वैदिक संस्कृति

संस्कृतिका अर्थ

आज ‘संस्कृति’ शब्द का अर्थ बहुत अस्पष्ट है और इसका बहुत दुरुपयोग किया गया है। अलग-अलग लोग इस शब्द के अलग-अलग अर्थ लेते हैं। सभी राष्ट्र मानते हैं कि उनकी अपनी संस्कृतियां हैं, लेकिन ये संस्कृतियां इंसानों के पाशविक नृत्य को रोकने में विफल रही हैं। आज सच्ची संस्कृति के रूप में किसी ‘नियामक शक्ति’ के अभाव के कारण मनुष्य सभी क्षेत्रों में विनाश की ओर बढ़ रहा है। केवल ‘संस्कृति’ की वैदिक अवधारणा ही मनुष्य को प्रगति और विकास की ओर बढ़ने में सक्षम बना सकती है। हम इस विषय पर पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय के कुछ विचार नीचे देते हैं:

अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर’ की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘कोलेरे’ से हुई है, जिसका अर्थ होता है- खेती करना। ‘कल्चर’ शब्द कृषि, बागवानी आदि के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंग्रेजी के एग्रीकल्चर व हॉर्टिकल्चर शब्दों में भी पाया जाता है। इसका मतलब यह है कि मूल ‘कोलेरे’ का अर्थ स्वाभाविक रूप से शब्द-संस्कृति, कृषि, बागवानी आदि में मौजूद है। कृषि या खेती एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा किसी बीज की छिपी हुई शक्तियाँ प्रकट की जाती हैं। सबसे अच्छा कृषक वह होता है, जो किसी भी स्थिति में बीज की किसी भी शक्ति को अविकसित अवस्था में नहीं रहने देता। यह संसार भी एक बगीचे के समान है, जहां सभी आत्माएं अपार शक्तियों वाले छोटे-छोटे बीजों के तुल्य हैं। बीज की समस्त शक्तियों के प्रकट होने के लिए आवश्यक है कि जिस भूमि में बीज बोया जाता है, वह अच्छी हो और किसान बुद्धिमान हो आदि। इसी प्रकार, जीवों के विकास के लिए भी कुछ विशेष प्रकार की परिस्थितियाँ और वातावरण आवश्यक हैं। वे सभी छोटी-बड़ी चीजें, जो आत्मा के विकास में सामूहिक रूप से योगदान देतीं हैं, ‘संस्कृति’ कहलाती हैं।

जैसे, हमने ‘मनुष्य’ शब्द के अर्थ पर विचार किए बिना सभी लोगों को मनुष्य कहने की आदत विकसित कर ली है, उसी तरह हम सभी संस्कृतियों को एक समान मानने लगे हैं। हम सभी को मनुष्य कहते हैं, चाहे वह बालक हो, बुद्धिहीन हो या मूर्ख व्यक्ति हो। क्योंकि, ‘मनुष्य’ शब्द का अर्थ एक विचारशील व्यक्ति होता है, इसलिए केवल विचारशील व्यक्तियों को ही ‘मनुष्य’ कहना चाहिए। ‘मनुष्य’ शब्द का गलत प्रयोग सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण से है। यही बात ‘संस्कृति’ शब्द पर भी लागू होती है। संस्कृतियों में अन्तर है। वह संस्कृति, जो मनुष्य को अपने सुप्त गुणों को सहजता से विकसित करने में मदद करती है, एक अच्छी संस्कृति कहलाती है और जो संस्कृति, इस उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहती है, खराब कही जाती है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि वहीं संस्कृति ‘संस्कृति’ कहलाने के लायक है, जो अपने वास्तविक अर्थ के करीब है। जैसे, इस संसार में अच्छे, बुरे, अज्ञानी कृषक होते हैं, वैसे ही विभिन्न गुणों और संस्कारों के मनुष्य उत्पन्न करने वाली ‘संस्कृतियां’ होती हैं।

जब कोई देश दूसरे देश पर आक्रमण करता है, तो वह यह नहीं कहता कि वह उसके बाजार पर कब्जा करना चाहता है, बल्कि यह कहता है कि वह उस देश के लोगों को ‘सुसंस्कृत’ बनाना चाहता है। निर्दोष लोगों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों का भी यही कहना है कि उन्होंने मानव कल्याण के लिए हत्याएं की हैं। ऐसे लोग संस्कृति के नाम पर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर इस सृष्टि की सुंदरता को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार हैं। यह सब हमारे ‘संस्कृति’ शब्द की सच्ची भावना को न जानने अथवा भूलने के कारण होता है। आज, धर्म, उपयोगितावाद, सामाजिक-विज्ञान आदि नामों वाले कई संगठन हैं, जो यह प्रचार करते हैं कि उनके सिद्धांत मानव जाति के विकास के लिए सर्वोत्तम हैं। इतनी सारी संस्कृतियों की मौजूदगी के कारण, एक आम आदमी का हैरान होना कि उसे कौन सी संस्कृति अपनानी चाहिए, बहुत स्वाभाविक है।

सदियों से पश्चिमी देशों ने पुरानी संस्कृतियों को पीछे धकेल कर अपनी संस्कृतियों को दुनिया के सामने रखा है। मनुष्य ने सोचा था कि पाश्चात्य संस्कृतियाँ उसे विकास और प्रगति करने में सक्षम बनाएंगी लेकिन, समाज में व्याप्त स्वार्थ और अराजकता ने उसे गलत साबित कर दिया है। यह सिद्ध हो चुका है कि हम कल्पना में विचरण कर रहे हैं, जहाँ आत्मा की बात ही नहीं की जाती। यदि प्रचलित संस्कृतियों के द्वारा हम अपनी आत्मा और समाज में शांति और विकास नहीं ला पा रहे हैं, तो हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि हमसे क्या और कहाँ गलती हुई है। हमें ‘वास्तविक संस्कृति’ का पता लगाना चाहिए। संस्कृति शब्द का सही अर्थ जानने के लिए हमें अपने पूर्वजों की सफलताओं और असफलताओं से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए।

संस्कृति और सभ्यता

शब्द-‘संस्कृति’ और ‘सभ्यता’ पर्यायवाची नहीं हैं, लेकिन उनका पारस्परिक सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ है। आज बहुत से लोग मानते हैं कि गौरी त्वचा वाले लोग सभ्य होते हैं, पीली त्वचा वाले व्यक्ति कुछ-कुछ सभ्य होते हैं और काली त्वचा वाले लोग असभ्य होते हैं। वे मानते हैं कि न्याय, मानवता और मानवीय जीवन के प्रति सम्मान जैसे गुणों के बजाय मनुष्य की त्वचा का रंग सभ्यता का पैमाना है। गौरी त्वचा वाले व्यक्ति को, अशुद्ध हृदय वाला होने पर भी सभ्य मानना और काली त्वचा वाले व्यक्ति को, शुद्ध हृदय वाला होने पर भी असभ्य मानना बहुत ही अतार्किक और अप्रगतिशील है।

‘सभ्य’ शब्द मूल शब्द ‘सिविल’ की क्रिया है, जिसका अर्थ होता है- ‘समाज से सम्बन्धित’। इस तरह, ‘सभ्यता’ एक ऐसी चीज है, जो मनुष्य को एक ऐसे समाज का निर्माण करने में सक्षम बनाती है, जो बदले में उसके जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कराने में सहायक होता है। किसी व्यक्ति की सामाजिक विशालता, उस व्यक्ति के हृदय की विशालता के अनुपात में होती है। सभ्य होने का एक ही तरीका है और वह है- अधिक से अधिक प्राणियों के कल्याण के लिए कार्य करके अपने हृदय की विशालता को बढ़ाना।

निःसंदेह, वैज्ञानिक विकास ने मानव समाज का बहुत भला किया है, लेकिन इसने मानव समाज का बहुत बड़ा अहित भी किया है। इसने हमारे दिलों में संकीर्णता ला दी है। डार्विन जैसे वैज्ञानिकों ने यह दिखाने की कोशिश की है कि यह प्रकृति स्वार्थ पर आधारित है। वास्तव में, इस प्रकृति या दुनिया में, मनुष्यों और पशुओं के अस्तित्व के नियम समान नहीं हैं। मनुष्य के विपरीत, पशुओं में निःस्वार्थता का पूर्ण अभाव होता है। दूसरों का बुरा करना अथवा चाहना, सभ्यता की निशानी नहीं है। सभ्य होने के लिए व्यक्ति में न्याय और मानवता के गुणों का होना आवश्यक है। दयालुता शक्ति का परिचायक है। दया को अभिशाप मानने वाले वैज्ञानिक विज्ञान का सही अर्थ नहीं समझते। प्रकृति हमें केवल दूसरों के प्रति निर्दयी होना नहीं सिखाती। मानव-माँ न केवल अपने बच्चे की देखभाल करती है, बल्कि उसे दूसरों के कल्याण के लिए अपना सब कुछ त्याग देना भी सिखाती है। यह सभ्यता का प्राथमिक पाठ होता है। हमारे जन्म के समय, हम अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए काफी कमजोर थे और हमारा अस्तित्व दांव पर लगा था। फिर, हमारी माताएँ हमारे बचाव में आईं और उन्होंने हमारे जीवन की सुरक्षा के लिए व हमें सांसारिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाने के लिए बहुत सारे सुखों का त्याग किया।

ऊपर, हमने कहा है कि ‘सभ्यता’ शब्द का अर्थ है- ‘समाज से सम्बन्धित चीज’। मन और हृदय की व्यापकता, त्याग की भावना, न्याय, मानवता आदि का उल्लेख सभ्य व्यक्ति के गुणों के रूप में किया गया है। ये सभी गुण सुसंस्कृत’ व्यक्ति के भी होते हैं। फिर, ‘सभ्यता’ और ‘संस्कृति’ शब्दों में अंतर क्या है? इन दोनों शब्दों के अर्थ परस्पर जुड़े हुए हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि आत्माओं की सुप्त शक्तियों को प्रकट कराने वाले नियम ‘संस्कृति’ हैं, जबकि इन नियमों के पालन से उत्पन्न होने वाली जीवन शैली को ‘सभ्यता’ कहा जाता है। इसी कारण खेती, उद्योग, भाषा, साहित्य, कला, विज्ञान और धर्म को ‘सभ्यता’ के घटक कहा गया है। सभ्यता तभी सार्थक मानी जाती है, जब वह संस्कृति के साधन के रूप में कार्य करती है। हमें यह देखना चाहिए कि क्या एक विशेष सभ्यता एक समाज बनाने के लिए साथ आईं आत्माओं की छिपी शक्तियों को प्रकट करने में सहायक है? यदि, यह सहायक है, तो किस हद तक? यदि कोई सभ्यता समाज के एक वर्ग की कीमत पर समाज के दूसरे वर्ग के विकास का प्रयास करे, तो क्या उसे वास्तविक सभ्यता कहा जा सकता है,? क्या कोई सभ्यता समाज के कुछ सदस्यों की सुप्त शक्तियों के प्रकटीकरण को अनदेखा कर रही है? यदि, ऐसा है, तो वह सभ्यता अपना सांस्कृतिक आधार खो देती है। एक समाज को सभ्य तभी कहा जा सकता है, जब उसके सभी सदस्य विकसित हों न कि केवल कुछ सदस्य।

संस्कृति और समानता

एक धारणा है कि ईश्वर की नजर में सभी समान हैं। लेकिन, वेदों में कहीं भी ऐसी धारणा का समर्थन नहीं किया गया है। कोई भी दो चीजें कभी बराबर नहीं होतीं। हाथी और चींटी के शरीर एक समान कैसे हो सकते हैं? प्रगति के विभिन्न पड़ावों को छूती आत्माएं एक समान कैसे हो सकती हैं? ‘समानता’ का नारा पूरी तरह से काल्पनिक है और आरम्भ में, इस शब्द का प्रयोग कुछ अतार्किक व्यक्तियों द्वारा चीजों की ‘एकता’ को जताने के लिए किया गया था।

चीजों में इस असमानता के कारण, ‘संस्कृति’ की अवधारणा को कार्यान्वित करना कठिन हो गया है। जिन आत्माओं में सभ्यता के गुणों का समावेश कराना होता है,  वे प्रगति के विभिन्न स्तरों पर खड़ी होती हैं। अगर उनमें समानता होती, तो उन्हें ‘सुसंस्कृत’ बनाने का काम बहुत आसान हो जाता। यदि, सभी छात्र समान शारीरिक और मानसिक क्षमताओं अर्थात समान आयु, समान उद्देश्य, समान साधनों वाले होते तो, शिक्षकों का कार्य कितना आसान हो जाता? एक छोटे से बगीचे में, एक माली को विभिन्न गुणों और क्षमताओं वाले बीजों से निपटना पड़ता है। हर बीज की आवश्यकताएं अलग-अलग होती हैं और उनके विकास में समान खेती, समान उर्वरक, समान सिंचाई आदि काम नहीं आते। सभी बीजों की आवश्यकताओं में अंतर माली के कार्य को और अधिक जटिल बना देता है। एक छोटे से बगीचे के संबंध में जो सच है, वह इस दुनिया के संबंध में भी सच है।

फारसी भाषा में एक कहावत है कि ईश्वर ने सभी अंगुलियों को एक समान नहीं बनाया है। अब सवाल यह उठता है कि दुनिया में आखिर असमानता क्यों है? विभिन्न वस्तुओं के बीच असमानता उनमें सामंजस्य लाने के उद्देश्य से होती है। वैदिक संस्कृति इस ब्रह्मांड के सभी प्राणियों के विकास के बारे में सोचती है, लेकिन अन्य संस्कृतियां केवल मनुष्य के विकास के बारे में सोचती हैं, जैसे कि यह पूरी दुनिया केवल मनुष्य के लिए बनाई गई है और मनुष्य की रचना किसी अन्य प्राणी के लिए नहीं है। अन्य संस्कृतियाँ अन्य प्राणियों के विकास की बात नहीं करतीं। सभी संस्कृतियां इस बात पर सहमत हैं कि मनुष्य इस ब्रह्मांड की सर्वश्रेष्ठ रचना है। लेकिन, यह विशाल ब्रह्मांड केवल मनुष्यों के लिए कैसे हो सकता है? मनुष्य इस बिन्दु पर  तर्कपूर्ण ढंग से विचार ही नहीं करना चाहता। उसका ऐसा करना बिलकुल शेर की भांति है। शेर दूसरों को मारना ही जानता है। उसका तर्क से कोई लेना-देना नहीं होता। सिर्फ शक्ति और दूसरों को मारने की क्षमता के कारण, शेर को सभ्य नहीं कहा जा सकता। सभ्य व्यक्ति को अलग ढंग से सोचना चाहिए। उसका मुख्य उद्देश्य सच्चाई का पता लगाना होता है। मनुष्य की रचना तभी सर्वश्रेष्ठ है, जब वह अन्य प्राणियों के अस्तित्व का सम्मान करे। यदि, कोई व्यक्ति यह सोचता है कि केवल उसका अस्तित्व ही महत्वपूर्ण है और अन्य प्राणियों को उसके उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही बनाया गया है, तो ऐसे व्यक्ति को मूर्ख के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता।

यह नहीं समझना चाहिए कि वैदिक संस्कृति विभिन्न चीजों के बीच सभी प्रकार की असमानताओं का असमर्थन करती है। असमानताएं अच्छी व बुरी दोनों होती हैं। अच्छी असमानताएँ एक प्रकार की ‘एकता’ उत्पन्न करती हैं, जबकि बुरी असमानताओं का पूरी ताकत से विरोध करना आवश्यक है। ‘समानता’ की अवधारणा को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम फिर से, विभिन्न आकारों की अपनी उंगलियों का उदाहरण लेते हैं। हमारी उंगलियाँ  अपनी असमानता के कारण ही एकजुट हो पातीं हैं। यदि, वे सभी अपने आकार में ‘समान’ होतीं, तो उनके लिए एकजुट होना संभव न होता। केवल एक विशेष प्रकार की असमानता ही ‘एकता’ ला सकती है। अन्य सभी प्रकार की असमानताएँ ‘एकता’ के लिए हानिकारक हैं। यही बात मानव समाज पर भी लागू होती है। एक और उदाहरण लीजिए। संतरे के रस में चीनी, नमक आदि सामग्री पर विचार करें। ये सभी सामग्रियां अलग-अलग या असमान हैं, लेकिन इन्हें प्रकृति ने ऐसे अनुपात में मिलाया है कि संतरे का रस स्वादिष्ट लगता है। यह बात ब्रह्मांड के प्राणियों के संबंध में भी सच है। मनुष्य को चाहिए कि वह विभिन्न प्राणियों के बीच की असमानताओं का सम्मान करे और उनके विकास के लिए प्रयास करे ताकि इस ब्रह्मांड के निर्माण का उद्देश्य पूर्ण हो सके। सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति होने के कारण मनुष्य का कर्त्तव्य बनता है कि वह स्वयं के साथ-साथ अन्य प्राणियों के कल्याण के बारे में भी एक पिता की भाँति सोचे। एक पिता खुद की देखभाल करने में असमर्थ अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए बाध्य है। ब्रह्मांड के अन्य प्राणियों के प्रति सभी मनुष्यों का यहीं दृष्टिकोण होना चाहिए। ‘वैदिक संस्कृति’ में इस तरह के विचारों का समावेश अद्वितीय है।

संस्कृति और आत्मा

हम अपने बच्चों, पति, पत्नी, धन, ज्ञान, शक्ति आदि को दूसरों की खुशी के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए प्यार करते हैं। निःसंदेह आत्मा ही वह केन्द्र बिन्दु है, जिसके चारों ओर मनुष्य का सारा संसार अर्थात् माता-पिता, शिक्षक, बच्चे, पति, पत्नी, मित्र, कैरियर, नौकरी, संपत्ति, धन आदि घूमता है। इस में स्वार्थ की गंध आती प्रतीत होती है, लेकिन यह एक महान दार्शनिक सत्य है और इसी सत्य पर सच्ची संस्कृति आधारित है। वास्तव में, वह व्यक्ति स्वार्थी होता है, जो स्वयं को भूलकर अन्य सांसारिक लोगों के हितों में लीन रहता है। अपने स्वयं के स्वरूप को जानने और दूसरी सत्ताओं को उससे भिन्न समझने के पीछे यह सच छिपा है। स्वार्थ का वास्तविक अर्थ अपने सभी कार्यों को अपने लिए न करके अपने से भिन्न सत्ताओं के लिए करना है, ताकि अपनी स्वयं की उन्नति सम्भव हो सके। जैसे, अपने कपड़ों को साफ रखने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अपने आप को  गंदगी से बचाता है, उसी तरह एक सभ्य व्यक्ति को अपने आप को उन कृत्यों से बचाना चाहिए, जो उसे नीचे गिराने वाले हैं।

जिस प्रकार, बगीचे का केंद्र बीज होता है, उसी प्रकार हमारे सभी कार्यों का केंद्र बिंदु हम स्वयं होते हैं। हम स्वयं ही अपनी सफलताओं और असफलताओं के मापक यन्त्र होते हैं। यह हमारा स्वयं ही है, जो बाहरी दुनिया के साथ हमारे संबंध को तय करता है। इसी कारण से कहा जाता है कि स्वयं को जान लेने पर संसार का सब कुछ ज्ञात हो जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि ‘स्व’ को सर्वोत्तम मापक यन्त्र क्यों माना जाता है? इस प्रश्न का उत्तर वैदिक साहित्य की एक महत्वपूर्ण पुस्तक, ‘कठोपनिषद’ में मिलता है। यह पुस्तक कहती है- ‘यह शरीर एक वाहन है, जिसका चालक बुद्धि है, मन ब्रेक व एक्सलरेटर है और इंद्रियां इंजन हैं।’ वाहन की सुंदरता तभी सार्थक हो पाती है, जब वह अपने मालिक के उद्देश्य को पूरा करने के लिए चलता है, अन्यथा, वह अपनी ताकत और अच्छे दिखने के बावजूद बेकार है। आज हमारा सारा ध्यान हमारे शरीर पर है, मानो ये शरीर ही ‘असली पुरुष’ हो। हमें ऐसे विचारों की आवश्यकता है, जो हमें बताएं कि हम शरीर नहीं, बल्कि आत्मा हैं।

संस्कृति और ईश्वर

जो संस्कृति, आत्मा के विकास की बात करती है, उसका ईश्वर से सम्बन्धित होना स्वाभाविक है। सच्ची संस्कृति का मूल उद्देश्य ही आत्मा का विकास होता है। लेकिन, विकास हमेशा कुछ नियमों में बंधा हुआ होता है। ये नियम क्या हैं और इन नियमों का रचयिता कौन हैं? ‘हमें सच बोलना चाहिए’- आत्माओं के विकास के नियमों में से एक है। ईश्वर इस पूरे विश्व का नियंत्रक है और उसी ने सजीव व निर्जीव वस्तुओं के नियमों को रचा है। आंखों से देखना है, कानों से सुनना है, गुरुत्वाकर्षण के नियम, आकाशीय पिंडों की गति आदि कुछ ऐसे नियम हैं, जो उसके द्वारा निर्जीव वस्तुओं के लिए बनाए गए हैं। आधुनिक विज्ञान ने स्वयं को जड़ वस्तुओं को नियंत्रित करने वाले नियमों को जानने व मानने तक ही सीमित कर लिया है। यह एक निर्भ्रान्त तथ्य है कि बनाने वाले के बिना कोई नियम नहीं हो सकता। यह एक विरोधाभास है कि आधुनिक विज्ञान उन नियमों को तो स्वीकार करता है, जिनके कारण जड़ वस्तुएं गति करती हैं, लेकिन यह उन नियमों के निर्माता को स्वीकार करने से मना करता है। इस अर्थ में आधुनिक विज्ञान पूर्णतया अवैज्ञानिक है। एक संस्कृति, जो ईश्वर द्वारा बनाए गए नियमों की निश्चितता को स्वीकार नहीं करती, अयोग्य और अर्थहीन है। संसार, जिसका रचयिता अथवा शासक किसी निश्चितता से बंधा नहीं है, मूर्खों के दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं होगा। यदि कोई ईश्वर को संसार की सजीव और निर्जीव वस्तुओं को नियंत्रित करने वाले नियमों के निर्माता के रूप में स्वीकार नहीं करता है, तो वह ईश्वर को किस सत्ता से बदलेगा? क्या वह सत्ता अंधी-आकस्मिक-वाद होगी? ऐसा विचार किस प्रकार की ‘संस्कृति’ को जन्म देगा? इस तरह की अनिश्चितता के आधार पर कोई भी संस्कृति विकास को प्राप्त नहीं हो सकती।

कुछ लोगों को लगता है कि लोगों के धार्मिक झुकाव के कारण ही हमारा सांस्कृतिक उत्थान नहीं हो पाता। इस अवधारणा को जड़ वस्तुओं के उपासकों द्वारा प्रतिपादित किया गया है और मूर्खों द्वारा इसके गुण-दोषों पर विचार किए बिना इसका अनुसरण किया जा रहा है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि धार्मिक मान्यताएं भी गलत हो सकती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि अध्यात्मवाद को संस्कृति के दायरे से ही अलग कर देना चाहिए। आइए, इस विचार को एक उदाहरण के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं। यदि, किसी व्यक्ति के भोजन में जहर हो, तो उसे भोजन ही न करने की सलाह नहीं दी जाती। बल्कि, उसे विष रहित और स्वास्थ्यवर्धक आहार लेने की सलाह दी जाती है और शरीर के रख-रखाव के लिए स्वस्थ-आहार लेने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए, ऐसे भोजन को प्राप्त करने के साधनों को बताया जाता है। इसी तरह, यदि कुछ धार्मिक विश्वासों में किसी प्रकार के स्वार्थ के कारण मिलावट कर दी गई है, तो हमें अध्यात्मवाद को सीधे तौर पर खारिज करने के बजाय उन गलत बातों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि एक समाज को गलत अध्यात्मवाद से उतना नुकसान नहीं होता, जितना कि इस विश्वास से कि प्रकृतिवाद ही सब कुछ है।

सभ्य व्यक्तियों को नैतिकता, अनैतिकता, अपने प्रति व अन्यों के प्रति कर्त्तव्यों, अकर्त्तव्यों का पूरा ज्ञान होना चाहिए। स्वयं को और ईश्वर को जाने बिना इन्हें नहीं जाना जा सकता। ईश्वर के ज्ञान और साक्षात्कार के बिना स्वयं का ज्ञान और बोध अधूरा होता है। नैतिकता, अनैतिकता, कर्त्तव्यों और अकर्त्तव्यों का ज्ञान अच्छे समाज का आधार है। कोई अनैतिक कार्य तभी करता है, जब उसे अपने स्वयं के और ईश्वर के सच्चे स्वरूप का बोध नहीं होता। स्वयं के सच्चे स्वरूप का ज्ञान ईश्वर की भक्ति से ही संभव है। ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से संसार को चलाने वाले नियमों के प्रति सम्मान विकसित होता है। ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से ही हम स्वयं को इस पूरे ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा स्वीकार कर पाते हैं और हमारा यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि हमारा स्वयं का कल्याण दूसरों के कल्याण में ही छुपा हुआ है। जिस समाज के सदस्यों में इस प्रकार की भावनाएँ होती हैं, उसे सभ्य समाज कहा जाता है और जिस समाज के सदस्यों में अपने स्वयं, अन्य प्राणियों व सार्वभौमिक सत्य के प्रति सम्मान नहीं होता, उसे सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता।

ऊपर, हमने ‘संस्कृति’ में ईश्वर की अनिवार्यता को स्थापित किया है। सच्ची संस्कृति को जानने के लिए ईश्वर के केवल वैदिक स्वरूप को ही स्वीकार किया जाना चाहिए। आज के समाज में जो भी गलत बातें देखने को मिलती हैं, वे सभी वेदों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप से भिन्न ईश्वर के स्वरूप को स्वीकार करने के कारण हैं। यहां, हम वेदों में वर्णित ईश्वर के कुछ गुणों और हमारे समाज में उन्हें स्वीकार न करने के दुष्प्रभावों की व्याख्या कर रहे हैं।

वेदों में ईश्वर को इस ब्रह्मांड का शासक कहा गया है। यह शासक निस्वार्थी, न्यायकर्त्ता व सभी का कल्याण चाहने वाला है। अब, हम इन तथ्यों का हमारे समाज में प्रचलित सम्बन्धित विचारों के साथ विश्लेषण करते हैं।

  • दुनिया के प्रत्येक संप्रदाय में ईश्वर को इस ब्रह्मांड का शासक कहा जाता है और यह माना जाता है कि ईश्वर के समान कोई नहीं है। फिर, यह कैसे संभव है कि ईश्वर के कार्यों में आत्माओं का, जिनका बौद्धिक स्तर ईश्वर के मुकाबले नगण्य है, किसी प्रकार का योगदान हो?
  • शासक के सभी कार्य शासित वर्ग के कल्याण के लिए होते हैं। शासक यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि ‘शासित’ का एक वर्ग ‘शासित’ के दूसरे वर्ग को क्षति पहुंचाए।

  • ‘शासित’ के मन में शासक की छवि तय करती है कि उसके कार्य राज्य के कल्याण के लिए होंगे या नहीं। यदि ‘शासित’ की यह धारणा है कि उसका शासक अन्यायी और आवेगी है, तो वह हीन भावना से ग्रसित हो जाएगा या वह विद्रोही बन जाएगा। यदि ‘शासित’ को लगता है कि उसका शासक कमजोर है, तो उसमें सत्ता परिवर्तन की इच्छा पैदा हो जाएगी। यदि, ‘शासित’ को लगता है कि उसका शासक बुद्धिमान, दयालु, शक्तिशाली और न्यायप्रिय है, तो उसके अंदर शासक के प्रति सम्मान व सहायता करने की भावना विकसित हो जाएगी। इसी तरह, यदि ईश्वर को आवेगी माना जाता है, जो न्याय आदि के नियमों से बंधा नहीं है, तो उसके अनुयायी निस्संदेह अज्ञानी, अंधे-अनुयायी, चापलूस और सिद्धांतहीन होंगे। ऐसे लोगों का विपरीत विचार रखने वाले व्यक्तियों के प्रति व्यवहार बहुत क्रूर और शत्रुतापूर्ण होता है। जो समाज, आवेगी ईश्वर में विश्वास रखता है, उसमें बुरे लोग ही रहते हैं।
  • मनुष्य के बुरे कर्मों का परिणाम बुरा ही होता है। ईश्वर का यह सिद्धांत शाश्वत है और तथाकथित धार्मिक व्यक्तियों के किसी भी कार्य से इसे बदला नहीं जा सकता।
  • ईश्वर के सभी कार्य पूरी तरह से आत्माओं के कल्याण के लिए हैं। आसक्ति के साथ इस दुनिया की विभिन्न चीजों का आनंद लेते हुए आत्मा अपने लिए दुख ही लाती है और यह दुख तभी दूर हो सकता है, जब उसे ईश्वर की महानता का एहसास हो जाए। जब कोई व्यक्ति ईश्वर को सर्वज्ञ, ज्ञानी और इस संसार के रचयिता के रूप में जान लेता है, तो उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं। यह सब, इंगित करता है कि ईश्वरीय भावना के उदय होने पर आत्मा में नैतिक मूल्यों का विकास होता है। मन तब तक गन्दे विचारों से भरा रहता है, जब तक कि वह ईश्वर को जान न ले। एक समाज तभी सुसंगठित होता है, जब उसके सदस्यों में आध्यात्मिक भाईचारे के कारण कल्याण और प्रेम की भावना उपजती है। शारीरिक भाईचारा परिवार के बढ़ने के साथ अपनी सुंदरता व एकजुटता खो देता है। यही कारण है कि भौतिक भाईचारा एक अच्छी संस्कृति को जन्म देने में विफल रहता है। रिश्तेदारों से प्यार करना और दूसरों से नफरत करना सभ्य व्यक्तियों के लक्षण नहीं हैं। जानवर भी अपने बच्चों से प्यार करते हैं। जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि भौतिक भाईचारे की भावना से उत्पन्न होते हैं। यजुर्वेद में एक कहावत है कि जो व्यक्ति सभी प्राणियों में ईश्वर को अनुभव करता है, वह दुख से दूर हो जाता है। ईश्वर एक सर्वोच्च सत्ता है, जो एक आत्मा को दूसरी आत्मा से जोड़ती है। सभी आत्माओं को ईश्वर की सन्तान मानना एक अच्छी संस्कृति का आधार है। बहुत से लोग कहते हैं कि वे दूसरों को ईश्वर की संतान मानते हैं। वे आध्यात्मिक भाईचारे की अवधारणा को कितनी अच्छी तरह समझ सके हैं, इसका अंदाजा तभी हो सकता है, जब वे गधे को अपना भाई मानने में शर्म महसूस न करें।
  •  ईश्वर की वैदिक अवधारणा ईश्वर और आत्माओं के बीच किसी मध्यस्थ को नहीं मानती। ईश्वर सभी आत्माओं से समान दूरी पर है। निस्संदेह सभी शिक्षक अपने शिष्यों से बड़े होते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर के सम्मुख शिक्षकों को अपने शिष्यों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार मिल जाता है। धार्मिक क्षेत्रों में देखी जाने वाली अधिकांश दुर्भावना ईश्वर के स्वरूप के विषय में अवधारणाओं में अंतर के कारण नहीं है, बल्कि यह उन लोगों की मानसिकता के कारण है, जो कहते हैं कि आध्यात्मिकता पर उनका या उनके शिष्यों का एकाधिकार है।

सामाजिक व व्यक्तिगत विकास और संस्कृति की अन्योन्य आश्रयता

इस संदर्भ में एक प्रश्न पूछा जाता है कि जब संस्कृति का उद्देश्य आत्माओं का व्यक्तिगत विकास है, तो एक अच्छी संस्कृति में ‘सामाजिक विकास’ का क्या औचित्य है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही सरल है। दरअसल, आत्माओं की सुप्त शक्तियां अपने आप विकसित नहीं हो सकतीं। इसके लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता होती है। एक आत्मा के विकास के लिए अन्य आत्माओं के संपर्क के साथ-साथ एक स्वस्थ शरीर की भी आवश्यकता होती है। भौतिक तत्वों के विकास से हम अच्छे और स्वस्थ शरीर को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन, आत्मा के विकास के लिए हमें अभौतिक तत्वों अर्थात अन्य आत्माओं के संपर्क की आवश्यकता होती है। आत्मा के विकास से हमारा तात्पर्य उन अदृश्य और सूक्ष्म प्रभावों से है, जो एक आत्मा दूसरी आत्मा पर प्रेम, दया, सहिष्णुता, आत्म-नियंत्रण आदि गुणों के रूप में डालती है।  ये गुण आत्मा में अपने आप उत्पन्न नहीं हो सकते। एक अच्छी संस्कृति के निर्माण के लिए एक अच्छे सामाजिक संगठन की भूमिका अकाट्य है। तदनुसार, वेदों में सामाजिक स्वास्थ्य पर बहुत बल दिया गया है। ‘समाज’ सदस्यों का एक सामूहिक नाम है और समाज का उसके सदस्यों से भिन्न अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। इस कारण, एक विकसित समाज में, उसके सदस्यों के हितों और समाज के हितों के बीच कोई अंतर नहीं हो सकता। अपने सभी सदस्यों के हितों के बारे में सोचना समाज का कर्त्तव्य है। इसके लिए समाज के प्रत्येक सदस्य को न केवल अपने व्यक्तिगत हितों के लिए अपने अधिकारों को, बल्कि, दूसरों के हितों के लिए अपने कर्तव्यों को भी समझना चाहिए। आइए, इस बिंदु को एक शरीर के उदाहरण से समझते हैं। उसी शरीर को स्वस्थ कहा जा सकता है, जिसका हर अंग स्वस्थ हो। अगर व्यक्ति के सिर में दर्द हो, तो उसका सिर ही नहीं, पूरा शरीर अशान्त हो उठता है। यदि शरीर के केवल एक अंग में अशांति हो, तो यह समझना चाहिए कि शरीर और उसके अंगों में सामंजस्य की कुछ कमी है। यह संभव नहीं है कि कोई अंग, यह भूलकर कि वह शरीर का एक हिस्सा है, शरीर को कष्ट दे सके। यहीं बात समाज के संबंध में भी सत्य है। जिस हद तक कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए सामाजिक हितों का त्याग करने को आवश्यक मानता है, उस हद तक उस समाज को बीमार माना जाना चाहिए। यदि समाज और उसके सदस्य के हितों में संघर्ष होता है, तो सदस्य के हितों को अन्य सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए तिरोहित करना आवश्यक हो जाता है। यह काम स्वयं समाज द्वारा या किसी बाहरी शक्ति द्वारा किया जाता है। व्यावहारिक रूप से व्यक्तिगत कमजोरियों और स्वार्थों के रूप में सामाजिक बीमारियां हर समाज में हर समय मौजूद रहती हैं, लेकिन जब तक ऐसी व्यक्तिगत कमजोरियों और स्वार्थों का अनुपात बहुत कम होता है, तब तक समाज को ‘पीड़ित’ नहीं माना जाता। हमारा व्यवहार नैतिक मूल्यों के जितना करीब होगा, उतने ही अधिक हम आध्यात्मिक होंगे।

जातिवाद और सामाजिक बंधन

हम सामाजिक आवश्यकताओं को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रख सकते हैं:

  1. भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति
  2. अनावश्यक हस्तक्षेप से सुरक्षा
  3. बौद्धिक और आध्यात्मिक खाद्य सामग्री की पूर्ति

प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए इन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता होती है, लेकिन वह स्वयं इन्हें पूरा नहीं कर सकता। लोगों में क्षमताओं के अंतर को स्वीकार करते हुए, वेदों ने विभिन्न क्षमताओं के लोगों को चार भागों में वर्गीकृत किया है- ब्राह्मण (इस वर्ग के लोगों का कार्य है- लोगों की बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करना), क्षत्रिय (इस वर्ग के लोगों का कार्य है- अनावश्यक हस्तक्षेप से लोगों की सुरक्षा की आवश्यकता को पूरा करना), वैश्य (इस वर्ग के लोगों का कार्य है- लोगों की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना) और शूद्र (ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की शारीरिक श्रम द्वारा सहायता करना)। समाज के सदस्यों को उनकी क्षमताओं के अनुसार वर्गीकृत करने की इस प्रणाली को वैदिक वर्ण व्यवस्था के नाम से जाना जाता है।

जो लोग अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार कृषि, पशुपालन, कला, उद्योगों के माध्यम से माल बनाने, माल की आपूर्ति करते थे, उन्हें वैश्य कहा जाता था। सत्ता और वैभव प्राप्त करने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को दूसरों के हितों की रक्षा करने का कार्य आंबटित किया जाता था और उन्हें क्षत्रिय कहा जाता था। पढ़ने-पढ़ाने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को समाज में ज्ञान बढ़ाने का कार्य दिया जाता था और वे ब्राह्मण कहलाते थे। अब, चौथे और अंतिम प्रकार के व्यक्ति वे होते थे, जो कम बुद्धि के होने के कारण अपने लिए किसी भी कार्य का चयन करने में असमर्थ होते थे। लेकिन, वैदिक विचारों में ऐसे लोगों को न तो त्यागा जाता था और न ही उपेक्षित किया जाता था, बल्कि उन्हें अन्य तीन उपरोक्त श्रेणियों के निर्देशानुसार शारीरिक श्रम (जैसे, खाना बनाना, गड्ढा खोदना, सामान ढोना आदि) करके, उनके व्यक्तिगत विकास का अवसर दिया जाता था। ऐसे व्यक्तियों को शूद्र कहा जाता था। इस प्रकार, वेदों में व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के लिए समाज के प्रत्येक सदस्य की सभी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करने की परिकल्पना की गई है। व्यक्तिगत विकास तभी संभव है, जब क्षमता का उपयोग उसके स्वामी की इच्छा से हो। जिस प्रकार शरीर के हित के विरुद्ध कार्य करने वाले अंग को बीमार कहा जाता है, उसी प्रकार, उपर्युक्त श्रेणियों के व्यक्ति बीमार हैं, यदि वे समाज के विकास के विरुद्ध कार्य करते हैं। वर्ण व्यवस्था के अनुसार समाज को वर्गीकृत करने के बाद, वेदों ने मनुष्य के जीवन काल (मनुष्य के जीवन काल को सौ वर्ष मानते हुए) को 25-25 वर्षों के चार खंडों में विभाजित किया। ऐसे प्रत्येक खंड को आश्रम कहा जाता था।

वैदिक वर्ण व्यवस्था, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार भागों में समाज के वर्गीकरण की प्रणाली को जातिवाद का समर्थन करने वाली प्रणाली नहीं कहा जा सकता। बल्कि, यह बहुत उदार है और समाज के विभिन्न सदस्यों के व्यक्तिगत हितों को महत्व देती है। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि समाज का कोई भी सदस्य अपने व्यक्तिगत विकास के अवसरों से वंचित न रहे।

आज की सामाजिक कुरीतियों का मौलिक कारण यह है कि सभी चीजों को भौतिक दृष्टि से ही देखा जाता है व उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया जाता है। वैदिक वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था की खूबी यह है कि ये पूरी तरह से आत्मा के आंतरिक गुणों पर आधारित हैं। लोग अपराध तभी करते हैं, जब वे एक अच्छे कार्य को एक बुरे कार्य से अलग नहीं कर पाते। समाज से बुराइयों को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘सामाजिक विकास के लिए वैदिक विचारों’ को  अपनाना है।

विवाह की व्यवस्था

जब जानवरों को अपनी संख्या बढ़ाने के लिए ‘विवाह’ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती, तो मनुष्य के लिए इस की क्या आवश्यकता है? कुछ लोगों को लगता है कि विवाह की व्यवस्था इस अर्थ में अप्राकृतिक है कि यह पुरुष और महिला को अन्य प्राणियों की तरह समाज से सीधे जुड़ने से मना करती है। इसलिए, परिवार को मनुष्य और समाज के बीच की एक और कड़ी क्यों मानना चाहिए? ऐसे लोग विवाह को एक प्रकार की दासता, स्वतंत्रता को हरने वाली और अपने पूर्ववर्तियों द्वारा मनुष्य पर थोपी गई एक अवांछित संस्था मानते हैं। लेकिन, इस तरह के विचारों की वकालत उन युवाओं द्वारा की जाती है, जो ऐयाशीपूर्ण जीवन जीने की लालसा रखते हैं।

मनुष्य की तुलना जानवरों से करना बहुत गलत है। जानवर न तो किसी कार्य को करने में स्वतंत्र हैं और न ही अच्छी और बुरी चीज के बीच अंतर करने में सक्षम हैं। केवल मनुष्य ही धर्म के मार्ग पर चलने में सक्षम है। मनुष्य जब धर्म के मार्ग पर चलता है, तो वह अपने आप को पशुओं से श्रेष्ठ सिद्ध करता है। केवल मनुष्य ही अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर सकता है और किसी कार्य को त्याग की भावना से कर सकता है। जानवरों के पास यह सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य अपनी बुद्धि की सहायता से धर्म और अधर्म के मार्ग को जान सकता है व चुन सकता है। धर्म और कुछ नहीं बल्कि, सही और गलत के बीच अंतर करना है।

हमें इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए कि जानवरों की तुलना में मनुष्य की अपनी इन्द्रियों के सुखों के आगे झुकने की संभावना अधिक होती है। उसकी इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए धर्म और अधर्म का भेद आवश्यक है।

धैर्य, प्रेम, त्याग की भावना आदि कुछ ऐसे गुण हैं, जिन्हें केवल विवाह नामक संस्था के माध्यम से ही विकसित किया जा सकता है। विवाह के बिना भाई, बहन, दादा, दादी, चाचा, चाची आदि संबंधों का कोई अर्थ नहीं। जब मनुष्य जन्म लेता है, तो वह अपने आप को इन सभी संबंधों से घिरा हुआ पाता है, जो उसके लिए अपना सब कुछ बलिदान करने को तैयार रहते हैं। जीवन की इससे अच्छी शुरुआत नहीं हो सकती।

विवाह नामक संस्था के महत्व को देखते हुए, वेदों ने इस संस्था के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त निर्देश दिए हैं।

‘विवाह’ में देखी जाने वाली समस्याओं का समाधान इस संस्था को समाप्त कर देना नहीं है। इन समस्याओं का समाधान इस संस्था के वास्तविक उद्देश्य को समझकर व उसके अनुरूप व्यवहार करके ही किया जा सकता है।

कृषि और संस्कृति

जीवित रहने के लिए भोजन प्रत्येक जीव की प्रथम आवश्यकता है। मनुष्य अपने भोजन के लिए पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर नहीं रह सकता। भोजन की अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए प्रकृति से परे जाने की आवश्यकता उसके लिए एक वरदान बन गई, क्योंकि अन्यथा, उसे जानवरों की भांति, प्रकृति ने जो कुछ भी प्रदान किया है, उससे ही तृप्त रहना पड़ता। भोजन की इस मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए मनुष्य को कृषि का सहारा लेना पड़ा। विभिन्न फसलों के उत्पादन के लिए भूमि को तैयार करना पड़ता है व कृषि के अन्तर्गत आने वाले अनेक कार्य करने पड़ते हैं। मनुष्य को जो उच्च गुण प्रदान किए गए हैं, वे उनके उपयोग से ही सार्थक हो पाते हैं। वेदों में सैकड़ों मंत्र हैं, जो विभिन्न फसलों, भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के वैज्ञानिक साधनों, सिंचाई के महत्व, खेती के विभिन्न तरीकों आदि की बात करते हैं। विभिन्न फसलों के उत्पादन और उनके उपयोग के बारे में ज्ञान रखने वाला समाज असभ्य नहीं हो सकता। आज विकसित देशों में भी कृषकों का उतना सम्मान नहीं है, जितना वैदिक काल में था। वेदों की ओर लौटने का अर्थ है- समाज में कृषकों की स्थिति में सुधार।

पशु और संस्कृति

आज मनुष्य ने कईं मशीनों का आविष्कार कर लिया है, जो अधिक उत्पादक हैं और जिन्होंने मनुष्य का काम तुलनात्मक रूप से बहुत आसान कर दिया है। इन मशीनों ने जानवरों की जगह ले ली है और इस कारण, जानवरों को महत्व देने का विचार आधुनिक लोग के लिए हंसी का विषय हो सकता है। लेकिन, हमारा अपनी वैज्ञानिक सफलताओं पर गर्व करना 100% सही नहीं। इन अविष्कारों का एक मतलब यह भी है कि जानवरों को मानव निर्मित मशीनों से बदलकर हमने इन प्राणियों से विकास के उनके अवसर को छीन लिया है। एक व्यापक दृष्टिकोण से देखने पर, एक चरवाहा, जिसने अपने कुत्ते को अपनी भेड़ों पर  प्रहरी की भांति अपने रास्ते से भटकने से बचाने के उद्देश्य से आंख रखना सिखाया है, अपनी व कुत्ते की जाति के लिए बहुत उपकार का कार्य करता है। यह काम किसी इलेक्ट्रिक मशीन का आविष्कार करके भी लिया जा सकता था, लेकिन, उसने ऐसा न करके परिवार के मुखिया होने के अपना कर्तव्य को निभाया है।

मनुष्य ने अपने घरों में उपयोगी जानवरों को रखकर अनजाने में इन जानवरों को सभ्यता का पहला पाठ पढ़ाया है। कैसे? किसी गांव या कस्बे की गाय जंगल में रहने वाली गाय से ज्यादा सभ्य होती है। वेदों में पशुओं से संबंधित बहुत से मंत्र हैं। इस दृष्टि से देखें, तो पशुपालन के क्षेत्र में वैदिक काल की सफलताएँ बहुत उत्तम थीं।

कुछ लोग सोचते हैं कि वेदों में गोहत्या, गाय का मांस खाने आदि का उल्लेख मिलता है। लेकिन, जब वेदों में ऐसी कोई बात, जो वैदिक ऋषियों और वैदिक नैतिकता के इतिहास से प्रमाणित होती हो, लिखी ही नहीं गई है, तो वेदों को अपराधी मानना बहुत गलत और अन्यायपूर्ण है। एक फूल है, जिसकी संरचना गाय के होठों से मिलती जुलती होने के कारण, अंग्रेजी में उसे ‘गाय का होंठ’ कहा जाता है। यदि 500-1000 वर्षों के बाद, लोग इस शब्द के वास्तविक अर्थ को भूलकर यह सोचें कि यह शब्द गाय के अंश का बोध कराता है, तो क्या यह बहुत बड़ी मूर्खता नहीं होगी? अतः इस प्रकार की समस्याओं से बचने के लिए शब्दों के अर्थों की व्याख्या करते समय हमें अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए। वेदों में, जानवरों के दूसरों के जीवन के लिए खतरनाक हो जाने पर ही उनकी हत्या को अनुमोदित किया गया है।

कला, उद्योग और संस्कृति

कृषि से उत्पन्न उपज को मानव समाज के लिए उपयोगी उत्पादों में बदलने के लिए उद्योगों की आवश्यकता होती है। साथ ही कृषि के लिए आवश्यक उपकरण बनाने के लिए भी उद्योगों की आवश्यकता होती है। फसलें स्वतः उत्पन्न नहीं होतीं। इसके लिए मानव-बुद्धि को उपयोग में लाना होता है। ईश्वर सबसे बड़ा रचयिता है और रचनात्मकता का यह गुण मनुष्य में अन्तर्निहित है। विभिन्न उद्योगों के माध्यम से अलग-अलग चीजें बनाना और कुछ नहीं, बल्कि उस रचनात्मकता को प्रकट करना है। मनुष्य जानवरों की तरह नहीं है, जो भोजन, आश्रय आदि के लिए प्रकृति द्वारा प्रदान की गई चीजों से ही संतुष्ट हो जाते हैं। मकड़ी, मधुमक्खियां, चींटी आदि को छोड़कर सभी पशु अपनी उन्नति के लिए स्वयं कुछ भी नहीं करते। मकड़ी, मधुमक्खियां, चींटियां आदि जानवर अपनी उन्नति के लिए प्रयास तो करते हैं, लेकिन उनके काम में किसी  तरह की भी कोई बेहतरी नहीं होती। मनुष्य के कार्यों में समय और ज्ञान के साथ विकास देखा जाता है। जो मनुष्य, हर चीज के लिए ईश्वर की बनाई चीजों पर निर्भर रहता है और अपनी रचनात्मकता से उनमें अपनी तरफ से कुछ भी योगदान नहीं देता, वह ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं जान सकता। जैसे, जो शिष्य अपने शिक्षक के गुणों की प्रशंसा तो करता है, लेकिन अवसरों के बावजूद शिक्षक द्वारा सिखाए ज्ञान को प्रकट नहीं करता, उसे एक अच्छा शिष्य नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के संबंध में भी यही सच है।

इस दुनिया में कई जीव हैं और प्रत्येक जीव अपनी क्षमता, प्रवृत्ति, शक्ति, रुचि और आवश्यकता के मामले में दूसरों से भिन्न है। ये अन्तर मानव समाज के विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के विकास को जन्म देते हैं। वेदों में उद्योगों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। दरअसल, दैनिक उपयोग की सभी चीजें, चाहे वह पिन हो या किसी राजनीतिज्ञ की कलम या सेना की बंदूक, उद्योगों पर निर्भर करती हैं। वैदिक साहित्य को अच्छी भावना से देखने पर यह अच्छी तरह से महसूस किया जा सकता है कि कला और उद्योगों के विकास का श्रेय आर्यों अर्थात वेदों के अनुयायियों को ही जाता है।

वस्त्र और संस्कृति

यद्यपि संस्कृति में पहनावा बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन, इसे सच्ची सभ्यता का प्रतीक नहीं कहा जा सकता। इसी तरह, एक सभ्य व्यक्ति का सामाजिक होना आवश्यक है और एक सामाजिक व्यक्ति का अच्छे वस्त्र पहनना आवश्यक है, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि अच्छे वस्त्रों में लिपटा व्यक्ति सुसंस्कृत ही हो।

आध्यात्मिक विकास एक जादूगर के कार्य की भांति तत्काल नहीं होता। स्थूल शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्मा की सूक्ष्म आवश्यकताओं के विकास के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है, जो धीरे-धीरे ही तय की जाती है। संस्कृति और सभ्यता के सम्बन्ध में विभिन्न चीजों को ठीक से समझने के लिए हमारा अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली इस क्रमिक प्रगति को समझना आवश्यक है।

कपास के उत्पादन और वस्त्र बनाने के बीच कईं चरण होते हैं और यदि, वस्त्र पहनने वाला व्यक्ति यह जान जाता है कि वस्त्र पहनना उसके अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन मात्र है, तो कपड़े पहनने का यह कार्य उसके आध्यात्मिक विकास में सहायक हो जाता है। उपर्युक्त विचार वेदों के कई मंत्रों में पाए जाते हैं। हमें यह महसूस करना चाहिए कि वस्त्रों के साथ हमारा रिश्ता हमेशा के लिए नहीं है।

व्यापार और संस्कृति के प्रसार के लिए दूसरे देशों में जाना

हमारे काम, कला और बुद्धि की वास्तविक उपयोगिता इसी में है कि हमारी कृषि और उद्योगिक समान को अन्य देशों में भी ले जाया जाए। वेदों का एक महत्वपूर्ण भाग उन व्यक्तियों को समर्पित है, जो कृषि, कला और व्यवसाय से संबंधित गतिविधियों को करते हैं। एक मजबूत समाज एक अच्छी संस्कृति का आधार होता है और व्यावसायिक प्रगति के लिए विभिन्न देशों में जाने से समाज को मजबूती मिलती है।

मकान निर्माण की कला और संस्कृति    

रहने के लिए जगह एक प्राणी की बुनियादी आवश्यकता है। पशु इस मूलभूत आवश्यकता को प्राकृतिक आवासों से पूरा करते हैं। लेकिन, मनुष्य ईश्वर द्वारा दी गई बुद्धि का उपयोग इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए करता है। जानवरों को बुद्धि नहीं दी गई है। गृह निर्माण-कला का विकास इसी दिशा में एक कदम है।

वास्तव में, मनुष्य द्वारा आत्मा के निवास स्थान- शरीर के रख-रखाव के लिए विकसित की गई हर चीज,  संस्कृति का हिस्सा बन जाती है।