अथाष्टमसमुल्लासारम्भः

विषय : जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय

हे मनुष्य! जिससे वह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्त्ता है, जो इस जगत् का स्वामी, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है, उसको तू जान और दूसरों को सृष्टिकर्त्ता मत मान।

-ऋग्वेद 10//129//7

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प्रश्न – यह जगत् परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है, वा अन्य से?

उत्तर – निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है।

प्रश्न – क्या प्रकृति परमेश्वर ने उत्पन्न नहीं की?

उत्तर – नहीं। वह अनादि है।

प्रश्न – अनादि किसको कहते और कितने पदार्थ अनादि हैं?

उत्तर – ईश्वर, जीव और जगत् का कारण, ये तीन ‘अनादि’ हैं?

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….जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोगता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोगता हुआ चारों और अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न-स्वरूप, तीनों ‘अनादि’ हैं।

-ऋग्वेद 1//164//20

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’ अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं, होता, कभी ये जन्म नहीं लेते, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और उसमें परमात्मा न फसता और न उसका भोग करता है।

-श्वेताश्वतर उपनिषद 4//5

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जैसे शरीर के अङ्ग जब तक शरीर के साथ रहते हैं, तब तक काम के और अलग होने से निकम्मे हो जाते हैं, वैसे ही प्रकरणस्थ वाक्य सार्थक और प्रकरण से अलग करने वा किसी अन्य के साथ जोड़ने से अनर्थक हो जाते हैं।

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प्रश्न – जगत् के कारण कितने होते हैं?

उत्तर – तीन। एक निमित्त, दूसरा उपादन, तीसरा साधारण। ‘निमित्त कारण’ उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्तर बना देवे। दूसरा ‘उपादन कारण’ उसको कहते हैं जिसके बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होके बने और बिगड़े भी। तीसरा ‘साधारण कारण’ उसको कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो।

निमित्त कारण दो हैं। एक- सब सृष्टि को कारण से बनाने, धारने और प्रलय करने तथा सबकी व्यवस्था रखनेवाला ‘मुख्य निमित्त कारण’ परमात्मा। दूसरा- परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्य्यान्तर बनानेवाला ‘साधारण निमित्त कारण’ जीव।

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….कहीं-कहीं जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है, जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं। परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है।

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इन तीन कारणों के बिना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती।

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जो तुम्हारे कहने के अनुसार जगत् का उपादान कारण ब्रह्म होवे तो वह परिणामी, अवस्थान्तरयुक्त विकारी हो जावे। और उपादानकारण के गुण-कर्म-स्वभाव कार्य में भी आते हैं-

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यह सब जगत् सृष्टि के पहिले प्रलय में अन्धकार से आवृत्त आच्छादित था और प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है। उस समय न किसी के जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त इन्द्रियों से जानने योग्य था, और न होगा, किन्तु वर्त्तमान में जाना जाता है और प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त जानने के योग्य होता और यथावत् उपलब्ध है।

-ऋग्वेद 10//129//3, मनु-स्मृति 1//5

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प्रश्न – जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है?

उत्तर – नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है?

प्रश्न – जो न बनाता तो आनन्द में बना रहता और जीवों को भी सुख-दुख प्राप्त न होता।

उत्तर – यह आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं, पुरुषार्थी की नहीं। और जीवों को प्रलय में क्या सुख व दुख है? जो सृष्टि के सुख-दुख की तुलना की जाय तो सुख कई गुना अधिक होता और बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में निकम्मे जैसे सुषुप्ति में पड़े रहते हैं, वैसे रहते हैं और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के लिये पाप-पुण्य कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्योंकर भोग सकते? जो कोई तुम से पूछे कि आँख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे कि देखना। तो जो ईश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है, उसका क्या प्रयोजन? बिना जगत् की उत्पत्ति करने के दूसरा कुछ भी न कह सकोगे। और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं कि जब जगत् को बनावे। उसका अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने ही से सफल हैं जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है, वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है।

प्रश्न – बीज पहले है वा वृ़क्ष?

उत्तर – बीज। क्योंकि बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द एकार्थवाचक हैं। कारण का नाम बीज होने से कार्य के प्रथम ही होता है।

प्रश्न – जब परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है तो वह कारण और जीव को भी उत्पन्न कर सकता है। जो नहीं कर सकता तो सर्वशक्तिमान् भी नहीं रह सकता?

उत्तर – सर्वशक्तिमान् शब्दार्थ पूर्व लिख आये हैं। परन्तु क्या सर्वशक्तिमान वह कहाता है कि जो असम्भव बात को भी कर सके? जो असम्भव बात अर्थात् जैसा कारण के बिना कार्य्य को कर सकता है तो बिना कारण दूसरे ईश्वर की उत्पत्ति कर और स्वयं मृत्यु को प्राप्त, जड़, दुखी, अन्यायकारी, अपवित्र और कुकर्मी आदि हो सकता है, वा नहीं? जो स्वाभाविक नियम, अर्थात् जैसा अग्नि उष्ण, जल शीतल और पृथिव्यादि सब जड़ों को विपरीत गुणवाले ईश्वर भी नहीं कर सकता। जैसे आप जड़ नहीं हो सकता, वैसे जड़ को चेतन भी नहीं कर सकता। और ईश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं इसलिये परिवर्तन नहीं कर सकता। इसलिये ‘सर्वशक्तिमान’ का अर्थ इतना ही है कि परमात्मा बिना किसी के सहाय के अपने सब कार्य पूर्ण कर सकता है।

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जिसका ‘अभाव’ अर्थात् जो वर्त्तमान नहीं है, उसका ‘भाव’ वर्त्तमान होना सर्वथा असम्भ है। जैसे कोई गपोड़ा हाँक दे कि ‘मैंने वन्ध्या के पुत्र और वन्ध्या की पुत्री का विवाह देखा, वे दोनों खपुष्प् की माला पहिरे हुए थे, मृगतृष्णिका के जल में स्नान करते और गन्धर्वनगर में रहते थे, वहां बद्दल के बिना वर्षा, पृथिवी के बिना सब अन्नों की उत्पत्ति आदि होती थी।’ वैसे ही कारण के बिना कार्य्य का होना असम्भव है।

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मूल का मूल अर्थात् कारण का कारण नहीं होता। इससे अकारण सब कार्य्यों का कारण होता है। क्योंकि किसी कार्य्य के आरम्भ समय के पूर्व तीनों कारण अवश्य होते हैं। जैसे कपड़े बनाने के पूर्व तन्तुवाय, रूई का सूत और नालिका आदि पूर्व वर्त्तमान होने से वस्त्र बनता है, वैसे जगत् की उत्पत्ति के पूर्व परमेश्वर, प्रकृति, काल और आकाश तथा जीवों के अनादि होने से इस जगत् की उत्पत्ति होती है। यदि इन में से एक भी न हो तो जगत् भी न हो।

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जो कर्म का फल ईश्वराधीन हो तो बिना कर्म किये ईश्वर फल क्यों नहीं देता? इसलिये जैसा कर्म मनुष्य करता है, वैसा ही फल ईश्वर देता है। इससे ईश्वर स्वतन्त्र पुरुष को कर्म का फल नहीं दे सकता। किन्तु जैसा कर्म जीव करता है, वैसा ही फल ईश्वर देता है।

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जो स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति होवे तो विनाश कभी न होवे। और जो विनाश भी स्वभाव से मानो, तो उत्पत्ति न होगी। और जो दोनों स्वभाव युगपत् द्रव्यों में मानोगे तो उत्पत्ति और विनाश की व्यवस्था कभी न हो सकेगी। और जो निमित्त के होने से उत्पत्ति और नाश मानोगे तो ‘निमित्त’ से [को] उत्पत्ति और विनाश होने वाले द्रव्यों से पृथक् मानना पड़ेगा। …जैसे हल्दी, चूना और नींबू का रस दूर-दूर देश से आकर आप [स्वयं] नहीं मिलते, किसी के मिलाने से मिलते हैं, उसमें भी यथायोग्य मिलाने से रोरी होती है, अधिक, न्यून वा अन्यथा करने से रोरी नहीं होती, वैसे ही प्रकृति परमाणुओं को ज्ञान और युक्ति से परमेश्वर के मिलाये बिना जड़ पदार्थ स्वयं कुछ भी कार्यसिद्धि के लिये विशेष पदार्थ नहीं बन सकते। इसलिये स्वभावादि से सृष्टि नहीं होती, किन्तु परमेश्वर की रचना से होती है।

प्रश्न – इस जगत् का कर्ता न था, न है और न होगा किन्तु अनादि काल से यह जैसा का वैसा बना है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई, न कभी विनाश होगा।

उत्तर – बिना कर्त्ता के कोई भी क्रिया वा क्रियाजन्य पदार्थ नहीं बन सकता। जिन पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग-विशेष से रचना दीखती है, वे अनादि कभी नहीं हो सकते और जो संयोग से बनता है, वह संयोग के पूर्व नहीं होता और वियोग के अन्त में नहीं रहता। जो तुम इसको न मानो तो कठिन से कठिन पाषाण, हीरा और फौलाद आदि तोड़ के, टुकड़े कर, गला वा भस्म कर देखो कि इनमें परमाणु पृथक्-पृथक् मिले हैं वा नहीं? जो मिले हैं तो वे समय पाकर अलग-अलग भी अवश्य होते हैं।

प्रश्न – अनादि ईश्वर कोई नहीं किन्तु जो योगाभ्यास से अणिमादि ऐश्वर्य को प्राप्त होकर सर्वज्ञादिगुणयुक्त केवल-ज्ञानी होता है, वही जीव ‘ईश्वर’ कहाता है।

उत्तर – जो अनादि ईश्वर जगत् का स्रष्टा न हो, तो साधनों से सिद्ध होने वाले जीवों का आधार जीवनरूप जगत्, शरीर और इन्द्रियों के गोलक कैसे बनते? इनके बिना जीव साधन ही न कर सकता। जब साधन न होते, तो सिद्ध कहां से होता? जीव चाहै जैसा साधन कर सिद्ध होवे, तो भी ‘ईश्वर’ के – जो कि स्वयं सनातन अनादि सिद्ध है, जिसमें अनन्त सिद्धि हैं, – उसके तुल्य कोई भी जीव नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का परम अवधि तक ज्ञान बढ़े, तो भी परिमित ज्ञान और सामर्थ्यवाला होता है। अनन्त ज्ञान और सामर्थ्यवाला कभी नहीं हो सकता। देखो! कोई भी योगी आज तक ईश्वरकृत सृष्टिक्रम को बदलनेहारा नहीं हुआ है, और न होगा। जैसा अनादि-सिद्ध परमेश्वर ने नेत्र से देखने और कानों से सुनने का निबन्ध किया है, इसको कोई भी योगी बदल नहीं सका है। जीव ‘ईश्वर’ कभी नहीं हो सकता।

प्रश्न – कल्प-कल्पान्तर में ईश्वर सृष्टि विलक्षण-विलक्षण बनाता है, अथवा एकसी जैसी कि अब है, वैसी पहले थी और आगे होगी, भेद नहीं करता?

उत्तर – परमेश्वर [ने] जैसे पूर्व-कल्प में सूर्य, चन्द्र, विद्युत, पृथिवी, अन्तरिक्ष, आदित्य बनाये थे, वैसे ही अब बनाये हैं और आगे भी वैसे ही बनावेगा।

-ऋग्वेद 10//190//3

परमेश्वर के काम बिना भूल-चूक के होने से सदा एक से ही हुआ करते हैं। जो अल्पज्ञ और जिसका ज्ञान वृद्धि-क्षय को प्राप्त होता है, उसी के काम में भूल-चूक होती है, ईश्वर के काम में नहीं।

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छः शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है-

मीमांसा में – ऐसा कोई भी कार्य्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय।

वैशेषिक में – समय लगे बिना, बने ही नहीं।

न्याय में – उपादानकारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता।

योग में – विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय, तो नहीं बन सकता।

सांख्य में – तत्वों का मेल न होने से, नहीं बन सकता।

और वेदान्त में – बनाने वाला न बनावे, तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके।

इसलिये सृष्टि छः कारणों से बनती है। उन छः कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। इसलिये उनमें विरोध कुछ भी नहीं।

जैसे पांच अन्धे और एक मन्ददृष्टि को किसी ने हाथी का एक-एक देश बतलाया। उनसे पूछा कि हाथी कैसा है? उनमें से एक ने कहा- खम्भे, दूसरे ने कहा- सूप, तीसरे ने कहा- मूसल, चौथे ने कहा- झाडू, पांचवें ने कहा- चौतरा और छठे ने कहा- काला-काला चार खम्भों के ऊपर कुछ भैंसा-सा आकारवाला है। इसी प्रकार आज कल के अनार्ष, नवीन ग्रन्थों के पढ़ने और प्राकृत भाषावालों ने ऋषिप्रणीत ग्रन्थ न पढ़कर नवीन क्षुद्रबुद्धिकल्पित संस्कृत और भाषाओं के ग्रन्थ पढ़ कर, एक दूसरे की निन्दा में तत्पर होके झूठा झगड़ा मचाया है। इनका कथन बुद्धिमानों के वा अन्य के मानने योग्य नहीं। क्योंकि जो अन्धों के पीछे अन्धे चलें तो दुख क्यों न पावें? वैसे ही आज-कल के अल्प-विद्यायुक्त, स्वार्थी, इन्द्रियाराम पुरुषों की लीला संसार का नाश करनेवाली है।

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….जो कारण का कारण, कार्य्य का कार्य्य, कर्त्ता का कर्त्ता, साधन का साधन और साध्य का साध्य कहता है, वह देखता अन्धा, सुनता बहिरा और जानता हुआ मूढ़ है। क्या आँख की आँख, दीपक का दीपक और सूर्य का सूर्य कभी हो सकता है? जो जिससे उत्पन्न होता है वह ‘कारण’, और जो उत्पन्न होता है- वह ‘कार्य्य’, और जो कारण को कार्यरूप बनानेहारा है, वह ‘कर्त्ता’ कहाता है।

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देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़, नाडियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम नखादि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थानविशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल-स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके अतिरिक्त नाना प्रकार के रत्न धातु से जड़ित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्मरचना, असंख्य रक्त, हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल निर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस, सुगन्धादियुक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि-रचन, अनेकानेक क्रोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता। जब कोई किसी पदार्थ को देखता है, तो दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। एक जैसा वह पदार्थ है और दूसरा उसमें रचना देखकर बनानेवाले का ज्ञान है। जैसे किसी पुरुष ने सुन्दर आभूषण जंगल में पाया, देखा तो विदित हुआ कि यह सुवर्ण का है और किसी बुद्धिमान् कारीगर ने बनाया है। इसी प्रकार यह नाना प्रकार सृष्टि में विविध रचना, बनानेवाले परमेश्वर को सिद्ध करती है।

प्रश्न – मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई, वा पृथिवी आदि की?

उत्तर – पृथिवी आदि की। क्योंकि पृथिव्यादि के बिना मनुष्य की स्थिति और पालन नहीं हो सकता।

प्रश्न – सृष्टि की आदि में एक वा अनेक मनुष्य उत्पन्न किये थे, वा क्या?

उत्तर – अनेक। क्योंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे, उनका जन्म सृष्टि की आदि में ईश्वर देता है।

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इस प्रमाण से यही निश्चय है कि आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न हुए। और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक मां-बाप के सन्तान है।

प्रश्न – आदि सृष्टि में मनुष्य आदि की बाल्य, युवा वा वृद्धावस्था में सृष्टि हुई थी, अथवा तीनों में?  

उत्तर – युवावस्था में। क्योंकि जो बालक उत्पन्न करता, तो उनके पालन के लिये दूसरे मनुष्य आवश्यक होते। जो वृद्धावस्था में बनाता, तो मैथुनी-सृष्टि न होती। इसलिये युवावस्था में सृष्टि की  है।

प्रश्न – कभी सृष्टि का प्रारम्भ है, वा नहीं?

उत्तर – नहीं। जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसी प्रकार सृष्टि के पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के आगे सृष्टि अनादिकाल से चक्र चला आता है। इसकी आदि वा अन्त नहीं।….

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प्रश्न – ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर जन्म, किन्हीं को हिरण, गाय आदि पशु, किन्हीं को वृक्षादि कृमि कीट पतंगादि जन्म दिये हैं, इससे परमात्मा में पक्षपात आता है।

उत्तर – पक्षपात नहीं आता, क्योंकि उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये हुए कर्मानुसार व्यवस्था करने से। जो कर्म के बिना जन्म देता तो पक्षपात आता।

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यह देश देवनिर्मित आर्यावर्त्त इसलिये कहाता है कि ‘देव’ नाम विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से ‘आर्यावर्त्त’ कहाया है।

-मनु-स्मृति 2//22

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….किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य्य लोग ईरान से आये और यहां के जङ्गलियों को लड़ कर, जय पाके, निकाल के, इस देश के राजा हुए, पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है?

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….कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

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….जो ‘बाकी’ रहता है, उसको ‘शेष’ कहते हैं। सो किसी कवि ने पृथिवी ‘शेष के आधार है’ ऐसा कहा- दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझकर सर्प्प की मिथ्या कल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक् रहता है, इसी से उसको ‘शेष’ कहते हैं और उसी के आधार पृथिवी है।

…‘उक्षा’ वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य्य का नाम है। उसने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्य्यादि का धारण करनेवाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है।

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….कोई कहे कि ये सब लोक परस्पर आकर्षण से धारण होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उनको यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है, वा सान्त? जो अनन्त कहैं तो आकारवाला वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकता और जो सान्त कहैं तो उनके पर-भाग ‘सीमा’ अर्थात् जिसके परे कोई भी दूसरा लोक नहीं हैं, वहां किसके आकर्षण से धारण होगा?….

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 ‘सविता’ अर्थात् सूर्य, वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान, सब प्राणि-अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्त्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ, सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है, किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य है।

-यजुर्वेद 33//43

जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है, वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं, क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता जाता है, उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है, उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, संध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं, वे देशदेशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते है।…

-अथर्ववेद 14//1//1

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प्रश्न – जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है, उन्हीं वेदों का उन लोकों में भी प्रकाश है, वा नहीं?

उत्तर – उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था, नीति सब देशों में समान होती है, उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक-सी है।

प्रश्न – जब ये जीव और प्रकृतिस्थ तत्व अनादि और ईश्वर के बनाये नहीं हैं, तो ईश्वर का अधिकार भी इन पर न होना चाहिये, क्योंकि सब स्वतन्त्र हुए?

उत्तर – जैसा राजा और प्रजा समकाल में होते हैं और राजा के आधीन प्रजा होती है, वैसे ही परमेश्वर के आधीन जीव और जड़ पदार्थ हैं। जब परमेश्वर सब सृष्टि का बनाने, जीवों के कर्मफलों के देने, सबका यथावत् रक्षक और अनन्त सामर्थ्य वाला है, तो अल्प सामर्थ्य [जीव] भी और जड़ पदार्थ उसके आधीन क्यों न हो? इसलिये जीव कर्म करने में स्वतन्त्र, परन्तु कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र हैं, वैसे ही सर्वशक्तिमान् सृष्टि, संहार और पालन सब विश्व का कर रहा है।