वेदों का महत्त्व
-स्वामी जयदीश्वरानन्द सरस्वती
जैसे दही में मक्खन, मनुष्यों में ब्राह्मण, ओषधियों में अमृत, नदियों में गंगा और पशुओं में गौ श्रेष्ठ है, ठीक इसी प्रकार समस्त साहित्य में वेद सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
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वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र के कल्याण के लिए दिया गया था। वेद वैदिक-संस्कृति के मूलाधार हैं। वे शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए नौकारूप हैं। वेद में मनुष्य जीवन की सभी प्रमुख समस्याओं का समाधान है। वेद सांसारिक तापों से सन्तप्त लोगों के लिए शीतल प्रलेप हैं, अज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए वे प्रकाश स्तम्भ हैं, भूले-भटके लोगों को वे सन्मार्ग दिखाते हैं, निराशा के सागर में डूबनेवालों के लिए वे आशा की किरण हैं, शोक से पीड़ित लोगों को वे आनन्द एवं उल्लास का सन्देश प्रदान करते हैं, पथभ्रष्टों को कर्तव्य का ज्ञान प्रदान करते हैं, अध्यात्मपथ के पथिकों को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का उपदेश देते हैं। संक्षेप में वेद अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं।
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वेद धर्म की मूल पुस्तक है। वेद वैदिक विज्ञान, राष्ट्रधर्म, समाज-व्यवस्था, पारिवारिक-जीवन, वर्णाश्रम-धर्म, सत्य, प्रेम, अहिंसा, त्याग आदि को दर्पण की भाँति दिखाता है।
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जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र वा कार्य में परिश्रम करता है, वह जीते-जी अपने कुलसहित शीघ्र शूद्र हो जाता है।
-मनुस्मृति २//१६८
वेद के मर्मज्ञ और रहस्यवेत्ता महर्षि मनु ने अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वेद की गौरव-गरिमा का गान किया है। वे लिखते हैं-‘ ‘सर्वज्ञानमयो हि सः।’ वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं।
-मनुस्मृति २//७
वेद में कौन-कौन से विज्ञान भरे हुए हैं?
वेद पितर, देव और मनुष्य सबके लिए सनातन मार्गदर्शक नेत्र के समान है। वेद की महिमा का पूर्णरूपेण प्रतिपादन करना अथवा उसे पूर्णतया समझना अत्यन्त कठिन है। चारों वर्ण, तीन लोक, चार आश्रम, भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान विषयक ज्ञान वेद से ही प्रसिद्ध होता है। यह सनातन (नित्य) वेदशास्त्र ही सब प्राणियों का धारण और पोषण करता है, इसलिए मैं इसे मनुष्यों के लिए भवसागर से पार होने के लिए परम साधन मानता हूँ।
-मनुस्मृति
मनुजी ने तो यहाँ तक लिखा है-तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है।
-मनुस्मृति २//१६६
‘जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक (दुखविशेष) को प्राप्त होता है।’
-मनुस्मृति ६//३७
‘क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके, अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए।’
-मनुस्मृति ३//२
आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्य, अनुचित (unfit) हो जाएँ। महर्षि मनु ईश्वर को न माननेवाले को नास्तिक नहीं कहते, अपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं।
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वैशेषिक दर्शन (१0//१//३ में कहा है-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्।।
अर्थात् ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतः प्रमाण हैं।
एक अन्य स्थान पर वेद की महिमा का वर्णन इस प्रकार है।
बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।
–वैशेषिक दर्शन ६//१//१
अर्थात् वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है।
उसमें सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं, अत वह ईश्वरीय ज्ञान है।
सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं। महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है –
वेद पौरुषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरूषेयत्व सिद्ध ही है।
-सांख्य दर्शन ५//४६
वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
-सांख्य दर्शन ५//५९
वेदान्त दर्शन (१//१//३) में कहा है-
वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है।
इस सूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य पठनीय है। हम यहाँ उसका हिन्दी रुपान्तर दे रहे हैं-
‘ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनानेवाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है।’ ….
मीमांसा शास्त्र के कर्त्ता जैमिनि ने तो धर्म का लक्षण ही इस प्रकार किया है-
चोदनालक्षणोर्थो धर्मः।।
अर्थात् जिसके लिए वेद की आज्ञा हो, वह धर्म और जो वेदविरुद्ध हो वह अधर्म है।
–मीमांसा १//१//३
नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्।।
अर्थात् शब्द नित्य है, नाश रहित है, क्योंकि उच्चारण क्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है, वह अर्थ ज्ञान के लिए ही है। यदि शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान न हो सकता।
–मीमांसा १//३//१८
इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेद के गौरव, नित्यता और स्वतः प्रमाणता का वर्णन करते हैं।
ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्त्व का प्रदर्शन करनेवाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहाँ हम केवल तैत्तिरीब्राह्मण ३//१0//११//३ की एक आख्यायिका देना पर्याप्त समझते हैं।
‘‘महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ३00 वर्ष पर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा-‘‘यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगेॽ भरद्वाज ने उत्तर दिया-मैं उस आयु को भी ब्रह्मण धर्म का पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करुँगा। तब इन्द्र ने पर्वत के समान तीन ज्ञान-राशिरूप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्ठी भरकर भरद्वाज से कहा-‘‘ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं, इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। ‘अनन्ता वै वेदाः’ वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने ३00 वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। ३00 वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।’’
ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्त्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है-
या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी।
–वा0 रा0 अयो0 ५४//२४//२५
जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था- हे वत्स ! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की ओर ही लगा रहता था, अब उस ओर न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे हृदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पतिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में वेद के गौरव-विषयक विचारों का अवलोकन कीजिए। वेद की गौरव-गरिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।’
–महाभारत शान्तिपर्व २३२//२४
अर्थ सहित वेदाध्ययन के महत्तव पर बल देते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं-
‘जो वेद और शास्त्रों को कण्ठस्थ करने में तत्पर है, परन्तु उनके अर्थ से अनभिज्ञ है, उसका कण्ठस्थ करना व्यर्थ ही है। जो ग्रन्थ के तात्पर्य को नहीं समझता, वह ग्रन्थ को रटकर मानों उसका बोझ ही ढोता है, परन्तु जो अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़ता है, उसका पढ़ना ही सार्थक है।’
–महाभारत शान्तिपर्व ३0५//१३
इसी तथ्य को महर्षि यास्क ने इस प्रकार प्रकट किया है-
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योडर्थम्।
योडर्थज्ञ इत्सकलं भद्रमष्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।
अर्थात् जो मनुष्य वेद पढ़कर उसके अर्थों को नहीं जानता, वह भारवाही पशु अथवा वृक्ष के ठूँठ के समान है, परन्तु जो अर्थ को जाननेवाला है, वह उस पवित्र ज्ञान के द्वारा अधर्म से बचकर परम पवित्र होता है। वह कल्याण का भागी होता है और अन्त में दुःखरहित मोक्ष-सुख को प्राप्त होता है।
–निरुक्त १//१८
पाठकगण! इस संदर्भ का यह अर्थ मत लगाइए कि हमें अर्थ नहीं आते, अतः पढ़ने से छुट्टी मिल गई। ‘वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परमधर्म है।’ प्रतिदिन वेदपाठ कीजिए। न पढ़ने से पढ़ना उत्तम है लीजिए इस विषय में महर्षि दयानन्द के विचार पढ़िए-
‘‘अर्थज्ञानसहित पढ़ने से ही परमोत्तम फल की प्राप्ति होती है, परन्तु न पढ़नेवाले से तो पाठमात्र-कर्त्ता भी उत्तम होता है। जो शब्दार्थ के विज्ञानसहित अध्ययन करता है वह उत्तमतर है, जो वेदों का अध्ययन कर उनके अर्थों को जानकर शुभ गुणों का ग्रहण और उत्तम कर्मों का आचरण करते हुए सर्वोपकारी होता है वह उत्तमोत्तम है।’’
-ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पठनपाठनविषयः
पाठकों ने मन्वादिस्मृतियों में, ब्राह्मणग्रन्थों एवं इतिहासग्रन्थों में वेद के गौरव-विषयक विचार पढ़े। अब हम पुराणों के कुछ स्थल प्रस्तुत करना चाहते हैं। पुराण भी वेद की महिमा से भरे हुए हैं। श्रीमद्भागवत का कथन है-
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः।
वेदो नारायणः साक्षात्स्वयंभूरिति शुश्रुम।।
अर्थात् जो वेद में कहा है वही धर्म है और जो वेद के विरुद्ध है वही अधर्म है। वेद साक्षात् नारायणस्वरूप हैं, क्योंकि वे भगवान् के श्वासमात्र से स्वयं प्रकट हुए हैं, ऐसा हमने सुना है।
-भा0पु0 ६//१//४0
अब कूर्मपुराण का एक वचन देखिए-
एकतस्तु पुराणानि सेतिहासानि कृत्स्नशः।
एकत्र परमं वेदमेतदेवातिरिच्यते।।
अर्थात् एक ओर इतिहाससहित सम्पूर्ण पुराण और एक ओर परम वेद-इनमें वेद ही परम हैं, महान् हैं, श्रेष्ठ हैं।
–कूर्म0 उ0 ४६//१२९
देवीभागवत पुराण में वेद का महत्त्व इन शब्दों में प्रकट किया गया है-
सर्वथा वेद एवासौ धर्ममार्गप्रमाणकः
अर्थात् धर्म के विषय में वेद ही प्रमाण है। जो कुछ वेद अविरुद्ध एवं वेदानुकूल है वही प्रामाणिक है, अन्य नहीं। जो वेद को छोड़कर दूसरे ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता है, उसके लिए यमलोक में कुण्ड तैयार हैं, अर्थात् वह यमलोक में जलकुण्डों में गिरता है।
-देवी भाग. ११//१//२६//२७
वेद की महिमा महान् है। मानव बुद्धि और उसका सीमित ज्ञान वेद की महिमा का बखान करने में असमर्थ हैं, अतः अन्त में गरुड़पुराण की सम्मति देकर हम इस प्रसगं को समाप्त करना चाहते हैं।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केषवात् परः।।
अर्थात् मैं दुहाई देकर और भुजा उठाकर सत्य-सत्य कहता हूँ कि वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है और केशव अर्थात् परमात्मा से बढ़कर कोई देव नहीं है।
-गरुड़. बर्. का. १०१//५५
वेद संस्कृत-साहित्य के मुकुटमणि हैं, वैदिक संस्कृति और सभ्यता का मूलाधार हैं, इसीजिए वैदिक विचारकों ने दर्शन और स्मृतिकारों ने, इतिहास और पुराणकारों ने वेद की महिमा के गीत गाये हैं ऐसा नहीं समझना चाहिए। वेद के वेदत्व और उसकी सर्वागंपूर्णता पर न केवल भारतीय विद्वान अपितु पाश्चात्य जगत् भी मोहित एवं मुग्ध् है। जिन्होंने विमल वैदिक ज्ञान के अन्वेषण में अपना समय, श्रम और शक्ति व्यय की है, उन सभी व्यक्तियों ने वेद के अलौकिक ज्ञान की प्रशंसा की है। यहाँ कुछ सम्तियाँ दी जाती हैं-
प्रो0 हीरेन महोदय लिखते हैं-
The Vedaas stand alone in their solitary splendor serving as beacon of Divine Light for the onward march of humanity.
-Historical Researches
अर्थात् जिस प्रकार वेद देदीप्यमान हैं, इस प्रकार अन्य कोई ग्रन्थ नहीं चमकता। वे मनुष्यमात्र की उन्नति और प्रगति के लिए दिव्य प्रकाश स्तम्भ का काम देते हैं।
लार्ड मोर्ले ने घोषणा की-
What is found in the Vedaas exists nowhere else.
-The Nineteenth Century and after
अर्थात् जो कुछ वेदों में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है। १४ जुलाई १८८४ को पेरिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रिय साहित्य संघ (International Literary Association) के समक्ष निबन्ध पढ़ते हुए फ्रांस देशीय विद्वान् लेओ देल्बो (Mons. Leon Delbos) ने कहा था-
The Rigved is the most sublime conception of the great highway of humanity.
-हरिबिलास शारदा लिखित Hindu Superiority
उबिनगन विश्वविद्यालय के प्रो0 पाल थीमा ने २६ वीं अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य सभा अर्थात् 26th International Congress of Orientalists में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था-
The Vedaas are noble documents-not only of value and pride to India but to the entire humanity because in them we see man attempting to lift himself above the earthly existence.
अर्थात् वेद वे पवित्र ग्रन्थ हैं जो न केवल भारतवर्ष के लिए अपितु समस्त संसार के लिए मूल्यवान् हैं, क्योंकि हम उनमें मनुष्य को संसारिकता से ऊपर उठने (मोक्ष प्राप्त करने) का यत्न करते हुए पाते हैं।
प्रसिद्ध आइरिश कवि और दार्षनिक डा0 जेम्स क्युजन अपनी पुस्तक Path to Peace अर्थात् शान्ति का मार्ग में लिखते हैं-
On that (Vedic) ideal alone, with its inclusiveness which absorbs and annihilates the causes of antagonisms, its sympathy which wins hatred away from itself, it is possible to rear a new earth in the image and likeness of the eternal heavens.
अर्थात् उस वैदिक आदर्श का अनुकरण करते हुए ही, जो सार्वभौम होने के कारण विरोध के कारणों को नष्ट करता है, जो सहानुभूति से घृणा को जीत लेता है, यह सम्भव है कि पृथिवी को पुनः स्वर्गधाम बनाया जा सके।
थ्योरो नामक अमेरिकन विद्वान् के मुख से वेद की महिमा इन शब्दों में निस्सरित हुई थी-
What extracts from the Vedaas, I have read. They fall on me like the light of a higher and purer luminary which describes a loftier course through a purer stratum-free from particulars, simple, universal, the Vedaas contain a sensible account of God.
अर्थात् मैंने वेदों के जो उद्धरण पढ़े हैं, वे मुझपर एक उच्च, पवित्र प्रकाशपुन्ज की भाँति पड़े हैं। वेद एक उत्कृष्ट मार्ग का वर्णन करते हैं। वेदों के उपदेश सरल, सार्वभौम हैं और जाति तथा देश के इतिहास से रहित हैं। उनमें ईश्वर-विषयक युक्तियुक्त विचार हैं।
श्री डबल्यू0 डी0 ब्राऊन महोदय ने वैदिक धर्म के विषय में निम्न उद्गार व्यक्त किये हैं-
It (Vedic Religion) recognizes but one God. It is a thoroughly scientific religion, where religion and science meet hand in hand. Here theology is based upon science and philosophy.
अर्थात् वैदिकधर्म केवल एक ईश्वर का प्रतिपादन करता है। यह एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है, जहाँ धर्म और विज्ञान साथ-साथ चलते हैं। वेदों के धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान और दर्शन पर आधारित हैं।
वेदों में वैज्ञानिक आविष्कारों की सत्ता स्वीकार करते हुए अमरीकी महिला हृीलर विलौक्स ने लिखा-
We have all heard and read about the ancient religion of India. It is the land of the great Vedaas-the most remarkable works containing not only religious ideas for a perfect life, but also facts which all the science has since proved true. Electricity, Radium, Electorns, Airships all seem to be known to the seers who found the Vedaas.
-Sublimity of the Vedaas
अर्थात् हमने प्राचीन भारत के धर्म के विषय में पढ़ा और सुना है। यह उन महान् वेदों की भूमि है जो अद्भुत ग्रन्थ हैं। इनमें न केवल जीवनोपयोगी धार्मिक तत्त्वों का ही वर्णन है, अपितु उन तथ्यों का भी प्रतिपादन है, जिन्हें विज्ञान ने सत्य सिद्ध किया है। विद्युत, रेडियम, एलक्ट्रोन्स तथा विमान आदि सभी वस्तुएँ वेदों के द्रष्टा ऋषियों को ज्ञात प्रतीत होती हैं।
अपने ‘त्रयी-चतुष्टय’में प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् पंडित सत्यव्रत सामश्रमी ने भी लिखा है-‘वेदों में सारे विज्ञान सूक्ष्मरूप से विद्यमान हैं।’
बड़ौदा में ‘यन्त्रसर्वस्व’ नामक एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला है जिसके लेखक महर्षि भरद्वाज हैं। इन ग्रन्थ के ‘वैमानिक-प्रकरण’ में लिखा कि ‘वेदों के आधार पर ही इस ग्रन्थ को बनाया गया है।’
प्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चान जी वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
The Ved is a book of knowledge and wisdom comprising the Book of Nature, the Books of Religion, the Book of Prayers, the Book of Morals and so on. The word ‘ ‘Ved’ means wit, wisdom, knowledge and truly the Ved is condensed wit, wisdom and knowledge.
– Philosophy of Zoroastrianism
अर्थात् वेद ज्ञान की पुस्तक है। इसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार आदि विषयों की पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान और वस्तुतः वेद ज्ञान-विज्ञान से ओत-प्रोत हैं।
फ्राँस के प्रसिद्ध विद्वान् वाल्टेयर का मत है-
‘केवल इसी देन (यजुर्वेद) के लिए पश्चिम पूर्व का ऋणी रहेगा।’
फ्राँस देश के अन्य विद्वान् जैकालियट ने अपने ग्रन्थ The Bible in India में लिखा है-
Astonishing fact! the Hindu Revelation (Ved) is of all revelations the only one whose ideas are in perfect harmony with Modern Science as it proclaims the slow and gradual formation of the world.
-The Bible in India Vol 2
अर्थात् कितनी आश्चर्यजनक सच्चाई है। सम्पूर्ण ईश्वरीय ज्ञानों में हिन्दुओं का ईश्वरीय ज्ञान वेद ही ऐसा है, जिसके विचार वर्त्तमान विज्ञान से पूर्णरूपेण मिलते हैं, क्योंकि वेद भी विज्ञानानुसार जगत् की मन्द और क्रमिक रचना का प्रतिपादन करते हैं।
ईसाई पादरी मौरिस फ़िलिप ने भी वेद को ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-
The conclusion, therefore, is inevitable viz, that the development of religious thought in India has been uniformly downward, and not upward, deterioration and not evolution. We are justified, therefore, in concluding that the higher and pure conceptions of the Vedic Aryans were the results of a primitive Divine Revelation.
-The Teachings of the Vedaas
अर्थात् अतः हमारे लिए इस परिणाम पर पहुँचना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचारों का विकास नहीं हुआ, अपितु हृास ही हुआ है, उत्थान नहीं अपितु पतन ही हुआ। इसलिए हम यह परिणाम निकालने में न्यायशील हैं कि वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर् विचार एक प्रारम्भिक ईश्वरीय-ज्ञान का परिणाम थे।
अन्त में जे. मास्करों की सम्मति उद्धृत कर हम आगे बढ़ेंगे। वेद की तुलना आत्मा के हिमालय से करते हुए वे लिखते हैं-
If a Bible of India were compiled
…………
the Ved the Upanishads and the Bhagvad Gita would rise above the rest like Himalayas of the spirit of man.
-The Himalyas of the Soul
अर्थात् यदि भारत की कोई बाइबल संकलित की जाए तो उसमें वेद, उपनिषदें और भगवद्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान सबसे ऊपर उठे हुए ग्रन्थ होंगे।
ये तो हुए कुछ निष्पक्ष विचारकों के निष्पक्ष विचार, परन्तु अनेक पाश्चात्य ईसाई लेखकों ने अपना जीवन और जवानी वेदों के सम्बन्ध में खोज करने में इसलिए लगा दी कि वे वेद के गौरव को नष्ट करके बाइबल के महत्त्व और गौरव को प्रदर्शित कर सकें। ऐसे लेखकों में मैक्समूलर अग्रगण्य है। मैक्समूलर ने ऋग्वेद की भूमिका में स्वयं ही लिखा है कि उन्हें २५ वर्ष तो केवल इसके लिखने में ही लगे, फिर छपवाने में २0 वर्ष और लगे। इस ग्रन्थ को प्रकाशित कराने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने नौ लाख रूपये दिये, किन्तु उससे भी कार्य पूरा नहीं हुआ।
एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आखिर मैक्समूलर ने यह सब-कुछ क्यों किया? उत्तर है वेद के गौरव और महत्त्व को घटाने के लिए। यह हमारी अपनी कपोलकल्पना नहीं है। यह बात मैक्समूलर के Life and Letters of Max Mullar से सिद्ध है।
मैक्समूलर राथ का सहपाठी था। अपने गुरु की छाप के अतिरिक्त २८ दिसम्बर १८५५ की मैकाले की भेंट ने भी उस पर पूर्ण प्रभाव डाला था। मैकाले एक घण्टे तक उसे भारत-विरोधी विचार देता रहा। उस भेंट के पश्चात् मैक्समूलर लिखता है-
I went back to Oxford as a sadder and wiser man.
अर्थात् मैं गम्भीर और बुद्धिमान् बनकर आक्सफोर्ड वापस लौटा।
बस, अब क्या था। उसने वेद के विषय में विषवमन करना आरम्भ कर दिया। उसने घोषणा की-
“Large number of Vedic hymns are childish in extreme, tedious, low, common place.”
-Chips from a German Workshop
अर्थात् वैदिक सूक्तों की अत्यधिक संख्या बचपन अथवा मूर्खता की पराकाष्ठा से पूर्ण, नीरस और तुच्छ विचारों से भरी है।
मैक्समूलर ने समय-समय पर अपने मित्रों और सम्बन्धियों को जो पत्र लिखें हैं, उनसे उसके मनोगत विचारों का पता चलता है। यहाँ हम कुछ पत्र उद्धृत करना चाहते हैं।
१८६६ में उसने अपनी पत्नी को लिखा-
I hope, I shall finish the work and I feel convinced, though I shall not live to see it, yet this edition of mine and the translation of the Ved will hereafter tell to a great extent on the fate of India and on the growth of their religion and to show them what the root is, I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.
अर्थात् मुझे आशा हैं, मैं उस कार्य (वेदों के सम्पादन) को पूर्ण कर दूँगा। यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित नहीं रहूँगा, परन्तु मुझे पूर्ण निश्चय है कि मेरा यह वेदों का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों के आत्मविकास पर एक वज्र-प्रहार होगा। वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को दिखा देना, उससे पिछले तीन सहस्त्र वर्षो में जो कुछ निकला हैं, उसको मूलसहित उखाड़ फेंकने का सबसे उत्तम तरीका है।
१६ दिसम्बर १८६८ को उसने तत्कालीन भारत के मन्त्री ड्यूक आफ आर्गायल (Duke of Argyle) को लिखा-
The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be.
अर्थात् भारत के प्राचीन धर्म का नाश तो अब सुनिश्चित है यदि अब ईसाइयत उसका स्थान ग्रहण न करे तो यह किसका दोष होगा?
एक पत्र में उसने अपने पुत्र को लिखा-
Would you say that any one sacred book is superior of all others in the world? It may sound prejudiced but taking all in all, I say the New Testament. After that I should place the Koraan, which in its moral teachings is hardly more than a later edition the New Testament, then would follow the Old Testament, the Southern Buddhist Tripitaka, the Laote King of Laotize, the Kings of Confucious, the Ved and the Avesta. There is no doubt however, that the ethical teaching is for more prominent in the Old and New Testament than in any other sacred Book. Therein lies the distinctiveness of the Bible. Other sacred books are generally collections of whatever was remembered of ancient times.
अर्थात् क्या तुम कहोगे कि संसार में कोई ऐसी पवित्र पुस्तक है जो सबसे श्रेष्ठ है? यह बात पक्षपातपूर्ण हो सकती है फिर भी मैं कहूँगा कि नव-व्यवस्था सर्वोत्तम है। उसके पश्चात् मैं कुरआन को रक्खूँगा, जो अपनी सदाचार सम्बन्धी शिक्षाओं में नव-व्यवस्था का ही अनुवाद है। इनके पश्चात् प्राचीन व्यवस्था, तत्पश्चात् बौद्धों का त्रिपिटक, तत्पश्चात् वेद और अन्त में अवेस्ता। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि प्राचीन और नव-व्यवस्था की सदाचार-सम्बन्धी शिक्षाएँ अन्य पवित्र ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसी बात में बाइबल का महत्त्व है। अन्य पवित्र ग्रन्थ तो प्राचीनकाल की स्मृतियों का संकलनमात्र हैं।
कितने खेद की बात है कि मैक्समूलर ने वेद को बाइबल और कुरआन से भी घटिया बताया है जबकि वेद की तुलना में शेष पुस्तकें नगण्य ही हैं। मैक्समूलर के ये विचार उसकी अज्ञानता के परिचायक हैं। वस्तुतः उसने सभ्य समाज की दृष्टि में वेदों के महत्त्व को कम करने के लिए ही ऐसे विचार व्यक्त किये हैं।
मैक्समूलर के एक परम स्नेही ई.बी. पुसे ने उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने लिखा-
“Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India”
अर्थात् आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के प्रयत्न में नवयुग लानेवाला सिद्ध होगा।
मैक्समूलर की भाँति मोनियर विलियम्स का उद्देश्य भी पवित्र न था। वे अपने संस्कृत-इंगलिश कोष की भूमिका में लिखते हैं-
‘‘मेरे समालोचक और कुछ स्पष्टवादी मित्र इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कोष और व्याकरण लिखने के शुष्क कार्य में क्यों लगाया है? उसके समाधान में मैं कहना चाहूँगा-
That the special object of his (Boden’s) munificent bequest was to promote the translation of the Scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion. Surely then it need not be thought surprising, if following in the footsteps of my venerated master, I have made it the chief aim of my personal life to provide facilities for the translation of our sacred Scriptures into Sanskrit.”
अर्थात् बोडन महोदय के उदार दान का प्रमुख उद्देश्य ईसाइयों के धर्मग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद कराना था, जिससे उसके देशवासी भारतीयों को ईसाई बनाने में अग्रसर हो सकें। ऐसी स्थिति में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है यदि मैंने अपने आदरणीय स्वामी के पदचिहृों पर चलते हुए अपने जीवन का मुख्योद्देश्य अपने पवित्र ग्रन्थों का संस्कृत अनुवाद करने के साधन जुटाने में लगा दिया है।
ग्रिफ़िथ महोदय ने चारों वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। उनका उद्देश्य भी वेद के गौरव को बढ़ाना नहीं था। उन्होंने प्रायः सायण, महीधर और उव्वट आदि का ही अनुकरण किया है। उनके अनुवाद को पढ़कर किसी भी व्यक्ति को वेदों के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। यहाँ दिग्दर्शननार्थ केवल एक मंत्र प्रस्तुत करते हैं।
ग्रिफ़िथ महोदय ने ऋग्वेद के मन्त्र (१0//११७//३) का अर्थ इस प्रकार किया है-
I saw the Herdsman, him who never resteth,
Approaching and departing on his path –ways,
He clothed in gathered and diffusive splendor,
Within the worlds continually travels.
अर्थात् मैंने एक ग्वाले को देखा जो अपने मार्ग पर आता और जाता हुआ कभी विश्राम नहीं लेता। कभी फटे-पुराने कपड़ों में और कभी सुन्दर वस्त्रों में वह संसार में नित्य गमन करता है।
ग्रिफिथ महोदय ने पादटिप्पणी में Herdsman का अर्थ Sun सूर्य दिया है जो तीन काल में भी असम्भव है। गोपा का अर्थ तो सूर्य हो सकता है Herdsman का कदापि नहीं। Herdsman का अर्थ तो ग्वाला ही होगा। यदि हर्डज्मैन का अर्थ सूर्य भी मान लिया जाए, तो प्रश्न यह है कि सूर्य के वस्त्र कौन-से हैं?
वेदों के महत्त्व को कम करने के लिए ही इन ईसाई लेखकों ने इस प्रकार के अर्थ किये हैं। अनेक भारतीय विद्वान् भी उनका अन्धानुकरण करते हैं। वेदों को बच्चों की बिलबिलाहट और गड़रियों के गीत सिद्ध करने के लिए ही ऐसे दूषित अर्थ किये गये हैं। हम इस मन्त्र का ठीक अर्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं-
आत्म-साधना में लीन किसी योगी की घोषणा है- मैंने सीधे और उलटे मार्गों से विचरण करनेवाले अविनाशी, इन्द्रियों के स्वामी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है। वह आत्मा अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम दशाओं को धारण करता हुआ लोकों में बारबार आता रहता है।
मन्त्र में कितने महान् और उदात्त विचार हैं! गो का अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इन्द्रियों को स्वामी होने से आत्मा गोपा है। वह कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण उलटे और सीधे जिस भी मार्ग में चाहे गमन कर सकता है। अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और निकृष्ट शरीरों को धारण करते हुए वह बार-बार संसार में जन्म लेता है।
मैक्डानल द्वारा लिखित Vedic Reader आज प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। इसे पढ़कर विद्यार्थियों में वेद के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। इस रीडर में वेदमन्त्रों के अटकलपच्चू और अशुद्ध अनुवाद दिये गये हैं। मन्त्र की शिक्षा क्या है यह तो किसी भी मन्त्र से स्पष्ट ही नहीं होता है। यहाँ हम अग्नि-सूक्त के प्रथम मन्त्र (ऋग्वेद १//१//१) पर ही कुछ विवेचन करते हैं-
मैक्डानल महोदय ने इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया है-
I magnify Agni the domestic priest, the divine ministrant of the sacrifice, the invoker, best bestower of treasure.
अर्थात् मैं गृह्य-पुरोहित अग्नि का वर्णन करता हूँ जो यज्ञ का दिव्य प्रबन्धक है, जो प्रार्थनीय और धनों को देनेवाला है।
जिस समय वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति पर चारों ओर से भीषण कुठाराघात हो रहे थे, भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर अन्धकार की घनघोर घटाएँ छाई हुई थीं, उस समय उन अविद्या-अन्धकार की घटाओं को चीरते हुए, एक दिव्यालोक का प्रकाश बिखेरते हुए महर्षि दयानन्द भारतीय रंगमंच पर अवतीर्ण हुए। महर्षि दयानन्द ने वेद के गम्भीर अध्ययन, मनन और चिन्तन के पश्चात् जोरदार शब्दों में एक घोषणा की- ‘वेदों की ओर लौटो’(Back to the Vedaas) उन्होंने सिंह-गर्जना करते हुए कहा-‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।’
महर्षि दयानन्द के भाष्य को पढ़कर उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलि प्रस्तुत करते हुए योगी अरविन्द घोष ने कहा था-
“In the matter of Vedic interpretation, I am convinced that whatever may be the final complete interpretation, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ignorance and age long misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on to that which was essential. He has found the keys of the doors that time had closed and broke the seals of the imprisoned fountains.”
अर्थात् वैदिक व्याख्या के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या चाहे कोई भी हो, दयानन्द का, उपयुक्त शैली के प्रथम आविष्कारक के रूप में सदा सम्मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और भ्रम के मध्य में यह उसी की दिव्य दृष्टि थी, जिसने सत्य का अन्वेषण कर उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। जिन वेदों के द्वार को समय ने बन्द कर रक्खा था उनकी चाबियों को उसने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को तोड़कर फेंक दिया।
वेद की प्रशंसा करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी लिखते हैं-
‘‘वेदों के सम्बन्ध में हिन्दुओं की यह धारणा है कि वे प्राचीन काल में किसी व्यक्तिविशेष की रचना अथवा ग्रन्थमात्र नहीं हैं। वे उसे ईश्वर की अनन्त ज्ञानराशि मानते हैं, जो किसी समय व्यक्त और किसी समय अव्यक्त रहती है। टीकाकार सायणाचार्य ने एक स्थान पर लिखा है, ‘यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् निर्ममे’-जिसने वेदज्ञान के प्रभाव से सारे जगत् की सृष्टि की है। वेद के रचयिता को कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए इसकी कल्पना करना भी असम्भव है। ऋषि लोग उन मन्त्रों अथवा शाश्वत नियमों के मात्र अन्वेषक थे। उन्होंने आदिकाल से स्थित ज्ञानराशि वेदों का साक्षात्कार किया था। ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण हैं और इन पर सबका अधिकार है। क्या तुम हमें वेद में ऐसा कोई प्रमाण दिखला सकते हो, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि वेद में सबका अधिकार नहीं है? पुराणों में अवश्य लिखा है कि वेद की अमुक शाखा में अमुक जाति का अधिकार है या अमुक अंश सतयुग के लिए और अमुक अंश कलियुग के लिए है, किन्तु ध्यान रखों, वेद में इस प्रकार का कोई ज़िक्र नहीं है, ऐसा केवल पुराणों में ही है। क्या नौकर कभी अपने मालिक को आज्ञा दे सकता है? स्मृति, पुराण, तन्त्र-ये सब वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वेद का अनुमोदन करते हैं। ऐसा न होने पर उन्हें अविश्वसनीय मानकर त्याग देना चाहिए, किन्तु आजकल हम लोगों ने पुराणों को वेद की अपेक्षा श्रेष्ठ समझ रक्खा है। मैं वह दिन शीघ्र देखना चाहता हूँ, जब बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ वेद-अर्चना का शुभारम्भ करेंगे।
वेदों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धान्तों में मेरा विश्वास नहीं है। वेदों का समय वह आज कुछ निश्चित करते हैं और कल उसे बदलकर फिर एक हज़ार वर्ष पीछे घसीट ले जाते हैं। पुराणों के विषय में हम ऊपर कह आये हैं कि वे वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वेदों का समर्थन करते हैं। पुराणों में ऐसी अनेक बातें हैं, जिनका वेदों के साथ मेल नहीं। उदाहरण के लिए पुराणों में लिखा है कि कोई व्यक्ति दस हज़ार वर्ष तक और कोई बीस ह़जार वर्ष तक जीवित रहे, किन्तु वेदों में लिखा है- शतायुर्वै पुरुषः। इनमें से हमारे लिए कौन सा मत स्वीकार्य है? निश्चय ही वेद का।
-विवेकानन्द साहित्य भाग ५. पृष्ठ ३४४-३४६
महर्षि दयानन्द के सिंहनाद का प्रभाव मैक्समूलर पर भी पड़ा। वेद के सम्बन्ध में उसके मन्तव्य और धारणाएँ परिवर्तित हुई। फलस्वरूप वेद की प्रशंसा करते हुए उसने लिखा-
Whatever the Vedaas may be called they are to us unique and priceless guides in opening before over eyes tombs of thought richer in relics than the royal tombs of Egypt and more ancient and primitive in thought than the oldest hymns of Babylonian and Accadian poets.
-Six Systems of Indian Philosophy Page 34
अर्थात् वेद चाहे जो कुछ भी हों वे हमारे लिए अद्वितीय और बहुमूल्य मार्गदर्शक हैं, क्योंकि वे हमारे समक्ष विचारों की ऐसी राशि प्रस्तुत करते हैं जो मिस्र के राजकीय स्मारक-चिन्हों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। वेद बेबीलोनियन और अकेडियन कवियों की प्राचीनतम कविताओं से बहुत प्राचीन हैं।
एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा-
The Rigved is the most ancient book of the Aryan
………..
the sacred hymns of the Brahmans stand unparalled in the literature of the whole world and their preservation might be called miraculous.
अर्थात् ऋग्वेद आर्यजगत् की प्राचीनतम पुस्तक है। ब्राह्मणग्रन्थों की ऋचाएँ संसार के साहित्य में अपूर्व हैं तथा उनके संरक्षण की विधि को अद्भुत कहा जा सकता है।
इतना ही नहीं उन्होंने वेद को ईश्वरीयज्ञान भी स्वीकार किया। उन्होंने लिखा-
If there is a God who has created heaven and earth, it will be unjust on his part if he deprives millions of souls, born before Moses, of his divine knowledge. Reason and comparative study of religions declare that God gives his divine knowledge to mankind from his first appearance on earth.
-Science of Religion
द्युलोक और पृथिवीलोक का निर्माता यदि कोई ईश्वर है तो यह उसके लिए अन्यायपूर्ण बात होगी यदि वह मूसा से पूर्व उत्पन्न लोगों को अपने दिव्यज्ञान से वञ्चित रखता है। तर्क और धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि प्रभु मनुष्य के पृथिवी पर प्रादुर्भाव के समय ही उसे अपना दिव्यज्ञान प्रदान करता है।