अथ षष्ठसमुल्लासारम्भः

विषय : राजधर्म

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जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है, वैसा विद्वान सुशिक्षित होकर क्षत्रिय को योग्य है कि इस सब राज्य की रक्षा न्याय से यथावत् करे।

-मनुस्मृति 7//2   

ईश्वर उपदेश करता है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिलके सुख प्राप्ति और विज्ञानवृद्धिकारक राजा-प्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार में तीन सभा अर्थात् विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्यसभा और राजार्य्यसभा नियत करके बहुत प्रकार के समग्र प्रजासम्बन्धी मनुष्यादि प्राणियों को सब ओर से विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।

-ऋग्वेद 3//38//6

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इसका अभिप्राय यह है कि एक को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए, किन्तु राजा जो सभापति तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन, और प्रजा राजसभा के आधीन रहे।

जो प्रजा से स्वतन्त्र स्वाधीन राजवर्ग रहे, तो राजपुरुष राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करें। जिसलिये अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके प्रजा का नाशक होता है, अर्थात् वह राजा प्रजा को खाये जाता (अत्यन्त पीड़ा करता) है, इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिए। जैसे सिंहादि पशु को मार कर खा लेते है, वैसे स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है, अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता। श्रीमान् को लूट खूँच, अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा।

-शतपथब्रह्मण 13//2//3

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….जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। महाविद्वानों को विद्यासभाऽधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्मसभा के अधिष्ठाता और प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राजसभा के सभासद् और सब के बीच में जो उत्तम पुरुष हो, उसको राजा सभा का पतिरूप मानके सब प्रकार से उन्नति करें। तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्तें, सब के हितकारक कामों में सम्मति करें। सर्वहित करने के लिए परतन्त्र और धर्मयुक्त कामों में जो -जो निज के काम हैं, उन-उन में स्वतन्त्र रहैँ।

-ऋग्वेद 1//39//2

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जो दण्ड है वही पुरुष राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता, और सबका शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का ‘प्रतिभू’ अर्थात् जामिन है।

-मनुस्मृति 7//17   

वही प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसीलिये बुद्धिमान् लोग दण्ड ही को ‘धर्म’ कहते है।

-मनुस्मृति 7//18   

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जो उस दण्ड का चलानेवाला सत्यवादी; विचार के करनेहारा; बुद्धिमान्; धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि करने में पण्डित राजा है; उसी को उस दण्ड का चलानेहारा विद्वान लोग कहते हैं।

-मनुस्मृति 7//26   

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इस सभा में चारों वेद, न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों।…

-मनुस्मृति 12//111   

…अज्ञानियों के सहस्त्रों लाखों और क्रोड़ों मिलके जो कुछ व्यवस्था करें, उसको कभी न मानना चाहिये।

-मनुस्मृति 12//113   

…जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैंकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं।

-मनुस्मृति 12//115   

सब सभासद् और सभापति इन्द्रियों के जीतने अर्थात् अपने वश में रखके सदा धर्म में वर्तें और अधर्म से हठे-हठाये रहें। इसलिये रात-दिन नियत समय में योगाभ्यास भी करते रहें। क्योंकि जो जितेन्द्रिय कि अपनी इन्द्रियों को जीते बिना बाहर की प्रजा को अपने वश में स्थापन करने को समर्थ कभी नहीं हो सकता।

-मनुस्मृति 7//44   

क्योंकि विशेषकर सहाय के बिना जो सुगम कर्म है, वह भी एक के करने में कठिन हो जाता है, जब ऐसा है तो महान राज्यकर्म एक से कैसे हो सकता है? इसलिये एक को राजा और एक की बुद्धि पर राज्य के कार्य्य का निर्भर रखना बहुत ही बुरा काम है।

-मनुस्मृति 7//55   

इससे सभापति को उचित है कि नित्यप्रति उन राज्य कर्मों में कुशल विद्वान मन्त्रियों के साथ सामान्य [मन्त्रणा] करके किसी से मित्रता, किसी से विरोध, स्थिति समय को देखके चुपचाप रहना, अपने राज्य की रक्षा करके बैठे रहना, जब अपना उदय अर्थात् वृद्धि हो तब दुष्ट शत्रु पर चढ़ाई करना, मूल राज, सेना, कोश आदि की रक्षा, जो-जो देश प्राप्त हो, उस-उस में शान्तिस्थापन उपद्रवरहित करना, इन छः गुणों का विचार नित्यप्रति किया करे।

-मनुस्मृति 7//56   

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आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए,… को पकड़ कर जो अच्छे हों बन्धीगृह में रखे और भोजन-आच्छादन यथावत् देवे, और जो घायल हुए हों, उनकी औषधादि विधिपूर्वक करे। न उनको चिड़ावे, न दुख देवे। जो उनके योग्य काम हो, करावे। विशेष इसपर ध्यान रक्खे कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलावे। उनके लड़केबालों को अपने सन्तानों के सदृश पाले और स्त्रियों को भी पाले। उनको स्वसन्तान, मां, बहिन और कन्या के समान समझे, कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी न देखे। जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाय और जिसमें पुनः युद्ध करने की शङ्का न हो, उनको सत्कारपूर्वक छोड़कर अपने-अपने घर वा देश को भेज देवे और जिनसे  भविष्यत् काल में विघ्न होना सम्भव हो, उनको सदा करागार में भी रक्खे।

-मनुस्मृति 7//93   

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राजा और राजसभा अलब्ध की प्राप्ति की इच्छा, प्राप्त की प्रयत्न से रक्षा करे, रक्षित को बढ़ावे और बढ़े हुए धन को वेदविद्या, धर्म का प्रचार, विद्यार्थी, वेदमार्गोपदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगावे।

-मनुस्मृति 7//99   

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कोई शत्रु अपने छिद्र अर्थात् निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अङ्गों को गुप्त रखता है, वैसे शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे।

-मनुस्मृति 7//105   

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राजा जिनको प्रजा की रक्षा का अधिकार देवे, वे धार्मिक, सुपरीक्षित, विद्वान कुलीन हों, उनके आधीन प्रायः शठ और परपदार्थ हरनेवाले चोर-डाकुओं को भी नौकर रख के, उनको दुष्टकर्म से बचाने के लिये राज के नौकर करके, उन्हीं की रक्षा करने वाले विद्वानों के स्वाधीन करके, उनसे इस प्रजा की रक्षा यथावत् करे।

-मनुस्मृति 7//123   

जो राजपुरुष अन्याय से वादी-प्रतिवादी से गुप्त धन लेके पक्षपात से अन्याय करें, उनका सर्वस्वहरण करके यथायोग्य दण्ड देकर ऐसे देश में रक्खे कि पुनः वे और इस बात को देख-सुन के दूसरे राजपुरुष भी इस दुष्ट काम से बचे रहैं। क्योंकि यदि उसको दण्ड न दिया जाये तो उसको देख के अन्य लोग भी ऐसे दुष्ट कर्म करने लग जाएं।….

-मनुस्मृति 7//124   

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जैसे राजा और कर्मों का कर्त्ता राजपुरुष वा प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त होवे, वैसे विचार करके राजा तथा राजसभा राज्य में ‘कर’ स्थापन करे।

-मनुस्मृति 7//128   

जैसे जोंक, बछड़ा और भमरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं, वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे।

-मनुस्मृति 7//129   

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जो महीपति कार्य्य को देख कर तीक्ष्ण और कोमल भी होवे, वह दुष्टों पर तीक्ष्ण और श्रेष्ठों पर कोमल रहने से राजा अतिमाननीय होता है।

-मनुस्मृति 7//140   

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जिस राजा के गूढ़ विचार को अन्य जन मिलकर नहीं जान सकते अर्थात् जिसका विचार गम्भीर शुद्ध परोपकारार्थ सदा गुप्त रहै, वह धनहीन भी राजा सब पृथिवी का राज्य करने में समर्थ होता है, इसलिये अपने मन से एक भी काम न करे कि जब तक सभासदों की अनुमति न हो।

-मनुस्मृति 7//148   

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सब राजादि राजपुरुषों को यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है- जो स्थिरता, शत्रु से लड़ने के लिए जाना, उनसे मेल कर लेना, दुष्ट शत्रुओं से लड़ाई करना, दो प्रकार की सेना करके स्वविजय कर लेना, और निर्बलता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना, ये छः प्रकार के कर्म यथायोग्य कार्य्य को विचार कर उसमें युक्त करना चाहिए।

– मनु-स्मृति 7//161

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सब राजपुरुषों को युद्ध करने की विद्या सिखावे और आप सीखे, तथा अन्य प्रजाजनों को सिखावे। जो पूर्व शिक्षित योद्धा होते हैं, वे ही अच्छे प्रकार लड़-लड़ा जानते हैं। ….

– मनु-स्मृति 7//197

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धर्म को जानने, ‘कृतज्ञ’ किये हुए उपकार को सदा मानने वाले प्रसन्नस्वभाव, अनुरागी, स्थिरारम्भी, लघु छोटे भी मित्र को प्राप्त होकर प्रशंसित होता है।

– मनु-स्मृति 7//209

सदा इस बात को दृढ़ रक्खे कि बुद्धिमान्, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दाता, किये हुए को जाननेहारे और धैर्यवान् पुरुष को शत्रु कभी न बनावे, क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनावेगा, वह दुख पावेगा।

– मनु-स्मृति 7//210

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…प्रजा के धनाढ्य, आरोग्य, खान-पान आदि से सम्पन्न रहने पर राजा की बड़ी उन्नति होती है। प्रजा को अपने सन्तान के सदृश सुख देवे और प्रजा अपने पिता के सदृश राजा और राजपुरुषों को जाने। यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा उनका रक्षक है। जो प्रजा न हो तो राजा किसका? और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे? दोनों अपने-अपने काम में स्वतन्त्र और मिले हुए काम में प्रीति से परतन्त्र रहैं। ….

– मनु-स्मृति 7//130

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जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य, सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है, उस सभा में सब मृतक के समान हैं, जानो उनमें कोई भी नहीं जीता।

– मनु-स्मृति 8//12

मरा हुआ धर्म मारनेवाले का नाश, और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है; इसलिये धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी भी हमको न मार डाले।

– मनु-स्मृति 8//13

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इस संसार में एक धर्म ही सुहृद है, जो मृत्यु के पश्चात् भी साथ चलता है और सब पदार्थ व संगी, शरीर के नाश के साथ ही नाश को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सबका साथ छूट जाता है, परन्तु धर्म का संग कभी नहीं छूटता।

– मनु-स्मृति 8//17

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सब वर्णों में धार्मिक, विद्वान, निष्कपटी, सब प्रकार धर्म को जाननेवाले, लोभरहित, सत्यवादियों को न्यायव्यवस्था में साक्षी करे, इनसे विपरीतों को कभी न करे।

– मनु-स्मृति 8//63

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चाहे पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित क्यों न हो, जो स्वधर्म में स्थिर नहीं रहता, वह राजा का अदण्ड्य नहीं होता। अर्थात् जब वह न्यायासन पर बैठ न्याय करे तब किसी का पक्षपात न करे, किन्तु यथायोग्य दण्ड देवे।

– मनु-स्मृति 8//335

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…यदि प्रजापुरुष से राजपुरुषों को अधिक दण्ड न होवे तो राजपुरुष प्रजापुरुषों का नाश कर देवें। जैसे सिंह अधिक और बकरी थोड़े-से ही दण्ड से वश में आ जाती है, इसलिये राजा से लेकर छोटे-से-छोटे भृत्य तक राजपुरुषों को अपराध में प्रजा से अधिक दण्ड होना चाहिये।

– मनु-स्मृति 8//336

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दुष्ट पुरुषों के मारने में हन्ता को पाप नहीं होता; चाहे प्रसिद्ध मारे चाहे अप्रसिद्ध, क्योंकि क्रोधी को क्रोध से मारना जानो क्रोध से क्रोध की लड़ाई है।

– मनु-स्मृति 8//351

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प्रश्न – जो राजा व राणी अथवा न्यायाधीश वा उसकी स्त्री व्याभिचारादि कुकर्म करे तो उनको कौन दण्ड देवे?  

उत्तर – सभा। अर्थात् उनको प्रजापुरुषों से भी अधिक दण्ड होना चाहिये।

प्रश्न – राजादि उनसे दण्ड क्यों ग्रहण करेंगे?

उत्तर – राजा भी एक पुण्यात्मा भाग्यशाली मनुष्य है। जब उसी को दण्ड न दिया जाय और वह दण्ड ग्रहण न करे, तो दूसरे मनुष्य दण्ड को क्यों मानेंगे? और जब सब प्रजा और प्रधान राज्याधिकारी और सभा धार्मिकता से दण्ड देना चाहैं तो अकेला राजा क्या कर सकता है! जो ऐसी व्यवस्था न हो तो राजा प्रधान और सब समर्थ पुरुष अन्याय में डूबकर न्याय-धर्म को डुबा के सब प्रजा का नाश कर आप भी नष्ट हो जायें। अर्थात् उस श्लोक के अर्थ का स्मरण करो कि न्याययुक्तदण्ड ही का नाम राजा और धर्म है, जो उसका लोप करता है, उससे नीच दूसरा कौन होगा!

प्रश्न – ऐसा कठोर दण्ड होना उचित नहीं, क्योंकि मनुष्य किसी अङ्ग का बनानेहारा और जिलानेवाला नहीं है, इसलिये ऐसा दण्ड न देना चाहियें।    

उत्तर – जो इसको कठोर दण्ड जानते हैं, वे राजनीति को नहीं समझते, क्योंकि एक को इस प्रकार दण्ड होने से सब लोग बुरे काम करने से अलग रहेंगे और बुरे काम को छोड़कर धर्म मार्ग में स्थित रहेंगे। इससे सच पूछो तो यही है कि एक राई भर भी यह दण्ड सब के भाग में न आवेगा। और जो सुगम दण्ड दिया जाय तो दुष्ट काम बहुत बढ़कर होने लगें। जिसको तुम सुगम दण्ड कहते हो वह क्रोड़ों गुणा अधिक होने से क्रोड़ों गुणा कठिन होता है, क्योंकि जब बहुत मनुष्य दुष्ट कर्म करेंगे, तब थोड़ा-थोड़ा दण्ड भी देना पड़ेगा। …. जैसे एक को एक मन और 1000 (सहस्त्र) मनुष्यों को पाव-पाव दण्ड हुआ तो ६/सवा छः मन मनुष्य जाति पर दण्ड होने से अधिक और यही कठोर, तथा वह मन दण्ड न्यून और सुगम होता है।

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….जो केवल आत्मा का बल अर्थात् विद्या ज्ञान बढ़ाये जायें और शरीर का बल नहीं तो एक शरीर से बली सैकड़ों विद्वानों को जीत सकता है। और जो शरीर ही का बल बढ़ाया जाय, आत्मा का नहीं, तो भी राज्य की उत्तम व्यवस्था बिना विद्या के कभी नहीं हो सकती।…. इसलिए शरीर और आत्मा के बल को सदा बढ़ाते रहना चाहिए। जैसा बल और बुद्धि का नाशक व्यवहार व्यभिचार और अतिविषयासक्ति है, वैसा और कोई भी नहीं। विशेषकर क्षत्रियों को दृढांग और बलयुक्त होना चाहिये। क्योंकि जब वे ही विषयासक्त होंगे तो राजधर्म नष्ट ही हो जाएगा।

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