खण्ड ८ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

उपस्थान मन्त्र (२)

ईश्वर पर मनुष्य का विश्वास एकदम नहीं हो जाता। संसार में कोई विद्या, कोई काम, कोई कला, कोई स्वभाव, कोई योग्यता एक-साथ प्राप्त नहीं हो जाती। हर काम के लिए बहुत दिनों अभ्यास करना पड़ता है। बच्चा कई वर्ष में चलना सीखता है। कई वर्ष बोलने में लग जाते हैं। दूसरी भाषाओं पर स्वत्व प्राप्त करने में बहुत दीर्घ काल लगता है। गणित-शास्त्र एक दिन में नहीं आता, न चित्रकला आती है। जब इन छोटी-छोटी चीज़ों के सीखने में बहुत समय लगता है तो ईश्वरोपासना की योग्यता भी एकदम उत्पन्न नहीं हो सकती। इसके लिए आरम्भिक शिक्षा की भी अपेक्षा है और निरन्तर अभ्यास की भी। आप पैर-गाड़ी पर चलना सीखते हैं, फिर भी कभी-कभी पैर डिग ही जाता है। आप क्रोध को वश में करना चाहते हैं। नित्य अभ्यास करते हैं फिर भी कभी-कभी माथे पर विकृत चिन्ह आ ही जाते हैं। जब हर वस्तु के लिए लम्बे अभ्यास की आवश्यकता है, तो कैसे यह सम्भव हो सकता है कि एक उपदेश को सुनकर मनुष्य ईश्वर से प्रेम करने लगे और कभी उसकी उपासना में विघ्न न पड़े?

….

इस भौतिक जगतरूपी वृक्ष पर बैठा हुआ जीवात्मा, प्राकृतिक चीजों में डूबा हुआ शोकातुर हो रहा है। इसी अन्धकार में यदि माता, पिता या गुरु उसको यह समझा देता है कि हर एक भौतिक पदार्थ के भीतर ईश्वर की एक बड़ी शक्ति विद्यमान है तो उसको कुछ ढांढस बँध जाता है। जितना वह सोचता है यह अधिक प्रबल होता जाता है। यदि बचपन से हमको यह सिखाया जाय कि ईश्वर है और ईश्वर दयालु है और ईश्वर हर समय और हर जगह विद्यमान है, तो बच्चे के चारों ओर आस्तिकता का एक वातावरण-सा उत्पन्न हो जाता है। पिण्ड में हम ईश्वर के अस्तित्व को अनुभव करते हैं तो ईश्वर-विश्वास दृढ़ हो जाता है। इसी को वेद-मन्त्र में कहा है कि ईश्वर-विश्वास उत्तर अर्थात् उत्कृष्टतर अर्थात् पक्का हो जाता है। यहाँ तक कि हर वस्तु में हमारा ईश्वर को देखने का स्वभाव बन जाता है। जैसे सूर्य का प्रकाश शनैः-शनैः तीव्र होता जाता है, इसी प्रकार ईश्वर का विश्वास भी शनैः-शनैः बढ़ता जाता है। वेद कहता है कि ईश्वर की ज्योति सबसे उत्तम या उत्कृष्ट है। मिट्टी का दीया एक देव है। गैस का दीपक उससे बड़ा देव है। विद्युत् का दीपक उससे भी बड़ा देव है। सूर्य और चन्द्र इससे भी बड़े देव हैं। परन्तु सबसे बड़ा देव अर्थात् महादेव है ईश्वर, जिसके प्रकाश से समस्त प्रकाश वाले पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं।

….

इस वेद-मन्त्र में विशेष बात यह बताई गई है कि जैसे अन्य सब विद्याओं के सीखने में देर लगती है और ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती है, इसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान शनैःशनैः बढ़ता है। जैसे बिना सिखाये हुए कोई भाषा नहीं आ सकती, इसी प्रकार बिना सिखाये ईश्वर का ज्ञान भी नहीं हो सकता।

….

हर उपासक को अपने मस्तिष्क की जाँच करते रहना चाहिये। उसको देखना चाहिये कि संध्या करते-करते उसका ईश्वर-विश्वास कुछ अधिक हुआ है या नहीं? कष्ट के समय उसको ईश्वर का स्मरण होता है या नहीं? हर्ष के समय उसके हृदय में ईश्वर के लिए प्रेम तथा कृतज्ञता के भाव उत्पन्न होते हैं या नहीं? किसी असाधारण घटना के समय ईश्वर की अनुभूति होती है या नहीं? यह एक थर्मामीटर या मापक यन्त्र है जिससे अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को नापते हैं।

….

पिछले मन्त्र की व्याख्या करते हुए हमने कहा था कि जैसे हर शास्त्र की शिक्षा के लिए क्रमिक पाठ की आवश्यकता है, इसी प्रकार ईश्वर का ध्यान करना सिखाने के लिए भी एक ऐसा क्रमवार पाठ होना चाहिये कि आरम्भिक उपासक को भी कुछ समझाया जा सके। ज्यों-ज्यों वह उन्नति करता जावे, उसे उस शास्त्र का ज्ञान भी हो और रुचि भी हो। बालकपन में जब बालक को गिनती सिखाते हैं तो उसे भार प्रतीत होता है। परन्तु जब वह धीरे-धीरे गणितज्ञ बन जाता है, तो गणित में उसको रस आ जाता है और गणित के थोड़े-से नियमों पर वह संसार-भर को न्यौछावर कर देता है। इसी प्रकार, एक बच्चे को ईश्वर के विषय में कोई स्वाद नहीं आता, परन्तु यदि उसकी शिक्षा नियमानुसार होती रहे, तो वह ईश्वर-भक्त बन जाता है। और संसार के कोई प्रलोभन उसकी ईश्वर-भक्ति को डिगा नहीं सकते।

….

आप किसी बच्चे को आगरे का ताजमहल दिखाने ले जाएं बच्चा ताज को देखने का उत्सुक है। परन्तु ताज कैसा है? कहाँ है? कितनी दूर है? यह उसको ज्ञात नहीं। जो वस्तु अधिक दूर हो, उसको प्राप्त करने में मज़ा नहीं आता। दूर की चीज़ को पास लाने के लिए झण्डा एक अच्छा साधन है। वह बता देता है कि जिस पदार्थ को हम परोक्ष समझते थे वह दृष्टि-पथ के भीतर आ गया। यह समझ हमारे भीतर उमंग उत्पन्न कर देती है। हमको दूर की मंजिल समीप दिखाई पड़ती है। हमारी थकावट दूर हो जाती है।

….

इसका यह तात्पर्य नहीं कि जैसे, ताजमहल लड़के से दूर है, इसी प्रकार, ईश्वर भी हमसे दूर है। और हमको कुछ दूर चलना पड़ेगा-काशी या मथुरा, मक्का या मदीना। नहीं-नहीं, ईश्वर को ‘यह’ के स्थान में ‘वह’ कहने का कारण यही है कि हममें और ईश्वर में ‘ज्ञान’ की दूरी है। जहाँ हम हैं वहीं वह है। संसार की सभी चीज़े उसके लिए झण्डे हैं, उनके द्वारा हम ईश्वर को जान सकते हैं। आप झण्डे की उपमा समझने के लिए किसी चीज़ को ले लें। अपने हाथ की एक अँगुली ही सही। अँगुली से पूछिये, वह क्या कहती है?

पहली बात जो अँगुली से प्रकट होती है, यह है कि वह बनी हुई वस्तु है। बनी हुई वस्तु का बनानेवाला होना चाहिये। अँगुली आपकी है, परन्तु आप यह दावा नहीं कर सकते कि उसके बनानेवाले आप हैं। आप अँगुली की भीतरी बातों से कुछ भी परिचित नहीं। डाक्टर भी बहुत काल के अध्ययन के पश्चात् अँगुली के यन्त्र का केवल कुछ अंश ही जान सकता है। माता-पिता की भी ऐसी ही स्थिति है। अँगुली माता के पेट में बनती है, परन्तु माता को ज्ञान नहीं। क्या बिल्ली के बच्चे की अँगुली का उसकी माता को पता है? इससे स्पष्ट है कि आपकी अँगुली का निर्माण करने वाला कोई ऐसा निर्माता है जो बनाता है परन्तु दिखाई नहीं देता। दिखाई देता तो बना कैसे सकता? आँख से वही चीज़ दिखाई देगी जो आँख से स्थूल हो। फिर वह आँख को कैसे बना सकेगी? मोटी चीज़ के बनाने के लिए मोटे उपकरण सूक्ष्म के लिए अधिक सूक्ष्म। चींटी के पेट में चींटी और हाथी के पेट में हाथी और हाथी के भी मोटे-से-मोटे और बारीक-से-बारीक अंग। ऐसे कारीगर को आप देख नहीं सकते। इसीलिए तो, झण्डे की आवश्यकता पड़ी। क्या आपकी अँगुली में रक्त है? अस्थियाँ हैं? रक्त के निर्माण में उन नियमों का काम पड़ता है। जिसको कैमिस्ट्री अर्थात् रसायन शास्त्र कहते हैं। अस्थियों के अन्वय (यथास्थान चुनने) के लिए गणित शास्त्र चाहिये। अँगुली आपके शरीर का एक भाग है। उसमें स्पर्श की शक्ति है। सर्दी और गर्मी की अनुभूति होती है। इसके लिए साइकालोजी  या मनोविज्ञान की आवश्यकता है। सारांश यह है कि अँगुली के बनाने वाले को सभी विद्याओं का ज्ञान होना चाहिये।

इसी प्रकार आप किसी बाह्य पदार्थ को ले सकते हैं। हर वस्तु, पृथिवी हो या आकाश, वृक्ष हो या नक्षत्र, ईश्वर की ओर संकेत करने के लिए जो सभी झण्डे अर्थात् केतु हैं, केवल केतु ही नहीं, केवल ईश्वर के अस्तित्व की ओर ही संकेत नहीं करते, ईश्वर के गुणों का भी वर्णन करते हैं। इसीलिए ईश्वर को ‘जातवेदस्’ कहा जाता है। ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसके गुणों का आप विचार करें और साथ ही ईश्वर के गुणों का ज्ञान न होता हो। इंगलैण्ड के सुप्रसिद्ध कवि टैनीसन ने एक फूल को सम्बोधन करके कहा है कि हे छोटे-से फूल, यदि मैं तेरे तथ्य को समझ लूँ तो तेरे बनानेवाले का तथ्य भी समझ में आ जावे। क्योंकि हर वस्तु केतु या झण्डा है।

अब आप मन्त्र के दूसरे भाग पर ध्यान दें। शब्द केवल दो हैं ‘दृषे विश्वाय’। इसका अर्थ हुआ ‘संसार को समझने के लिए’। दो बातें उल्टी प्रतीत होती हैं। संसार के पदार्थों को ईश्वर के लिए झण्डा बताया और फिर संसार को समझने के लिए ईश्वर की आवश्यकता बताई। ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। थोड़े-से विचार से गुत्थी सुलझ सकती है।

आप बड़े भवन को देखकर यह अनुभव करते हैं कि इसका स्वामी कोई बड़ा आदमी है। परन्तु, उस भवन के हर एक भाग का क्रम, बनावट, और उद्देश्य समझने के लिए उसके स्वामी के स्वभावों को समझना चाहिये। यदि, आप स्वामी की अभिरुचियों से परिचित नहीं हैं, तो भवन की बहुत-सी चीज़ें आपकी समझ में नहीं आयेंगी। जब कोई चीज बनाई जाती है, तो बनानेवाला या तो अपनी आवश्यकता को ध्यान में रखता है अथवा किसी दूसरे आवश्यकता वाले की आवश्यकताओं का। घर में प्रवेश करके घर के स्वामी से परिचय होता है, और घर के स्वामी को समझकर घर के सामान का प्रयोजन समझ में आ जाता है।

इसी हर्ष का वर्णन उपस्थान के तीसरे मन्त्र में किया गया है-

‘चित्रं देवानामुदगादनीकम्।’

….

जैसे अँधेरे के पश्चात् यकायक सूर्य चमकता है, इसी प्रकार उपासक के हृदय में परमात्मारूपी सूर्य का प्रकाश आविर्भूत हो जाता है। सूर्य करोड़ों मील दूर है, परन्तु ईश्वर तो हमारे हृदय के भीतर उपस्थित है। सूर्य को आप रात में नहीं देख सकते, परन्तु ईश्वर के प्रकाश के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं। उसका प्रकाश हर समय आपके हृदय को प्रकाशित करता है।

ईश्वर का विचार मनुष्य के हृदय में एक अद्भुत लहर उत्पन्न कर देता है। उसका अनुमान कैसे लगाया जाय?

प्रायः लोग कहा करते हैं कि ईश्वर एक कल्पित वस्तु है। लोगों ने कल्पना बना रखी है कि ईश्वर है। ईश्वर के अस्तित्व को न हम देख सकते हैं, न उसके होने का हमारे पास कोई प्रमाण है। ईश्वर का अस्तित्व भी मनगढ़न्त है और उसके गुण भी हमने अपने मन में बिना किसी आधार के कल्पित कर लिये हैं। परन्तु, ऐसे लोग भूल जाते हैं कि अन्य गुणों की कल्पना तो सम्भव है, अद्भुतता या आश्चर्यजनकत्व एक ऐसा गुण है, जिसकी कल्पना कभी नहीं की जा सकती। जो कल्पित है वह आश्चर्यजनक कैसी? कल्पित भी हो और विचित्र भी हो, ये परस्पर विरुद्ध बातें हैं, जिस वस्तु की आपने कल्पना की, वह आपकी कल्पना-शक्ति से सीमित हो गई। वह आश्चर्यजनक नहीं रही। आश्चर्य वही है, जो आपकी समझ से अतीत है। जिस वस्तु का ज्ञान आपकी बुद्धि के भीतर है, वह विचित्र नहीं। विचित्र वस्तु वह है, जिसका आपको ज्ञान तो है, परन्तु, वह वस्तु आपके ज्ञान की सीमा से बहुत विस्तृत है। जिस वस्तु का कुछ भी ज्ञान नहीं वह भी विचित्र नहीं और जिसका पूर्ण ज्ञान है वह भी विचित्र नहीं।

अब एक प्रश्न उठाइये। क्या कोई पुरुष ऐसा है जिसको सृष्टि की विशालता को देखकर आश्चर्य न होता हो? यदि हम ताज-महल को देखकर चकित रह सकते हैं तो करोड़ों ताजमहलों से भी अधिक आश्चर्यजनक सूर्य को देखकर क्यों चकित नहीं हो सकते? इसीलिए तो वेद-मन्त्र कहता है कि जैसे प्रातः काल सूर्य को देखकर हम चकित हो जाते हैं, इसी प्रकार ईश्वररूपी सूर्य की चमक हमको आश्चर्य में डालने से नहीं रोक सकती।

‘चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।’

अर्थात् ईश्वर ‘मित्र’, ‘वरुण’ तथा ‘अग्नि’ उपाधिधारी विद्वानों की आँख है।

….

‘आप्रा द्यावा पृथिवी अन्तरिक्षम्।’

‘अर्थात् वह पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष लोक को प्रकाश से भर देता है। जब सूर्य निकलता है तो समस्त जगत् प्रकाश से भर जाता है। इसी प्रकार जब आत्मा में ईश्वर की अनुभूति होती है तो हृदय की गाँठ खुल जाती है। सब संशय क्षीण हो जाते हैं।

‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुश्च।’

अर्थात् चर और अचर समस्त जगत् का वह आत्मा है। कोई ऐसी वस्तु नहीं जो ईश्वर के बिना स्थित रह सके। जैसे भौतिक शरीर की समस्त गतियाँ हमारी आत्मा से संचालित हैं, इसी प्रकार समस्त सृष्टि में जो कुछ चलायमान या ठहरा हुआ दृष्टिगोचर होता है वह ईश्वर से संचालित है। मन्त्र के अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द आया है। उससे ज्ञात होता है कि ईश्वर न केवल आश्चर्यजनक है अपितु आनन्दप्रद भी है। ‘स्वाहा’ अर्थात् कैसी अच्छी बात बताई गई कि उपासक को ऐसे ईश्वर की अनुभूति हो गई।

उपस्थान का चौथा मन्त्र (तच्चक्षुर्देवहितं) बड़े महत्त्व का है। इसमें मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक जीवन का सम्बन्ध वर्णित है। जीवन क्या है? इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है? क्या संसार केवल बन्दी-गृह मात्र है जिसमें हम बन्दी की भाँति ठूँस दिये गए हैं? क्या संसार में केवल दुख है? क्या संसार केवल स्वप्न या कहानी मात्र है? तत्वतः कुछ नहीं? संसार के विद्वानों ने संसार के विषय में विचित्र सिद्धान्त गढ़ लिये हैं।

….

मन्त्र के पहले भाग में दो शब्द हैं जिन पर विशेष ध्यान देना है, एक है ‘चक्षु’ और दूसरा ‘शुक्र। परमात्मा को चक्षु या नेत्र कहने का तात्पर्य यही है कि वह लाखों वर्ष पहले की बात देख लेता है। जब उसने सृष्टि के आरम्भ में सूर्य को बनाया तभी उसने देख लिया कि सूर्य को इस प्रकार का बनाना चाहिए कि वह करोड़ों वर्ष चल सके। दूरदर्शिता आँख का गुण है और भविष्य-दर्षिता बुद्धि का। परन्तु, साथ ही आँख में दो शक्तियाँ हैं- दूर-दर्शिता भी और समीप-दर्शिता भी।

….

दूसरा शब्द है ‘शुक्र’। ‘शुक्र’ का अर्थ है ‘वीर्य’ या बीज। बीज में वृक्ष-निर्माण की शक्ति निहित रहती है। बरगद के बीज में बरगद का वृक्ष और कद्दू के बीज में कद्दू की बेल अव्यक्त रूप में विद्यमान है। इस बात को कुछ-कुछ तो किसान जानता है, परन्तु, यथार्थ रूप से तो ईश्वर ही जानता है। वेद-मन्त्र कहता है कि जिस प्रकार हर वृक्ष के बीज में ईश्वर ने वृक्ष बनने की शक्तियाँ दी हैं, इसी प्रकार हर मनुष्य के भीतर भी बीज-शक्ति दी है।

….

इसका तात्पर्य यह हुआ कि ईश्वर जब किसी प्राणी को बनाता है तो उसके भीतर पहले से ही कुछ बीज-शक्तियाँ रख देता है। इतना काम ईश्वर करता है। परन्तु चेतन जगत् में समस्त व्यापार ईश्वर की ओर से नहीं होता। जड़ जगत् में सब काम सृष्टि करती है। परन्तु, चेतन जगत् में बहुत-सा काम प्राणी को स्वयं करना पड़ता है।

….