कर्मफल से सम्बंधित विविध विचार

 

-किसी-किसी को यह शंका होती है कि हमने धन की कामना से, पुत्र की कामना से या अन्य किसी कामना से ईश्वर की आराधना की किन्तु हमारी कामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। अतः वह सब कामों का पूर्ण करने वाला है, यह कथन निरर्थक है।

इस प्रश्न का उत्तर लोक व्यवहार से ही मिल जायेगा। धन सम्पन्न व्यक्ति का पुत्र अच्छी तरह जानता है कि मेरे पिता का इतना  सामर्थ्य है कि वह धनादि से मेरी कामनाएँ पूर्ण करें। बस एक दिन पिता-पुत्र बाजार से जा रहे थे-रास्ते में चाट वाला दिखाई दिया, पुत्र ने चाट खाने की इच्छा प्रकट की। पिता खिलाने की  सामर्थ्य भी रखता है, किन्तु पिता बल पूर्वक मना कर देता है। कारण- पुत्र टायफायड के ज्वर से अभी ठीक हुआ है अभी उसकी कामना पूर्ण करना उसके लिए हानिकारक है। पुत्र अज्ञानतावश यह नहीं जानता तथा यह कहता है कि मेरा पिता मेरी कामना पूर्ण करने में असमर्थ है, वह ‘दयाहीन है’ आदि। पिता के प्रति उसके आक्षेप व्यर्थ और अज्ञानता के कारण हैं।

इसी प्रकार परमात्मा भी जानता है कि व्यक्ति की कौन सी कामना उसके हित की दृष्टि से पूर्ण करने योग्य है, कौन सी नहीं। वह सबको कर्मानुसार यथायोग्य फल देने वाला है।

अथर्ववेद का वचन है-

नकिल्विषमत्र -से-पक्वः पुनराविशति।।         

-अथर्ववेद १२//३//४८

यह मन्त्र कर्मफल सिद्धान्त के विषय में निम्न बोध देता है-

क- कर्मफल में कोई त्रुटि (दोष) नहीं होती है।

ख-कर्मफल में कोई सहारा (सिफारिश आदि) नहीं चलता है।

ग-मित्रों (स्नेही जनों) का आश्रय लेकर भी कर्मफल से बचाव नहीं होता है।

घ- कर्मफल का पात्र घट-बढ़ नहीं सकता है।

ङ- पकाने वाले को (कर्म करने वाले को) पकाया हुआ (जन्म जन्मान्तर का संचित किया हुआ) पदार्थ (फल) पुनः प्राप्त होता है।

                                       -अर्जुन देव स्नातक