भूमिका

मेरा इस ग्रंथ के बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता, जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाए। किन्तु जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य  को भी सत्य और दूसरे मत-वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत रहता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर देना, पश्चात मनुष्य लोग स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके, सदा आनन्द में रहैं। मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने हारा है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्या दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है।