संक्षेप में, सनातन धर्म अर्थात वैदिक धर्म क्या है?

 वैदिक धर्म को ही सनातन धर्म भी कहा जाता है। ‘सनातन’ का अर्थ होता है- ऐसी चीज, जो समय अथवा स्थान के परिवर्तन के साथ नहीं बदलती। उदाहरण के लिए, ‘हमें कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए’ एक ऐसा मूल्य है, जो हर समय और हर स्थान पर सत्य रहता है। जिस प्रकार सभी जानवरों को उनके जन्म के समय आवश्यक ज्ञान दिया जाता है, उसी तरह, ‘सृष्टि’ की शुरुआत में, मनुष्य को यह ज्ञान दिया गया था कि ब्रह्मांड की विभिन्न चीजों (अपने स्वयं के शरीर सहित) का उपयोग उसके मूल ध्येय को प्राप्त करने के लिए कैसे किया जाना चाहिए। नीचे, हम ‘सनातन धर्म’ के मूल सिद्धांतों को दे रहे हैं:

– वेद मानव जाति के धर्म अर्थात मानवता की बात करते हैं। इंसानियत के बिना इंसान का कोई अस्तित्व नहीं और अगर इंसानियत के बिना इंसान है, तो वह जानवर से ज्यादा कुछ नहीं है। वेदों की कोई भी शिक्षा व्यक्तियों के किसी विशेष समूह के लिए न होकर सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है।

– आज प्रचलित अन्य सम्प्रदायों के विपरीत, जिनकी स्थापना मनुष्यों द्वारा की गई है, वेदों को ब्रह्मांड के निर्माता द्वारा दिया गया है।

– वेदों के माध्यम से यह ज्ञान मनुष्यों के सहायतार्थ वैसे ही प्रदान किया गया है, जैसे, पशुओं आदि को उनके जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान उनको जन्म के साथ ही मिल जाता है।

– चूंकि, इस ब्रह्मांड और वेदों की रचना एक ही सत्ता द्वारा की गई है, इसलिए इन दोनों में कोई विरोध नहीं हो सकता। आधुनिक विज्ञान ऐसे एक भी भौतिक सिद्धांत का पता नहीं लगा पाया है, जो वेदों में वर्णन किए हुए के विरुद्ध दुनिया में देखा जाता हो।  इसलिए हम कह सकते हैं कि वैदिक धर्म के सिद्धांत पूर्णतया वैज्ञानिक हैं और प्रकृति के नियमों के अनुरूप हैं।

– ईश्वर एक है और संसार के कण-कण में विद्यमान है। चूँकि, संसार के कण-कण में विद्यमान सत्ता का निराकार होना आवश्यक है, इसलिए ईश्वर नाम की सत्ता का कोई रूप नहीं है अर्थात वह निराकार है। ईश्वर केवल अनुभूति का विषय है।

– ईश्वर और आत्माओं के कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। परमात्मा किसी भी परिस्थिति में आत्माओं का कार्य नहीं करता।

– ‘ओम’ ईश्वर का निज नाम है। इसमें ईश्वर के सभी गुण समाहित हो जाते हैं। 

-ईश्वर, आत्मा और प्रकृति तीन शाश्वत सत्ताएं हैं, अर्थात ये कभी बनाए नहीं गए हैं और कभी समाप्त नहीं होंगे। इस सत्य को जाने व माने बिना हम आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकते। 

– ईश्वर बिना रूप धारण किए करोड़ों आकाश गंगाओं वाले इस विशाल ब्रह्मांड को बनाने में सक्षम है। वह किसी भी परिस्थिति में रूप धारण नहीं करता है।

– केवल आत्माएं अपने पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार विशिष्ट शरीरों से संयोग करती हैं। कोई भी आत्मा, जिसे शरीर मिला है भूख, प्यास, बीमारी, सर्दी, गर्मी आदि दुखों से विमुख नहीं हो सकती।

– हर कोई वहीं काटता है, जो वह बोता है। हर कर्म का कर्मफल सिद्धांत के अनुसार फल मिलता है। ईश्वर द्वारा कभी भी किसी के भी पाप क्षमा नहीं किये जाते।

– प्रत्येक जन्म में परम सत्य को प्राप्त करने की आत्मा की यात्रा जारी रहती है।

– अष्टांग योग के अभ्यास से परम सत्य की प्राप्ति ही मोक्ष का एकमात्र उपाय है। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या किसी विशेष स्थान की यात्रा करने पर किसी व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।

– भूत और बुरी आत्माएं कल्पना की उपज हैं।

– स्वर्ग या नर्क कोई भौगोलिक स्थान नहीं। इस जीवन में सुख की प्राप्ति ही स्वर्ग है और दुख की प्राप्ति ही नर्क है।

– न स्वर्ग और न ही स्वर्ग के देवताओं का कोई अस्तित्व है। माता-पिता, शिक्षक, विद्वान और दैवीय गुणों वाली प्राकृतिक वस्तुएं वास्तविक देवता हैं। वस्तुतः मानव कल्याण में योगदान देने वाले देवता कहलाते हैं।

– भगवान और ईश्वर शब्दों में अंतर होता है। बलवान, शक्तिवान, धनवान शब्दों की भांति ‘भग’ से परिपूर्ण वस्तुओं को ‘भगवान’ कहा जाता है। ‘भग’ वाली सभी वस्तुएं ईश्वर नहीं होतीं, लेकिन, ईश्वर ‘भग’ से अवश्य सम्पन्न है। इस कारण, भगवान तो कईं हो सकते हैं, परन्तु, ईश्वर एक ही है।

– प्रत्येक मनुष्य के जीवन को चार भागों में बांटा गया है, जिन्हें आश्रम कहा जाता है। मानव जीवन का पहले भाग का उद्देश्य शिक्षा प्राप्ति है। दूसरा भाग विवाहित जीवन जीने और समाज के उत्थान के लिए बच्चों को जन्म देने की बात करता है। तीसरा भाग मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आत्मा की तैयारी पर केन्द्रित है। चौथे भाग का उद्देश्य स्वयं ईश्वर की प्राप्ति कर अन्यों को उस अवस्था को प्राप्त करने में सहायता करना है।

– चार प्रकार के व्यक्ति देखे जाते हैं- विद्या से युक्त पुरुष, योद्धा, व्यवसायी और सेवक। तदनुसार, समाज के व्यक्तियों को वर्ण नामक चार खंडों में वर्गीकृत किया गया है। ये वर्ण व्यक्तियों के कर्मों की गुणवत्ता पर आधारित होते हैं, नाकि उनके जन्म के आधार पर। समाज को शिक्षित करने में सक्षम व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं, दूसरों की रक्षा करने की क्षमता और योग्यता रखने वाले व्यक्ति क्षत्रिय कहलाते हैं, विभिन्न स्थानों पर सामान पहुंचाने की क्षमता और योग्यता रखने वाले व्यक्ति वैश्य कहलाते हैं और जो व्यक्ति शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते, उन्हें समाज के अन्य तीन वर्णों की सेवा का काम सौंपा जाता है व वे शूद्र कहलाते हैं।

– सनातन धर्म में प्रत्येक व्यक्ति को निम्नलिखित पंचमहायज्ञ प्रतिदिन करने होते हैं। प्रतिदिन करने योग्य होने के कारण इन्हें नित्य कर्म भी कहा जाता है। ये महायज्ञ इस प्रकार हैं:

ब्रह्म यज्ञ- ईश्वर का चिन्तन।
देव यज्ञ या अग्निहोत्र- पर्यावरण व स्वयं की शुद्धि के लिए विशेष कर्म।
पितृ यज्ञ- माता-पिता और बड़ों की देखभाल और सेवा।
अतिथि यज्ञ- विद्वानों, सुधारकों और संन्यासियों की देखभाल और सेवा।
बलिवैश्व देव यज्ञ- गरीबों, आश्रितों और विकलांगों की देखभाल और सेवा।
यज्ञ का सरल अर्थ है- श्रेष्ठ अथवा उत्तम कर्म

– एक व्यक्ति के जीवन काल में सोलह संस्कार होते हैं, जिनका उद्देश्य शरीर, मन और आत्मा को ओर अधिक अच्छा बनाना है।

– वैदिक धर्म में बाल विवाह, नशा, भेदभाव, जुआ, मूर्ति पूजा, ज्योतिष, जानवरों को मारना, जानवरों को खाना, बहुविवाह, अस्पृश्यता आदि सामाजिक कुरीतियों का कोई स्थान नहीं है।

– ईश्वर से प्रार्थना करते समय गुरु या एक सामान्य व्यक्ति, पुरुष या महिला, एक बच्चा या एक वयस्क, अमीर या गरीब, सभी लोग समान हैं, जब तक वे विकलांग न हों। किसी को भी प्रार्थना करते समय कोई विशेष वरीयता नहीं मिलती। सब ईश्वर के बच्चे हैं। ईश्वर और आत्मा के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के लिए प्रॉक्सी के रूप में प्रार्थना नहीं कर सकता।