प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण, जिनसे हम किसी वस्तु को जानते हैं, क्या हैं और तर्क से उनका क्या सम्बन्ध है?
सबूतों को संस्कृत व हिन्दी भाषा में प्रमाण कहा जाता है। हम क्या, कैसे और क्यों शब्दों का प्रयोग करके प्रमाणों द्वारा परीक्षा करने पर ही किसी वस्तु के सही अर्थ को जान पाते हैं। तर्क प्रमाण से भिन्न वस्तु है। प्रमाण बलवान हैं और तर्क कमजोर। तर्क से उत्पन्न विचार प्रमाणों से सिद्ध हो जाने पर ही सत्यता को प्रकट करते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रमाणों की सत्यता को दर्शाने में सहायक विचारों अथवा प्रक्रिया को तर्क कहा जाता है।
किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप को चार प्रमाणों से परीक्षा करके जाना जा सकता है। वे प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष प्रमाण,अनुमान प्रमाण, उपमान प्रमाण और शब्द प्रमाण। प्रमाणों से प्राप्त ज्ञान हमेशा निश्चयात्मक अथवा अन्तिम होता है। यदि किन्हीं दो प्रमाणों द्वारा प्राप्त ज्ञान में विरोध आ रहा है, तो निश्चय से गलती प्रमाणों की नहीं, बल्कि प्रमाता (जो व्यक्ति प्रमाणों का प्रयोग कर रहा है।) की होती है। प्रमाता द्वारा प्रमाणों का प्रयोग ठीक तरह से न करने पर ही ऐसा सम्भव है।
प्रत्यक्ष प्रमाण– जब किसी विषय का ज्ञान हमारी ज्ञानेन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) अथवा मन से सीधा हमारी आत्मा को होता है, तो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। केवल मात्र आँखों से देखे जाने पर किसी वस्तु के बारे में उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कहा जाता। प्रमाण की कोटि में आने के लिए ऐसे ज्ञान में तीन विशेषताएँ ओर होनी चाहिएं। वे विशेषताएं हैं- एक, वह ज्ञान किसी के शब्दों से उत्पन्न न होकर अपनी सम्बन्धित इन्द्रिय से उत्पन्न होना चाहिए। जैसे, ताजमहल की सुन्दरता किसी के कथन से नहीं, बल्कि अपनी आँखों से अनुभूत की होनी चाहिए। दो, वह ज्ञान बदलने वाला नहीं होना चाहिए। जैसे, कम रोशनी में रस्सी को साँप समझ लेना और बाद में उजाले में उस ज्ञान में बदलाव हो जाना। तीन, उस ज्ञान में किसी तरह का संशय अर्थात विकल्प नहीं होना चाहिए और वह ज्ञान निश्चयात्मक होना चाहिए। जैसे, किसी व्यक्ति के बारे में ज्ञान होना कि यह अमुक व्यक्ति ही है, कोई अन्य व्यक्ति नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण छः तरह का होता है- पांच इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान और मन से प्राप्त ज्ञान।
अनुमान प्रमाण– जब हमें इस बात का प्रत्यक्ष हो कि दो क्रियाएं साथ-साथ होती हैं, तो एक क्रिया का प्रत्यक्ष करके दूसरी क्रिया के होने का बोध हमें अनुमान प्रमाण से होता है। ‘अनुमान’ शब्द का प्रयोग ‘सम्भावना’ के अर्थ में किया जाता है, परन्तु ‘अनुमान प्रमाण’ का प्रयोग किसी अप्रत्यक्ष वस्तु को एक वैज्ञानिक विधि से जानने के लिए ही किया जाता है और ‘अनुमान प्रमाण’ से जानी गई वस्तु सम्भावना मात्र नहीं होती। यदि अनुमान से प्राप्त कोई ज्ञान सम्भावना मात्र हो, अन्तिम न हो, तो वह ज्ञान अनुमान प्रमाण से प्राप्त नहीं माना जाना चाहिए। यदि, अनुमान से प्राप्त किसी ज्ञान के बारे में हमें संशय हो कि यह सम्भावना है या अन्तिम, तो, हमें उस ज्ञान की पुष्टि अन्य प्रमाणों से कर लेनी चाहिए।
अनुमान प्रमाण तीन तरह का होता है। जब कारण को देख कर कार्य का अनुमान किया जाता है, तो उसे पूर्ववत अनुमान कहते हैं। जब कार्य को देख कर कारण का अनुमान किया जाता है, तो उसे शेषवत अनुमान कहते हैं। तीसरी तरह के अनुमान का नाम है- सामान्यतो दृष्ट। सामान्यतो दृष्ट अनुमान में किन्हीं नियमों का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर उन नियमों के आधार पर हम उन वस्तुओं का भी अनुमान लगा लेते हैं, जिन्हें हमने कभी भी नहीं देखा- जैसे आत्मा, परमात्मा। उदाहरण के लिए हमें एक नियम पता है कि कोई भी व्यवस्थित वस्तु बिना निर्माता के नहीं बनती। इस नियम का हमने संसार की बहुत सारी वस्तुओं के संबंध में प्रत्यक्ष कर रखा है। इस नियम के आधार पर जब हम इस संसार को इतने व्यवस्थित रूप से बना हुआ देखते हैं, तो हमारा निश्चित अनुमान हो जाता है कि इस संसार को भी किसी न किसी ने अवश्य बनाया है।
उपमान प्रमाण– किसी वस्तु को, उसकी किसी दूसरी वस्तु से सादृश्यता की सहायता से, जानना। यहाँ जिस उदाहरण के माध्यम से दो वस्तुओं के बीच की समानता दिखाई जाती है, वहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि वह समानता प्रसिद्ध हो, अर्थात उस उदाहरण के बारे में दोनों पक्षों के बीच कोई विरोध न हो। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है की कोई भी उदाहरण 100% दो वस्तुओं पर नहीं घटता।
शब्द प्रमाण– किसी शब्द का प्रमाण के रूप में इस्तेमाल शब्द प्रमाण कहलाता है। विषय की गहनता के अनुरूप हम व्यक्ति विशेष के कहे का प्रमाण के रूप में इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के तौर पर, किसी बच्चे के लिए किसी विषय पर कहे उसके पिता के वचन ही प्रमाण होते हैं। इसी प्रकार, एक व्यक्ति Physics की किसी अवधारणा को प्रमाणित करने के लिए किसी physicist के विचारों का सहारा लेता है। तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति का कथन प्रमाण के रूप में माना जा सकता है, शर्त केवल यह है कि वह व्यक्ति शुद्ध ज्ञान रखता हो, परोपकारी हो और सत्यवादी हो।
शब्द प्रमाण दो तरह का होता है- दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ। जिस ज्ञान का फल हमें इसी जन्म में दिखाई दे जाता है, उसे दृष्टार्थ शब्द प्रमाण कहते हैं। जैसे, वैद्य की बातें। जिस ज्ञान का फल हमें अगले जन्म में या मोक्ष में दिखाई देगा, उसे अदृष्टार्थ शब्द प्रमाण कहते हैं। जैसे वचन- जिसे अच्छे परिवार में पुनर्जन्म प्राप्त करना हो, वह प्रतिदिन यज्ञ करे। सांसारिक व्यक्तियों के शब्द केवल दृष्टार्थ ही होते हैं। ऋषियों और ईश्वर के वचन दृष्टार्थ भी होते हैं और अदृष्टार्थ भी।
ईश्वर की वाणी, वेद में कहे वचन सबसे बड़े शब्द प्रमाण होते हैं।
ईश्वर का साक्षात्कार योग वैज्ञानिकों को ही होता है, वहीं इस विषय में प्रमाण हैं।
स्थूल आंख आदि इन्द्रियों से स्थूल और साकार वस्तुएं ही दिखाई दे सकती है, सूक्ष्म नहीं। इसका अभिप्राय यह नहीं कि जो आंख से दिखायी न दे, उसका अस्तित्व ही नहीं है। जैसे वायु सूक्ष्म है, अत: आखों से नहीं देखी जा सकती, किन्तु उसका अस्तित्व है। इसका अनुभव त्वचा से होता है। इनसे भी सूक्ष्म हैं, सुख-दुख, हर्ष, शोक, स्मृति, संस्कार, विचार आदि। इनकी अनुभूति केवल मन-आत्मा से होती है। योग वैज्ञानिकों द्वारा कहे और लिखे वचन इस विषय में शब्द प्रमाण हैं। साधारण अथवा सांसारिक जनों को साक्षात्कार न होने से, किसी वस्तु के विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका अस्तित्व ही नहीं है। जैसे- इलेक्ट्रोन, न्यूट्रान आदि सूक्ष्म परमाणु, एक्सरे आदि सूक्ष्म किरणें, विभिन्न प्रकार की गैसें जगत में विद्यमान हैं, किन्तु दिखाई नहीं देती। उस विषय के विशेषज्ञ वैज्ञानिक विशेष प्रकार यन्त्रों द्वारा ही उन्हें देख और परख सकते है। पुन: वे उस विषयक ज्ञान को लेखों व प्रयोगों द्वारा अन्य साधारण जनों अथवा भावी पीढ़ियों को उपलब्ध कराते हैं। उन विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्त और ज्ञान मान्य एवं प्रामाणिक होते हैं। उसी प्रकार योगविद्या का आविष्कार सर्वप्रथम वेदों और फिर अन्य मोक्ष शास्त्रों द्वारा हुआ। वेद और मोक्ष शास्त्र अर्थात दर्शन, उपनिषद् आदि इस विषयक प्रामाणिक एवं मान्य ग्रन्थ हैं। योगीजन इस विषय के विशेषज्ञ हैं, उन्हें हम आज की शब्दावली में योग वैज्ञानिक, आत्म वैज्ञानिक अथवा परमात्म वैज्ञानिक भी कह सकते हैं, जैसे मन के ज्ञाताओं को मनोवैज्ञानिक कहते हैं। अत: उन द्वारा प्रोक्त अथवा लिखित सिद्धान्त एवं निष्कर्ष इस विषय में मान्य हैं और प्रामाणिक हैं। किसी ज्ञान की निश्चितता के लिए उसका प्रत्यक्ष होना ही आवश्यक नहीं। अन्य प्रमाणों से भी निश्चयात्मक ज्ञान होता है। ऋषियों द्वारा बताई गई सभी बातें प्रमाणों से सिद्ध की हुई ही होती हैं। केवल ईश्वर ही सभी चीजों का प्रत्यक्ष कर सकता है। इसलिए, ऋषियों व ईश्वरीय वचन और सामान्य व्यक्तियों के विचार, जो पूर्णतया ऋषियों व ईश्वरीय वचनों के अनुकूल हों, शब्द प्रमाण के अन्तर्गत आते हैं।