत्री के आधार पर बच्चे के भविष्य पर आकाशीय पिंडों के प्रभाव के बारे में सुनकर दुख में बदल जाती है।

-क्या कोई किसी को मृत्यु, ईश्वर के नियमों और ‘कर्मफल’ के सिद्धांतों से बचा सकता है?

– जो शिक्षक और माता-पिता, अपने बच्चों या विद्यार्थियों को उनकी बेहतरी के लिए डांटते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और पीटते हैं, वे वास्तव में उनके शुभचिंतक हैं और जो शिक्षक और माता-पिता, अपने बच्चों और विद्यार्थियों की सभी मांगों को मोह वशात मान लेते हैं, वे उनके भविष्य को नष्ट कर देते हैं।

-अपने बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाना, उन्हें अच्छा नागरिक बनाना और उन्हें अच्छी तरह से शिक्षित करना माता-पिता का एकमात्र कर्तव्य या धर्म है।

-माता-पिता और शिक्षकों को हमेशा अपने बच्चों और विद्यार्थियों को सच्ची शिक्षा ही देनी चाहिए। उन्हें यह सलाह भी देनी चाहिए कि वे अपने अच्छे गुणों और व्यवहारों को पल्ल्वित करें और साथ ही साथ अपने बुरे गुणों और व्यवहारों को त्याग दें।

 

 

तीसरा अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने शिक्षा प्रदान किए जाने के क्रम का उल्लेख किया है। वेदों ने मनुष्य के जीवन काल को (इसे 100 वर्ष का मानकर) 25-25 वर्ष के चार भागों में विभाजित किया है। जीवन के पहले भाग में, यानि जीवन के 25 वर्ष तक, जिसे ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ कहा जाता है, व्यक्ति को अपना पूरा ध्यान शिक्षा प्राप्त करने पर केंद्रित करना चाहिए- आध्यात्मिकता का साधारण ज्ञान और जिस कार्य क्षेत्र में उसे जाने की इच्छा हो, उस क्षेत्र का विशेष ज्ञान। स्वामीजी ने इस अध्याय में पुस्तकों की एक विस्तृत सूची दी है, जिनका अध्ययन करने से बचना चाहिए। उस समय की शिक्षा पद्धति में वेदों के स्थान पर, बच्चों को संस्कृत की वे पुस्तकें सिखाई जाती थीं, जो असत्य से भरी थीं। शिक्षा को अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने का एक बड़ा साधन मानते हुए स्वामी जी ने सलाह दी है कि अनावश्यक जानकारियों वाली पुस्तकों को छोड़ देना चाहिए या उनके प्रति उदासीन रहना चाहिए।

उस समय, संस्कृत स्कूलों में केवल वे बच्चे जाते थे, जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अंग्रेजी स्कूलों का खर्च उठाने में असमर्थ थे। इन बच्चों को  मुफ्त भोजन और किताबें प्राप्त करने के उद्देश्य से ही संस्कृत स्कूलों में भेजा जाता था। ऐसे छात्रों से संस्कृत के गौरव की वृद्धि की अपेक्षा क्यों करना? संस्कृत को मृत भाषा माना जाता था। इसका लोगों के दैनिक जीवन से कोई संबंध नहीं था। संस्कृत भाषा के विद्वान मूर्ख माने जाते थे। लोगों के बीच इस तरह की मानसिकता ने पश्चिमी संस्कृतियों को भारत में स्थापित करने में मदद की और भारतीय युवा, वैदिक संस्कृति के ज्ञान के अभाव में, पश्चिमी संस्कृतियों के मानसिक गुलाम बन गए, जिन्होंने जल्द ही उनके शरीर को भी जकड़ लिया।

इस अध्याय में स्वामी जी ने इस सोच को बदलने का प्रयास किया और वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता को दिखाया। यह नहीं माना जाना चाहिए कि स्वामीजी आधुनिक आविष्कारों के खिलाफ थे, लेकिन, उन्होंने लोगों को बताया कि ‘आर्यों’ के आविष्कार वास्तव में महान थे। आज लोग अपनी विद्या पर गर्व करते हैं और प्राचीन संस्कृति को पिछड़ा हुआ मानते हैं। स्वामीजी ने इस सोच को बदल दिया और स्थापित किया कि प्राचीन वैदिक संस्कृति, नीचा दिखाने की चीज नहीं है। प्राचीन भारतीय साहित्य में वायुयानों, जहाजों आदि का उल्लेख मिलता है। स्वामीजी का विचार था कि व्यक्ति का मानसिक विकास उसके सभी प्रकार के विकास का आधार है। ऐसे में उन्होंने शिक्षा पर बहुत जोर दिया।

स्वामीजी के शब्द

-माता-पिता, शिक्षकों और रिश्तेदारों का मुख्य कार्य अपने बच्चों को सच्ची शिक्षा के आभूषण पहनाना है।

-जिस प्रकार अग्नि से सोना आदि तत्वों की अशुद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार प्राणायाम के अभ्यास से ‘मन’ की अशुद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं। सामान्य तौर पर, प्राणायाम को सांस लेने के व्यायाम के रूप में देखा जाता है।

-ऋषियों द्वारा लिखी गई पुस्तकों का अध्ययन करना, प्रत्येक गोते में मूल्यवान मोती प्राप्त करने जैसा है।

– हमें ऋषियों द्वारा लिखी गई पुस्तकों का अध्ययन इसलिए करना चाहिए, क्योंकि वे व्यक्ति बहुत विद्वान, ज्ञानी और आत्म-साक्षात्कारकर्ता थे।

– जो व्यक्ति वेदों को नहीं मानता, वह नास्तिक कहलाता है।

-यदि कोई पुरुष या महिला विद्वान है, लेकिन उसका जीवनसाथी अज्ञानी है, तो उनके बीच कभी खुशी नहीं हो सकती।

– राजा का यह कर्तव्य है कि वह देखे कि उसके राज्य का प्रत्येक लड़का और लड़की ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए सच्ची शिक्षा प्राप्त करे।

– अन्न, जल, वस्त्र, सोना, मोती आदि वस्तुओं के दान से, वेदों के ज्ञान का दान सर्वोच्च है।

-‘यम’ को पाँच भागों में विभाजित किया गया है- ‘अहिंसा’ (दुर्भावना छोड़ना), ‘सत्य’ (सत्य सोचना, बोलना और व्यवहार करना), ‘अस्तेय’ (मन व इंद्रियों से चोरी नहीं करना), ‘ब्रह्मचर्य’ (यौन इंद्रियों का नियंत्रण करना) और ‘अपरिग्रह’ (चीजों को इकट्ठा नहीं करना)

-‘नियम’ भी पाँच भागों में विभाजित हैं- शौच (शरीर और मन से  स्वच्छ रहना), ‘संतोष’ (अधिक प्राप्त करने की इच्छा का तो होना परन्तु, साथ ही जितना मिला है, उसमें तृप्ति की भावना का भी होना), ‘तप’ (धार्मिकता के मार्ग पर आने वाली समस्याओं को सहर्ष सहना), ‘स्वाध्याय’ (आध्यात्मिक और भौतिक विज्ञान दोनों का अध्ययन करना) और ‘ईश्वर-प्रणिधान’ (अपनी प्रत्येक सम्पदा को व प्रत्येक कार्य को ईश्वर को अर्पित करना)।

-जो व्यक्ति, ‘यम’ के सभी अंगों के अभ्यास को छोड़कर ‘नियम’ का पालन करता है, वह प्रगति नहीं कर सकता।

 

 

चौथा अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने जीवन के दूसरे भाग अर्थात् 25 वर्ष से 50 वर्ष तक की आयु, जिसे ‘गृहस्थ आश्रम’ अर्थात् वैवाहिक जीवन कहा जाता है, की शिक्षा दी है। उन्होंने जीवन के इस चरण में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों के कर्तव्यों की बात की है। जिस प्रकार हमें हमारे माता-पिता ने पाला है, उसी तरह हम भी अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए ऋणी हैं। हम अपनी बारी आने पर समाज को, अपने सर्वश्रेष्ठ उत्तराधिकारी देने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। बच्चे अतीत और भविष्य के बीच एक कड़ी का काम करते हैं। एक अच्छा भविष्य बनाने का सबसे अच्छा तरीका है, अपने पूर्वजों के सभी बेहतरीन गुणों को अपने बच्चों में भरना।

स्वामीजी के समय में, विवाह प्रणाली बहुत विकृत हो चुकी थी। 3-4 साल के बच्चों की भी शादी हो जाती थी। उच्च मृत्यु दर के कारण, बच्चों की संख्या, जिनके पति या पत्नी की मृत्यु हो गई थी, करोड़ों में पहुंच चुकी थी। इस तरह की प्रथा ने, न केवल इन बच्चों के जीवन, बल्कि सामाजिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रखा था। स्वामीजी ने वेदों के प्रमाणों से स्थापित किया कि बच्चों का विवाह पाप है। हिंदुओं में यह धारणा थी कि जो माता-पिता 12 वर्ष की आयु से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं करते हैं, वे नरक में जाते हैं। स्वामीजी इस प्रथा के बहुत खिलाफ थे। उनकी धारणा थी कि 25 साल से कम के पुरुषों की और 16 साल से कम उम्र की महिलाओं की शादी नहीं करनी चाहिए। कुछ शर्तों के साथ, उन्होंने उन पुरुषों और महिलाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया, जिनके पति या पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी।

स्वामीजी के शब्द

-यदि किसी व्यक्ति का ‘ससुराल’ दूर स्थान पर रहता है, तो बेहतर है।

– महिलाओं के लिए 16-24 साल की उम्र और पुरुषों के लिए 25-48 साल की उम्र शादी के लिए अच्छी होती है।

-जिस परिवार में पति से पत्नी और पत्नी से पति प्रसन्न रहे, वहां सुख-शांति सदा बनी रहती है।

-वेदों में लिखा है कि ‘ब्राह्मण’ (समाज का सर्वोच्च वर्ग) को केवल एक बार ही विवाह करना चाहिए।

-यदि विवाह की प्रथा को न माना जाए, तो वैवाहिक जीवन के सभी मूल्य नष्ट हो जाते हैं।

-जो कोई भी वैवाहिक जीवन के बारे में बुरा बोलता है, उसका अपमान किया जाना चाहिए और जो कोई भी वैवाहिक जीवन के बारे में अच्छा बोलता है, उसका सम्मान किया जाना चाहिए।

-यह अच्छा है, अगर पुरुष और महिलाएं अपने जीवन साथी को स्वयं चुन लेते हैं। यदि विवाह माता-पिता द्वारा तय किया जाता है, तो भी, यह संबंधित पुरुषों और महिलाओं की इच्छा या खुशी के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। इस तरह, न्यूनतम विरोध होता है और बेहतर बच्चे जन्म लेते हैं।

-जिन लोगों ने समाज के उच्च वर्ग में जन्म लिया है, उनमें से केवल उन्हीं लोगों को उच्च श्रेणी में माना जाना चाहिए, जो ज्ञान और वैराग्य के साथ व्यवहार करते हैं। जिन्होंने निम्न श्रेणी में जन्म लिया है, लेकिन जो ज्ञान और वैराग्य के साथ कार्य करते हैं, उन्हें उच्च श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति, जिसने समाज की उच्च श्रेणी में जन्म लिया है, अज्ञानता और आसक्ति के साथ व्यवहार करता है, तो उसे निम्न श्रेणी में माना जाना चाहिए।

 

 

पाँचवाँ अध्याय

वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार, समाज को उसके सदस्यों के हितों के आधार पर चार खंडों में वर्गीकृत किया गया है, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज को वर्गीकृत करने के बाद, वेदों ने मनुष्य के जीवन-काल को सौ वर्ष का मानकर, उसे चार खंडों में विभाजित किया, जिन्हें आश्रम कहा जाता है, प्रत्येक 25 वर्ष का। पहला ब्रह्मचर्य आश्रम (जीवन के पहले 25 वर्षों में, प्रत्येक व्यक्ति को सामान्य रूप से ईश्वर, आत्मा और प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है और विशेष रूप से उस व्यवसाय के बारे में जिसे वह अपने बाद के वर्षों में करना चाहता है), दूसरा गृहस्थ आश्रम (जीवन के 25 वर्ष से 50 वर्ष तक, विवाह के लिए उपयुक्त व्यक्तियों से यह आशा की जाती है कि वे विवाहित जीवन व्यतीत करें), तीसरा वानप्रस्थ आश्रम (50 वर्ष के बाद व्यक्ति को एकांत स्थानों में जाकर अनासक्ति का जीवन व्यतीत करना आवश्यक है, जब तक कि वह अगले आश्रम में जाने के लिए तैयार न हो जाए) और सन्यास आश्रम (इस वर्ग के व्यक्तियों को अपना शेष जीवन ईश्वर की खोज में समर्पित करने की आवश्यकता होती है।) इस अध्याय में स्वामीजी ने वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम के कर्त्तव्यों का उल्लेख किया है। निःसंदेह मनुष्य का जीवन संसार के मोह में लिपटा हुआ है। इस लगाव के बिना, सांसारिक कार्य नहीं किए जा सकते। विकास के लिए मनुष्य में आसक्ति होनी ही चाहिए, लेकिन ज्ञान के साथ। बिना ज्ञान के आसक्ति, मनुष्य के पतन का कारण बनती है। स्थूल रूप से हम कह सकते हैं कि त्याग की भावना के उत्थान का अर्थ होता है, ज्ञान मिश्रित आसक्ति का उदय होना। सन्यास आश्रम में त्याग की भावना अपने चरम पर पहुंच जाती है। संसार को चलाने के लिए आसक्ति और त्याग भावना दोनों की आवश्यकता होती है, अर्थात दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि संसार से हमारा लगाव ऐसा नहीं होना चाहिए, जो हमें संसार से चिपके रहने के लिए विवश कर दे। त्याग की भावना की उपस्थिति मनुष्य को मृत्यु पर शोक नहीं करने में सक्षम बनाती है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति अपना घर छोड़ देता है और अपने पारिवारिक संबंधों को लगभग समाप्त कर देता है। घर वगैरह का त्याग करना, त्याग की भावना को बढ़ाने का तरीका है।

इन आश्रमों के बारे में लोगों के बीच कुछ गलत धारणाएं मौजूद हैं। कुछ लोगों का मानना ​​है कि सभी व्यक्तियों को उम्र के अनुसार एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाना चाहिए। लेकिन ये आश्रम शैक्षिक कक्षाओं की तरह हैं। जिस प्रकार किसी को अपनी निचली कक्षा को पास किए बिना उच्च कक्षा में जाने के लिए अधिकृत नहीं किया जाता, उसी तरह उच्च आश्रम में प्रवेश करने के लिए पात्रता प्राप्त किए बिना उस आश्रम में नहीं जाना चाहिए। पहला आश्रम यानि ब्रह्मचर्य आश्रम सभी के लिए जरूरी है। अगले आश्रम अर्थात् गृहस्थ आश्रम में केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रवेश करना चाहिए, जो विवाह के योग्य हों। उससे अगले आश्रम यानि वानप्रस्थ आश्रम में वही लोग जाएं, जो पिछले आश्रम में त्याग की भावना को सीखने में सफल रहे हों। वानप्रस्थ आश्रम में, इस त्याग की भावना को ओर अच्छे से उन्नत किया जा सकता है। सन्यास आश्रम में केवल उन्हीं व्यक्तियों को प्रवेश करना चाहिए, जिन्होंने अपने पिछले आश्रमों में वैराग्य की भावना को सफलतापूर्वक विकसित किया है। कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि जब गृहस्थ आश्रम सांसारिक भोगों का आश्रम है, तो यह वानप्रस्थ आश्रम, जिसे अनासक्ति आश्रम भी कह दिया जाता है, की तैयारी का स्थान कैसे हो सकता है? वास्तव में गृहस्थ आश्रम में त्याग की भावना के विकास के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। जब कोई शादी करता है, तो वह अपनी सारी संपत्ति अपनी पत्नी के साथ बांट लेता है। संतान होने पर वह अपनी संपत्ति अपने बच्चों के साथ भी बांटता है। वानप्रस्थ आश्रम में सारे प्रयास, इस त्याग की भावना को सुधारने के लिए  किए जाते हैं।           

सन्यास आश्रम में वही व्यक्ति प्रवेश करे, जो इस सारे संसार को अपना परिवार मानता हो। सन्यासी पूरे विश्व की चिंता करता है और उसके सभी कार्य, सारे विश्व के कल्याण के लिए होते हैं। चूंकि, यह बहुत कठिन आश्रम है, इसमें सभी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। इस आश्रम में केवल ब्राह्मणों को ही जाना चाहिए। यहाँ ब्राह्मण का अर्थ उन व्यक्तियों से है जो बहुत विद्वान हैं और जिनका व्यवहार नैतिकता से ओत-प्रोत है। संन्यासी व्यक्ति शिक्षकों के समान हैं। जिस प्रकार एक विद्यालय में शिक्षकों की संख्या विद्यार्थियों की संख्या से बहुत कम होती है, उसी प्रकार एक समाज में सन्यासियों की संख्या बहुत कम होनी चाहिए। देखा जाता है कि जिस समाज में सन्यासियों की संख्या आनुपातिक रूप से अधिक होती है, वहाँ यह स्थिति सन्यासियों में अज्ञान का कारण बन जाती है और ऐसे में संन्यासी गृहस्थियों के बीच अपना सम्मान खो देते हैं। कई अपराधी कानून से भागने के लिए भी सन्यासी का वेश धारण कर लेते हैं। साथ ही कई संन्यासियों को नशा करने की भी आदत होती है।  

स्वामीजी के शब्द

-जिस भी दिन मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो जाए, उसे तभी संन्यास आश्रम में प्रवेश कर लेना चाहिए।

-जिसने बुरे व्यवहार को नहीं छोड़ा है, जिसका ‘मन’ शांत नहीं है और जिसने ‘योग’ का मार्ग स्वीकार नहीं किया है, वह संन्यास आश्रम में प्रवेश करके भी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है।

-जो व्यक्ति सबसे उच्च वर्ण का है या दूसरे शब्दों में केवल वही व्यक्ति, जो विद्वान, धार्मिक और सभी के कल्याण के बारे में सोचता है, संन्यासी होने के योग्य है।

-अगर अयोग्य व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है, तो वह न केवल स्वयं अंधकार में चला जाता है, बल्कि दूसरों को भी अपने साथ अंधकार में ले जाता है।

-संन्यासी वह है, जो स्वयं उस मार्ग पर चलकर दूसरों को धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

-जो इन्द्रिय सुखों को नहीं छोड़ सकता, उसे सन्यास आश्रम में प्रवेश नहीं करना चाहिए, परन्तु जो अपनी इन्द्रियों को वश में कर सकता है, वह सन्यास आश्रम में क्यों नहीं जाता?

 

 

छठा अध्याय

इस अध्याय में स्वामी जी ने राज्य पर शासन करने के सही तरीके के बारे में बताया है। संसार में हमें, शासन करने के अनेक प्रकार के नियम मिलते हैं। एक स्थान पर राजा की शक्तियाँ सीमित होती हैं, किसी अन्य स्थान पर कोई राजा ही नहीं होता, फिर किसी ओर अन्य स्थान पर राजा के पास असीमित शक्तियाँ होती हैं। स्वामीजी एक ऐसी व्यवस्था के पक्ष में हैं, जहाँ राजा की शक्तियाँ ‘धर्म’ द्वारा सीमित हों। उसका कुछ करना सम्पूर्णतया उसकी चाह पर निर्भर नहीं करता। इस प्रणाली में, शासक, शासित द्वारा नियंत्रित होता है और शासित, शासक द्वारा नियंत्रित होता है। स्वामी जी ने एक आदर्श शासन के लिए तीन प्रकार की सभाओं की बात की है। स्वामीजी का मत है कि ‘शासित’ अपने ज्ञान की सीमा तक शासक को नियंत्रित करने में सक्षम होता है, अर्थात शासित के ज्ञान का स्तर जितना अधिक होगा, उसका शासक पर नियंत्रण उतना ही बेहतर होगा।

स्वामीजी के शब्द

-‘शासित’, शासक का अनुसरण करते हैं। ऐसे में शासक और संबंधित व्यक्तियों को कभी भी किसी भी प्रकार का बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए। बल्कि, उन्हें पूरी तरह से ‘धर्म’ के अनुरूप व्यवहार करके शासितों द्वारा अनुसरण किए जाने योग्य उदाहरण स्थापित करने चाहिए।

-एक राज्य तब तक आगे बढ़ता है, जब तक उसके सदस्य ‘धर्म’ के अनुसार व्यवहार करते हैं और अपने सदस्यों के अन्यायपूर्ण या अनैतिक होने पर वह राज्य नष्ट हो जाता है।

सातवां अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने ईश्वर के गुणों और ईश्वर द्वारा वेदों के माध्यम से मानव को ज्ञान प्रदान करने के तरीके का उल्लेख किया है। कोई वस्तु अपने गुणों से जानी जाती है। किसी वस्तु के गुणों पर सभी की एक राय होने पर ही, उस वस्तु के नाम से सभी द्वारा उस वस्तु का सही अर्थ निकाला जा सकता है।

लेकिन, ईश्वर के मामले में, लोग इस नियम को स्वीकार करने में विफल रहते हैं। आज के लगभग सभी सम्प्रदायों में ईश्वर के अस्तित्व को माना जाता है, लेकिन ये सभी सम्प्रदाय ईश्वर के गुणों के बारे में एकमत नहीं हैं।

ईश्वर के गुणों या विशेषताओं की एकमतता के अभाव में, ईश्वर में विश्वास निरर्थक हो जाता है और इसने धार्मिक मंचों में झगड़े को जन्म दिया है। स्वामीजी ने इस अध्याय में स्पष्ट किया है कि देवता कौन हैं?, उनका क्या अर्थ है? ईश्वर और भगवान के बीच क्या अंतर है? स्वामीजी ईश्वर को निराकार मानते हैं। इस दृष्टि से उनका मत अन्य सभी मतों से भिन्न है। उन्होंने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि यदि, ईश्वर को रूप वाला स्वीकार किया जाता है, तो बहुत सारी कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी और उनका समाधान करना असंभव होगा। निराकार माने जाने पर ही ईश्वर में सर्वव्यापकता का गुण हो सकता है। यदि ईश्वर को रूप वाला स्वीकार किया जाता है, तो उसकी उपस्थिति को एक स्थान विशेष पर स्वीकार करना होगा। इधर, इस अध्याय में स्वामीजी ने ईश्वर से संबंधित कई मुद्दों का समाधान किया है। उन्होंने इस तरह के सवालों के जवाब दिए हैं- ईश्वर साकार है या निराकार? , ईश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं?, ईश्वर सर्वव्यापी है या किसी स्थान विशेष पर रहता है? , क्या ईश्वर रूप धारण कर सकता है?, क्या ईश्वर में कोई परिवर्तन हो सकता है?, ईश्वर दयालु है या न्यायकारी या दोनों? स्वामीजी ने वेदों के मंत्रों के माध्यम से स्थापित किया कि ईश्वर निराकार, अपरिवर्तनीय, शरीर-रहित, शाश्वत और दयालु है।

आज पौराणिक हिन्दू अवतारवाद को मानते हैं। स्वामीजी ने उल्लेख किया है कि ईश्वर के अवतार में विश्वास करके हमें यह स्वीकार करना होगा कि ईश्वर भी आत्माओं की तरह सभी प्रकार के कष्ट भोगता है। इसके अलावा, ईश्वर को जन्म लेने की क्या आवश्यकता है? पौराणिक साहित्य में हमें ऐसी कहानियाँ मिलती हैं, जिनमें यह दिखाया गया है कि ईश्वर को किसी बुरे व्यक्ति की हत्या जैसे कार्य करने के लिए मानव शरीर में जन्म लेना पड़ा। स्वामीजी ने स्थापित किया है कि जब ईश्वर सभी व्यक्तियों के शरीरों का निर्माता है, तो वह ऐसे व्यक्तियों से अधिक शक्तिशाली है। जब वह बिना जन्म लिए, उनके शरीर बना सकता है, तो बिना जन्म लिए, उन शरीरों को नष्ट क्यों नहीं कर सकता?

स्वामीजी वेदों को ईश्वर का वचन मानते हैं। इस अध्याय में स्वामी जी ने वेदों से संबंधित कई प्रश्नों के उत्तर दिए हैं जैसे- वेद क्या हैं? वे कब और कैसे प्रकाश में आए? वेदों के माध्यम से ईश्वर द्वारा ज्ञान न देना अन्यायपूर्ण कैसे हो सकता है? , क्या वे हर बार ब्रह्मांड के निर्माण पर प्रकाशित होते हैं? प्रारंभ में वेद किसे प्रदान किए गए थे? , दूसरों को छोड़कर केवल कुछ विशेष व्यक्तियों को ही यह ज्ञान क्यों दिया गया? यद्यपि पौराणिक धर्म में वेदों का बहुत सम्मान है, लेकिन उनकी मान्यता में, सभी उपनिषदों, सभी पुराणों, रामायण, महाभारत आदि को भी वेद कहा जाता है, लेकिन स्वामीजी ने उल्लेख किया है कि, केवल, ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद के मन्त्र-भाग ही वेद हैं।

स्वामीजी के शब्द

-ईश्वर सभी देवताओं में सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि, वह इस पूरे ब्रह्मांड का निर्माता, पालनकर्त्ता, संहारक, न्याय करने वाला और स्वामी है।

-यदि ईश्वर एक स्थान पर रहता है, तो वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, ब्रह्मांड का निर्माता, पालनकर्त्ता व संहारक नहीं हो सकता।

-ईश्वर निराकार है। यदि उसे रूपवान माना जाए, तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता। यदि उसे सर्वव्यापी न माना जाए, तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता।

-ईश्वर की स्तुति करने से उसके प्रति प्रेम विकसित होता है और मनुष्य को अपना स्वभाव ईश्वर के समान बनाने के लिए प्रेरणा मिलती है। प्रार्थना करने से यह भावना विकसित होती है कि इस सृष्टि में आत्माओं से भी उच्च सत्ता विद्यमान है और यह भावना उत्साह को जन्म देती है।

-जानने का अर्थ, चीजों को वैसे ही समझना है, जैसी वे हैं।

-एक असभ्य व्यक्ति अपने आप नहीं सीख सकता, लेकिन, शिक्षक मिलने पर शिक्षा की चरम अवस्था को छू सकता है। यदि, ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में ऋषियों को नहीं सिखाया होता और ऋषियों ने अपने शिष्यों को आगे नहीं सिखाया होता, तो मनुष्य अज्ञानी ही रह जाता।

 

 

आठवां अध्याय

इस अध्याय में स्वामी जी ने एक बहुत ही दार्शनिक प्रश्न का समाधान किया है, जिसका उल्लेख संसार के किसी भी सम्प्रदाय में नहीं है। यह प्रश्न है – क्या ईश्वर ही केवल विद्यमान सत्ता है या ईश्वर के अतिरिक्त और भी सत्ताएं हैं? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है, तो उन चीजों का क्या कहना, जिन्हें हम अपने दैनिक जीवन में अनुभव करते हैं। उदाहरण के लिए, क्या हमारा अपना अस्तित्व काल्पनिक है? यदि इसे सत्य मान लिया जाए, तो, वास्तविक अस्तित्व के बिना हमारा काल्पनिक अस्तित्व कैसे संभव हो सकता है और यदि हमारा अस्तित्व काल्पनिक है, तो ‘धर्म’ की क्या आवश्यकता है? यदि, केवल  ईश्वर नाम की ही सत्ता है, तो, अन्य सत्ताओं की उत्पत्ति ईश्वर से हुई होगी या शून्य से?

शून्य से सूर्य, पृथ्वी, अन्य खगोलीय पिंडों, वायु आदि का निर्माण मानना बहुत ही अतार्किक है। हम बिना बीज के पेड़, आटे के बिना रोटी वगैरह की कल्पना नहीं कर सकते। आज भी बादल, खनिज आदि चीजें, जो ईश्वर बनाता है,  शून्य से नहीं बनती। हाँ, जिन चीजों से इनका निर्माण होता है, उनको सभी समझ नहीं पाते। इस तरह, हम दुनिया में देखते हैं कि हर प्रभाव का एक कारण होता है। यदि, हम माने कि अन्य सत्ताओं की उत्पत्ति ईश्वर से हुई है, तो इसका कोई तार्किक उत्तर नहीं है कि अन्य सत्ताओं की उत्पत्ति आखिर हुई ही क्यों या उनकी रचना का कारण क्या था? यदि हम ईश्वर को कुछ भी करने में सक्षम माने, जो बिना कारण के प्रभाव की उत्पत्ति कर सकता है, तो ऐसा ईश्वर वैज्ञानिक सोच वाला कतई नहीं हो सकता, क्योंकि, विज्ञान का यह अटल नियम है कि हर प्रभाव का कारण अवश्य होता है। 

इस अध्याय में स्वामी जी ने यह ब्रह्माण्ड क्या है, ब्रह्माण्ड की रचना क्यों की गई, इस ब्रह्माण्ड का अन्तिम परिणाम क्या है? आदि विषयों का समाधान किया है। यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर नहीं देते हैं, तो हम ईश्वर के गुणों को ठीक-ठीक नहीं समझ  सकते। यदि कोई नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण मांगता है, तो उसके इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि सृष्टि की रचना से ईश्वर का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे बढ़ई के बिना कुर्सी की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि, ईश्वर का अस्तित्व काल्पनिक होता, तो इस ब्रह्मांड का अस्तित्व वास्तविक कैसे हो सकता था?

ब्रह्मांड का अस्तित्व काल्पनिक नहीं है, बल्कि, यह अत्यंत वास्तविक है। यह बिना किसी उद्देश्य के नहीं बनाया गया है। दरअसल, हम ‘एक्सीडेंटल’ शब्द का इस्तेमाल वहां करते हैं, जहां हम कुछ समझा नहीं पाते हैं। ब्रह्मांड में सजीव और निर्जीव दोनों चीजें हैं। यह स्थापित किया गया है कि जीवित चीजें, यानी आत्माएं ईश्वर द्वारा नहीं बनाई जा सकतीं। जहाँ तक निर्जीव वस्तुओं के निर्माण का प्रश्न है, वे न तो ईश्वर द्वारा बनाई गई हैं और न ही आत्माओं द्वारा। जब इस ब्रह्मांड के संबंध में ‘सृजन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वास्तव में हमारा मतलब ‘रूपांतरण’ से होता है। संसार की रचना से हमारा तात्पर्य पहले से वर्त्तमान प्रकृति का वर्त्तमान स्वरूप में प्रकट होना होता है।  प्रकृति का मूल स्वरूप शाश्वत है। प्रकृति का अपने मूल स्वरूप से वर्त्तमान स्थिति में अभिव्यक्त होना ‘ब्रह्मांड की रचना’ और प्रकृति के अपने मूल स्वरूप में वापिस लौटने को ‘ब्रह्मांड का विघटन’ अर्थात प्रलय कह दिया जाता है।

सृष्टि-रचना और उसका प्रलय ईश्वर का एक बार का कार्य नहीं है, जैसा कि अन्य धर्मों या संप्रदायों में माना जाता है। यह एक अंतहीन श्रंखला है। दूसरे शब्दों में, यह भी कहा जाता है कि सृष्टि-रचना और उसका प्रलय, प्रवाह से शाश्वत हैं। ब्रह्मांड की रचना के पीछे एक निश्चित उद्देश्य है और यह उद्देश्य- आत्माओं का कल्याण है।

अब प्रश्न उठता है कि यह कैसे संभव है कि नियंत्रक (ईश्वर) के साथ-साथ नियंत्रित (आत्मा और प्रकृति) अनादि और अनंत हैं?  शब्द अनादि और अंतहीन केवल समय को संदर्भित करते हैं। ‘नियंत्रण’ के लिए, दो अन्य चीजें अर्थात् शक्ति और ज्ञान की आवश्यकता होती है। कम शक्तिशाली और कम जानकार अधिक शक्तिशाली और अधिक जानकार द्वारा नियंत्रित होते हैं। परमात्मा बहुत ज्ञानी और आत्माओं से बहुत शक्तिशाली है और इस अर्थ में उसे आत्माओं का ‘नियंत्रक’ कहा जाता है।  प्रकृति पूरी तरह से ज्ञानहीन है और यह आंशिक रूप से आत्माओं द्वारा नियंत्रित है और पूरी तरह से ईश्वर द्वारा नियंत्रित है।

हर चीज का अस्तित्व समय और स्थान को संदर्भित करता है।  जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, शब्द ‘अनादि और अंतहीन’ केवल समय को संदर्भित करते हैं।  जब हम कहते हैं कि एक वृक्ष मौजूद है, तो इसका स्वतः ही अर्थ होता है कि वह एक विशेष समयावधि में और एक विशेष स्थान पर मौजूद है। जो वस्तु किसी भी समय और किसी स्थान पर नहीं होती है, वह अस्तित्वहीन मानी जाती है।

प्रकृति और आत्माएं ‘सृजन’ के कार्य की वस्तु हैं, न कि ‘सृजन’ के साधन। यह ब्रह्मांड ईश्वर की व्यक्तिगत शक्ति द्वारा बनाया गया है। प्रकृति ईश्वर से बाहर नहीं है। प्रकृति और आत्माओं को अनादि और अंतहीन मानकर, ईश्वर किसी भी तरह से इन पर निर्भर नहीं होते हैं। यदि हम कहें कि ‘अ’ अपने दाँतों से रोटी खाता है, तो ‘अ’ दाँतों पर निर्भर है न कि रोटी पर, जो कि ‘अ’ की क्रिया की ‘वस्तु’ है।

स्वामीजी के शब्द

  -जैसे, आँखों का प्राकृतिक स्वभाव देखना है, वैसे ही, ईश्वर का स्वभाव है कि आत्माओं को उनके कल्याण के लिए असंख्य वस्तुएँ प्रदान करने के लिए संसार की रचना करना।

-जिस प्रकार, पृथ्वी के बिना वनस्पति का होना और बिना बादलों के वर्षा होना असंभव है। उसी तरह, बिना कारण के प्रभाव होना असंभव है।

-जिस वस्तु से दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है, उसे उत्पन्न हुई वस्तु का ‘कारण’ कहा जाता है। जो वस्तु, इस प्रकार, उत्पन्न होती है, उसे ‘प्रभाव’ कहते हैं और जो वस्तु ‘कारण’ को ‘प्रभाव’ में परिवर्तित करने की उत्तरदायी होती है, उसे कर्त्ता कहा जाता है।

 

 

नौवां अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने ‘बंधन’ और ‘इस बंधन से मुक्ति’ की व्याख्या की है।

सभी सम्प्रदायों का दावा है कि उनके सिद्धांतों का पालन करके कोई भी जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकता है, लेकिन इन सम्प्रदायों में स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया गया है कि ‘मुक्ति’ क्या है। आम तौर पर, यह धारणा है कि जो व्यक्ति ‘मुक्ति’ प्राप्त करते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं, और जो व्यक्ति ‘मुक्ति’ प्राप्त नहीं करते हैं, वे नरक नामक स्थान पर जाते हैं। स्वर्ग, जहां हम रहते हैं, वहां से भिन्न कोई स्थान है। वहां कोई दर्द नहीं होता है और बिना किसी प्रयास के सब कुछ उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार नर्क एक ऐसा स्थान है, जहां के निवासियों को बहुत कष्टदायक जीवन व्यतीत करना पड़ता है। सबसे पहले स्वामीजी ने उल्लेख किया है कि स्वर्ग और नरक भौगोलिक स्थान नहीं हैं। उनका कहना है कि स्वर्ग सांसारिक सुखों का भोग और इसी तरह, नर्क सांसारिक कष्टों का भोग है। हर सांसारिक सुख में दर्द का एक तत्व रहता है और हर सांसारिक दर्द में सुख का कोई न कोई तत्व विद्यमान रहता है। लेकिन ‘मुक्ति’ एक ऐसी स्थिति है, जिसमें किसी भी प्रकार की पीड़ा की गुंजाइश नहीं होती। इस पूरी बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है।

अस्तित्व की तीन अवस्थाएँ होती हैं-जागृत-अवस्था, स्वप्न-अवस्था और सुषुप्ति-अवस्था। जाग्रत अवस्था में हम सांसारिक सुखों और सांसारिक कष्टों दोनों का आनंद लेते हैं जैसे कि मिठाई खाने से प्राप्त सुख और रोगों से प्राप्त दर्द। स्वप्न अवस्था में हम सांसारिक वस्तुओं से सीधे नहीं जुड़े होते, लेकिन स्मृति के कारण हम इस अवस्था में सुख-दुख का आनंद लेते हैं। लेकिन सुषुप्ति अवस्था में हम केवल सुख का आनंद लेते हैं, बिना दर्द की छाया के। उदाहरण के लिए, गहरी नींद लेने के बाद, हम कहते हैं कि हमने नींद का आनंद लिया है। इस तरह का सुख तो पक्षी और जानवर भी लेते हैं, लेकिन थोड़े समय के लिए यानी गहरी नींद के दौरान ही। यह सुख ‘मुक्ति’ के सुख के समान ही होता है। यह सुख केवल दुखों की अनुपस्थिति ही नहीं है, बल्कि इसका अपना एक अस्तित्व भी है। ‘मुक्ति’ किसी प्रकार का चमत्कार नहीं है। सभी प्रचलित सम्प्रदायों ने तत्काल ‘मुक्ति’ प्राप्त करने के लिए शॉर्टकट प्रदान किए हैं। आत्मा का विकास बहुत धीरे-धीरे होता है। बुरी आदतों को छोड़ना, अच्छी आदतों को अपनाना, उचित वातावरण में जाना और बुरे वातावरण से बचना कम समय में पूरा नहीं किया जा सकता। इसे स्वयं का उदाहरण लेकर महसूस किया जा सकता है। थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त करने में भी बहुत समय और मेहनत लगती है। जाने-माने आधुनिक वैज्ञानिक न्यूटन ने कहा है, “मैं समुद्र के किनारे खड़े होकर सीपों को ही इकट्ठा करता रहा, जबकि ज्ञान का सागर मेरे सामने था, लेकिन मैं उसमें डुबकी नहीं लगा सका”। एक विद्वान व्यक्ति का सबसे बड़ा ज्ञान, यह अहसास जागृत होना है कि वह कुछ भी नहीं जानता। इन स्थितियों में, ‘मुक्ति’ प्राप्त करने के लिए कई मानव-जन्मों की आवश्यकता होती है। ‘मुक्ति’ प्राप्त करने के लिए, हमें अपने जीवन के विभिन्न दागों को साफ करने की आवश्यकता होती है। इसके अलावा हमें अपने जीवन को दागों से बचाना भी होता है। इसी क्रम में पुनर्जन्म के सिद्धांत की भी चर्चा की गई है। 

स्वामीजी के शब्द

-जिस प्रकार जड़ काटने से वृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पापों को छोड़ने से दुखों का नाश होता है।

 

 

दसवां अध्याय

इस अध्याय में, स्वामीजी ने मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर चर्चा की है कि क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए, दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि। इस अध्याय में सामान्यतः उन बुरी आदतों का उल्लेख है, जो उस समय, हिन्दू समाज में प्रचलित थीं। यह अध्याय किसी गहरे दार्शनिक मुद्दों से संबंधित नहीं है, लेकिन कई बुरी परंपराओं की बात की गई है। स्वामीजी ने कहा है कि स्वस्थ चीजें ही खानी चाहिए। उचित साधनों से अर्जित अस्वच्छ वस्तु और अधर्म से अर्जित स्वस्थ वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। मांस, व्हिस्की वगैरह न लेने की चर्चा की गई है। उस समय, यह धारणा थी कि अगर हिंदू गैर-हिंदुओं द्वारा पकाया गया भोजन लेते हैं, तो वे अपने धर्म से गिर जाते हैं। इस धारणा के कारण, हिंदू व्यापार वगैरह के लिए विदेशों में नहीं जाते थे। स्वामीजी ने बताया है कि ऐसी धारणा गलत है। उन्होंने, इतिहास का हवाला देते हुए बताया है कि पुराने समय में ‘आर्य’ कारोबार के लिए दूसरे देशों में जाया करते थे। विदेशों आदि में जाने के लिए, केवल एक चीज का ध्यान रखना होता है और वह चीज है- सफाई।

स्वामीजी के शब्द

-यह कहना गलत है कि हिंदू (आर्यवर्त्त के मूल निवासी) दूसरे देशों में जाकर अपने धर्म से गिर जाते हैं। यदि सत्य बोलना आदि नैतिक नियमों का पालन किया जाता है, तो कोई अपने धर्म से नहीं गिरता है, चाहे वह कहीं भी हो, लेकिन यदि नैतिकता का पालन नहीं किया जाता है, तो वह इस देश में रहते हुए भी अपने धर्म से गिर जाता है।

आम तौर पर, स्वामीजी की आलोचना अन्य धर्मों के खिलाफ बोलने के लिए की जाती है, लेकिन दस अध्यायों वाली अपनी पुस्तक के पहले खंड में उन्होंने सच्चे ‘स्वरूप’, यानी वैदिक धर्म की प्रकृति को दिखाने के अलावा कुछ नहीं किया है। उस समय प्रचलित संप्रदायों ने वैदिक धर्म के सत्य को ढक लिया था। ऐसे में वैदिक धर्म की बात करना भी जरूरी हो गया था। आर्यवर्त्त में प्रचलित अन्य संप्रदायों की विश्लेषणात्मक आलोचना इस पुस्तक के दूसरे खंड में की गई है, जिसमें केवल चार अध्याय हैं।

ग्यारहवां अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने आर्यावर्त में विकसित विभिन्न सम्प्रदायों की, जो स्वयं को हिन्दू कहते हैं, की आलोचना की है। हिंदू धर्म में विपरीत मान्यताओं के होने के कारण हिंदू को परिभाषित करना बहुत मुश्किल है। जो व्यक्ति ईश्वर, वेद, जाति, मूर्ति-पूजा को मानता है, वह हिंदू है और जो व्यक्ति ईश्वर, वेद, जाति, मूर्ति-पूजा को नहीं मानता, उसे भी हिंदू कहा जाता है। इस सब का कारण, हिंदू धर्म की मूल अवधारणाओं की जानकारी न होना है। पहले दस अध्यायों में, स्वामीजी ने वेदों में निहित हिंदू धर्म की इन बुनियादी अवधारणाओं की व्याख्या की है। यहां, स्वामी जी ने हिन्दू धर्म की वास्तविक अवधारणाओं के आधार पर,  हिन्दुओं में प्रचलित मान्यताओं की चर्चा की है। अपनी बात को सही ढंग से रखने के लिए, उन्होंने हिंदुओं को उनमें प्रचलित मान्यताओं के आधार पर विभाजित किया है।

  1.  कुछ हिंदुओं में यह धारणा है कि ‘धर्म’ काल के साथ बदलता है, अर्थात एक प्रथा, जो ‘सतयुग’ में धर्म थी, (समय को सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में विभाजित किया गया है) ‘कलयुग’ में धर्म नहीं है। स्वामीजी कहते हैं कि जो, सत्य बोलने, जरूरतमंदों की सेवा करने, बुरी आदतों से बचने आदि जैसी धार्मिक प्रथाएं हैं, वे समय और स्थान पर निर्भर नहीं हो सकती और तदानुसार, ‘सतयुग’ में जो धर्म था वह ‘त्रेतायुग’, ‘द्वापरयुग’ और ‘कलयुग’ में भी धर्म रहेगा।
  2. अवतारवाद – स्वामीजी ने स्थापित किया कि ईश्वर निराकार, परिवर्तनहीन और शरीर रहित है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने वेदों के शब्द-साक्ष्य दिए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, इसलिए वह रूप या शरीर धारण कर भी सकता है और नहीं भी। यह धारणा ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द के वास्तविक अर्थ को न समझने के कारण विकसित हुई है। किसी वस्तु का परिवर्तनशील होना, उसकी दुर्बलता का द्योतक है। यदि कोई वस्तु आंतरिक कारणों से बदलती है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि उस वस्तु में कोई न कोई कमजोरी या अपूर्णता है, जिसके कारण ‘परिवर्तन’ आवश्यक हो गया। यदि परिवर्तन कुछ बाहरी कारणों से है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि कोई बाहरी इकाई है, जो उस चीज़ से अधिक शक्तिशाली है।
  3. मूर्ति-पूजा– ईश्वर के निराकार होने के कारण ईश्वर का कोई चित्र, मूर्ति आदि नहीं हो सकती। देवताओं की मूर्तियाँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं और ये ‘देवताओं’ का अर्थ न समझने के कारण अस्तित्व में आईं।
  4. पीर और उनकी मजारें -कई पवित्र आत्मायों (इस्लाम में जिन्हें ‘पीर’ कहा जाता है) ने लोगों के बीच नैतिकता का प्रसार किया और लोगों को कई बुरी आदतों और प्रवृत्तियों से बचाया। लेकिन, इन महान आत्माओं की मृत्यु के बाद, लोग उनकी कब्रों या स्मारकों (समाधिओं) की पूजा करने लगे। इन महान आत्माओं के नाम से अनेक संप्रदायों की उत्पत्ति हुई।
  5. ब्रह्मसमाज-ब्रह्मसमाज के अनुयायी, आम तौर पर, पढ़े-लिखे व्यक्ति थे, लेकिन, उनके मन में इस देश और इसकी संस्कृति के लिए कोई सम्मान नहीं था। इस संस्था ने कई सम्प्रदायों के अच्छे सिद्धांतों को इकट्ठा कर फूलों का एक गुच्छा तैयार किया। स्वामीजी इस तरह की विचारधारा के खिलाफ थे। गुलदस्ते तैयार करने के लिए फूलों को उनकी जड़ों से तोड़ा जाता है। स्वामीजी फूलों को उनकी जड़ों सहित ही स्वीकार करने के पक्ष में थे।
  6. राष्ट्रवाद– स्वामीजी कृतज्ञता को धर्म का आधार मानते थे। एक व्यक्ति, जो अपने राष्ट्र के प्रति आभारी नहीं है और अपनी मातृभूमि की सेवा नहीं करता है, उससे ब्रह्मांड की सेवा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। मातृभूमि की सेवा की भावना विश्व की सेवा के लिए आवश्यक मापदंड है।
  7. भारत का इतिहास– कुछ लोगों के बीच एक सामान्य धारणा है कि भारत पर हमेशा विदेशियों का शासन रहा है। लेकिन इस अध्याय के अंत में स्वामीजी ने राजाओं के नाम और उनके ‘शासनकाल’ का उल्लेख करते हुए एक लंबा इतिहास देकर इस धारणा को गलत साबित कर दिया। 

     

बारहवां अध्याय

इस अध्याय में स्वामीजी ने तीन और सम्प्रदायों की आलोचना की है, जो आर्यावर्त्त में हिंदू धर्म की तरह विकसित हुए, लेकिन जिनकी गणना हिंदू धर्म में नहीं की जाती है। उनमें से एक चार्वाक है। चार्वाक की मान्यताएं हैं- ईश्वर नहीं है, ईश्वर को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है और एक तत्व से दूसरे तत्व के मिश्रण से जीवन की उत्पत्ति होती है। इस सम्प्रदाय के मानने वालों की धारणा है कि जिस प्रकार शराब शामक प्रभाव पैदा करती है, उसी तरह जब प्रकृति के विभिन्न तत्व एक दूसरे के साथ मिलते हैं, तो जीवन की उत्पत्ति हो जाती है। ये लोग संख्या में बहुत कम हैं और आत्माओं और ईश्वर पर विश्वास नहीं करते। इनका मत है कि जब तक कोई जीवित रहे, उसे अपने अधिकतम सुखों की व्यवस्था किसी न किसी रूप में करनी चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद व्यक्ति हमेशा के लिए अपना अस्तित्व खो देता है। इसे नास्तिकता ही कहा जाएगा।

नैतिकता को आत्माओं और ईश्वर के अस्तित्व जैसे मजबूत आधार की आवश्यकता होती है। यह एक सच्चाई है कि एक निश्चित स्तर की नैतिकता के बिना दिन-प्रतिदिन के कार्य नहीं किए जा सकते। यदि लोग अपने मामलों में पूर्णतया असत्य व्यवहार करें, तो सभी सांसारिक मामले रुक जाएंगे। उदाहरण के लिए, आइए, एक रिक्शा किराए पर लेने के मामले पर विचार करें। हमारे दिन-प्रतिदिन के इस साधारण से मामले में, दोनों पक्षों द्वारा निर्धारित किराया देने व लेने का पूरी ईमानदारी से पालन किया जाता है। यह साधारण सी नैतिकता और कुछ नहीं, बल्कि, धर्म का एक हिस्सा है। हम कह सकते हैं कि व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किए बिना, अपना सांसारिक जीवन भी नहीं चला सकता।

2          बौद्ध धर्म– यह सम्प्रदाय ईश्वर और उसके वचनों को नहीं मानता। वैसे तो इस सम्प्रदाय का जन्म इसी धरती पर हुआ था, लेकिन आज भारत में इसके अनुयायियों की संख्या बहुत कम है। म्यांमार, थाईलैंड, चीन आदि देशों में ही इस सम्प्रदाय को मानने वाले मिलते हैं। इस अध्याय में, स्वामीजी ने इस सम्प्रदाय के सिद्धांतों की अतार्किकता की एक झलक मात्र दी है।

3          जैन धर्म- बौद्ध सम्प्रदाय और जैन सम्प्रदाय, दोनों का जन्म भारत में लगभग एक ही समय में हुआ था। बौद्ध सम्प्रदाय की तरह जैन सम्प्रदाय भी ईश्वर और उनके वचनों को नहीं मानता। यह सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय की तरह इस देश  से बाहर नहीं गया है, लेकिन, भारत में इसके अनुयायी बहुत कम हैं। इस सम्प्रदाय के अनुयायी अन्य सम्प्रदायों  के व्यक्तियों को अपना साहित्य उपलब्ध नहीं कराते। जैन सम्प्रदाय का आधार ‘अहिंसा’ (किसी को कष्ट न पहुँचाना) माना गया है। वैदिक संस्कृति में, समाज में एक ऐसा माहौल बनाने पर बल दिया जाता है,  जिसमें दूसरों को कष्ट देने की किसी की इच्छा ही न रहे। वैदिक संस्कृति में दोषियों को दण्डित करना ‘अहिंसा’ के विरुद्ध नहीं माना जाता। अहिंसा शब्द का गलत अर्थ लेना हिंदुओं के पतन का एक प्रमुख कारण रहा है। जैन सम्प्रदाय के संबंध में भी, स्वामी जी ने, इस सम्प्रदाय के तर्कहीन सिद्धांतों की एक झलक ही दी है।

तेरहवां और चौदहवां अध्याय

इन अध्यायों में स्वामीजी ने इस्लाम और ईसाई सम्प्रदायों  की आलोचना की है। ये सम्प्रदाय आर्यावर्त्त में पैदा नहीं हुए थे। सदियों से इन सम्प्रदायों  ने वैदिक धर्म की आलोचना की है। हालाँकि, ये धर्म भारत में ज्यादा प्रचारित नहीं, लेकिन राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में इनका प्रभाव स्पष्ट है। बौद्ध और जैन सम्प्रदायों  के अनुयायियों के विपरीत, इन सम्प्रदायों  के अनुयायियों की जीवन शैली भारतीयों से बहुत अलग है। ईसाइयों ने अपनी राजनीतिक शक्ति और धोखे का इस्तेमाल हिंदुओं को अपने धर्म में परिवर्तित करने के लिए किया। इस दिशा में उन्हें दक्षिण भारत में निश्चित सफलता प्राप्त हुई है। लेकिन, उनके अथक प्रयासों के बावजूद, भारत में ईसाइयों की संख्या बहुत अधिक नहीं है।

तेरहवें अध्याय में स्वामीजी ने इस्लाम की आलोचना की है और चौदहवें अध्याय में स्वामीजी ने प्रतीकात्मक रूप से ईसाई सम्प्रदाय की आलोचना की है। उन्होंने बाइबिल और कुरान के कुछ अंशों पर चर्चा की है। जो व्यक्ति इन सम्प्रदायों के सिद्धांतों की तुलना वैदिक धर्म से करेंगे, वे सत्य को जान सकेंगे। स्वामीजी का उद्देश्य केवल इन सम्प्रदायों के प्रवाह को रोकना और हिंदुओं को उनके अपने धर्म का आधार प्रदान करना था। उनका मानना ​​था कि केवल वैदिक धर्म ही हर समय और प्रत्येक स्थान में सत्यता की आवश्यकता को पूरा कर सकता है। स्वामी जी इस पुस्तक को लिखकर वैदिक धर्म के अनेक दार्शनिक और गैर-दार्शनिक सिद्धांतों पर प्रकाश डालना चाहते थे, ताकि मनुष्य परम सत्य को जान सके।

इस पुस्तक के अंत में स्वामीजी ने अपनी मान्यताएं लिखी हैं। यदि, पाठक को पुस्तक में विस्तार से चर्चित अवधारणाओं पर लेखक के अंतिम विचार उपलब्ध हों, तो वह  पुस्तक को बेहतर ढंग से समझ सकता है।

-पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय