शंका  :- आर्यसमाजी न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं, न सत्यनारायण की कथा करते हैं। भला जो पूजा न करता हो, वह आस्तिक कैसा? भला हवन कर लेना, यज्ञ कर लेना क्या कोई देव पूजा हुई?

समाधानः 

इसको समझने के लिए पहले जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं, वह क्यों करते हैं, इसे समझ लें तो उत्तम रहेगा।

जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है, परमेश्वर की पूजा है। हमारे एक अध्यापक साथी अंग्रेजी प्रवक्ता हैं, पढ़े लिखे हैं, एक दिन हमसे बोले-शास्त्री जी, आप प्रतिदिन यज्ञ करते हैं तो मैं भी प्रतिदिन बिना ईश्वर की पूजा किये कुछ खाता-पीता नहीं हूँ। मैंने कहा-यह आपका नियम है, वर्त्तमान समय को देखते हुए अच्छा नियम है।

एक दिन हमें उनके घर जाने का अवसर मिला। हम प्रातः 8 बजे उनके यहाँ पहुंचे, उनके साथ अन्य साथी के यहाँ ‘कथा’ में जाने का विचार बना था। देखा तो एक केटली में चाय थी, वे चाय पी रहे थे, बोले-दो तीन कप चाय पीने के बाद ही मैं शौचादि नित्य कर्म करता हूँ। मैंने कहा-जल्दी करो, वहाँ मित्र के यहाँ ‘कथा’ में समय पर पहुँचना है। बोले – बस 15 से 20 मिनट लगेगें, तब तक आप आज के समाचार पढ़ लीजिये। सचमुच वे तैयार होकर बीस मिनट में आ गये, बोले-बस अभी आया, बिना ‘पूजा’ किये बाहर नहीं निकलता हूँ, बस ज़रा पूजा कर आऊँ। हमने सोचा-अब इतनी देर से बैठे हैं तो और सही, जाना तो इनके साथ ही है । बस जी, आ गये बोले- शास्त्री जी, चलिये। मैंने आश्चर्य से पूछा-पूजा? बोले -कर आया। हमने पूछा-इतनी जल्दी, बोले-देर क्या लगती है? घर के बड़े से आले में विष्णु, कृष्ण, हनुमान व देवी के चित्र रखे हैं, बस धूप बत्ती जलाकर सब पर घुमा दी, मन में कल्याण करो, अपराध क्षमा करो कहा-बस पूजा हो गयी।

यह सब हमने इस भाव को दर्शाने के लिए लिखा कि जब एक पढ़ा लिखा एम.ए. पास व्यक्ति उक्त कार्य को पूजा समझता है तो सामान्य जन की तो बात ही क्या? आपने देखा होगा चलते-चलते मन्दिर दीखा तो सिर झुका दिया, हाथ जोड़ लिये सोचा-पूजा हो गयी। एक आदरणीय बहन ने अपना अनुभव बताया-एकान्त रास्ते में मेरा स्कूटर खराब हो गया। इतने में क्या देखती हूँ कि एक मोटर साईकिल पर एक युवक-युवती थे। पीछे बैठी युवती ने बड़ी जोर से एक ओर देखकर हाथ उठाकर -‘हाय हनु’ कहा। उनकी गाड़ी जाने पर बहन जी ने सोचा-उधर कोई है नहीं, फिर इसने ‘हाय’ कहकर किसको wish किया। अर्थात् सम्मान दिया। वे बोली- ‘ ‘ध्यान से देखने पर दिखाई दिया कि दूसरी ओर एक छोटी सी हनुमान की मूर्ति थी। उस हनुमान भक्त ने ‘हाय हनु’ कहकर उसकी भावनानुसार हनुमान की पूजा की।’ वर्त्तमान समय में इसे ही ‘हाय हनु’ वाली पूजा को देव पूजा समझा जाता है, यही उनकी दृष्टि में ईश्वर की पूजा है।

आईये, विचार करे कि पूजा का तात्पर्य क्या है? शास्त्रानुसार-‘पूजनं नाम सत्कारः’ अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा है। लोक व्यवहार में भी यही प्रचलित है। भूखा बालक जब भूख-भूख चिल्लाता है तो माँ कहती है दो मिनट में तेरी पेट पूजा करूँगी। यहाँ पूजा से तात्पर्य हाथ जोड़ना या पेट की आरती करना नहीं, अपितु यथोचित व्यवहार- भोजन खिलाना है। दुष्ट के लिए कहते हैं, पीठ पूजा कर दो। मनु ने लिखा है-

यत्र नार्यस्तु-से-भूषणाच्छादनाशनैः।    

      – मनु-स्मृति ३//५९

अर्थात् नारियों की सदैव भूषण, वस्त्र तथा भोजनादि से पूजा-सत्कार, सम्मान करना चाहिए। इस प्रकार पूजा का अर्थ यथोचित व्यवहार, सत्कार, सम्मान करना होता है।

पूजा क्यों– पूजा का अर्थ मात्र देवालयों में स्थित देव पूजा स्वीकार कर लिया जाये तो भी वह पूजा क्यों की जाती है? यह जानना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कामना से पूजा करता है। अपनी-अपनी इच्छा पूर्ति के लिए पूजा की जाती है। तात्पर्य यह है कि पूजा लाभ के लिए की जाती है, स्वर्ग-सुख प्राप्ति के लिए की जाती है।

संसार में सुख किस से प्राप्त होता है, यदि इसका चिन्तन करें तो अनेक वस्तुएँ सुखदायक है, यही कहा जायेगा। किन्तु सत्य पूछें तो सब से अधिक सुख, जिसके बिना जीवन, जीवन ही न रहे, वह प्राप्त होता है-हवा, पानी एवं अन्न से। क्या हम यह अनुभव नहीं करते है कि हवा के बिना जीवन तो क्या संसार भी अत्यल्प समय के लिए भी नहीं टिक सकता है। जल के बिना कुछ दिनों चल सकते हैं किन्तु अधिक दिनों तक नहीं। आप कल्पना करें कि अनेक देशों का राजा यदि प्यासा मरुस्थल में भटक रहा हो, प्यास से तड़प रहा हो, व्याकुल हो रहा हो, उस समय उससे एक गिलास पानी का मूल्य मांगे तो वह अपना सारा राज्य देने को तैयार होता है। निश्चय से प्यासे के लिये एक गिलास पानी के सामने सारा संसार ही तुच्छ हो जाता है, सारे संसार का वैभव व्यर्थ है। इसी प्रकार अन्न का महत्त्व भी जीवन में सर्वविदित है।

अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरुद्धारा, मस्जिद तथा चर्च में की जानेवाली तथाकथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जब कि वर्त्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विश्व ही चिन्तित है। तो इन तथाकथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है। फिर प्रश्न है-सच्ची देव पूजा क्या है?

देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है। निरुक्त (७//१५) में वर्णित -‘देवो दानाद् दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीति वा’ देव शब्द के स्पष्ट एवं शास्त्रीय अर्थ को छोड़कर जन सामान्य की दृष्टि से कहे तो-देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं। चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेश्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, किन्तु जड़ देवों की पूजा कैसे की जाये?

इस प्रश्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं? हमारा नित्य का अनुभव हमें यह बताता है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। इन तीनों की स्थिति द्युलोक, अन्तरिक्षलोक एवं पृथिवीलोक है। उक्त तीन लोक जीवन के लिए आवश्यक है। सृष्टि निर्माता परमेश्वर ने इन्हें शुद्ध, स्वस्थ एवं पवित्र निर्माण किया, किन्तु मानव ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो कल-कारखाने, रेल, कार आदि अनेक निर्माण किये हैं। इन निर्माणों से द्यु, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी दूषित होगी। हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी, विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इन सबके कारण हम हैं, मनुष्य हैं, हमारी मात्र भौतिक उन्नति है।

निश्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्ध न होगा। संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ’ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।

यज्ञ देवपूजा कैसे?

ऊपर हमने जड़ चेतन देव बताये। इनमें से चेतन देवों की पूजा यथोचित सत्कार या व्यवहार से सम्भव है तथा वे हमारी पूजा से, सम्मान से तृप्त होकर हमारा कल्याण करते हैं। प्रश्न तो जड़ देवों का है, इनकी पूजा कैसे हो? यह तो स्वीकार है कि इन जड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।

थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। हम अन्न जल से अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या अन्न को शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी। नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है, फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।

इस आधार पर जड़देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म करकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके? शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्

इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रुपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं। तभी-‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’(यजु 23/62) इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं।

मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-

        अग्नौ प्रास्ताहुतिः-से- प्रजाः।                     

       -मनु-स्मृति ३// ७६

अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता में वर्णित है-

        अन्नाद् भवन्ति-से-कर्मसमुद्भवः।              

        –गीता ३//१४

अर्थात् अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा। निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं। गीता में इस तथ्य को कितने स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया है-

        देवान्भावयतानेन -से-परमवाप्स्यथ।   

               –गीता ३//११

इस यज्ञ के द्वारा (अग्निहोत्र के द्वारा) तुम इन जड़ चेतन देवों को उत्तम बनाओ तब वे देव तुम्हारा कल्याण करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को स्वस्थ रखने से ही परम कल्याण की प्राप्ति होगी। यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त सभी पूजा पद्धतियों में वायु, जल, अन्न, वृक्षादि पर्यावरण के दोषों को दूर करने का सामर्थ्य नहीं है। जल-वायु शुद्ध होगा यज्ञ से, यथोचित व्यवहार से। अतः सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।

-अर्जुन देव स्नातक