गुरु

ऐसा माना जाता है कि ईश्वर की ओर बढ़ने के लिए गुरु का होना आवश्यक है। लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके द्वारा केवल वही व्यक्ति, जिसने स्वयं ईश्वर को जान लिया है, गुरु हो सकता है। गुरु बनने के लिए न तो किसी विशिष्ट योग्यता को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है और न ही ऐसे व्यक्ति को किसी की अनुमति लेनी पड़ती है। इसके कारण असमर्थ व्यक्ति भी गुरु बन जाते हैं और वे अपने विचारों को पुस्तकों, कहानियों, श्लोकों, कहावतों आदि के माध्यम से इस तरह फैलाते हैं कि बहुत से लोग उनके अनुयायी बन जाते हैं। एक आम धारणा है कि यदि किसी व्यक्ति ने एक बार किसी गुरु का चयन कर लिया, तो उसका अपने गुरु के विचारों पर संदेह करना गलत है, भले ही वह गुरु मूर्ख, चोर, चरित्रहीन और पापी हो। सच तो यह है कि जब तक सच्चा गुरु, जिसने स्वयं ईश्वर को जान लिया हो, प्राप्त नहीं होता, तब तक हमें उसे बदलते रहना चाहिए।  यह ठीक उसी तरह है जैसे हम डाक्टर बदलते रहते हैं, जबतक कि हमें किसी के उपचार से अपनी स्थिति में लाभ प्रतीत न हो। एक ओर मान्यता है कि चूँकि, गुरु हमें ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाता है, इसलिए वह ईश्वर से भी अधिक सम्मान का पात्र है। यदि हम इस बात को सत्य मानें, तो हमें उन अनुयायियों का अपने गुरु से अधिक सम्मान करना चाहिए, जिन्होंने हमें उस गुरु से मिलाया। वर्तमान परिपेक्ष में, जब सच्चे और झूठे गुरु के बीच भेद करना मुश्किल है, हमें बिना शरीर वाले गुरु को ही अपनाना चाहिए। तब तक हमारा विवेक ही हमारा गुरु होना चाहिए।